मेरी कोरोना डायरी (दो)

मेरी कोरोना डायरी (दो)

डायरी के पन्ने

ग्यारहवाँ दिन (30 जुलाई, 2020)

सुबह मेरा नाश्ता बहुत सिंपल होता है–ओट और दूध या चिवड़ा और दही आदि। पर जबसे कोविड हुआ है मुझे क्रिस्प ब्रेड टोस्ट पसंद आ रहे थे।

पामेला ने एक कप चाय और एक टोस्ट सीढ़ियों पर रख दिया। मैं धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतर रही थी कि एचओसी और उसकी पत्नी को घर में घुसते देखा। ‘हाय! मेरा सुबह बर्बाद हो गया’–मैंने मायूसी से सोचा।

वे दोनों ढेर सारा खाना–पूड़ी, काले चने और खीर लाए थे। अभी तो मुझे ये सब खाने की मनाही थी। पर एचओसी एकदम ढीठ प्राणी था। उसने घिघियाना शुरू किया। मैंने अभी नाश्ता भी न किया था–कमजोरी से फटीग और चक्कर आ रहे थे और ये मुझे छोड़ने के मूड में न था।

‘मैडम, मैं समझ सकता हूँ आपकी नाराज़गी को। आपका गुस्सा भी जायज है। मैंने श्याम सिंह को पूछ लिया था तभी मैंने इन लोगों को भेजा था।’

‘पर ऐक्टिव कोविड पीरियड में घर क्यों सैनिटाइज करवाना था जब मरीज घर के भीतर ही थे।’

‘मैं आपकी बात से सहमत हूँ, मुझसे गलती हो गई, माफ कीजिए।’

‘माफ तो कर ही दिया इसलिए सिर्फ एचओसी पद से हटाया, वापस भारत भेजने की अनुशंसा नहीं की।’ मैंने सोचा पर कहा नहीं। प्रत्यक्षतः बस इतना कहा कि ‘आपको मैंने माफ किया।’

‘अब इस बात को जाने दिया जाय मैम।’

‘हाँ अब इस टॉपिक को यहीं खत्म करते हैं। वैसे भी अब आपका ट्रांसफर फ्रेंकफर्ट हो चुका है–आप जाने की तैयारियाँ कीजिए, अपने सारे कागजात और रिटायरमेंट के डॉक्यूमेंट को सही सलामत करवा लीजिए।’

‘जी वही कर रहा हूँ, पर मैडम आपसे एक विनती है। मैं दो साल में रिटायर होने वाला हूँ। कुछ महीनों में यहाँ से ट्रांसफर भी हो रहा हूँ। कृपया मुझे दुबारा एचओसी बहाल कर दीजिए। मेरे करियर पर दाग न लगने दीजिए। मैं अब आपके कहे अनुसार काम करूँगा।’

‘पर मैंने आपको सिर्फ एचओसी से हटाया है बाकी टुरिज्म और कोऑर्डिनेशन का कार्य-भार तो अभी भी आपके पास ही है।’…

‘हाँ, पर मेरी बड़ी बेइज्जती होगी। मेरे बच्चे (फफककर) मुझे कितना हीन समझेंगे।’

अब तक उसकी पत्नी चुप थीं। अब वे भी रोने लगीं। मास्क हटाकर कोरोना के एक मरीज के सामने रोता हुआ आदमी और औरत कितने अजीब और बेबस लग रहे थे! सबसे बेबस तो मैंने महसूस किया। उन्हें टालने के लिए कह दिया। ‘ठीक है देखती हूँ–अगले सप्ताह ऑफिस में मिलते हैं।’

वे उम्मीद से लबालब होकर चले गए। यहाँ उसकी वाइफ ही असली जीवन संगिनी होती हैं। चाबी भरकर उन्हें बाकायदा प्रशिक्षित किया जाता कि कब मुस्कुराना है, कब उदास होना है और कब रोने लगना है–मैंने उस क्षण भी कौतुक से सोचा। उनके जाने के बाद उनका लाया सारा खाना मैंने मेड और माली को दे दिया। मेरा मूड नहीं था खाने का। मुझे कैसी तो लग रही थी–स्वार्थपरता और चमचागिरी की। वैसे भी उसके घर का खाना फीका और बेस्वाद होता है।

उनके यहाँ के खीर को हम दूध-भात कहते हैं–गुप्ता इन कंजूसों की रानी है–कुकर में खीर पकाकर ऊपर से दूध डाल देती है। चीनी भी डालने से परहेज करती है–डायबिटीज के नाम पर।

उस दिन गुप्ता जी कह रहे थे कि घर में पार्टी करने पर बिजली-पानी भी तो खर्च होता है न मैडम! सरकार हमें बिजली-पानी कहाँ मुफ्त देती है।

‘अरे कामचोर दीमक’–मैं मन ही मन बड़बड़ाई थी–‘तुम भारत सरकार पर बोझ हो, बच्चों को अमेरिकन स्कूल की फीस, बढ़िया बंगला, सीडी प्लेट की गाड़ी और लाखों की सैलरी के लायक हो तुम?–दसवीं पास करके आ गए होंगे–और सरकार की वेलफेयर नीति का सर्वाधिक लाभ उठाते हुए पैंतीस साल में करीब पचीस वर्ष तो तुमने विदेश में बिताए हैं–उस पर भी भारत सरकार से मुफ्त बिजली और पानी चाहिए!’ कोरोना के चलते मैं थोड़ी चिड़चिड़ी भी हो गई थी। ऊपर से गुप्ता जी ने आकर मूड खराब कर दिया। मैंने सारे मेडिसिन के डोज लिए और दिनभर कृत्रिम नींद सोती रही।

बारहवाँ दिन (31 जुलाई, 2020)

जब आप किसी विशेष रोग (मेरे केस में कोरोना) से ग्रसित हो जाते हैं तो सबसे पहले येन-केन-प्रकारेण उससे मुक्त होने का प्रयास करते हैं।

आप दवाइयाँ लेते हैं, एंटीबायोटिक लेते हैं, हॉट सूप पीते हैं, स्टीम लेते हैं, काढ़ा पीते हैं, काली मिर्च और सौंठ की फँकी खाते हैं, साइड लाइन में होमियोपैथिक, आयुर्वेदिक व अन्य वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति–सब कुछ ट्राई करते हैं। मैंने भी वही सब किया।

पर मुझे एकदम ताकत का पता नहीं चलता था। जैसे डिलीवरी के बाद औरतों को ढीला-ढाला और बिखरा-बिखरा सा लगता है–मुझे भी वैसा ही लग रहा है। पर बच्चे के जन्म के बाद जो पैंपरिंग होती है, वह कोरोना से रिकवरी के दौरान कहाँ संभव है! सो, एक ही रास्ता है कि खुद ही खुद की पैंपरिंग कर लो!

कोरोना के तीसरे दिन खाने का टेस्ट चला गया तो चौथे दिन घ्राणशक्ति चली गई। ऐन कुछ भी खाओ–नमकीन, मीठा, खट्टा या तीखा–कोई फर्क नहीं पड़ता। भूख मर गई थी और मुँह हमेशा सूखा रहता था–लगता था कि अब कभी टेस्ट वापस नहीं आएगा और मुँह सूखना हजार लीटर पानी पीने से भी ठीक नहीं होगा। मैं तब अपनी दादी के दिए हुए नुस्खे अपनाती।

बचपन में जब मुझे मलेरिया होता था तो उसी तरह मुँह का स्वाद बिगड़ जाता था। तब दादी नींबू काटकर उसे चूल्हे में कोयले की आँच पर काली मिर्च और नमक देकर फदका देती और मुझे गरम-गरम नींबू चाटने को देती।

तीन चार दिनों में ही स्वाद वापस आ जाता था।

अब भी वही कर रही हूँ। लगता है–मुँह का स्वाद वापस आ रहा है–वरना देहाती स्टाइल काली मिर्च वाला चिकन का झोर खाने का क्यों मन करता!

सो आज कोरोना के बारहवें दिन–मैंने नई दुल्हन की तरह डगमगाते हुए दुबारा किचन में प्रवेश किया और काली मिर्च एवं कश्मीरी मसाले वाला चिकन करी बनाया। मेरा एक भुक्त-भोगी के तौर पर मानना है कि कोरोना से रिकवरी में अपने हॉबी या शौक को न मरने दें, क्योंकि आपकी हॉबी ही आपको जिंदा रखती है–आपके लिए संजीवनी का काम करती है–जबकि सारी दवाइयाँ आपके मुँह को कड़वा बनाती है–उस वक्त सुस्वादु भोजन को पकाने का मन करना–उसे पकाना और अपने बच्चों को खिलाना और खाना कोरोना से रिकवरी का मेरा हिस्सा है।

तेरहवाँ दिन (1 अगस्त, 2020)

आज डॉक्टर को दुबारा सैंपल दिया ताकि कोरोना रिकवरी रिपोर्ट आ जाय। वैसे डॉक्टर पहचान का था और वह मेरी सक्रियता देखकर बारहवें दिन ही ऑफिस ज्वाइन करने के लिए मान गया था। पर अपने सहकर्मियों के डर को देखते हुए मैंने–‘कोरोनाफ्री’–कन्फर्म करवाना ही बेहतर समझा। मैं डॉक्टर के क्लिनिक में गई सैंपल दिया और आ गई।

एक स्थानीय सहेली–रीता जी ने चिकन व नान भेजा था–लंच के लिए–उसे खाने के लिए मन ललच रहा था।

आज भारत के वाणी प्रकाशन की तरफ से मेरे कविता-संग्रह ‘प्रेम ही विभिन्न अंग’ पर एक ऑनलाइन डिस्कॉर्स भी रखा था। कमजोरी थी पर मैंने वो सफलतापूर्वक निभाया। काफी लोग फेसबुक पर मुझसे जुड़े और मेरे जीवन और किताब से जुड़े प्रश्न पूछे। बेहद अच्छा लगा।

जब इसे निबटाकर मैं खाने बैठी तो खाना एकदम फीका लग रहा था।

‘क्या हुआ–कल तो चिकनकरी में मुझे टेस्ट आ रहा था, अब आज क्या हुआ?’ मैं ऊपर अपने कमरे में और मेड नीचे किचन में। बड़ी मुश्किल से आवाज लगाकर उसे बुलाया। चिकन टेस्ट करने दिया। पामेला ने बताया कि इसमें तो साल्ट ही नहीं है! हे भगवान! मैं कितना डर गई थी! ऊपर से नमक और नींबू छिड़क कर मैंने लंच खाया। मुझे संजीव कुमार की उस पिक्चर की याद आई जिसमें वह खाली झुनझुना बजा रहा है–जिस पर बच्चा लोक प्रतिक्रिया नहीं दे रहा। जब डॉक्टर आता है तब भेद खुलता है कि बच्चे के कान में कोई खराबी नहीं है बल्कि खिलौना ही भीतर से खाली है।

पामेला ने मेरे लिए बहुत किया और भगवान की कृपा रही कि उसे कोविड नहीं हुआ वर्ना–मेरी हालात के बारे में मैं कल्पना भी नहीं कर सकती हूँ।

बच्चों का क्लास ऑनलाइन चल रहा था। मुझे तो शक्ति नहीं थी। पामेला ही बच्चों को उठाकर कंप्यूटर पर बिठाती थी। आदि को सँभालती थी। अपनी सुरक्षा के लिए बस उसने एक मास्क पहन रखा था–जो बस मन बहलाने के लिए अच्छे ख्याल की तरह था। मेरे लिए स्टीम का पानी तैयार करना, मेरा पथ्य बनाकर सीढ़ियों पर रखना, बाहर से ग्रोसरी लाना–कितना काम करती थी पामेला! उसने मुझे ऋणी बना लिया।

चौदहवाँ दिन (2 अगस्त, 2020 )

आज रविवार था। मुझे डॉक्टर के रिजल्ट वाले मेल का इंतजार था। करीब बारह बजे मेल आया। मैं कोरोना-फ्री घोषित हो चुकी थी। ऐसा लगा कि चीख-चीखकर दुनिया को बता दूँ। डॉक्टर ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि

‘इनके बॉडी में एंटीबॉडी डेवलप हो चुके हैं और ये अब कोविड इंफेक्शन रेजिस्टेंट हैं। ये न तो कोविड फैला सकती हैं और न ही उन्हें किसी से कोविड हो सकता है।’ तो क्या अब मैं बिना मास्क के घूम सकती हूँ? डॉक्टर ने यह स्पष्ट नहीं किया था। पंद्रहवें दिन मुझे ऑफिस जाना था। दो सप्ताह क्वॉरंटीन और आइसोलेशन में रहने के बाद ऑफिस जाना बेहद भला लग रहा था। करीब ग्यारह बजे मैं ऑफिस पहुँची। सहकर्मियों को पहले ही पता था सो सब लोग आ गए थे। मैंने तत्काल एक मीटिंग बुला ली।

वंदे भारत फ्लाइट्स अब बंद हो चुकी थी। अब भारत सरकार प्राइवेट चार्टर फ्लाइट्स भी अप्रूव कर रही थी। दो चार्टर जाने वाले थे। उनके पैसेंजर लिस्ट को हमें ही बनाकर लोकल गवर्नमेंट से अप्रूव करवाना था।

बहुत काम पेंडिंग हो चुका था। सबलोग काम पर लग गए।

तभी बलबीर (नया एचओसी) कमरे में आया और इधर-उधर देखकर धीरे से मुझे समझाने लगा–‘मैडम, अब तो बस तीन महीने की बात है, क्यों आप पंगा लेती हैं उससे। गुप्ता तो सदा से ही पंगा लेने के लिए बदनाम है। वह सबके पेपर चुपके से फोटो कॉपी करवाकर रख लेता है और बाद में अज्ञात शिकायत करके तंग करता है।

आप तो इतने दिन उसके साथ निकाल चुकी हैं, प्लीज थोड़े दिन और निकाल दीजिए। दूसरी बात कि मैं आपका पर्सनल सेक्रेटेरी हूँ, और अगर मैं ही एचओसी बनकर फाइनेंस के मामले देखूँगा तो ऑडिट अब्जेक्शन हो सकता है। आपने अभी उसे जोल्ट (झटका) दिया है तो कुछ दिन तक तो कहना मानेगा ही।’

‘पर मैंने अपना निर्णय हाई कमिशनर सर को भी बता दिया है। वे भी गुप्ता के हटने से संतुष्ट थे।’

‘आप सोच समझकर निर्णय लीजिए। अभी तो गजट में नहीं निकला है–तो सुविधा होगी।’

‘ठीक है, सोचती हूँ।’ मैंने अनमनेपन से कहा।

थोड़ी देर में तारा आई तब उसने बताया कि सैनी और गुप्ता–दोनों आपस में मिले हुए हैं। एक दूसरे से बात करके ही एक-एक कर आपके पास आ रहे थे। मैडम क्यों अपना खून जलाती हैं–ये सुधरने वाला अधिकारी नहीं है–अब तो रिटायरमेंट आ रहा है–अब क्या सुधरेगा?–बस पेंशन वगैरह की दिक्कत न हो इसलिए घिघिया रहा है। आप छोड़ दीजिए। कहाँ तक आप सिस्टम को सुधारिएगा!

