कोरोना काल में साहित्य के सरोकार

कोरोना काल में साहित्य के सरोकार

साल 2020 पूरा का पूरा संक्रमण काल के गाल में समा गया। इसने पूरे विश्व को भयाक्रांत किया। करोड़ों लोग कोरोना से संक्रमित और लाखों लोग अकाल कवलित हुए। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की सामाजिक-आर्थिक संरचना को इसने दुष्प्रभावित किया। ‘नई धारा’ की ओर से समन्विता शैली ने देश के विभिन्न भागों के रचनाकारों से कोरोना काल में साहित्य के सरोकारों को लेकर बातचीत की। जो बातें उभर कर आईं, उनका मुख्यांश यहाँ प्रकाशित किए जा रहे हैं। –संपादक

बर्बर सभ्यता का जवाब प्रकृति की पूजा–सूर्यबाला (मुंबई)

राष्ट्रकवि दिनकर जी एवं नेहरू जी एक बार साथ एक मंच की ओर जा रहे थे। चलते हुए नेहरू जी के पाँवों में ठोकर सी लगी। वे लड़खड़ाये ही थे कि दिनकर जी ने तत्काल उन्हें सँभाल लिया। नेहरू जी के धन्यवाद देने पर दिनकर जी मुस्कुरा कर बोले–‘यह कोई बड़ी बात नहीं…जब सत्ता के कदम डगमगाते हैं, साहित्य ही उसे सँभालता आया है।’

तो सत्ता ही नहीं, व्यक्ति, समाज और जीवन की धुरी भी डगमगाती है तो उसे सँभालने, संतुलित करने का दायित्व और चुनौती साहित्य ही स्वीकारता है और आज तो भयावह आपदा का समय है। हर स्तर पर कठिन संघर्ष करता हुआ आज का व्यक्ति, अंदर-बाहर पूरी तरह से लस्त-पस्त है। यद्यपि उसकी जिजीविषा ने हार नहीं मानी है। फिर भी चुनौतियों की अझौहिणी सेना के बीच हताहत खड़ा है वह, अपने जीवन और अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए। सबसे ज्यादा डर और असंभव उसका धैर्य, उसकी हिम्मत छूट जाने की है और इसी को सँभालना साहित्य का पहला सरोकार है।

मुझे ‘मानस’ की एक चौपाई याद आ रही है–

‘धीरज, धर्म, मित्र अरू नारी।
आपत काल परखिये चाही।

साहित्य इन चारों की भूमिकाएँ एक साथ निभाहता चलता है। इन दिनों के लेखन का सबसे पहला सरोकार हताशा से घिरा यह व्यक्ति ही है जिसके ऊपर हर क्षण जिंदगी और मौत की दुधारी तलवारें लटक रही है। दो गज की दूरी, सोशल डिस्टेंसिंग और उसी के बीच जीवनयापन के लिए काम पर जाने की लाचारी…ऑनलाइन पढ़ाई करते, न करते बच्चों, किशोरों से लेकर युवाओं, वृद्ध-नागरिकों तक की। सुबह चार बजे घर से निकलकर रात ग्यारह तक घर लौटने वाले युवक, युवतियों की हताहत कर देने वाली टूटन और दुश्चिंताएँ अनिश्चितताएँ…इन सबके साथ टूटते उनके भरोसे को कायम रखना आज के साहित्य की पहली चुनौती है। हमें बहुत गहरा, बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं सूझ रहा, नहीं रच पा रहे तो भी कोई बात नहीं, हमें सामयिक हो जाना है। इस आदमी का खोता जा रहा आत्मविश्वास लौटाना है। क्योंकि सबसे ज्यादा जरूरी आदमी का खुद पर के भरोसे का बने रहना है।

सोशल मीडिया पर प्रायः बहुत गंभीर चीजें नहीं आती, लेकिन पिछले महीनों जब लॉकडाउन में हजारों की संख्या में जत्थ के जत्थ गरीब, बदहाल, मजदूर भूखे-प्यासे अपने गाँवों, अंचलों की ओर पलायन कर रहे थे तो सोशल मीडिया लगातार उनके हालातों की जानकारी भी दे रहा था, मदद के लिए बढ़े हाथों को अपनी खुली सराहना से प्रोत्साहित भी कर रहा था, और लोगों को आगे आने के लिए आजीवंत प्रेरित भी कर रहा था।

सचमुच शब्दों से बड़ा कोई उपचार नहीं। लेकिन इसका बहुत आवेगी, अफवाही किस्म का उपयोग भी घातक है। शक्ति और सामर्थ्य का गलत इस्तेमाल उतना ही हानिकारक भी सिद्ध होता है। त्वरित और अतिरैली प्रचार के दुष्परिणाम भी देखने को मिल चुके हैं और सबसे बढ़कर इस आपदा से जुड़े सकारात्मक पहलुओं पर भी बातें होती रहनी हैं। प्रकृति और पर्यावरण को मिला स्वच्छता और सुरक्षा का वरदान भी इसी आपदा की देन है। धुँध छट गई है, उत्तराखंड के गहरों से हिमाच्छादित पर्वत शृंखलाएँ दीख रही हैं, यह भी किसी चमत्कार से कम नहीं। तो पूर्णतः बर्बर और अमानवीय हो गई इस सभ्यता के लिए प्रकृति द्वारा दी जाती इस चेतावनी को भी लोगों के सामने बार-बार दुहराया जाना चाहिए। बर्बर और अमानवीय सभ्यता का जवाब प्रकृति की पूजा के द्वारा ही दिया जा सकता है, यही आज के साहित्य का संदेश है।

साहित्य जूझने का हौसला दे–हरीश कुमार शर्मा

साहित्य का पहला और आखिरी सरोकार समाज है, मनुष्य है। फलस्वरूप इस समाज और मनुष्य से जुड़ी सारी चीजें उसका सरोकार बन जाती हैं। स्वांत:सुखाय तो वह हर सृजेता के लिए है ही। सृजन में परिश्रम है, कष्ट है। परंतु, वही किया गया परिश्रम और उठाया गया कष्ट, जब रचना के रूप में सामने आता है तो सुख भी देता है। और, रचना यदि समाज की कसौटी पर खरी उतर जाए मतलब उसे प्रसिद्ध भी मिल जाए तो यह सुख अपार हो जाता है।

हमारे यहाँ साहित्य मात्र मनोरंजन के लिए लिखने की परंपरा नहीं रही। उसके एकमात्र ऐसे उद्देश्य का नाम लें कि जिसमें अन्य सब सरोकार भी कहीं-न-कहीं समाविष्ट हो जाते हैं, तो वह है–लोकमंगल। सो, कोरोना-काल में साहित्य का यह प्रमुख सरोकार लोकमंगल उससे कहीं अलग होने नहीं जा रहा। बदलने नहीं जा रहा। बड़ी बड़ी विपदाएँ धरती पर मानवीय और प्रकृति प्रदत्त समय-समय पर आती रही हैं, जिनसे जूझते हुए मनुष्य की जीवनी शक्ति ने धरती पर उसे बनाए-बचाए रखा और आगे भी बचाए रखेगा। साहित्य ने ऐसे समय पर मनुष्य को जूझने का हौसला भी दिया और उसके संघर्ष का दस्तावेजीकरण भी किया।

आज समय के एक बहुत कठिन दौर से हम सब गुजर रहे हैं। बीच में तो बहुत ही त्रासद और निराशाजनक वक्त हमने भोगा। ऐसे समय में भी साहित्यकारों ने अपना दायित्व बखूबी निभाया और अभी भी निभा रहे हैं। साहित्य अपने समय के समाज की चित्तवृत्तियों को आँककर रख देता है। अपने समय के संकट की पहचान बनाकर रख देता है। यह हमारे साहित्यकारों ने किया और कर रहे हैं। पर, साहित्यकार का दायित्व वस्तुस्थितियों का यथार्थ चित्रण कर देने भर से पूरा नहीं हो जाता। यदि साहित्य मशाल है, तो उसका काम लोगों को राह दिखाना भी होता है। उनके अँधेरे मार्ग में प्रकाश भरना भी होता है। तो यह वह समय है जबकि हमें लोगों के दुख-दर्द, निराशा-अवसाद को बाँटना भी है और उन्हें काटने का मार्ग भी सुझाना है। जिस तरह की अभी स्थितियाँ हैं, उससे लगता नहीं कि बहुत जल्दी हमें इस महा-मुसीबत से छुटकारा मिलने वाला है लेकिन व्यक्ति की गतिविधियाँ कभी पूर्णतः बंद नहीं होतीं। एक राह बंद होती है तो वह दूसरी राह निकाल लेता है। निश्चेष्टता हमें निस्तेज करती है। सचेष्टता हमें सतत गतिशील करती है। हममें तेज भरती है। आशंकाओं-कुशंकाओं से मुक्त करती है। हममें हमारा भरोसा लौटाती है।