और मैंने छोड़ दिया। नया आदेश रद्द हुआ और पुराना आदेश बहाल हुआ। कोरोना ने मुझे अधिक सहनशील और सामंजस्यपूर्ण बना दिया था। इसके बाद मैं अपने नियमित जीवन की ओर प्रवृत हुई। कोरोना पश्चात–जीवन पर लिखने के लिए वैसे तो काफी कुछ है। पर वह तो सामान्य जीवन का ही अंग है। छोटे-मोटे संघर्ष, सम्मान-अपमान, षड्यंत्र, विजय-पराजय, खुशी की खबरें, कोविड से करीबी और दूर के रिश्तेदारों की मौत–कभी कोई अनहोनी, कभी कोई जीत–मीरैकल–चमत्कार–मजदूरों का भारत में विस्थापन–पलायन–ये सब कुछ विचलित करता है। कभी-कभी यह बेचैनी ही लिखने को प्रेरित करती है–कुछ और कोरोना-योद्धाओं की कहानी

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तारा लंदन की पोस्टिंग करके यहाँ आई है–मुझसे बहुत पटती है क्योंकि वह भी खुलेआम खुद पर ही खिल-खिलाकर हँस सकती है। उसे यहाँ पर कॉमर्स और मीडिया का काम देखना पड़ता है। वह मेहनती है और खूब मन लगाकर काम करती है। हम दोनों को कोरोना के लॉकडाउन के दौरान भी काम करना पड़ता था। तारा अतिरिक्त सावधानी बरतती। कभी छींक भी आती तो सतर्क हो जाती। हनुमान चालीसा पाठ करने लगती। क्योंकि, तारा को पहले कैंसर हो चुका था। तीन साल की कठिन साधना और दवाइयों और सर्जरी के बाद वह नॉर्मल और निरोग हो पायी है। अभी भी उसे धकधक लगा रहता है कि–फिर से कोई समस्या खड़ी न हो जाय।

दक्षिण अफ्रीका में कोरोना की दहशत चारों तरफ फैली हुई थी। हमारा ऑफिस भी पूरी तरह नहीं खुला था क्योंकि स्थानीय प्रशासन ने स्केलटन (न्यूनतम) स्टाफ से ऑफिस चलाने के निर्देश दिए थे। हम सब थोड़ी देर के लिए ऑफिस जाते थे और फिर अपना काम करके वापिस आ जाते थे। लोकल स्टाफ को कभी-कभी बुलाया जाता था। तारा के साथ काम करने वाली दो लड़कियाँ–के शिनी और जेनेलिया ऑल्टरनेट डे आती थी। उस हफ्ते जेनेलिया ऑफिस आ रही थी।

मेरे ऑफिस पहुँचने से पहले तारा किसी कंपनी में ऑफिशियल काम से गई थी। जब तारा वापस आई तो जेनेलिया का गला खराब था और वह बुरी तरह खाँस रही थी। तारा ने उससे कहा कि वह घर चली जाए और अगले दिन अपना कोरोना का टेस्ट करा ले। अगले दिन उसे फोन करके पूछा गया कि उसने अपना कोरोना टेस्ट कराया या नहीं। जेनेलिया ने कहा कि टेस्ट बहुत महँगा है और वह इतने पैसे नहीं खर्च कर सकती। उसके बाद बात आई गई हो गई। पाँच दिन बाद सुबह आठ बजे उसका फोन आया। रोते हुए उसने तारा को बताया कि उसे कोरोना हो गया है। तारा ने उसे समझाया कि इसमें रोने की कोई बात नहीं है, उसको स्ट्रॉग बनना है और अपने बेटे को ध्यान से रखना है।

भीतर-ही-भीतर, तारा खुद बहुत घबरा गई थी। उसने तुरंत अपने सभी साथियों को बताया। जब हम वापस पहुँचे हम तनाव में आ गए थे। सब लेबोरेटरीज को और डॉक्टर को फोन करने लगे ताकि वो ऑफिस में आकर हम सब का टेस्ट कर सके। परंतु उस दिन कुछ नहीं हो पाया। अगले दिन मैं ऑफिस नहीं गई। मुझे फोन आया कि मिसेस लिली मिश्रा को भी बुखार आया है और उन्होंने अपना टेस्ट कराया है। मैंने तारा से कहा तुम भी टेस्ट करा लो।

तारा अगले दिन सुबह-सुबह अपना टेस्ट कराने गई। थोड़ी ही देर में शाम को पता चला कि मिसेस लिली मिश्रा को कोविड हुआ है–और तारा बेतरह घबरा गई। उसने लिली को फोन किया और थोड़ी देर बात की। वह हनुमानजी से निगेटिव रिपोर्ट आने के लिए प्रार्थना करने लगी। पर उससे क्या! थोड़ी देर में ही अपने को उसने यथासंभव संयत किया। अगले दिन सुबह उठकर सबके लिए नाश्ते में आलू के पराठे बनाए। उसी वक्त, उसे थोड़ी थकान लगने लगी और कमर में दर्द होने लगा। पर तब भी उसने पति और अम्मा के लिए पराठे बनाए। सब कुछ कर के वह अपने कमरे में आ गई और बिस्तर पर निढाल पड़ गई। कुछ देर बाद उसके पति जब कमरे में उसे खोजते आए, तब उसने भर-भरायी आवाज में कहा कि वह लंच नहीं बना पाएगी। पति देव बेहद डर गए और दोनों प्रार्थना करने लगे कि यह मामूली आम कमर दर्द ही हो–कोविड के नजदीक आते आहट को वे अनसुनी कर रहे थे।

यहाँ हम सबने एक लेडीज ग्रुप बना रखा है। उसने तुरंत ऑफिस के लेडीज ग्रुप में अपडेट किया और लिली मिश्रा को भी फोन किया। घबराहट में उसे समझ में नहीं आ रहा था क्या करे! और तभी डॉक्टर का मैसेज आया कि कोविड हो या न हो–विटामिन सी और जिंक सप्लीमेंट लेनी ही लेनी है। उससे इम्यून सिस्टम स्ट्रांग होगा।

शाम को उस वक्त कोई साधन नहीं था कि दवाइयाँ मँगाई जा सके। तारा घबराई–बहुत हड़बड़ायी–पर फिर उसने सोचा कि ऐसे घबराने से क्या होगा जो होना है वो तो होना ही है ज्यादा से ज्यादा मर जाएँगे। उसने गहरी साँस लेकर अपने आपको समझाया। क्योंकि उसे आइसोलेट होना था, उसने अपना कमरा बंद कर लिया और सारा खाना उसे कमरे के बाहर पहुँचाया गया।

तारा बड़ी डरपोक है। उसे अकेले सोने की आदत नहीं। रोशनी में भी अकेले कमरे में उसे डर लगता है और रात को नींद नहीं आती। कमरा बंद कर के उसने टीवी चला लिया। जब सब सो गए तब भी वह पिक्चर देखने लगी–इस पूरे आइसोलेशन के दौरान नेटफ्लिक्स ने उसका बहुत साथ दिया। अगले दिन ऑफिस का सिक्योरिटी गार्ड और ड्राईवर जरूरी सामान और दवाइयाँ ले आए। मेरे निर्देशानुसार उसने तीन बार गॉगल और तीन बार स्टीम लेना शुरू कर दिया। हालाँकि उसे गले में ज्यादा दर्द नहीं था लेकिन बुखार चढ़ना शुरू हो गया था। रात को जब बुखार चढ़ता तो उसे पैरों में बहुत दर्द होता–इतना दर्द कि सोना मुश्किल हो जाता। वीकनेस भी लग रही थी, रात को नींद भी नहीं आती थी इस वजह से उसका सर भी भारी हो गया और दुखता रहता था।

ऐसे कठिन समय में अक्सर भगवान की याद आ जाती है–क्योंकि भगवान ही सहारा होते हैं। तारा को भी भगवान जी याद आ गए–तारा के हनुमानजी। कैंसर की बीमारी के दौरान तारा प्रतिदिन हनुमान चालीसा का जाप करती थी। हनुमानजी ने उसे तब बचा लिया था–‘अबकी बार भी मेरी रक्षा करना प्रभु’–तारा के मन में हनुमान चालीसा का अजपा जाप चलता रहता था।

शाम तक वह अनचाही रिपोर्ट आ ही गई कि तारा भी कोरोना पॉजिटिव है। रिपोर्ट सुनना नहीं कि बेचारी तारा बेजान-सी हो गई। पैरों में जैसे जान ही नहीं थी। उसे ऐसा लगा कोई जोर से गला दबा रहा है। जब उसने घर में बताया कि वह कोविड पॉजिटिव हो गई है–सब घबरा गए। तारा जब अपना सामान एक कमरे में रख रही थी–होम आइसोलेशन के लिए–तब उसकी बेटियाँ, अम्मा और पति मुँह फेर कर रो रहे थे। सबकी हालत खराब हो गई थी। पर सबसे अधिक परेशान उसकी अम्मा हो गई थी। जो घूमने के लिए फरवरी में साउथ अफ्रीका आई थीं लॉकडाउन के कारण यहाँ फँस गई हैं।

जब से तारा को कोविड हुआ, उसने एक कमरे में खुद को आइसोलेट कर लिया। सबसे बड़ा चैलेंज था–उसकी अम्मा को कोविड से बचाना! अम्मा पचासी साल की हैं। वे दिल्ली में अकेले रहती हैं–दिन-रात क्राइम पेट्रोल देखती हुई और अपनी तीनों बेटियों से रोजाना बात करती हैं। तारा के इकलौते भाई बाटला हाउस आतंकवादी ऑपरेशन में शहीद हो गए। मरणोपरांत, उन्हें देश का सर्वोच्च सम्मान–अशोक चक्र से नवाजा गया है। अम्मा उन्हें बहुत याद करती हैं–तारा भी भैया को याद कर के भावुक हो जाती है। भारत सरकार के द्वारा उन्हें पुलिस प्रोटेक्शन मिला हुआ है। चौबीसों घंटे पुलिस कर्मी उनके घर की सुरक्षा में तैनात रहते हैं। अम्मा भारत छोड़ कर कहीं रहना नहीं चाहती। अपने पोते दीपु में अपने बेटे को देखती हैं। एक नजर उसे देख कर वंश बच जाने की राहत झाँक जाती है उनकी आँखों में।

संयोग से अम्मा को जोहान्सबर्ग बुलाने में मेरा भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। तारा और मैं–हम दोनों पक्की सहेलियाँ बन गई हैं। तारा भी मेरी तरह हमेशा हँसती-खिलखिलाती रहती है। जब हम दोनों छुट्टी पर दिल्ली पहुँचे तो तारा को छोड़ने उसके घर गए। वहाँ बेहद आत्मीय माहौल में अम्मा मिलीं–जो तारा की अम्मा के साथ-साथ मेरी भी अम्मा हो गई हैं। इतना स्नेह भरा है अम्मा के मन में कि मेरा छोटा सा दुःख देखकर भी आँखों के रास्ते छलक पड़ते हैं।

वे आँख पर दुपट्टा रखते हुए भारी आवाज में कहती हैं–‘हाय, अंजु को इतना दुःख क्यों दिया भगवान ने।’ मेरा मन भी भर आता है पर मैं मुस्कुरा कर अम्मा का ध्यान बटाने को कहती हूँ–‘अम्मा, दुःख तो सबको है पर हमारे लिए खास बात ये है कि हम दुःख में भी हँस सकते हैं, अपना ही मज़ाक बना सकते हैं–ये सबसे बड़ी बात है।’

अम्मा बच्ची की तरह होती जाती है और हमलोग बुढ़िया की तरह। वह वापस भारत जाने की जिद पर अड़ी हैं–और कोविड के खतरों को देखते हुए हम उन्हें तरह-तरह से फुसलाकर बहलाते रहते हैं। मैंने वादा भी किया है कि उसे छोड़ने मैं खुद भारत जाऊँगी। अम्मा बच्चों-सी खुश हो जाती हैं! पर जब अम्मा को कोविड हुआ तो मेरे पैरों से जमीन खिसक गई। अब तक तो मैं खुद को कोरोना वॉरियर समझ रही थी। अपने ऑफिस के लोगों को कॉन्फिडेंस के साथ तारा ने रोते हुए उदास स्वर में मुझे सूचना दी। तारा खुद को जिम्मेदार मान रही थी कि उसके चलते अम्मा को कोविड हुआ। वह ठीक से सेल्फ-क्वॉरंटीन नहीं हुई। अम्मा भी अपने स्नेह में उसके पास चली जाती थीं। अगर अम्मा को कुछ हो गया तो भारत में बैठी बहनें और रिश्तेदार जिंदगी भर तारा को जिम्मेदार ठहराएँगे। तारा खुद भी अपराध बोध से ग्रस्त थी।

मैंने अम्मा से बात की। उनको तेज बुखार था। मैंने अपनी और तारा की दवाई उन्हें शुरू करवाई। तारा ने कहा कि मैं रोज अम्मा से बात करूँ तो वे मोटिवेटे और सकारात्मक महसूस करेंगी। हमने ऐसा किया। अपनी व्यर्थ की कॉमेडी से हँसाना चाहा कि अम्मा, अब अच्छा हो गया कि तारा और आप एक ही कमरे में रह सकते हो! अब घर में जब सबको कोविड हो गया है। तो मास्क पहन कर घूमने की बला नहीं होगी कि अब तुम देर रात तक क्राइम पेट्रोल देख सकते हो कि अम्मा, तुम ठीक हो जाओगी तो लिम्का बुक में तुम्हारा नाम आ जाएगा–‘पचासी साल की जवाँ महिला ने कोरोना को पटकनी दी।’

मेरी बातों से अम्मा को थोड़ी तात्कालिक राहत पहुँचती, पर जैसे ही वो भारत में अपनी सहेलियों-रिश्तेदारों से बात करतीं–वे लोग उन्हें डरा देते, डिप्रेस कर देते। जैसे–अचानक इसमें साँस रुक जाती है, अगर मर गई तो बॉडी भारत नहीं आएगी और साउथ अफ्रीका के भी वैदिक हिंदू रीति से अंतिम संस्कार नहीं हो पाएगा। अब आप कभी भारत का मुँह नहीं देख पाओगी। आपको लंग-फायब्रोसिस हो सकता है। आपका दिल्ली के द्वारका वाले मकान में मरने का सपना पूरा नहीं होगा, आदि-आदि। हमने अम्मा को अपने योगा-ग्रुप में डाला और वीडियो से सुबह-शाम साँस का एक्सरसाइज करने को मोटिवेट किया। सारी दवाइयाँ–खास कर बुखार और विटामिन लगातार दिलाया।

हम सब डॉक्टर के संपर्क में भी थे। सबसे बड़ी समस्या थी कि तारा को अभी-अभी कोविड हुआ था, मेरे घर के भी हम सब बीमार थे–ऐसे में अगर अम्मा को हॉस्पिटल जाना पड़े–भर्ती होना पड़े तो बड़ी परेशानी हो जाएगी। डॉक्टर की सलाह से हमने ऑक्सीजन सिलेंडर को घर में और ऑफिस में रखा–अपने हॉस्पिटल पैनल का विस्तार किया। सबसे नजदीक के हॉस्पिटल से हमलोग के घर की दूरी मुश्किल से पंद्रह मिनट होगी। एक गाड़ी को चौबीस घंटे ड्यूटी पर रखा गया कि रात-बिरात अगर किसी को इमरजेंसी में एडमिट होना पड़े तो कोई दिक्कत न हो। अप्रत्यक्ष रूप से ये सारी तैयारी अम्मा के लिए ही थी। अम्मा मेरे कहने से भारत से यहाँ आई थीं, और मेरे बहकावे में ही यहाँ लंबे समय तक रहने को राजी हुई थीं इसलिए मुझे अम्मा के लिए एक रिस्पॉन्सिबिलिटी का बोध था। साथ ही बेपनाह प्यार भी।

मैं अम्मा की प्रोग्रेस एक एक रात को मॉनिटर कर रही थी। मेरे हाथ मूक प्रार्थना में बंधे हुए थे–‘हे भगवान! अम्मा को ठीक कर देना।’ वे सही सलामत पूरी तरह स्वस्थ होकर भारत पहुँचे, यही बुदबुदाती रहती थी। अम्मा उम्मीद से अधिक मजबूत निकलीं। सात दिन तक उन्हें बुखार आता-जाता रहा। जब बुखार कम हुआ तो उनका ऑक्सीजन लेवल डाउन हुआ। फिर हमारी धड़कन बढ़ गई, क्योंकि कोविड में बुखार उतरने के बाद ही कॉम्प्लिकेशन शुरू होते हैं। उनका रक्तचाप भी ऊपर-नीचे होने लगा। हम सब घबरा गए। पर अम्मा ने हिम्मत बनाए रखी। वे हॉस्पिटल जाने को राजी न हुईं। उन्हें विश्वास था कि वे घर पर ही दवाओं और योग-एक्सरसाइज से ठीक हो जाएँगी। और वही हुआ भी। दसवें दिन आते-आते अम्मा की हालात में सुधार होने लगा। आखिरकार, उन्होंने बहादुरी से लड़कर कोरोना को पटकनी दे दी थीं।