अच्छी बात यह रही कि विभिन्न तकनीकी माध्यमों से हम सब इस भयावह दौर में एक दूसरे से जुड़े रहे। खुद को भी और दूसरों को भी ढाढ़स देते रहे कि हम अकेले नहीं, साथ-साथ हैं। कोरोना-काल ने हमारे जीवन में कई विकृतियाँ भर दी हैं। साहित्य की बड़ी लड़ाई उन विकृतियों से है। समाज में नकारात्मकता शक्तिवान न बन पाए, इसके विरोध में उसे खड़ा होना है। साहित्य लोगों की समस्याएँ नहीं मिटा सकता, पर उन समस्याओं से जूझने का हौसला जरूर दे सकता है इसलिए हमें नकारात्मकता बढ़ाने वाला नहीं, इससे बचाने वाला साहित्य चाहिए। लोगों को बरगलाने वाला नहीं, उन्हें समझाने वाला, प्रबोधन देने वाला, आपस में मिलाने वाला साहित्य चाहिए। विश्व-दंगल के लिए उकसाने वाला नहीं, लोकमंगल को बढ़ावा देने वाला साहित्य चाहिए। हमारा समाज साहित्य से निर्मित समाज है। नए साहित्य का संस्कार यदि समाज तक पहुँचाना है तो हमें सबसे पहले साहित्य को समाज तक पहुँचाने का रास्ता ढूँढ़ना होगा। सत्साहित्य को लोक तक पहुँचाने का प्रयास करना होगा।

साहित्य बोल रहा है–जगन्नाथ पंडित (आणंद, गुजरात)

साहित्य के सरोकार तो हर काल और परिस्थिति से होते हैं, लेकिन कुदरती आपदा या मानवसृजित किसी दुघर्टना के समय उसके सरोकार बड़े गहरे हो जाते हैं। उस समय साहित्य की प्रासंगिकता और उपयोगिता विशेष बढ़ जाती है। इतिहास गवाह है कि कामू का ‘प्लेग’ और मार्खेस का ‘लव इन दि टाइम ऑफ कॉलरा’ वैश्विक महामारी के दौर की बहुचर्चित रचनाएँ हैं। वर्तमान में ‘कोविड-19’ जैसी वैश्विक महामारी ने पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था, समाज और जनमानस को बुरी तरह प्रभावित किया है जिससे साहित्य का भी अछूता रहना असंभव है। कोरोना ने आदमी को जितना क्रूर बनाया है उतना ही संवेदनशील और सृजनशील भी। कोरोनाकाल में साहित्य पुस्तक रूप में भी आ रहा है तथा फेसबुक, यूट्यूब जैसे विद्युतीय माध्यमों से भी बड़ी तेजी इसका प्रसार हो रहा है। ‘साहित्य तक’ जैसे डिजिटल चैनल ने ‘कोरोना और किताबें’ शीर्षक से एक शृंखला शुरू की है जिसे लेखक अपनी या किसी अन्य लेखक की रचना या उसका अंश पढ़कर पाठक तक पहुँचाते हैं। डॉ. शिवनारायण ने ‘नई धारा’ के अप्रैल-मई अंक के संपादकीय लेख ‘कोरोना काल का साहित्य’ में कोरोना से जुड़े साहित्य का विस्तृत परिचय दिया है। अतः परिस्थितियाँ चुप हैं लेकिन साहित्य बोल रहा है। लॉकडाउन की एकांतता सर्जना में ढल रही है।