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मेरे दादा जी चार भाई थे–जिसमें मेरे दादा जी तीसरे नंबर पर और अनंत भैया के दादा जी दूसरे नंबर पर थे। इस तरह हम दोनों से कजिन हुए। वे हम से तीन साल बड़े थे, इसलिए हमलोग एक साथ खेलते-कूदते और स्कूल भी जाते थे। मास्टर जी की मेहरबानी से उनका और मेरा जन्मदिन और साल एक ही लिखाया गया था, इस बात का भी वे मज़ाक बनाते कि मेरे साथ एक चुहिया भी जन्मी थी। अनंत भैया एक साल फेल हो गए और मेरी छोटी बहन मंजु की कक्षा में आ गए। पर उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा। आखिर स्कूल तो एक ही था–एक कमरे का झमड़ा–जहाँ एक लाइन में एक कक्षा लगती थी। सबसे आगे वाली लाइन में पाँचवी और सबसे पीछे पहली कक्षा के विद्यार्थी कचर-पचर हल्ला मचाए रहते थे।

अनंत भैया पढ़ने में ठीक थे परंतु खेती-बाड़ी के काम में उलझे होने के कारण पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पाते थे। परिणामस्वरूप हमेशा मास्टर जी उनको छड़ी से पीटा करते थे।

एक बार मास्टर जी ने एक कविता कंठस्थ करने को दिया था। कोई भी याद नहीं कर सका था, पर मैंने मंजु (मेरी छोटी बहन) को वह कविता आधी रटा दी थी, पर वह अनंत भैया के मार खाने के डर से चुप हो गई और मास्टर जी के पूछने पर सिर झुका कर ‘ना’ में मुंडी हिला दिया। तब मास्टर जी ने सबको माफ करते हुए दूसरे दिन याद कर लाने का टास्क दिया। मैं चौथी कक्षा में थी और सब देख सुन रही थी। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने जाकर मास्ससाब को बतला दिया कि मंजु ने तो कविता याद की हुई है। बस अनंत भैया के डर से नहीं बोल रही! तब मास्ससाब ने मंजु से कविता सुनी। और छड़ी पूजा की–अनंत भैया की और मंजु की भी कि झूठ क्यों बोला? अनंत भैया मुझसे बहुत गुस्सा हो गए और बाद में दौड़ा कर मेरी पिटाई की। मैं चुप रह गई और माँ को भी न बताया, और पिटाई खाना था क्या?

अनंत भैया को खेत जोतना आता था। जब वे खेत जोतते तो हम बैल बनकर जुवाठ–खुशी-खुशी अपने कंधे पर ढोकर चलते। फिर जब वे खेत का दोहड़ (समतल बनाना) करते तो हम भी दोहड़ पर बैठ कर सीसॉ जैसी सवारी का मज़ा लेते। फिर हम सब नाप कर बैलों के पग-चिह्न बनाते ताकि काकी और काका को शक न हो कि खेत बैल ने नहीं–बच्चों ने जोते हैं। इसी तरह हमलोग गर्मी के दिनों में महुआ चुनने जंगल जाते। हमारे पुरखों का एक जंगल था–जिसके वनोपज का अधिकार किसी जमाने में वहाँ के राजा ने हमारे पुरखों को दिया था। छोटे लड़के-लड़कियाँ भी साथ होते। बड़ा सुंदर जंगल था। मोर और सियार जैसे पशु-पक्षी सहज ही दिख जाते थे। यह जंगल हजारीबाग नेशनल पार्क के निकट पर स्थित था इसलिए कभी-कभार बाघ भी दीख जाते थे।

हम सब अनंत भैया की अगुआई में महुआ चुनते और इकट्ठे करते जाते। महुआ के ढेरों पेड़ और केड़िया थे। फिर महुआ चुनकर सबको बराबर बाँट दिया जाता था। चाहे कोई बड़ा या छोटा–कोई फर्क नहीं पड़ता था। पर अनंत भैया उससे नाराज़ हो जाते! क्योंकि, आधा से अधिक महुआ तो वे ही जमा करते थे। इसलिए हमलोग उनके लिए बड़ों से अधिक महुआ देने का प्रस्ताव करते। पर बड़े न मानते क्योंकि गोतिया में अनंत भैया का जोत कम था, दूसरे लोग अधिक जमीन वाले थे इसलिए कायदे से महुआ उनको अधिक मिलना चाहिए था!

अनंत भैया ने तब बड़ों को संस्कृत में ढेरों गालियाँ दी थीं। जैसे–दरिद्रम, मूँछ गुंडम, पपिस्ठम आदि। उन्होंने सबको सभ्यताहीन, संस्कृतिविहीन आदि भारी शब्दों से विभूषित भी किया था। हम सब उनसे बहुत प्रभावित रहते! उनकी मेधा, उनका हँसोड़ स्वभाव और सहज तीव्र बुद्धि और हाजिर जवाबी के कायल थे हम सब! फिर अनंत भैया की पढ़ाई छूट गई। उन्होंने मैट्रिक भी न पास किया और उन्हें कमाने के लिए मुंबई जाना पड़ा। मेरे गाँव के अनंत भैया जैसे अर्ध शिक्षित युवाओं के लिए स्वप्न नगरी मुंबई से बढ़िया कोई दूसरा विकल्प नहीं था। अब वे कमाने लगे थे। किसी फर्निचर की फैक्टरी में रंदा खींचने का काम करते और दिन में दो सौ रुपया कमा लेते।

अब काकी को उनकी शादी की चिंता हुई। आनन-फानन में नजदीक के जंगल से सटे गाँव की एक अनपढ़ लड़की से उनकी शादी करवा दी गई। वह जंगली लड़की मासूम और अल्हड़ थी। काकी उसे दौड़ा-दौड़ाकर पीटती! उसे भूखा रखतीं और कभी-कभार बासी भात खाने को दे देतीं।

वह लड़की उम्र में मुझसे भी छोटी थीं। लगभग पंद्रह-सोलह साल की और मायके में उसने अभी ठीक से खाना बनाना नहीं सीखा था। वह सुबह अपनी बकरियाँ लेकर जंगल चली जाती और किसी पेड़ की मोटी डाल पर बैठ सुस्ताती या फिर अपनी हमउम्र लड़कियों के साथ डोल-पत्ताया, पिट्टू खेलती रहती। शाम को घर आकर माँ के हाथ का खाना खाती और बिस्तर पर ढेर हो जाती! वही लड़की जब शादी करके ससुराल आई और कर्कशा सास के हाथ पड़ गई तो रोज बिना मार खाए भात खाना कहाँ नसीब था!

एक बार वह मेरे घर में आकर यों ही खड़ी हो गई। हम सब खाना खा रहे थे। मेरे दादा जी को दया आ गई और उन्होंने माँ को निर्देश दिया कि इसे भी खाना दे दो! माँ उसकी सास के दुर्दांत स्वभाव से परिचित थीं तो उन्होंने बड़ी देर तक टाला। पर दादा जी के मनुहार और उस बालिका वधू के कजरारी आँखों से झाँकती भूख को देखकर पिघल गई। उन्होंने जल्दी से थाली में भात-दाल, सब्जी और अचार डाल कर दे दिया।

वधू को कई दिनों से खाना नसीब नहीं हुआ था। बेचारी भूख से ही परेशान होकर मेरे घर तक आ पहुँची थी। उसने अपनी निरीह नीली आँखों से माँ का धन्यवाद किया और दरवाजे की तरफ पीठ करके गोद में थाली रखकर खाने लगी। वह बाबा और हमसे भी शरमा रही थी।

अभी उसने आधा खाना ही खाया होगा कि काकी पता नहीं कहाँ से अचानक प्रकट हुईं और उसके पीठ पर जोर से लात-मुक्के का प्रचंड प्रहार किया। औचक प्रहार से बहू डर गई और खड़ी हो गई। अचानक खड़े होने से अधजूठी थाली और दाल की कटोरी गिर पड़ी।

काकी ने आव देखा न ताव। मेरी माँ पर झपट पड़ीं–‘यही तुमको सीखा रही है। खिला रही है। माँग जारी (माँग जलना विधवा), भतारखौ की, बेट कटौनि, ससुर…! पहले इसकी पूजा करती हूँ।’ कहकर उन्होंने वहीं पड़ा हुआ दादा जी का सोंटा उठाया और माँ की ओर लपकी। पर माँ उनसे अधिक जब्बर और जवान थीं। उन्होंने काकी की कलाई पकड़ लीं और हाथ को बाँह से मरोड़ डाला। बेजान हाथों से सोंटा पकड़ कर दादा जी (जो मूकदर्शक बने हुए थे) की ओर उछाल दिया। और वे भी गालियों का प्रत्युत्तर गालियों से देने लगीं।

‘मेरा माँग जारने वाली का खुद न माँग जर जाए। तेरा बेटा-भतारन मर जाय।’ फिर दादा जी की ओर मुड़ कर बोलीं–‘आयं बाबू जी, हम बोले थे न कि इस कर्कशा औरत से मत झंझट मोल लीजिए, पर आप माने नहीं। दुधमुही लड़की पर दया दिखाई और मुझे गाली खिलवायी। अब आप ही रोकिए इस राकसनी को–इस लड़की को मार डालेगी ये जब्बर औरत!’

काकी को समझ में आ गया था कि यहाँ उनका पाला मजबूत अपोजिशन से पड़ा है–इसलिए उन्होंने बहू पर ही फोकस किया।

मूर्ख बहू भी वहीं काठ-सी खड़ी थीं। तब काकी ने मन मसोसते और दाँत पीसते हुए आँगन में सुख रहे सखुआ की एक सोटी उठायी और बहू पर उसे बेरहमी से बरसाते हुए बाहर निकली। हम बच्चे भी हल्ला मचाते हुए साथ हो लिए थे। गाँव के चौराहे तक आते आते बहू की पीठ और शरीर में लाल वम्प साँप से उभर गए थे। बहू निढाल होकर वहीं गिर पड़ी। हमारे हल्ला मचाने और बहू की करुण पुकार से दुकान पर के सभी लोग दौड़े और काँपती बहू और जल्लाद-सी काकी को एक दूसरे से अलग किया। रात में बहू को सास ने फिर से लकड़ी के चौले से पीटा। परिणाम यह हुआ कि सुबह बहू गायब थी। वह भाग कर अपने मायके चली गई थी। वह शाम को मायके से अपने माँ-बाबू जी और पाहन (गाँव का मुखिया) को लेकर लौटी।

शाम को घमाघम पंचायत बैठी। काकी का वह रौद्र रूप मुझे आज भी नहीं भूलता। जब उनके बोलने का मौका आया तो उन्होंने सारा लोक-लिहाज, छोटे-बड़े और पंचों की उपस्थिति को ताक पर रखकर गरजते हुए गंदी गालियाँ बरसानी शुरू की–‘ये बहू है चोट्टी। उसको तो बस अपने खसम से मतलब है। मेरा बेटा मेहनत करता है–रात को थककर सो जाता है तो महारानी को मजे चाहिए–इसको मेरे बेटे के आराम करने पर भी आपत्ति है! क्या कहती है कि मेरा पति… ऊपर चढ़ता क्यों नहीं, सो क्यों जाता है? इनको रात भर अपना… है तब भी इनका मन नहीं भरेगा। बस रात को मजे करने के लिए आई ये–फिनको तो मरी चुहिया सी पड़ी रहती हैं। एक काम इससे करवा लो तो माने। खाना बनाएँगी तो खुद गरम चावल का ढेला खा लेंगी और सास को चावल का चूरा दे देगी–पिचपिचाया हुआ। इसलिए देख रही हूँ उस छिनाल को एक टाइम को पिचपचाया भात देकर कितना दिन तुम्हारे में गर्मी बनी रहती है–और रात में मजे कर पाती हो। इतने पर भी एक चुटरी (चूहे का बच्चा) भी जनम जाए तुमको तो मेरा नाम बदल देना। ई डायन मेरे बेटे का खून और जवानी तो पी ही जाएगी। अगर पाँच पंच लोग इसका इनसाफ नहीं किए तो मैं इसके रुरुऽ में लूवाठी घुसेड़ दूँगी। कोई मुझे गुस्सा न दिलाए, हाँ। और उसके माँ-बाप को तो मुँह-गाँ… पर कालिख पोतकर भेज दूँगी।’

सारे पंच और लोग अवाक्। इतना गाली और अपशब्दों का प्रयोग! गाँव में औरतें गालियाँ देती हैं पर इतना? हमने भी काकी का वह वीभत्स कालिका रूप पहली बार देखा था। उसके बाद कितनी ही देर तक पंचायत में चिलपौ मची रही। काका और भैया लोग काकी को पकड़ कर घर में बंदकर आए क्योंकि उसके पहले काकी वायलेंट हो गई थीं और समधी की पगड़ी सिर से खिंचकर पैरों तले रौंद दिया था उसकी दाढ़ी नोच डाली थी।

पंचो ने और बहू के माँ-बाप ने रात में ही जाकर थाने में रिपोर्ट करवा दिया था। परिणामस्वरूप सुबह ही थाने से पुलिस आ गई थी और काका-काकी और अनंत भैया दहेज और शारीरिक उत्पीड़न के आरोप में जेल में बंद कर दिए गए। लगभग दो-तीन सप्ताह तक जेल में रहने के बाद मेरे बाबू जी के निजी मुचलके पर काकी-काका और अनंत भैया जेल से वापस आए।

पुलिस को दिए वचन के अनुसार अनंत भैया बहू को लेकर बंबई चले गए। काकी अपना बाल नोचती रह गईं। जिस काकी ने श्राप दिया था कि इस बहू को ‘चुटरी’ भी नहीं होगा वही काकी कुछ सालों बाद बहू के जुड़वाँ बेटों के लिए गाँवभर को बधावा खिला रही थीं और छठी पर उनके आँगन में नाचने के लिए गाँव की औरतों को आमंत्रित कर रही थी पर बहू की पिटायी वाली घटना से मेरी और काकी के बीच उसके बाद हरदम शीत युद्ध बना रहा।

काकी अपनी बदजुबानी के लिए प्रसिद्ध थी। पर अनंत भैया और उनके अन्य भाई-बहन बड़े अच्छे थे। हमलोग चूँकि हमउम्र थे इसलिए आपस में हमारी दोस्ती थी। बाद में नौकरी के सिलसिले में गाँव छूट गया और गाँव के लोगों से संपर्क नाम मात्र का रह गया तब भी मेरी माँ अक्सर मुझे अनंत भैया, भाभी और काकी के बारे में आवश्यक सूचनाएँ देकर अपडेट करती रहती थीं। मसलन, अनंत भैया ने लकड़ी के बिजनेस से अच्छा-खासा पैसा कमाया था, इसलिए वे अब झोपड़पट्टी में नहीं रहते। उन्होंने अँधेरी में एक कमरे का फ्लैट ले लिया है और उनके दोनों बच्चे इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ते हैं।

अनंत भैया ने काकी और काका को चार धाम की यात्रा भी करायी है। काकी नीम चौराहे पर बैठकर केदारनाथ जाने की बात इतना बढ़ा-चढ़ाकर बताती थीं कि जलनडाही औरतों का आँख कपाल पर चढ़ जाता और मुँह करिया हो जाता था। ‘का कहें रानी! जब घोड़वा पर हम बैठे तो हक्कर-हक्कर डोलता था। पूरा पेट मथा गया। तड़बक-तड़बक!’ आखिर मेरे श्रवण कुमार ने पूरा तीरथ करवा ही दिया। लेकिन, काकी अभी तक भौजी को माफ नहीं कर पाई थीं। वे इस बात को भूल नहीं पाती थीं कि बहू और उसके बाप ने उन्हें बाप-बाप कहला दिया था और जेल की हवा खिलायी थी। पर क्या करतीं–इसी जंगली काली बहू ने बेटे को पता नहीं क्या जड़ी-जगमोहिनी खिलाकर मोह लिया था कि बेटा भेड़ा बनकर उसके खूँटे से बँधा मिमियाता रहता था। अब तो काकी पोते की शादी के लिए बरतूहार देखवा रही थीं पर सापुर की तरफ नहीं–अब भुलकर भी वे जंगल- पहाड़ की लड़की नहीं लाना चाहती थीं। इसी गर्मी में अनंत भैया को परिवार सहित गाँव आना था।

पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। अनंत भैया बड़े-बड़े ऐक्टर लोगों के यहाँ फर्निचर सप्लाई करते थे। लकड़ी के पैनल बनाना, और पैच वर्क वाली कारपेंटरी में उनका सानी न था! मई के महीने में जब मुंबई के धारावी और अन्य अधिकतम जनसंख्या वाले क्षेत्रों में चरम पर फैला हुआ था वे शायद कोरोना संक्रमित हुए। पर उन्हें कोरोना के कोई लक्षण नहीं दिख रहे थे। बस माइल्ड बुखार था। वे घर पर ही रहे और पैरासिटामोल खाते रहे। पर कमजोरी बढ़ती गई। तीन चार दिन बाद उन्हें साँस लेने में तकलीफ होने लगी। वे अधिकतर बिस्तर पर ही लेटे रहते।

सप्ताह भर बाद स्थिति और भी गंभीर हो गई। जब उनके बड़े भैया ने उनकी बीमारी के बारे में सुना तो लॉकडाउन में किसी तरह छिप-छिपाकर आए और उनकी हालत देखकर डर गए। तुरंत उन्होंने किसी प्राईवेट संस्था या लैब से आदमी बुलाकर अनंत भैया का स्वॉब कोरोना टेस्ट करवाया।

रिजल्ट दो दिन बाद शाम को आया। वे कोविड पॉजिटिव निकले, पर घर वालों पर इसकी विपरीत प्रतिक्रिया हुई। किस बहू ने जब्बर सास से पंगा लिया था–वह कोरोना से डर गई और रातों रात कहीं भाग गई। साथ में बच्चों को भी ले गई।

अनंत भैया ने शायद शाम को ही अपना अंत देख लिया था। सुबह नौ बजे उनकी ऑटोमेटिक घड़ी रुक गई। उन्होंने उसी समय अंतिम साँस ली होगी। चार भाई, एक बहनोई, दो बेटे और एक बेटी पत्नी के रहते हुए भी वे लावारिस घोषित हुए और नगरपालिका की गाड़ी उनकी बॉडी उठाकर ले गई। अंतिम संस्कार भी न हो सका।

उनकी खबर लेकर उनका छोटा भाई संजय गाँव आया था। गाँव के प्राथमिक विद्यालय को क्वॉरंटीन सेंटर बनाया गया था। वह एक मज़ाक ही था क्योंकि गाँव के सभी लोग खाना-पूना लेकर स्कूल के मैदान में पहुँच जाते और फिर सब बैठकर ताश खेलते और गपशप करते थे। ऐसे माहौल में अनंत भैया के मौत की खबर आई तो पहली बार गाँव सहम गया। गाँव ने एक होनहार बेटे को खोया था। गाँव हार गया था कोरोना जीत गया था।

काकी का तो रो-रोकर बुरा हाल था। कोई चुपानेवाला भी नहीं जा सकता था–क्योंकि लॉकडाउन था। हालाँकि, गाँव के लोग फिर भी पहुँचे थे और काकी को सांत्वना दी थी। पर कोरोना को हराना मुश्किल लग रहा था।

काका बाहर सुन्न बैठे रहते हैं–कुछ भी याद नहीं रहता आजकल–बस खाने के वक्त उनकी भूख चमक जाती है–वे खूब खाते हैं–काकी बड़बड़ाती हैं। ‘तू मेरा जवान बेटा खा गया रे, अब क्या चबाएगा–मेरी हड्डी!’

काका सिर झुकाकर सपासप दाल-चावल खाते रहते हैं निर्लिप्त। मानो उन्होंने कोरोना के आगे समर्पण में सिर झुका दिया हो। अभी तक बहू और बच्चों का पता नहीं चल पाया है, पता नहीं वे लोग कहाँ चले गए।

काकी सारा दोष बहू पर डालना नहीं छोड़ती–‘भाग गई होगी किसी भतार के संग, खा गई डायन मेरे बेटे को…अब खाएगी अपने बेटे को…तब असल डायन बन जाएगी।’ काकी को सब नीम-पागल समझने लगे हैं। उन्हें कौन समझाए कि असल डायन तो कोरोना है–जिसने कितनों के बेटे और पति खाए हैं। कितनी माँओं को नीपुती और कितनी सधवाओं को विधवा बना दिया है।

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सुरेन्द्र भैया की शादी होने वाली थी, हम सब बेहद प्रसन्न थे। भैया मुझसे बस एक साल बड़े थे, और मुझे बहुत मानते थे। वे मेरे सगे भाई नहीं थे, पर हम दोनों में सगे भाई-बहनों जैसा प्यार था।

सुरेन्द्र भैया की माँ और मेरी माँ का मायका हजारीबाग के आसपास था, इस नाते वे एक दूसरे को बहिन मानती थीं–उनके मायके से संदेशवाहक और वस्तुवाहक भी एक दूसरे का संदेश और सामान हमारे घरों में पहुँचा जाते थे। हमलोग एक दूसरे की माँओं को मौसी कहते थे। इन दोनों माँओं में लव-हेट का रिश्ता था। जब प्यार होगा तो बहुत प्यार और जब झगड़ा हो गया तो बहुत दिनों तक बातचीत बंद! पर हम बच्चों के बीच ऐसी कोई बात नहीं थी–हमलोग ‘सुखम-दुखम समेकृत्वा’ में विश्वास करते थे।

सुरेन्द्र भैया के पिता जी सीधे-सादे इनसान थे पर भयंकर नशाबाज थे। वे दिन भर गाँजा पीकर मौसी को बड़ी-बड़ी गालियाँ दिया करते थे। गाँजा ने उन्हें शरीर और दिमाग दोनों से कमजोर बना दिया था।

मौसा राँची में पूजा-पाठ का काम किया करते थे, और छुट्टी या व्रत-त्योहार में ही गाँव आया करते थे। बीच-बीच में पोस्टकॉर्ड भेज कर गाँव, घर और बच्चों की खबर ले लिया करते थे। मौसी पढ़ी-लिखी नहीं थीं इसलिए चिट्ठी पढ़ने के लिए सुरेन्द्र भैया या मुझे बुलाया करती थीं।

एक बार मौसी ने एक पोस्टकॉर्ड पढ़ने के लिए मुझे बुलाया। मैं एक साँस में पढ़ती चली गई। मुझे यह भी अहसास था कि मौसी की प्रशंसा भरी नजरें मुझ पर टिकी हुई हैं–इसलिए और जोर से चिट्ठी पढ़ती गई। सामान्य समाचार के बाद लिखा था–‘और तुम? तुम दालान में बैठ कर शाम को यह सोचते रहना कि किसका? तेरे…सकता है!’

मुझे तो भाषा के सस्ते और बाजारूपन का जब तक अहसास हुआ, तब तक तो मैं सारा कुछ एक साँस में पढ़ चुकी थी। मैं शर्म ग्लानि और दुःख से रुआसी हो गई। मौसी की भी आँखों में उत्तप्त आँसू थे।

मैंने घर आकर माँ को बताया कि मौसा कितना खराब गाली लिखकर मौसी को चिट्ठी लिखते हैं! पढ़कर मेरी जीभ अकड़ गई और सर्वांग सिहर उठा।

उन दिनों माँ और मौसी की बोलचाल बंद थी। माँ मौसी पर और आग बबूला हो गई कि कुँआरी लड़की को ऐसी चिट्ठी पढ़वाती है! कहाँ गया उसका बेटवा? सुरेंद्रा! उसको क्यों नहीं दी चिट्ठी पढ़ने! और तुम भाग कर चली गई मानो मौसी तो मेवा खिलाएगी तुम्हें? ठीक हुआ तेरे साथ–कैसा मज़ा मिला!

खैर, मैंने माँ का मूड देखकर मौसी का रोना बताया। माँ तो ऊपर से सख्त पर भीतर से नरम थी। तुरंत बहिनापा दिखाने पहुँच गई। वापस आने पर माँ ने बताया कि मौसा की दिमागी हालत फिर से खराब हो गई है। मौसा अक्सर गाँजा गुँड़ते रहते और चिलम का दम लगाकर गाँव की मठिया में पड़े रहते।

मौसी बताती थीं कि वे शादी के बाद से ही पागल हो गए थे। क्यों? क्योंकि शायद किसी डायन ने उन पर बान मार दिया था! का बताएँ बेटा! मौसी लंबी भूमिका बना कर बताती। शादी के बारह साल बाद भी मेरा गौना नहीं हुआ क्योंकि ये मिल ही नहीं रहे थे। न जाने कौन संथालिन बान मार दिहिन थी कि ये गायब हो गए थे। सुनते हैं कि संथालिन के हाथ से पान खाते थे–दारू भी पीते थे। वहीं पर अखाद्य (पोर्क और बकरा) खाने का उनको चस्का चढ़ा दिया उस कलूटी ने। मौसी चिढ़कर कहतीं।

जब रक्षाबंधन आता तो हर साल मौसी मुझे बुलवा लेतीं। उनके कोई बेटी नहीं थी और हमारा भाई तब हुआ नहीं था।

माँ को क्या आपत्ति होती! वे तो चाहती ही थीं कि बेटियाँ उस दिन दुःखी न हों। मौसी भी चाहती थीं कि सुरेन्द्र भैया की कलाई सुनी न रहे उस दिन! सो हम नए कपड़े पहन कर सज-सँवरकर उन लोगों के यहाँ थाल में राखी, मिठाई, रोली और दीया सजा कर पहुँच जाते।

मौसी सबसे पहले मुझे अंदर चौके में बिठातीं और दूसरी लड़कियों को बाहर बिठातीं। वे लड़कियाँ भी भैया को राखी बाँधने आई होतीं। पर मौसी मुझे सबसे अधिक चाहती थीं। उन्हें वे आटे का कड़ा प्रसाद और एक सिक्का देकर विदा कर देतीं। अब मुझे और भैया को सामने-सामने बिठातीं। भैया ऊँचे पीढ़े पर बैठता और मैं बोरे पर। अरवे चावल के घोल से मौसी बीच में चौक पूरती। दीया बालती। फूलमाला रखतीं और मुझे सारे विधि-विधान बताती जातीं। एक रूमाल सुरेन्द्र भैया के सिर को ढँकने के लिए देतीं। मैं भैया के लिए सबसे बड़ा फोमवाला राखी खरीदती। टीका लगाकर जब मैं राखी बाँधती तो पता नहीं क्यों मौसी भावुक हो जाती और रोने लगती। मैं और भैया अवाक होकर उन्हें देखते। तब वे आँचल से आँसू पोंछकर खूँट से पाँच रुपये का कड़कड़ाता नोट मेरी थाली में रख देतीं। पर मुझे जिस असली उपहार का इंतजार रहता–वह था–मौसा को दान में मिले लालराती ओढ़नी, चूड़ी, बिंदी और नेल पॉलिश का। मौसी एक पैकेट बनाकर ये चीजें चुपके से मुझे देतीं!

कई दिनों नहीं कई सालों से मौसा जी बीमार थे। उनको अब खाना भी हजम नहीं हो रहा था। जवानी के दिनों में हट्टे-कट्टे मौसा अब बिस्तर से लग कर रह गए थे। सत्तर वर्ष की आयु हो चली थी। बाल-दाढ़ी सफेद हो गई थी। दाँत गिर गए थे।

मौसी तो गिन-गिन कर जवानी के दिनों के अपने अवमानना और अपमान, दुःखों और लांछन के बदले ले रही थीं। मौसा जी अब ठीक से चल फिर भी नहीं पाते थे। अपने दालान में चौकी पर बस एक मसहरी लगाकर उसके अंदर लेटे रहते–और आने जाने वालों को रोक कर ‘कऊँन है रे!’ पूछते।

अगर वहरा ही फुरसत में होता तो रुककर अपना परिचय बतलाता और ‘रामराम–दुआ सलाम’ करते जाता और अगर जल्दी में होता तो उन्हें इग्नोर करके चला जाता। तब मौसा अपने पोपले मुँह से एक भद्दी गाली उसकी ओर एक ढेले की तरह उछाल देते ‘तेरी माँ की…’ दालान की दूसरी ओर मौसी अपने हाथ में कोई-न-कोई काम लेकर बैठी होती। जैसे सूजनी पर कान्थास्टिच कर रही होती या फिर अपने फटी साड़ी पर पैबंद लगा रही होती। मौसा की गाली की प्रतिक्रिया में वह धीमे से फुसफुसातीं।

‘पता नहीं…कब मरेगा इकँढरा (गिद्ध)!’ और नफरत से पिच्च से बगल के पिलर पर थूक देतीं। जैसा फिल्मों में दिखाया जाता है कि पति मर रहा है और पत्नी दुखी आँसू बहा रही है, वैसा कुछ इस परिवार के साथ न था। गरीबी ने इनके शरीर के साथ-साथ संवेदनाओं को भी सूखा दिया था।

मौसी काम करते-करते और गृहस्थी की गाड़ी खिंचते-खिंचते इतना थक गईं थीं कि अब बस दो वक्त की सुकून की रोटी चाहती थीं। वह भी उन्हें नसीब न थी। पहले छुपछुपा कर किसी के घर में मजूरी कर लेती थीं। कभी रेजा का काम तो कभी किसी के यहाँ दीवाल पर मिट्टी साटने का काम, या फिर आढ़त पर सब्जियाँ बेचने का काम!