अशोक वाजपेयी तथा अन्य साहित्यकारों ने यह अभिमत दिया है कि ‘साहित्य का एक काल कोरोनाकाल भी होगा।’ वास्तव में इस काल ने साहित्यकारों को एक नई संवेदना दी है। हिंदी, भोजपुरी, गुजराती, मराठी आदि सभी भाषाओं में दिल को छूनेवाली तथा कोरोना संकट से सावधान करनेवाली अनेक रचनाएँ आ रही हैं। शारीरिक दूरियाँ भले बढ़ी हों लेकिन तज्जनित पीड़ा को शब्दों में तथा उपन्यास-कहानी के रूप में इस काल की संवेदना अभिव्यक्त हो रही है जो समय के साथ साहित्य के गहरे सरोकारों को दर्शाती है। बिहार के सत्यनारायण सौरभ के ‘सीतायन’ और ‘प्रियापुराण’ जैसे महाकाव्य इसी दौर की रचनाएँ हैं। डॉ. अनु मेहता की ‘आखिरी खत’ कविता में कोरोना के संदर्भ में मनुष्य को चेतावनी दे रही हैं–

‘समझ सके तो समझ ले
कुदरत ने तुझे तेरी हद में रखने के लिए
तेरे नाम ये आखिरी खत लिखा है।’

वे इससे भी बड़ी चेतावनी ‘आखिरी इबारत’ कविता में देती हैं–

‘…दुश्मन अदृश्य है और उसकी चाल भयंकर
युद्धक्षेत्र भी तय नहीं है
अपनी रणनीति तुम्हें खुद तय करनी है
अच्छा होगा अगर संकेत समझ लो
कुदरत की इस नई लिपि के
चीखती खामोशी और बेचैन बेबस जिंदगी
सँभाल लो वर्तमान
कहीं बन जाएगा यह भूला-बिसरा इतिहास।’

सुभाष राय की ‘शिकारी कौन है’ कविता वर्तमान परिस्थितियों से लड़ने की प्रेरणा देती है। इमरान प्रतापगढ़ी ने अपनी ग़ज़ल में सत्ता की जनविरोधी नीतियों और प्रवासी मजदूरों के मालगाड़ी से कटने की घटना का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है।

प्रख्यात गुजराती साहित्यकार मणिलाल पटेल की कोरोना से संबंधित तीन कविताएँ हैं–‘माणस खूटे छें’, ‘हाथ’, ‘पग’। ‘माणस खूटे छे’ कविता का मूलभाव यह है कि मनुष्य अदृश्य शत्रु से लड़ रहा है, वह घरों में बंद है लेकिन जंगल के जीव मुक्त दिख रहे हैं, वृक्ष छाया फैला रहे हैं, पक्षी गीत गा रहे हैं, पहाड़ों पर निर्मल मौसम खिल रहा है, झरने छलक रहे हैं, नदियाँ बह रही हैं, खेतों में अंकुर फूट रहे हैं, पृथ्वी कितनी दयालु है लेकिन मनुष्य में मनुष्य नहीं दिखता। मनुष्य प्रकृति के प्रति बेहद अनुदार है जबकि प्रकृति आज भी उदार है। ‘हाथ’ कविता में कवि कहता है कि पहले एक हाथ दूसरे से मिलकर हृदय में प्रेम छलका देता था लेकिन कोरोना काल में वह हाथ मिलने से छिप रहा है। हाथ अब हाथ नहीं रहा।

नीरजा माधव का ‘कोरोना’ उपन्यास कोरोनाकाल की भयानक त्रासदी को सविस्तार दिखाता है। रश्मि रावत ने ‘कोरोना एक चुनौती’ कहानी में कोरोना को चीन के वुहान शहर से शुरू एक कँटीला सफ़र कहकर कोरोना को एक चुनौती के रूप में दिखाया है। मैंने भी ‘अदृश्य शत्रु’ शीर्षक से एक कहानी इसी दौर में लिखी है जिसमें कोरोना के दुष्प्रभाव तथा सरकार की संवेदनहीनता के चलते आमजन की हो रही दुर्गति का चित्रण है। कोरोना की संवेदना और सावधानियाँ पेंटिंग्स में भी आ रही हैं। ‘भूतनाथ पेंटिंग एकेडमी’ ने सेनिटाइजर से कोरोना विषाणु के भागने तथा फिजिकल डिस्टेंसिंग के अनेक रंगीन चित्र सोशल मीडिया पर रखे हैं। चाहे प्रवासी मजदूरों की रोटी छिन जाने और पैदल घर लौटने की या इस महामारी से संक्रमित लोगों की जिंदगी और मौत से जूझने की समस्या हो, सबने साहित्यकार की चेतना को झकझोरा है।