पर कोरोना ने सब कुछ चौपट कर दिया था। लॉकडाउन में अब तो लोग डर से घरों में इस तरह दुबके थे जैसे कोई शक्तिशाली अज्ञात शत्रु हमला करना चाहता है। बचाव ही इसका इलाज है, यह मूल मंत्र गाँवों तक भी पहुँच चुका था। लोग हर काम को बंद कर बैठे थे।

पूरे देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई थी तो ऐसे में इन दिहाड़ी सीजनल मजदूरों के बारे में कौन सोचता? कई बार तो पेट भर खाना भी नहीं मिलता है। गाँव में बरसात में ऐसे भी चावल और सब्जियों की अत्यंत कमी हो जाती है। इस बार जमींदार भी ड्योढ़ा या दोबरी पर अनाज नहीं निकाल रहा था। तो ऐसे में फाँका करने के अलावा चारा भी क्या है।

मौसी ने कई दिनों से सिर्फ नाम मात्र को खाया था। मौसा तो आजकल सिर्फ माड़ पी रहे थे, क्योंकि और कुछ इन्हें पचता नहीं है।

आज लक्षण कुछ अच्छे नहीं दिख रहे। मौसा जी सुस्त दिख रहे थे। रोज वह चिल्लाकर सबको उठा देते और कुल्ला करके चाय की गुहार लगाते रहते थे। पर आज दिन चढ़े वे नींद में डूबे थे। यह असामान्य नींद! यह सीने की घरघराहट! ऐसा तो वे कभी नहीं सोते थे! मौसी ने सहमते हुए सुरेन्द्र भैया को उठाया। ‘बबुआ देखो तो, बाबूजी काहे नहीं उठे अब तक?’ जब सुरेन्द्र भैया ने मसहरी उठा कर देखा तो मौसा जी बुरी तरह घरघरा रहे थे। वे घबरा गए। पर मौसी अनुभवी थीं। अपनी सास को उन्होंने देखा था कि बुढ़िया को ऐसे ही अंत में घरघरी चढ़ी थी।

उन्होंने कपाल पर हाथ लगाया और भैया को भाग कर बगल की मधुबाला के यहाँ से गंगाजल लाने भेजा। वे स्वयं तुलसी दल लेने पिछवाड़े बारी में गईं। सुरेन्द्र भैया तो समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे? उसका दिमाग गाँजे की पिनक में था। उसने सोचा कि बीस रुपये में एक पौवा चढ़ा लेने से उसे कॉन्फिडेंस आएगा और वह इतनी तेजी से घट रहे घटना क्रम को समझ पाएगा।

वह मधुबाला के घर गया और छोटे बच्चे की तरह सुबकते हुए बोला–‘मधु, बाबूजी चले जा रहे हैं सो थोड़ा सा गंगाजल और बीस रुपया देना तो। गाँव में सब गरीबी झेल रहे थे। मधु विधवा थी। वह एक ब्यूटीपार्लर चलाती थी पर लॉकडाउन में वह भी बंद था। दूसरे वह सुरेन्द्र भैया को जानती थी। उसे यह पता था कि ये पैसा हाथ में आते ही कलाली (शराब खाना) की ओर भागेंगे। इसलिए उसने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।

‘भैया बीस रुपया तो मेरे पास नहीं है, पर गंगाजल देती हूँ। चाचा जी कहीं जा रहे हैं क्या?’ बेचारी मधु! उसे नहीं पता था कि मौसा अब दुनिया छोड़कर जा रहे हैं! ठीक उसी समय सुरेन्द्र भैया के घर की तरफ से मौसी के जोर-जोर से रोने का शोर सुनाई दिया।

‘जा! सत्यानाश! खेल खत्म हो गया।’ सुरेन्द्र भैया ने मायूसी से कहा और मधु के साथ-साथ ही अपने घर तक आया। पर घर तक आते ही भाग कर दालान में गया और एक बार मौसा के चेहरे से चादर उठा कर देखा, फिर बच्चे की तरह जमीन में लोटकर रोने लगा।

सबको सुरेन्द्र भैया से सहानुभूति थी। वह गाँव का एक होनहार लड़का था। उसने राँची यूनिवर्सिटी से अच्छी पढ़ाई की थी। पर आरक्षण के कारण नौकरी नहीं पा सका। शायद इसलिए वह आरक्षण का कट्टर विरोधी था। अपने फेसबुक स्टेट्स में लिखा था कि ‘हे भगवान! मेरे अंतिम समय में भी मेरे मुँह से ‘आरक्षण मुर्दाबाद’ निकले।’ कितनी कोशिश की उसने कि वह जिंदगी को पटरी पर ले आए।

पहले बंबई में दर्जी की नौकरी फिर ऑटोरिक्शा चलाना, मकान बनाने में राजमिस्त्री बना! फिर जब भाग कर वापस आया तो वह सबके घरों की दीवारों को पेंट करने लगा। जब सरकार बदली तो भाजपा का मीडिया प्रभारी बन गया। वह अच्छा लिख लेता था और उसे कंप्यूटर का भी बेसिक ज्ञान था, इसलिए रोज नई पोस्ट डालता। अपने दोस्तों में वह दिलदार और पॉपुलर बाबा के रूप में जाना जाता था। पर दालान की भिड़ से छिटक कर जब वह कुएँ की तरफ जाने लगा तो लोग उसकी ओर दौड़े। चौधरी ने उसे अँकवार में भर लिया और वापस लाने की चेष्टा करने लगे। वह लगातार विरोध करता रहा। ‘काका, मुझे मर जाने दीजिए। मुझे बाबूजी के बगैर नहीं जीना है। उनके अलावा मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है…मुझे टुवर बन कर नहीं रहना। मेरे पास तो उनके कफन के लिए भी पैसे नहीं हैं। ऐसा नालायक बेटा बन कर मुझे नहीं रहना। मुझे कुआँ में डूबकर मर जाने दीजिए।’

पर चौधरी काका ने उसको नहीं छोड़ा। लोग उसे पकड़ कर आँगन में ले आए। फिर मौसा के अंतिम बिछौने के लिए पुआल, बाँस आदि का इंतजाम करने लगे। तब मौका देखकर सुरेन्द्र भैया फिर निकल भागा–अबकी बार बीस फुटवा कुआँ की ओर।

वह कुआँ बेहद खतरनाक और डरावना था। किसी जमाने में इसे जिले के सिंचाई विभाग ने बनवाया था। इसका डायमीटर बीस फीट था, इसलिए इसे बीस फुटवा कुआँ कहते थे। पर वर्षों से अन्य योजनाओं के कार्यान्वयन की तरह इसका भी इस्तेमाल सिंचाई के लिए नहीं बल्कि आत्महत्या के लिए होता था। गाँव का निर्बन्सिया मिसिर भी इसी में डूबकर मरा। पति पत्नी में झगड़ा हुआ तो रूपलाल ने इसी कुएँ में जल समाधि ली थी। अनेक गाय-भैंस, बकरियाँ और सुअर इसमें डूब कर मर चुके हैं। कारण है भयंकर झाड़-झँखड़ का उग आना और कुएँ में बड़े-बड़े विषैले और विषहीन साँपों का बसेरा होना। कुएँ में ऑक्सीजन की इतनी कमी कि लालटेन या पेट्रोमैक्स पल में बुझ जाता था। कहते हैं कि मारे गए जीवों की आत्माएँ उस कुएँ के आसपास घूमती रहती थीं और आसपास फटकने वाले जीवों को अपना शिकार बना लेती थीं।

ऐसे में सुरेन्द्र भैया बीस फुटवा की ओर दौड़ा!

अगे! मैयागे! दौड़ों हो लोगों मेरा बेटा बौराहा है–वह डूब जाएगा। मौसी अब मौसा के लिए कारन करना छोड़कर कुएँ की दिशा में दौड़ी। सब लोग लाश छोड़ कर भागे।

बीस फुटवा कुआँ गाँव के बाहर पश्चिम दिशा में बनाया गया था। वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते गाँव के फुर्तीले युवकों ने सुरेन्द्र भैया को पकड़ ही लिया। उसको डाँट-फटकार कर, दुलरा-पुचकार कर लोग वापस लेकर चले। वह सिर झुकाए सबके बीच चल रहा था। बीच-बीच में बच्चों की तरह थरथरा कर सिसक रहा था। लोग उसकी पीठ और बाँहें सहलाते जिंदगी की कड़वी सच्चाई उसे समझाते चल रहे थे।

‘बबुआ, तुम घर के बड़े हो। अब तुम्हें ही सबको सँभालना है। तुम उस तरह से हिम्मत हार जाओगे तो तुम्हारी माँ का क्या होगा? तुम्हें अब माँ, भाई और पूरे परिवार को देखना है, अब इस परिवार के तुम्हीं मुखिया हो।’ चौधरी ने समझाते हुए कहा।

सुरेन्द्र भैया चुपचाप था। शायद जिंदगी की सच्चाई से रूबरू होने की कोशिश कर रहा था या फिर हक्का-बक्का था। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह अपने बाबूजी को बेहद प्यार करता था। दारू-गाँजा पीने में भी दोनों पार्टनर थे। बंबई से उनके लिए स्पेशल गाँजा और बिलैती दारू लेकर आता था। मौसा जी दालान पर बैठ पूरे गाँव को ब्रांडी और भैया की महिमा बखानते थे–‘इ दारू थोड़े ही है, इ तो दवाई है। बिटवा ला दिया है–नींद और शरीर में गर्मी लाने के लिए। लोग घर आते-आते सामान्य हो गए थे और लाश को जल्दी से जल्दी श्मशान ले जाना चाहते थे। वैसे भी बरसात का मौसम था–अगर नदी उफन गई तो बस फिर अधजली लाश को नदी में फेंककर भागना पड़ेगा!

सुरेन्द्र भैया को बगल में ले जाकर चौधरी काका और अन्य लोगों ने कफन के लिए पैसे निकालने को कहा। भैया अंदर गया और एक देशी अद्धा का नीट गटागट पी कर बाहर निकला। पर किसी को पता नहीं चल पाया।

‘मधु! तुम्हारे घर में तुलसी और आग रखने के लिए हाँड़ी है न? अभी-अभी मैंने देखा था।’

‘हाँ भैया’ मधु ने हामी भरी।

सुरेन्द्र भैया ‘अभी लेकर आता हूँ’ कह कर गीले खेत के रास्ते मधुबाला के घर के अंदर चला गया। पर फिर तुरंत ही बिनता दी ने उसे मधुबाला के कुएँ की तरफ जाते हुए देखा। ‘शायद हाँड़ी खोज रहा होगा।’ दीदी ने सोचा।

पर तभी कुएँ में ‘छपाक!!’ की जोर से आवाज हुई। बिना देर किए बिनता दी चिल्लाती हुई कुएँ की तरफ इशारा करती हुई दौड़ी। पीछे-पीछे पूरी भीड़! सब लोग कुएँ की जगत से कुएँ के अंदर झाँक रहे थे। आनन-फानन में पगहा उसकी ओर फेंका गया, कुएँ के भीतर लोग साँस रोके भैया के सतह पर आने का इंतजार कर रहे थे।

गाँव में मान्यता है कि पानी माई हमेशा एक मौका देती है और अपने अंदर के जीव को जो डूब रहा होता है–ऊपर सतह की ओर उछाल देती है, लो बचा लो अपने को फिर मुझे दोष मत देना! उसी तरह बरसात में कितनी बार गाय-बकरियों, बच्चों और आदमियों को लोगों ने कुएँ के भीतर से हाथ पकड़ कर खिंच लिया है। उन दिनों पानी से कुएँ लबालब भरे रहते हैं–हाथ बढ़ा कर पानी को छुआ जा सकता है। आखिर, ग्रामीण मान्यता जीत गई। सुरेन्द्र भैया ऊपर छपिलता हुआ दिखा।

‘अरे बेटा रे! पगहा पकड़ ले जल्दी से।’ मौसी ने कहा।

‘हाँ, सुरेन्द्र रस्सी पकड़ लो! हाथ जोड़ते हैं बेटा।’ चौधरी काका ने सचमुच हाथ जोड़कर मिन्नत की। लोग पगहा उसके हाथ के आसपास लौका रहे थे। मिन्नतें कर रहे थे। भैया ने कुएँ के भीतर से देखा–बाहर की दुनिया! गरीबी, भूख और जहालत से भरी दुनिया!

उसके पास तो बाबूजी के कफन के लिए पैसे भी तो नहीं हैं। कितना बुरा लगेगा कि बेटे के रहते गाँव के लोग चंदा करके उसके बाप का कफन जुटा रहे हैं। धिक्कार है उसे! सचमुच कुएँ में डूब मरने की बात है। वह डूब कर मर जाएगा तो गाँव वाले चंदा करके बाप-बेटे का कफन जुटा ही लेंगे। बचकर बाहर आएगा, तो यही गाँव वाले जो पगहा लौका रहे हैं न अभी–सब बाद में मुँह फेर लेंगे। फिर उसका कौन है जिसके लिए जिए? पाँच साल का वह सुंदर मुखड़े वाला काल कवलित बेटे का सुंदर मुखड़ा पानी के भीतर उभरा।

‘आ रहा हूँ, बेटा! तुम्हारे साथ खेलने को और इस बार तुम्हें अकेले कुएँ में डूब कर मरने नहीं दूँगा। मैं आ रहा हूँ!’ सुरेन्द्र भैया ने जगत पर झूल आए सबके चेहरे देखकर आँखें बंद कर ली और चुपचाप नीचे चला गया। लोग दुबारा इंतजार करने लगे! ‘हे गंगा! दुबारा अपनी भलमनसाहत दिखाओ! लड़के को उगल दो।’

पर प्रकृति बार-बार उदार नहीं हो सकती! बहुत देर तक सुरेन्द्र भैया ऊपर न आया। लोग झग्गर लाने के लिए आसपास के घरों में चले गए। गाँव में झग्गर भी तो सबके घर में नहीं मिलता। और समय पर हमें कोई चीज कहाँ मिलती हैं! कुछ लोग सुरेन्द्र भैया की चालाकी और मक्कारी की चर्चा करने लगे–‘अरे स्विमिंग जानता है न! याद है! नागपोखरी से कैसे बीस-बीस सिक्के निकाल लाता था, सुरेंद्रा डूब कर इ बड़ी चालू है। बड़ी देर तक साँस रोक कर पानी में रह सकता है!’

नहीं! ये लोग भैया का बुरा नहीं चाहते थे। बस वे उसकी जिजीविषा की ताकत में भरोसा करना चाहते थे। डूबते को तिनके का सहारा! पर वह भरोसा बहुत जल्दी टूट गया। लोग झग्गर लेकर लौटे और कुएँ में फेंक दिया। ‘अरे धीरे हो भाइये! कहीं झग्गर की अंकुशी सिर-विर में न मार देना।’ पहले सँभाल कर फिर अंधाधुंध झग्गर से और गोतेखोरों ने कुएँ को हींट डाला।

लगभग घंटे भर की कड़ी मशक्कत के बाद सुरेन्द्र भैया की फुली हुई लाश निकली। लोगों ने चंदा करके मौसा जी और भैया के लिए कफन का इंतजाम किया। गाँव में लकड़ी की कमी नहीं है। परंपरानुसार हरेक घर ने मिल कर लकड़ी जुटायी और भारी व दुखी मन से उनका अंतिम संस्कार किया। मौसी के दुःख को बयान करने के लिए मेरी कलम में वह ताकत नहीं है।

एक साथ बेटा और पति को खोकर एक बेबस, लूटी-पिटी औरत को कैसा लगेगा, इसका अनुमान हम पाठकों की कल्पना पर छोड़ते हैं। सुरेन्द्र भैया–कोरोना नहीं, करोना काल का शिकार बना। गरीबी व बेरोजगारी सबसे बड़े शिकारी हैं। सुरेन्द्र भैया गरीब था, बेरोजगार था। भैया क्या करता? वह लड़ा पर वह निहत्था था–और आत्मभिमानी था इसलिए हार गया।

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हमें कोरोना कैसे हुआ? जब टेस्ट में मैं और बच्चे कोविड पॉजिटिव पाए गए, तो थोड़ी देर तक तो मातम मनाते रहे। जब सँभले, तो सोचना शुरू किया कि आखिर मुझे ये ट्रांसमिशन कहाँ और कैसे हुआ?