कोरोनाकाल ने साहित्य को नई विषयवस्तु और नई संवेदना से संयुक्त कर उसकी परिधि का विस्तार किया है। इस काल के साहित्य ने हमें संवेदनशील बनाया है, मनुष्य को उसकी औकात का एहसास कराकर कोरोना के घातक प्रभाव तथा उसकी विभीषिका से सचेत किया है, सांत्वना और धैर्य प्रदान कर अपनी सामाजिक तथा मानवीय भूमिका का निर्वाह किया है। अतः कोरोनाकाल ने हमारी सर्जनशक्ति को कुंठित नहीं, प्रेरित किया है। वह दिन दूर नहीं जब साहित्य का नया इतिहास लिखा जाएगा तो ‘कोरोनाकाल का साहित्य’ उसका एक अध्याय अवश्य होगा।

जो आया है वो जाएगा–सुनील देवधर (पुणे)

समाचार पत्र, टी.वी., सोशल मीडिया और लोगों के बीच संवादों में इस समय यदि कोई विषय प्रमुखता से चर्चा में है, तो वो विषय है कोरोना।

कवियों ने कविताएँ लिखीं, शायरों ने ग़ज़ल और नज्म, कहानीकारों ने कहानियाँ, लेख, यानी जिसे जो कहना है, और जिस विधा में कहना है, कहा जा रहा है। समस्या बड़ी है, और समाधान के उपाय फिलहाल तो दिखाई नहीं देते। चिंतक विचलित हैं, वैज्ञानिक, संशोधक चिंतित विश्व स्वास्थ्य संगठन की डॉ. सौम्या स्वामीनाथन का कहना है–‘स्वस्थ समाज के निर्माण में अगले पाँच वर्षों में विश्व के लिए शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, स्वास्थ्य विषयक जन जागृति पर ध्यान देने की आवश्यकता है। भारत जैसे (पारंपरिक) देश में आयुर्वेद के अपने पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करते हुए, रोग से पहले ही, रोग न होने देने की अपनी क्षमता का प्रयोग और प्रचार करना चाहिए।

कोरोना का (काल्पनिक) चित्र यदि हम देखें, तो इस विषाणु आकार व स्वरूप में कुछ कंगूरे से दिखाई देते हैं, उसी तरह हमारे समाजिक जीवन में भी कुछ विचित्र देश उभर आए हैं। बहुत पहले लिखी अपनी एक ग़ज़ल के दो शेर आज के माहौल पर सटीक बैठते हैं–

‘बेचैन हैं हवाएँ, बेचैन जिंदगी है,
कोई नहीं किसी का, ये बात ही भली है।

पत्थर का है कलेजा, लोहे सा अब जिगर है,
कुछ है अगर जो अपना, तो सिर्फ बेकली है।’

इस कोरोना ने कई स्तरों पर अपना असर दिखाया है, जो अभी दिख भी नहीं रहा है। उसके परिणाम मन और सोच के स्तर पर तो हैं और होंगे ही, साथ ही साथ सामाजिक स्तर पर भी इसके दुष्परिणामों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

इन आठ-नौ महीनों में लगातार घरों में कैद या सीमित संपर्क के कारण हमारी संवाद क्षमता पर असर पड़ा है। स्मरण शक्ति पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। मनुष्य मूल रूप से सामाजिक प्राणी है, समाज से कटकर वह अकेला नहीं रह सकता। कुछ लोगों ने बाहर और भीतर भी एक दूरी बना ली है, एक संदेह उभर आया है, कहीं इसे कोरोना तो नहीं? विद्यार्थियों में एक उदासी है, स्कूल, कॉलेज न जा पाने का गहरा अफ़सोस है। जब सब बाहर मिलते थे तो विविध विषयों पर बात होती थी, चर्चाओं से बुद्धि के कपाट खुलते थे, लगातार कंप्यूटर या टी.वी. की स्क्रीन पर नजर ने हमारे नजरिये को न केवल बदला है, बल्कि उसमें एक अजीब सा सूनापन उड़ेल दिया है। इसका असर हमारी बौद्धिक और शारीरिक क्षमताओं पर भी नकारात्मक ही होगा।