बच्चों को तो मुझसे ही हुआ होगा! वे तो बाहर कहीं जा नहीं रहे थे, सो मैं ही उनके लिए वेक्टर थी। मुझे सबसे पहले जो ध्यान में आया कि मई और जून में भारत सरकार ने दक्षिण अफ्रीका में फँसे भारतीयों के लिए कई वन्दे भारत फ्लाइट का अभियान चलाया था। लोग यहाँ सैर करने आए और फँस गए, क्योंकि छब्बीस मार्च से यहाँ लॉकडाउन शुरू हो गया। इन जहाजों में भारत जाने के लिए दूर-दूर से लोग आते। केपटाउन, डरबन, स्वाजीलैंड, ज़िम्बाब्वे, बोत्स्वाना और नामीबिया से भी भारतीय हमें संपर्क कर रहे थे। वे सब भारत जाना चाहते थे। सर्वसम्मती से यह तय किया गया कि सात-आठ एयर इंडिया बोईंग फ्लाइट दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग केटोंबो अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से उड़ेंगे। जोहान्सबर्ग कॉन्सल जनरल यानी मुझको जिम्मा दिया गया–सारे लॉजिस्टिक अरेंजमेंट का।

स्थानीय कानून के अनुसार सभी सवारियों को पहले किसी एक जगह पर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए जमा होना था। उसे असेंबली प्वाइंट कहा जाता था। इसकी भी अप्रूवल सरकार से लेनी पड़ती थी। चूँकि उसके पहले यूके और यूएसए ने अपने नागरिकों को निकालने के लिए अपने अंतरराष्ट्रीय स्कूलों को असेंबली प्वाइंट बनाया था–हमें भी वही करने का निर्देश था। परंतु उतना बड़ा कोई भारतीय स्कूल तो जोहान्सबर्ग में है नहीं–इसलिए प्रथम बार हिंदू मंदिर को असेंबली प्वाइंट बनाया गया। लोगों में बेहद उत्साह था। अपने देशवासियों को उनके गंतव्य तक सुरक्षित पहुँचाने का जज्बा था। उनकी सेवा करके पुण्य का भागीदार बनने का मन था। इसके लिए शुरुआती दिनों में सभी भारतीय समुदाय में होड़ मची थी। तब यहाँ के प्रमुख कम्युनिटी संस्था–इंडिया क्लब ने मास्क और खाने की जिम्मेदारी ली। उनके कई सदस्य स्वयंसेवक बनकर लोगों की मुफ्त स्वास्थ्य जाँच आदि भी कर रहे थे। ये सारा खर्च भी उन्होंने ही वहन किया।

हमें सिर्फ वेन्यू के पीपीई किट और बाथरूम के सफाई के लिए खर्च करना था। सबसे पहले वेन्यू को सैनिटाइज किया गया। सबको मास्क बाँटा गया। साढ़े तीन सौ लोग जा रहे थे। वे कई शहरों से आए थे। असेंबली प्वाइंट पर मेला सा लगा हुआ था।

कॉन्सल जनरल होने के नाते मुझे सारी व्यवस्था देखनी थी। लोगों के रजिस्ट्रेशन, टिकट, स्थानीय सरकार द्वारा दिए गए डेक्लरेशन फॉर्म, कोविड टेस्टिंग आदि के बाद लोगों को बसों में बिठाना था। सब लोग बस में बैठ कर राजदूत महोदय का इंतजार करने लगे। निर्धारित समय पर राजदूत महोदय आए और उन्होंने तिरंगा हिला कर पहली उड़ान को रवाना किया।

एयरपोर्ट पर भी मेरी ड्यूटी लगी थी। साउथ अफ्र एयरलाइंस को सारे पैसेंजर की लिस्ट, उनकी कोरोना टेस्टिंग फॉर्म आदि देने थे। राजदूत महोदय पंद्रह मिनट में झंडा हिलाकर चले गए। पर मुझे असेंबली प्वाइंट और हवाई अड्डा पर करीब आठ घंटे रुकना पड़ा। कई लोग भावुक हो रहे थे। वे हमें धन्यवाद कहना चाह रहे थे। बूढ़ी औरतें सारा प्रोटोकॉल भुलाकर मुझे गले लगा रही थीं। वे रो रही थीं। बड़ा ही भावुक क्षण था। लगभग तीन महीने अवैध रूप से दक्षिण अफ्रीका में रहने के बाद वे अपने देश अपने वतन वापस जा पा रहे थे।

हमने कई विशेष केस के साथ फोटो खिंचवाया और ट्विटर व फेसबुक पर अपलोड किया–यही तो फैशन है और यही हमें निर्देशित था–हर छोटी से छोटी बात को फेसबुक के जरिये दुनिया को बताना। सो हमने वही किया। कहीं इस दौरान तो मुझे कंटैमिनेसन नहीं हुआ? मैं तो पीपीई किट और मास्क पहनी हुई थी, तब कैसे इंफेक्शन होता! हाँ कई लोगों ने अपने महान हेल्फ फुल व तारनहार सी जी (मेरे साथ) के साथ सेल्फी लेना चाहा था पर उनके लाख कहने के बावजूद मैंने चेहरे से मास्क नहीं हटाया था–तब मुझे कैसे कोरोना हो सकता है?

इसी तरह की कवायद कई बार हुई। कोविड इंफेक्शन इस दौरान हो सकता है और नहीं भी हो सकता है पर उसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। दूसरी संभावना हो सकती है कि मेरे घर पर आयोजित रुद्राभिषेक कार्यक्रम के दौरान हमलोग कोविड संक्रमित हो गए हों। पर मैंने उस वक्त तो सिर्फ ऑफिस के लोगों को बुलाया था। केवल तीन औरतें–मेरी महिला मित्र उपस्थित थे–और वे तीनों लगातार मास्क लगाए हुए थे।

मेरे ऑफिस के अधिकांश लोगों ने सोशल डिस्टेंसिंग को फॉलो किया था। मुझसे तो कोई भी नहीं मिला क्योंकि उस दिन मेरा निर्जल उपवास था–लोग दूर दूर से ही पूजा कर रहे थे। पर लिली और तारा को यही संभावना प्रबल लग रही थी, इसलिए उन्होंने मुझसे फेसबुक से रुद्राभिषेक के फोटो हटाने के लिए भी कहा। मैंने फोटो हटा दिया पर मुझे शिव की शक्ति पर संदेह नहीं था–न तो संदेह करने चाहिए थे। हम सब तो भक्ति-भाव से सामाजिक दूरी का पालन करते हुए पूजा कर रंगे थे–और भगवान शिव ने हमें आशीर्वाद की जगह कोरोना का श्राप दे दिया होगा! कदापि नहीं!

जैसा कि सबको पता था कि ऑफिस में एक लोकल स्टाफ जेनेलिया, सबसे पहले कोविड पॉजिटिव पाई गई थी। जिस दिन वह ऑफिस आई थी उस दिन भी उसे सर और गले में दर्द था और वह बुखार होने का भी शिकायत कर रही थी। वह मार्केटिंग असिस्टेंट थी और तारा की सहायक।

तारा के कमरे में जब उसने खाँसते हुए टाइप करना शुरू किया तो तारा चौकन्नी हो गई! थोड़ी देर बाद वह घबरायी-सी मेरे कमरे में आई और मुझसे कहने लगी कि ‘मैडम, मैंने उसे जल्दी चले जाने को कहा, फिर भी नहीं जा रही है। अब आप उसे ऑफिस से जल्दी भगाइए नहीं तो हम सबको संक्रमण फैलेगा।’ मैं बाहर आई और जेनेलिया को बुलाया और पूछा कि जब सबको स्टैंडिंग इंस्ट्रक्शन है कि किसी को भी कोविड के लक्षण दिखे तो वे खुद को आइसोलेट कर लें और ऑफिस को सूचित करें। ऑफिस आने की जरूरत नहीं है। तुमने हमें क्यों नहीं बताया और लगातार ऑफिस क्यों आ रही हो?

जेनेलिया रोने लगी। उसने बताया कि उसे पता है कि उसे कोविड हो सकता है पर हॉस्पिटल में इतनी भीड़ है कि वह नहीं जा सकती। अकेले तो बिल्कुल नहीं। दूसरे, वह रो रही थी कि उसके पास पैसे नहीं हैं कि वह टेस्ट व इलाज करवा सके। भारत के ऑफिस में वह काम करती है तो ऑफिस को उसके मेडिकल और आइसोलेशन का खर्च वहन करना चाहिए जैसे कि दक्षिण अफ्रीका में कई कॉर्पोरेट और सरकार ने किया है।

मुझे गुस्सा आ गया था। एक तो इनलोगों को स्थानीय संस्थाओं की तुलना में भारत सरकार द्वारा अधिक सैलरी दी जाती है पर, जब भी पूछो तो इनके पास अपने इलाज या ट्रांसपोर्ट के लिए पैसे नहीं होते! सब इनकी चाल है–वैसे तो बुलाने पर भी ऑफिस नहीं आते, कितने मनगढ़ंत बहाने बनाते हैं–पर जब इसे संदेह है कि इसे कोविड है तो जान-बूझकर इंफेक्शन फैलाने आ गई! और अब बहस कर रही है। हम सबने उसे जबरदस्ती वापस भेजा। परंतु, उसके आमने-सामने हम दोनों–तारा और मैं करीब आधे घंटे तो होंगे ही। तारा इसके पहले भी संक्रमित हो गई होगी, क्योंकि जेनेलिया और तारा एक ही कमरे में बैठते थे–और तारा मेरे कमरे में कम से कम एक घंटे तो रोज ही बैठती होगी।

हाँ, हमलोग हमेशा मास्क पहने रहते थे। तो हो सकता है कि तारा तो जेनेलिया से और मुझे तारा से संक्रमण फैला हो। पर लिली मिश्रा सबसे पहले संक्रमित हुई। तो उनको किससे संक्रमण फैला? लिली कहती थी कि हम तीनों को संक्रमण अलग-अलग श्रोतों से हुआ है। उस दिन लिली मेरे पड़ोसी डॉक्टर बक्स के यहाँ मेरे साथ गई थी। सारे धंधे बंद थे पर डॉक्टरी का धंधा चमक रहा था। डॉक्टर बक्स बहुत व्यस्त रहते थे। परंतु मुझे घर में ही चेकअप करने को तैयार हो गए। प्रारंभिक जाँच और खून आदि के रिपोर्ट के बाद उन्होंने बताया कि मेरा हार्मोन लेवल बहुत लो हो गया है और मुझे तुरंत सप्लीमेंट लेने चाहिए।

उस दिन डॉक्टर साहब का प्लान था कि मुझे विटामिन सी और दूसरे जरूरी विटामिन को ग्लूकोज के साथ चढ़ा दिया जाय तो कोरोना से बचाव हो सकेगा। मुझे सुई से बहुत डर है इसलिए लिली जी को रिक्वेस्ट करके अपने साथ ले गई थी। वहाँ सौहार्दपूर्ण वातावरण में हम दोनों का स्वागत किया गया। मिसेज बक्स–फातिमा जी ने जब तक हमें जर्मव्हीट जूस पिलाया तब तक डॉक्टर साहब ने मुझे सलाइन चढ़ाने की सारी तैयारियाँ कर ली।

जब मेरा सलाइन चढ़ रहा था तब फातिमा जी ने मेरा उत्साह बढ़ाने को उत्साहपूर्वक बताया कि वे लोग हरेक सप्ताह विटामिन सी के शॉट्स ले रहे हैं जिससे कोविड से बचे रहें।

मैंने दो सप्ताह बाद दुबारा सलाइन चढ़वाने का वादा किया। फातिमा और भी उत्साहित हुईं और बताने लगीं कि ये चढ़वाना अब आम बात हो गया है। अभी परसों ही डॉक्टर साहब की तबीयत बहुत नासाज हो गई थी तब फातिमा ने ही उन्हें सलाइन चढ़ायी थी।

लिली के नैन खड़े हो गए। चौकन्नी होकर पूछा–‘क्या हुआ था इन्हें?’

‘बुखार और कमजोरी थी, इसलिए मैंने उन्हें विटामिन चढ़ा दिया।’ तब तो लिली ने कुछ नहीं कहा पर वापस मेरे घर आकर अफसोस करने लगी कि बेकार उनके यहाँ गए। उन्हें शायद कोरोना हुआ होगा तो? क्योंकि बुखार और कमजोरी तो इसी के लक्षण हैं।

उसके बाद जब हमें कोविड कंफर्म हुआ तो लिली जी कतई मानने को तैयार न थी कि डॉक्टर बक्स के अलावा किसी और से हमें संक्रमण फैला होगा!

बड़े दिनों बाद जब मैं लगभग ठीक होने लगी थी–शायद सातवें दिन डॉक्टर बक्स का हाल-चाल जानने के लिए फोन आया तब मैंने बताया कि मुझे कोविड हो गया है। अच्छी दोस्त और पड़ोसन की तरह फातिमा ने पूछा कि कुछ मदद चाहिए तो नि:संकोच बताना। मैंने उन्हें आश्वस्त किया पर भगवान की कृपा से नौबत नहीं आई कि उन्हें तकलीफ हो जाए। हाँ, मेरे कोविड होने के लगभग पंद्रह दिन बाद मैंने अपनी कमजोरी दूर करने के लिए दुबारा विटामिन शॉट्स लेना चाहा और डॉक्टर बक्स को फोन किया तब पता चला कि उन्हें और फातिमा को कोविड हो रखा है और वे लोग अभी किसी से नहीं मिल रहे हैं।

मैंने लिली को फोन किया और बताया कि अब डॉक्टर बक्स को कोविड हुआ है–पहले नहीं। इसलिए उनका अनुमान कि डॉक्टर बक्स से हमें कोविड संक्रमण हुआ–गलत था। उस दिन जब हम डॉक्टर बक्स के घर गए थे तो उनकी जिस कमजोरी का जिक्र फातिमा ने किया था–वह सामान्य बुखार और फ्लू ही रहा होगा।

तारा ने एक दूसरी संभावना की ओर संकेत किया कि हमें मॉर्निंग वॉक के दौरान कोविड हुआ होगा। लॉकडाउन के तीसरे सप्ताह में दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने स्वास्थ्य व फिटनेस को ध्यान में रखते हुए लॉकडाउन कर्फ्यू में सुबह तीन घंटे की ढील दी थी, उस दौरान किसी को भी मास्क पहनकर वॉक, जॉगिंग, साइक्लिंग आदि करने की छूट थी। बाद में यह समय-सीमा थोड़ी बढ़ा दी गई। सबको बाहर वॉक करते देखकर हमें भी उत्साह आया और हम भी अपने सिक्योरिटी गार्ड के साथ बाहर टहलने जाने लगे। जब मोबाइल ऐप भी डाउनलोड कर लिया जिससे हमें तय की गई दूरी पता चलती रहती थी। कभी-कभी लिली भी हमारे साथ आ जाती थीं, क्योंकि उनका घर मेरे घर से सिर्फ एक किमी की दूरी पर था।

कुछ दिन हम सिर्फ धीरे-धीरे टहलते रहे। लगभग महीने भर बाद हमारा शरीर डेली दस किमी तक की दूरी के लिए अजस्ट हुआ। हमने तब जॉगिंग करने की सोची। इसके प्रेरणा स्त्रोत थे–टाटा ग्रूप के पूर्व सीईओ–मोहन जी। वे पछत्तर साल की उम्र में भी चुस्त-दुरुस्त थे और तो और छह किमी स्लो जॉगिंग भी करते थे। वे अक्सर हमें हॉटन ड्राइव रोड पर मिल जाते–मुझे लगा कि इतनी उम्र के बावजूद वे दौड़ रहे हैं और मैं बुढ़िया की तरह धीरे-धीरे रेंग रही हूँ–और तब मैंने भी रोजाना छह किमी जॉगिंग करने की सोची। इस प्रकार हमारा रोज करीब पंद्रह सोलह किमी कवर होने लगा। जब स्पीडोमीटर ऐप दिखाता कि आज आठ किमी जॉगिंग हुआ है–तो मैं खुश हो जाती और सगर्व अपने ड्राइवर व स्टाफ को बताती!

वॉक के दौरान हमारी जागर्ज टाइप कई दोस्तियाँ भी हो रही थीं–कई लोगों से हमारा परिचय बढ़ रहा था। हम सारे ऐवेन्यू के चक्कर लगाते। कभी-कभी तो हम नेलशन मंडेला फाउंडेशन तक जॉगिंग करते हुए पहुँच जाते। मैं वहाँ हाँफते हुए ठिठक कर सोचती कि काश, मैं सात-आठ साल पहले–जोहान्सबर्ग में पोस्टिंग लेती तो मंडेला के साथ जॉगिंग करती (मंडेला जी को लोग यहाँ प्यार से मडिबा कहते हैं) या फिर वे वॉक करते हुए मुझे रास्ते में मिल जाते और हम एक दूसरे से ग्रीटिंग एक्सचेंज करते। कितना मज़ा आता।

जब मैंने अपनी कल्पना की उड़ान अपनी एक मित्र–छवि को बताया–तो उसने कहा कि रोज बैंक में जहाँ वह रहती है–वहाँ राष्ट्रपति रामा फोन्साउ से अक्सर वॉक करते हुए मिल जाते हैं और वे अपने सुरक्षाकर्मियों से घिरे होने के बावजूद सारे जागर्ज को वेब करते हैं। यह सुनकर प्रत्यक्ष में तो मैं मुस्कुराती रही पर अंदर ही अंदर ईर्ष्या से जल-भुन गई। तो कल्पना और सच में इतना साम्य भी हो सकता है!