हमारा सामाजिक जीवन वैसे भी दरक रहा था, उसके ताने-बाने टूट रहे थे, उस पर कोरोना की मार। लेकिन इस सब के बीच एक बात जरूर हुई कि, लोग दो पल ठहर कर कुछ सोचने लगे, तेज रफ्तार जिंदगी को दो पल मिलने लगे। लोगों के पास घर में समय देने का समय मिला। कुछ ने कुछ नई किताबें पढ़ ली, कुछ ने कुछ नया सीख लिया, दादा-दादी को बच्चों ने मोबाइल और कंप्यूटर सिखाया। कार्यक्रमों और संवादों का एक नया मंच खुला, जिस पर बहुत से भूले-बिसरे, जाने-अनजाने लोग मिले।

इस महामारी के सामाजिक प्रभाव के अलावा जो सबसे विपरीत और विनाशकारक पहलू है, वो है आर्थिक पक्ष। इसने कई परिवारों की न केवल कमर तोड़ दी, बल्कि कइयों को भूखा भी रखा। लोगों की नौकरियाँ चली गईं तो कई कम वेतन पर काम करने को मजबूर हुए। विकास की गति ठहर गई क्योंकि व्यापार, उद्योग, व्यवसाय कहीं बंद से हो गए तो कहीं उनकी गति बहुत मंद हो गई। घरेलू सकल उत्पाद घटा। विकास दर घटी और आर्थिक प्रगति को जबरदस्त ब्रेक लगा। इस महामारी में, हमारे देश में राजनीति, भ्रष्टाचार और महँगाई इन तीन बातों ने आम आदमी ‘गरीबी में आटा गीला’ कर दिया।

एक शब्द खूब चला ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ जो न तो हमारी भाषा, संस्कृति से मेल खाता है और न ही मनुष्य के स्वभाव या प्रकृति में। भारतीय परिवेश में एक अच्छा शब्द स्थान ले सकता था, ‘भौतिक दूरी’ जो अपने अर्थ में भी अधिक गहरा और व्यापक होता। भारतीय चिंतन में ‘जो आया है वो जाएगा’ पर अटूट विश्वास है, तब यह कोरोना भी कहाँ रह पाएगा। भारतीयों की प्रतिरोधक क्षमता अन्य देशों की तुलना में बेहतर है, यह इस महामारी में बचाव भी है। एक बार फिर भारतीय जीवनशैली, विचार और अध्यात्म की ओर देखना, लौटना श्रेयस्कर होगा।

दुःखदायी कोरोना काल–दीपा राय (सिक्किम)

कोरोना काल में ही सबसे ज्यादा साहित्य पर लगाव देखने को मिला। साहित्य पर ही नहीं अन्य कला, संगीत सब पर और ज्यादा लोग रचनात्मक हो गए। कोरोना की महामारी के चलते देश में पहला लॉकडाउन हो गया। उस वक्त सभी लोग घर में बंद हो कर रहे। शुरू के कुछ दिन आराम में गुजरे, रचनाकार लिखते रहे, कोरोना के असर, समाज पर, पर्यावरण पर आदि पर। जो नहीं लिखते थे, बोरियत होने की वजह से कुछ न कुछ रचनात्मक करने लगे। इसमें से ज्यादातर कविता की तरफ उन्नमुख हो गए। शुरू के लॉकडाउन में कोरोना के डर से बहुत सख्ती बरती गई थी। पूरी तरह घर के अंदर बंद कर लिया था, तो ये बोरियत ने रास्ता बदला। जो कवि लेखक थे वे तो लिख ही रहे थे। उस में और लोग जुड़ गए। समाज हर उस बदलाव, परिस्थिति में जुझ रहा था तो इसका असर कवि, लेखकों पर भी पड़ना ही था। वे इस पर कलम चला रहे हैं, निरंतर। मुझे लगता है, इसी काल में सबसे ज्यादा रचनाएँ लिखी गई हैं।