हमें राष्ट्रपति जी तो नहीं पर कई अच्छे लोग मिल जाते और हमलोग गर्मजोशी से गुडमॉर्निंग का जाप करते हुए तेजी से हाथ हिलाते हुए निकल जाते। हौटोन पॉश रिहायशी एरिया है–अधिकांश या तो भारतीय अमीर या फिर गोरे लोग यहाँ बसते हैं। हम रोज-रोज करीब उन्हीं लोगों से टकरा जाते थे, जो यहाँ रहते थे। जैसे एक गोरी लड़की जो शायद डाउन सिंड्रोम से ग्रसित थी–रोज ढलान पर साइकिल चलाती हुई दिख जाती। दो सुंदरियाँ टिप-टॉप होकर बस एकाध किमी चलती और लॉकडाउन के नियमों को धता बताते हुए किसी पुलिया पर बैठकर गप करती हुई मिलतीं। हमें देखकर ये चौड़ी मुस्कान बिखेर देतीं।

एक गुमटी वाला जहाँ लिली ने मेरे लिए धनिये की चटनी रखवायी थी कि वापसी में लेंगे–वह जान चुका था कि मैं यहाँ भारत की कॉन्सल जनरल हूँ, वह रोज मुझसे बात करने की फिराक में रहता। मैं भी उससे अच्छे से बात करती, कभी-कभार उसकी गुमटी पर चाय पी लेती।

फिफ्थ एवेन्यू में जेड प्लस सिक्योरिटी वाला एक महलनुमा घर के आगे लालबत्ती में कोर्टेक्स सिक्योरिटी की गाड़ी लगी रहती। करीब दस सिक्योरिटी मैन मशीनगन से लैस मुस्तैदी से ड्यूटी पर चौकन्ने खड़े मिलते। मैं उन्हें देखकर थर-थर का नाटक करती और वे लिलखिला कर हँस देते। सब मेरे परिचित हो गए जो धीरे-धीरे मेरे मॉर्निंग वॉक के साथी बनते चले गए। इन सबसे ठिठककर मैं बतिया लेती और तब आगे बढ़ जाती।

तारा ने शंका जाहिर की कि हो न हो इन्हीं में से किसी से आपको और लिली को कोविड हुआ और फिर आपसे मुझे। मैं उसकी बात को बेबुनियाद मानती–क्योंकि पूरे समय हमलोग मास्क पहने होते थे। अगर उनसे मुझे कोविड हुआ तो वे अब तक क्यों वॉक कर रहे हैं और मैं क्यों आइसोलेशन में हूँ। फिर एक थियोरी आई कि हम सबको शायद शॉपिंग के दौरान कोविड पकड़ा हो। ‘कैसे? वहाँ भी तो हम मास्क पहने रहते थे–मॉल के भीतर जाते वक्त हाथों में सेनिटाइजर लगाते और बाहर निकलते वक्त भी। सारे लोग ऐसा ही करते थे तो शॉपिंग में हमें कोविड कैसे हो सकता है?’ मैं प्रतिरोध करती।

जितने मुँह–उतनी बातें, उतनी ही हम महिलाओं को शक करने की प्रवृत्ति–सब ये दिखाना चाहती थीं कि दूसरे की लापरवाही के कारण ही उन्हें कोरोना का दंड भुगतना पड़ा। डॉक्टर लाख कहें कि कोरोना एयरबाउंड विषाणु बन चुका है और किसी को भी कहीं भी जो सकता है–हम इसे मानने को तैयार न थे। आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला पर ये सिद्ध न हो सका कि हमें कोरोना कैसे हुआ–सबसे पहले मुझे हुआ और मुझसे बाकी लोगों को फैला कि दूसरे लोगों के द्वारा मुझे ये अनुपम भेंट दी गई। खैर, अंत में हम सबने गुप्त रूप से विचार कर यह मान लिया कि हमें वन्दे भारत फ्लाइट भेजते समय–सरकारी ड्यूटी के दौरान ही कोरोना हुआ होगा।

यह बताने भी अधिक सम्मानजनक था। इससे किसी पर आरोप या शक नहीं होता था, बल्कि गर्व होता था कि भारतमाता की सेवा करते हुए हम कोरोना के शिकार बने।

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खुद से कोविड की डील करते-करते मैं दूसरे लोगों को भी बचाव और निदान की सलाह देने लगी। सबसे पहला क्लाइंट मुझे मेरे परिवार में ही मिल गया।

सरोज–मेरी बहन मंजु का पति और मेरा सबसे करीबी बहनोई। वह रिश्तेदार कम मेरा दोस्त अधिक है। हम दोनों की रुचियाँ बहुत मिलती हैं। जैसे खाना बनाना, बागवानी करना, मछली पालन, पोल्ट्री आदि उसकी भी हॉबी हैं–हम अक्सर एक-दूसरे से अपनी सीक्रेट रेसिपी शेयर करते हैं।

सरोज और मंजु अपने दो प्यारे बच्चों के साथ जमशेदपुर में रहते हैं। मंजु कॉलेज में रीडर है पर अभी उसका कॉलेज बंद है–कोविड के चलते लॉकडाउन जो है। इसलिए मंजु और सरोज रोज नई-नई रेसिपी ट्राई कर रहे हैं। अक्सर फैमिली ग्रुप में अपनी डिश की फोटो डालकर हम सबको ललचाते-तड़पाते रहते हैं।

मेरी माँ भी मंजु के यहाँ रह रही है, क्योंकि–सरोज बेहद आज्ञाकारी दामाद है। वरना मेरी माँ सी डिफिकल्ट औरत जिसकी सास हो–और वह आदमी शांति से–निष्काम भाव से उसकी सेवा करता जाए–तो माँ के लिए बेहतर ऑप्शन और कहाँ हो सकता है? इसलिए माँ भी वहीं रहती है–पिछले छह महीने से, वहाँ उन्हें अच्छा लगता है।

एक दिन जब हम लगभग ठीक हो गए थे तब मंजु का पैनिक कॉल आया।

‘दीदी, सरोज को रात में बहुत बुखार था और अभी बहुत कमजोरी है, क्या उसे कोविड है?’ मेरा माथा ठनका! बुखार और शरीर में दर्द! निश्चित ही कोरोना के लक्षण हैं। मैंने उसे व्हाट्सऐप पर पैरासिटामोल,  विटामिन आदि दवाओं के नाम भेजे और खरीद लाने की सलाह दी।

‘तुरंत ये प्रोटोकॉल शुरू करो, दवाएँ देना शुरू करो।’ मैंने निर्देश दिया।

‘दीदी, यहाँ दुकान में ओवर द काउंटर दवाई भी नहीं उपलब्ध है, बताओ क्या करें? सरोज के पास एक पैरासिटामोल था वो उसने कल रात को खा लिए थे। झारखंड सरकार ने सारी दवाओं को खुले में बेचने पर पाबंदी लगा दी है, इसलिए बिना प्रिस्क्रिप्शन के कोई दवा नहीं मिलेगी। और किसी डॉक्टर के पास जाते ही या टेस्ट करते समय वे लोग जबरदस्ती कोविड वार्ड में उठा ले जाते हैं और फिर बाहर नहीं निकलने देते। तुम्हें टाटा मेडिकल हॉस्पिटल (टीएमएच) का हाल तो पता ही है।’

‘हाँ, मुझसे बेहतर टीएमएच को कौन जानेगा? यहीं पर दस साल पहले आईसीयू में हमारे अनअटेंडेड बाबूजी की जान गई थी! और उसके बाद की कयावद भी मैं कैसे भूल सकती हूँ?’

‘दीदी, हाल ही में ज्ञानी का पति कोविड केस में वहीं भर्ती था और उसकी भी मौत हो गई।’

‘ओह, हे भगवान! सो सैड!’ मैंने कहा। मैं ज्ञानी को जानती थी। वह मंजु की सहयोगी और मित्र है और मेरी जबरदस्त फैन! पिछली बार जब मैं जमशेदपुर गई थी तो वह मुझसे मिलने आई थी, उसका पति ही स्कूटर चलाकर उसे लाया था। शर्मीला-सा पतला-दुबला जवान!

‘हाय, कोरोना से कैसे मर गया वह तो जवान था!’ मैंने मंजु से पूछा!

‘उसे बहुत दिनों से बुखार और गले में दर्द था, पर इसी तरह भर्ती होने के डर से घर में ही कुछ दवाएँ ले रहा था। उस ज्ञानी को भी बुखार हो गया और वो उसे जबरन हॉस्पिटल ले गई। नियम से दोनों को भर्ती कर लिया गया, पर ऑक्सीजन की कमी होने के चलते उसके पति की साँस फँसने लगी। अभी कोविड वार्ड पूरा खचाखच भरा हुआ है। डॉक्टर भी थक गए हैं, शायद रात को वहाँ कोई नहीं था, जब उसकी मौत हुई। ज्ञानी उसी हॉस्पिटल में भर्ती थी–उसे बाद में बताया गया, पर वह भी अपने पति का अंतिम दर्शन भी न कर पायी, क्योंकि वह भी कोविड पॉजिटिव थी।’

फोन पर ही मेरे आँसू बहने लगे। चालीस साल का जवान लड़का मर गया! कितने लोग मर रहे हैं। सरकार बेबस है और ऊलजलूल नीतियाँ ला रही है। क्योंकि, किसी को नहीं पता कि कोविड से कैसे बचें और हो जाने पर कैसे लड़ें–सामना करें।

‘दीदी, इसलिए हमलोग सरोज को हॉस्पिटल नहीं भेजना चाहते।’

‘अरे, उसे हॉस्पिटल जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। बस सारी दवाएँ कहीं से मँगवा लो।’

‘ठीक है दीदी, सरोज का एक दोस्त है डॉक्टर पप्पू। उसी से पूछती हूँ।’ कहीं से जुगाड़ करके मंजु ने दवाए मँगवा ली। मैंने सरोज से भी बात की। उसे अब बुखार नहीं था पर वो नर्वस था। मेरा सबसे बढ़िया भाई! मुझे उसे मोटिवेट करना था। मैंने अपने उत्साहित आवाज में उसको फोन किया और उसे भी उत्साहित कर दिया। यह निश्चित हुआ कि वह फिलहाल हॉस्पिटल नहीं जाएगा। वैसे भी भर्ती तो उन्हें करनी चाहिए जो सीरीयस हैं। एसिम्प्टमैटिक और माइल्ड लक्षणों वाले मरीजों के लिए बेस्ट ऑप्शन है–घर पर ही खुद को आइसोलेट होकर दवाएँ खाना और आराम करना!

वैसे भी सरोज इधर छह महीने से वर्क फ्रॉम होम ही कर रहे थे, इसलिए कोई परेशानी वाली बात थी ही नहीं। बस एक परेशानी थी कि मेरे विपरीत सरोज दवाओं का सेवन नहीं करना चाहता था। मेरी बतायी हुई दवाओं को भी उसने छोड़ दिया। क्योंकि उसे बुखार नहीं था।

हमारे भारत में बुखार ही सबसे डरावनी बीमारी मानी जाती है, क्योंकि हमारा राज्य हमेशा से मलेरिया पीड़ित रहा है। मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम के बावजूद गए साल हजारों लोग मलेरिया के शिकार बनते हैं। उसी तरह एन्सेफलाइटिस, डेंगू, टाइफाइड आदि तो हरेक बरसात आते हैं और कितने ही बच्चे व बूढ़े काल-कवलित हो जाते हैं। इसलिए बुखार रहना बहुत डरावना है और बुखार का उतर जाना बीमारी खत्म होने का संकेत।

पर कोविड के कॉम्प्लिकेशन बुखार खत्म होने के बाद नजर आते हैं। जब तक बुखार है–आप ठीक हैं, पर कोविड में बुखार उतरते ही सबसे अधिक खतरा होता है–ऑक्सीजन लेवल कम हो जाने का। इसलिए ऑक्सीमीटर खरीदने की सलाह दी जाती है। पर बाजार में सर्वाधिक उपलब्ध में इन चाइना वाले ऑक्सीमीटर पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। सरोज ने इसलिए ऑक्सीमीटर खरीदा ही नहीं। उसने विटामिन सी की दवाइयाँ खाने में भी झंझट किया। वह पाँच सौ एम.जी. की एक गोली लेना चाहता था जबकि कम से कम हजार एम.जी. व्यस्क के लिए होनी ही चाहिए।

दूसरे उन्हें शुगर भी है। वह दवाई भी छोड़ दी। कोविड में खाना भी खाने का मन नहीं करता। मुँह का स्वाद नष्ट हो जाता है। सरोज भी एकाध रोटी खा लेते थे। वे तीन दिन के ही अंदर बेहद कमजोर हो गए थे, इसलिए एक दिन बेहोश होकर गिर पड़े। घर में रोना-धोना चालू हो गया। तुरंत डॉक्टर पप्पू ने फोन करके मंजु को हिदायत दी कि सारी दवाइयाँ खानी है–हाँ, शुगर की भी। खाना जबरदस्ती ही सही समय पर खा लेना है। सारे सप्लीमेंट भी कम से कम दो सप्ताह तक खाने ही हैं और सबसे जरूरी है–आराम करना, नहीं तो दिल और फेफड़े की कॉम्प्लिकेशन हो सकती है।

ये दवाइयाँ और विचार मेरे भी थे पर घर की मुर्गी दाल बराबर। मैं बोल रही थी कि सारे प्रोटोकॉल फॉलो करो तो अटपटा लग रहा था–पर एक डॉक्टर ने कहा तो वह कन्विन्सिंग था, सरोज ने उसे मान लिया। उस तरह, उनको एक सप्ताह में ही कोविड से आराम आ गया। पर कोविड एक बार घर में घुस जाए तो उतनी आसानी से वापस नहीं जाता–अधिकतर लोगों को अपनी चपेट में ले लेता है। कोविड का अगला शिकार बना–संजय, सरोज का छोटा भाई। संजय एक इंजीनियर है जो कनाडा के एक आईटी फर्म में काम करता है। कोविड होने के बाद वह वन्दे भारत मिशन फ्लाइट से, कनाडा से छुट्टी लेकर वापस आ गया और सरोज-मंजु के पास ही रह रहा था।

कोविड के लक्षण आने के बाद सरोज ने उसका और अपना किसी प्राइवेट लैब में स्वैब टेस्ट कराए। दोनों पॉजिटिव आए पर सरोज का चूँकि दो सप्ताह हो गया था इसलिए वह अब आइसोलेट नहीं हुए और अपना कमरा संजय को दे दिया। संजय विवाह के लिए इच्छुक था और इस आइसोलेशन समय का इस्तेमाल उसने अपने प्रोफाइल को अपग्रेड करने और कई ऐप डाउनलोड कर अपने प्रोफाइल अपलोड करने में लगाए। सेन के रिक्वेस्ट पर मैंने संजय से बातचीत किया और उसे मोटिवेट किया। संजय बहुत माइल्ड्ली बीमार था। सत्ताईस साल के लड़के को कोविड कुछ न बिगाड़ पाई।

बाद में मंजु भी कोविड पॉजिटिव पाई गई। उसने मुझे फोन किया कि मैं कैसे आइसोलेट हो सकती हूँ–दोनों बच्चों को छोड़कर?

मैंने उसे अपना उदाहरण और एक्सपीरियंस साझा करते हुए सलाह दी कि बच्चों को कोविड बहुत माइल्ड होता है–मेरे तीनों बच्चों को कोविड हुआ पर वे तुरंत ठीक हो गए। पर मंजु डर गई थी। वह बच्चों के लिए अतिरिक्त सावधानियाँ बरतना चाहती थी।

अपने घर में वैसे भी मैं बदनाम हूँ कि मुझे बहुत रिस्क लेने की आदत है। मंजु ने वह रिस्क नहीं लिया। जिस नीचे वाले कमरे में सरोज और बाद में संजय रह रहे थे, वह उसमें शिफ्ट हो गई। सारी दवाइयाँ मेरी वाली चला रही थी। तभी मैंने फेसबुक पर उसका फोटो देखा कि वह जितिया कर रही है! जितिया एक स्थानीय पर्व है, जिसे माताएँ अपने पुत्रों के लिए रखती हैं।

मेरी माँ पहले पाँच बेटियों की माँ के कारण बहुत दुःखी रहती थी–पर जबसे सोनू जन्मा है–अत्यंत उत्साह से जितिया कर रही है। अबकी वे जमशेदपुर में मंजु के पास थी। उसने यह उत्साह उसमें भी चढ़ा दिया और बीमार होने के बावजूद, मंजु ने जितिया व्रत किया।

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फकीर हसन–भारत से चालीस-पचास के दशकों में इनके पूर्वज बेहतर जीवन की तलाश में आए थे। फकीर हसन ने जर्नलिजम और फोटोग्राफी को अपना शौक और पेशा बनाया। कोरोना महामारी के फैलने के बाद वे अधिकतर अपने घर में ही रहते थे। वे कई बार राष्ट्रपति जी के दौरे में भारत, कई बार उन्हें मैंने संपर्क किया और ऑफिस आने के लिए निमंत्रित किया, परंतु वे कोरोना के चलते सेल्फ क्वॉरंटीन में थे, इसलिए हमारे निमंत्रण को विनम्रतापूर्वक मना कर देते। हमने भी उनकी इच्छाओं का सम्मान किया और अधिक जोर नहीं डाला।

उन्हीं दिनों अठारह जुलाई को हमने नेल्सन मंडेला की एक सौ दूसरी जन्मदिवस के उपलक्ष्य में एक वेबिनार का आयोजन किया। इसमें सारे स्पीकर को अपने घर से वेबलिंक पर ऑनलाइन होना था। फकीर हसन ने सौ से ऊपर किताबें लिखी हैं, जिनमें से एक किताब नेल्सन मंडेला के भारतीयों के साथ सौ इंटरैक्शन के बारे में है। इसलिए हमने फकीर भाई को भी बोलने के लिए आमंत्रित किया। वेबिनार की रूपरेखा जानकर उन्होंने हाँ कर दी।

जिस दिन यानी अठारह जुलाई को उनका मैसेज आया कि वे कोरोना पॉजिटिव आ गए हैं, और इसलिए वेबिनार में बोल नहीं सकेंगे। हमने उपाय निकाला कि सिर्फ उनका ऑडियो टेप चलाया जाय। इस पर वे मान गए।

वेबिनार बहुत अच्छा हुआ। इसके चार दिन बाद मैंने उन्हें फोन करके पूछा कि आप कैसे हैं?

वे आवाज से ठीक ही लग रहे थे, पर शाम को उनकी हालत बेहद खराब हो गई और उन्हें हॉस्पिटल में दाखिल करवाना पड़ा। जब वे घर वापस आए और ठीक हो गए तब उनसे रक्षाबंधन वाले दिन बात हुई। वे मुझे अपनी बहन मानते हैं। हम दोनों ने प्रार्थना की कि अगले वर्ष हम सचमुच एक दूसरे के सामने हो पाए और मैं उनकी कलाई पर राखी बाँध पाऊँ। उन्होंने भी माना कि सामान्य हालात में हॉस्पिटल जाने की कोई जरूरत नहीं है। मेरी सलाह उन्होंने मान ली और मेरी बतायी दवाइयाँ भी इसके लिए उनका धन्यवाद! भगवान का धन्यवाद कि वे ठीक भी हो गए।

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मेरी एक सहेली और जोहान्सबर्ग इंडियन वोमेंस एसोसिएशन की एक्स-को मेंबर (मैं इस संस्था की प्रेसिडेंट हूँ)–रीता जी भी कोविड पॉजिटिव हो गईं। उनसे मेरा परिचय जोहान्सबर्ग आने के तुरंत बाद ही हो गया था। मेरी यू.के. में हाईकमिशनर रुचि घनश्याम मैडम की वे अच्छी मित्र रही थीं। रुचि मैडम ने मुझे कहा था कि कोई भी मदद की जरूरत हो तो रीता जी को बताना। वे जोहान्सबर्ग में काफी समय से बस गई हैं, इसलिए सब कुछ जानती हैं–लोग, दुकान, मॉल और घर पर कोई जरूरत हो तो वे विश्वासी मैकेनिक और पलम्बर भी रेकमेंड कर देती हैं।

मेरे जोहान्सबर्ग पहुँचते ही दूसरे दिन रीता जी मुझसे मिलने आ गईं। पहली मुलाकात में ही रीता जी मुझे बड़ी अच्छी लगीं। दिवाली नजदीक थी। हमने साथ दिवाली मनायी। वे सदा खुश रहतीं। बच्चों के लिए अपने हाथ से चिकन बनाकर भेजतीं। मेरे कोविड होने पर भी उन्होंने पूछकर मेरे लिए चिकन भेजी थी। इसलिए एक दिन जब उनका घबराया हुआ स्वर सुना तो मैं चौंक गई। उनके बेटे सलिल को कोविड डायग्नोस हुआ था।

सलिल भारत के प्रसिद्ध ब्रांड डाबर का अफ्रीका रिप्रेजेंटेटिव है। वह इस लॉकडाउन में अच्छे क्वालिटी के सेनिटाइजर भी बनाता है। अभी हाल में ही फ्रांस की एक कंपनी से उन्होंने परफ्यूम मँगाया था, जिसे सेनिटाइजर में डाला जाना था। एक दिन वह अपने ऑफिस में जब क्वालिटी चेक कर रहे थे, तो उन्हें कोई सुगंध नहीं आई। उन्हें लगा कि ये मैन्युफैक्चरिंग मिस्टेक है इसलिए अपनी सारे टीम को बुलाया और डाँटा कि ‘अब कि फ्रांस से कैसा परफ्यूम आया है कोई सुगंध नहीं है–आपलोग ने कम तो नहीं डाली? या फ्रांस की कंपनी ने घटिया माल तो नहीं भेजा?’

तो उनके स्टाफ ने आश्चर्य प्रकट किया, क्योंकि उसमें बड़ी तेज परफ्यूम की गंध आ रही थी। तुरंत लोगों ने उन्हें सलाह दी कि कोविड टेस्ट करवा लें। घर आने के बजाय वे वहीं से लैब गए और अपना स्वॉब टेस्ट करवा डाला।

सलिल की मम्मी रीता जी का सुबह-सुबह फोन आया–‘सलिल कोविड टेस्ट में पॉजिटिव आया है। हाय, मैं तो बहुत घबरा रही हूँ। अंजु प्लीज बताओ न क्या करें?’ मैंने उन्हें शांत किया और विस्तार से सारी दवाओं के बारे में समझाया। फिर अपना ऑक्सीमीटर भी सलिल के लिए भिजवा दिया।

मैंने रीता जी को अपने घर के अनुभव के आधार पर ताकीद की कि सबसे अधिक आपको बचाव करने और सावधानी बरतने की आवश्यकता है। बच्चों को कोविड माइल्ड होता है और उनकी इम्यूनिटी भी डेवलप हो जाती है। आप बस बचकर रहिएगा।

सलिल का घर बहुत बड़ा है। वे अपने घर में ही आइसोलेट हो गए। वहीं उनका खाना बेल बजाकर पहुँचा दिया जाता। स्विमिंग पूल के बगल में एक आराम कुर्सी डालकर वे थोड़ी देर धूप ले लेते थे। पर बच्चों, पत्नी और रीता जी से दूर ही रहे। तब भी पता नहीं कैसे रीता जी और बच्चों को कोविड हो गया। उनकी पत्नी अंजली भी पॉजिटिव आ गईं। पर भगवान की कृपा से और मेरी बतायी हुई दवाई से सब लोग घर में ही ठीक हो गए। हॉस्पिटल जाने की नौबत नहीं आई।

यह स्वाभाविक और संभाव्य था कि उसके तुरंत बाद रीता जी और परिवार के अन्य सदस्यों को कोविड हो जाए। इसमें एक व्यक्ति को अगर कोविड है और वह आइसोलेट भी होता है तब भी यह पाया गया है कि साधारणतः सारे परिवार को कोविड हो जाता है। आइसोलेशन मुश्किल है खासकर भारतीय परिवारों में। पर सबलोग और रीता जी भी बिना हॉस्पिटल गए घर में ही मेरे बताए इलाज और दवाइयों से ठीक हो गए। हम बीच-बीच में बातचीत करते रहते थे।

हिंदी प्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा मेरे सुपरिचित हैं। वे हमेशा मुझे लिखने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। उनका फोन आया कि उन्हें खाने का टेस्ट नहीं आ रहा है और उन्हें दो-तीन दिन से बुखार भी है। मैंने उनसे पूछा कि क्या पैरासीटामोल और विटामिन सी एवं जिंक सप्लमेंट उनके पास है?

‘ना! बुखार की गोली थी वह कल ही खत्म हो गई। आप किसी से भिजवा सकती हैं?’

‘जरूर मैं कोशिश करती हूँ।’

मैंने अपने यहाँ जान-पहचान वालों को फोन किया। सबसे पहले मैंने अपने पति को फोन किया, क्योंकि मेरी ससुराल पटना में ही है। मेरे बड़े भैसुर आलोक धन्वा जी के यहाँ जा चुके हैं। पर आशा के विपरीत मेरे घरवालों ने मदद करने से साफ मना कर दिया कि वहाँ जाने से अगर उन्हें कोविड हो गया तो?

मैं दुःखी तो हुई पर कुछ कह नहीं पाई। सबको अपनी सुरक्षा के लिए अपनी स्ट्रैटेजी स्वयं बनानी होती है। कोरोनाकाल के लॉकडाउन में हर कोई अपने तरीके से अपना बचाव कर रहा है। तब मैंने ‘नई धारा’ के संपादक शिवनारायण जी को फोन किया। वे भी धन्वा जी के परिचित हैं। उन्होंने तत्परता से मदद करनी चाही।

मैंने कृष्णा चैतन्य जी जो मेरे मित्र और वीरगंज के मेरे कार्यकाल के सहयोगी रहे हैं, उन्हें भी फोन किया, क्योंकि वे भी पटना से हैं और धन्वा जी को जानते हैं। उन्होंने कहा कि एक घंटे में मेरी लिखी हुई दवाई उन तक पहुँचा दी जाएगी। मैंने उनका बहुत धन्यवाद किया। और तब शिवनारायण जी को सूचित किया कि अभी रुकें, किसी और मित्र ने उन्हें दवाइयाँ भिजवा दी हैं।

आलोक धन्वा जी सत्तर साल के हैं। मुझे हमेशा उनके स्वास्थ्य की चिंता बनी रहती थी। कोई अनहोनी न हो जाए! वे अकेले रहते हैं–उनकी मेड भी उनके साथ नहीं है–अगर वो दवाई खाना भूल गए तो क्या होगा? मैं इसके आगे सोच नहीं पाती थी और उन्हें हर रोज फोन करके दवाई खाने और एक दिन भी सप्लमेंट न मिस करने की सलाह देती थी। सौभाग्य और ईश्वर कृपा से वे ठीक हो गए हैं। तब मेरी जान में जान आई।

संजीव रंजन सर के घर सबको कोविड हो गया था। उनके पिता जी आईसीयू में भर्ती थे। अर्जेंट्ली उन्हें कोविड पॉजिटिव परंतु ऐंटीबॉडी बना हुआ (यानी रिकवर किया हुआ मरीज) का ओ-पॉजिटिव प्लाज्मा चढ़ाया जाना था। उन्होंने सोशल मीडिया पर अपील किया। मैं भी विदेश सेवा अधिकारी व्हाट्सएप ग्रुप की सदस्या हूँ। मेरा भी ब्लड ग्रुप ओ-पॉजिटिव है। मुझे भी कोविड हो चुका और मैं भी रिकवर्ड कैटेगरी में आती हूँ–इसलिए मैंने उनको निजी संदेश भेजा कि मैं उन्हें प्लाज्मा देना चाहती हूँ क्योंकि मैं ‘मोस्ट सूटेबल’ हूँ। परंतु मैं अभी दक्षिण अफ्रीका में हूँ।

संजीव सर ने बताया कि उनके पिता जी अब बेहतर हैं–पर वेंटिलेटर पर हैं। मैं बेहद चिंतित हो आई, क्योंकि एक बार अगर मरीज वेंटिलेटर पर रखा जाता है तो उसके ठीक होने के चान्स कम ही होते हैं। पर मैंने सर से ये बात नहीं कही। मैंने उन्हें बताया कि साँस लेने की तकलीफ को यू.के. के एनएचएस के डॉक्टर माइल्ड स्टेरॉयड से ट्रीट करते हैं। आप भी पिता जी के डॉक्टरों से जरूर सलाह करें।

उन्होंने मुझसे वादा किया। भाग्यवश उनके पिता जी ठीक हो गए और तदुपरांत उनके घर के अधिकांश लोग जो कोविड पॉजिटिव आए थे–घर पर ही स्वयं इलाज से ठीक हो गए। पर दुःखद समाचार मिला कि उनके पिता जी कोरोना से हार गए। पहली सितंबर को हॉस्पिटल में उनका देहांत हो गया।

तो क्या कोरोना का वाइरस कमजोर हो गया है? लगता तो है, क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में भी अब केस घटने लगे हैं। मैं आशा करती हूँ कि भारत और अमेरिका जैसे सर्वाधिक पीड़ित देशों में भी कोविड शीघ्र ही घटेगा।

मेरी प्रार्थना

कोरोना से पीड़ित मेरे मित्रो के लिए!
प्रार्थना करती हूँ कि
इस कठिन समय में
मित्र, तुम्हारे लिए और
सबके लिए मेरे मन से यही दुआ निकलती है
कि तुम्हें इन कठिन दिनों में भी सहारा मिले–
जब उदासियाँ ढँक ले सारी खुशियों को
गीले कंबल की तरह–
तुम्हें मुस्कुराने की एक वजह मिले।

जैसे बादलों को चीरकर सूरज निकलता है
वैसे ही तुम्हारी हँसी इंद्रधनुष-सी आसमाँ पर खिले
कोरोना के मास्क को हटाकर सशब्द
किलकारी तुम्हारे होंठों को बरबस चूम ले।

सूर्योदय और सूर्यास्त की लाली
तुम्हारे कोमल हृदय में रच-बस ले
जब भी तुम निराश हो और लबादे–
की मानिंद तुम्हारा उत्साह गिर रहा हो
तुम्हारा प्रिय व्यक्ति तुम्हारा दृढ़ आलिंगन ले ले।

तुम सुंदर वस्तुएँ देखो और सब कुछ में सुंदरता देखो
तुम्हारी मित्रता मुझे आलोकित करें–
ईश्वर में विश्वास हो,
ताकि तुम करुणामय बन धर्म को धारण करो
आत्मविश्वास जब भी तुम्हारा डगमगाए
खुद को जानने का धैर्य और साहस करो।

सत्य को जानने की उत्कंठा और धैर्य हो
प्रेम करो ताकि तुम्हारा जीवन पूर्ण हो,
कोरोना व्याध को हराकर, हम सब
यशस्वी हों, चिरंजीवी हों–विजयी हों।
(समाप्त)


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अंजु रंजन द्वारा भी