शुरुआत में जब लॉकडाउन हुआ तो, मूलभूत वस्तु सेवा को छोड़कर सारे बंद हो गए। पूरा का पूरा भारत ठप हो गया। उसी समय विश्व के बहुत सारे देशों में भी लॉकडाउन हो गया था। कोरोना का एक यह एडवांटेज भी रहा, उस वक्त सारा विश्व में प्रदूषण का प्रतिशत बहुत कम हो गया था। इससे पहले ग्लोबल वार्मिंग का प्रदूषण को लेकर कितने सेमिनार वगैरह हुआ करते थे। पर अबकी बार प्रकृति ने खुद ये बीड़ा उठाया अपने आप को बचाने के लिए, ताकि प्रकृति में सब प्राणी जिंदा रहे, स्वस्थ रहे। अति हो गया था, हम खुद के लिए स्वार्थी हो कर पृथ्वी का विनाश कर रहे थे। लॉकडाउन के उस वक्त जो शुद्ध हवा पानी हमने सेवन किया, ऐसा फिर शताब्दी में होना भी मुश्किल लगता है। साहित्य के लिए सामाजिक संजाल ने बड़ी अहम भूमिका निभाई। फेसबुक, ट्वीटर, इंस्टाग्राम, वाट्सऐप ग्रुप, यूट्यूब इन सब में बहुत लिखा, शेयर हुआ। भर्चुअल कवि गोष्ठी, विचार, वार्ता का बहुत सारे ऐप पर चर्चा परिचर्चा हुई। अभी भी लगातार हो रही हैं। इस विश्वव्यापी तरीका से हम जुड़ पाएँ, ये बहुत बड़ी तथा महत्त्वपूर्ण बात हो रही।

कोरोना की महामारी के चलते सबसे ज्यादा मजदूर लोग प्रभावित हुए। दैनिक मजदूरी से चूल्हा जलाने वाले ये लोग सबसे ज्यादा पीड़ित हो गए। लगातार लॉकडाउन करने से शहर में बिना काम के किराये पर रहने वाले मजदूर लोग, कोरोना से डरने वाले मजदूर लोग के सामने अब भूखा पेट मुँह बाए एकदम आगे खड़ा था। आखिर कब तक ऐसे ही बिना काम, बिना पैसे के किराये के घरों पर भूखा पड़ा रहें। एक रास्ता कोरोना था, दुजा खाली पेट। दोनों तरफ मौत की खाई। तो जो अंतिम आसरा था गाँव को लौटना, जहाँ से बड़े-बड़े सपने लेकर शहर आए थे अब एक रास्ता जैसा भी हो वही पड़ा था। वो निकल पड़े, तो उनकी सारी कथाएँ भी उनके साथ हो ली। तब कितना दर्दनाक नजारा था। गाँव तो नजदीक नहीं था, उस पर लॉकडाउन, कोई सवारी नहीं, कोई वाहन नहीं। दो पैरों के बल पर, तपती धूप, ऊपर से प्रशासन रोकता है। ये नजारा दिल को बेचैन करने वाली दृश्यावलियाँ आँखों में आँसू ला देती है। हम जानते हैं कि कवि संवेदनशील होते हैं। जो भी मनुष्य की दुख-तकलीफ को देखता है तो वो उसको स्वर देता है। खासकर कविताएँ मजदूरों के बारे में सोशल मीडिया पर बहुत आ रही हैं। और भी बहुत मुद्दे हैं, इससे जुड़े कितने लिखे गए। कितना लिख रहा है और कितना लिखना बाकी है। ये काल कब तक रहेगा, इनका समाज पर कब तक असर रहेगा, निरंतर लिखता जाएगा और ये साहित्य में रेखांकित होती रहेगी।

वास्तव में साहित्य के सरोकार के बिना कोई काल नहीं होता।


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Artist : Henri Fantin Latour
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समन्विता शैली द्वारा भी