हिंदी कहानी का सफर

हिंदी कहानी का सफर

हिंदी कहानी की जब भी चर्चा होती है तब यह भी विचार-विमर्श का केंद्र हो जाता है कि उसकी उम्र क्या है? कुछ विचारक उसका उत्स वेदों उपनिषदों तक ले जाते हैं तो कुछ उसे मात्र शतायु मानते हैं। यहाँ यह जानना रोचक है कि हिंदी मुहावरे में कविता लिखी जाती है और कहानी कही जाती है। इस कहने के पीछे उन विद्वानों की बातों में तथ्य जरूर नजर आता है कि कहानी कहने-सुनने की परंपरा हमारी बहुत प्राचीन है। लोक और शिष्ट दोनों रूपों में उसका संबंध वाचिक परंपरा से अधिक रहा है। वस्तुतः गीत और कहानी मानव सभ्यता के विकास काल से जुड़े रहे हैं। गीत में मनुष्य ने अपने को व्यक्त किया और कहानी से दूसरों का मनोरंजन। आदिम काल से चली आ रही ये दोनों वृत्तियाँ आज भी किसी-न-किसी रूप में जुड़ी दिखती हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सभ्यता के विकास में इतिहासों का आरंभ एक साथ नहीं होता। किसी का इतिहास बहुत पुराना होता है तो किसी का अपेक्षाकृत नया। बात पुरानेपन या नएपन की नहीं है, महत्त्वपूर्ण बात यह होती है कि किस समाज ने अपने को कितना समृद्ध और संस्कार-संपन्न बनाया है। उदारहणार्थ लेखन का आरंभ कहीं चमड़े पर हुआ, कहीं कपड़े पर और कहीं पत्थरों या भोज-पत्रों पर लेकिन इससे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कागज, छपाई और मुद्रित सामग्री को कौन सुंदर रूप दे रहा है। सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान के विकास में वर्षों की गिनती कोई खास मायने नहीं रखती, गिनती करना तो इतिहास-लेखक का काम है। अगर वर्षों को ही महत्त्वपूर्ण माना जाए तो मनुष्य को महायात्रा में अमेरिकी और रूस के विज्ञान और कला-संबंधी अवदानों को नगण्य मानना होगा, जबकि उनकी उपलब्धियाँ सारे विश्व की उपलब्धियाँ हैं।

इसलिए कहानी के उद्गम पर विचार करने से ज्यादा अच्छा यह होगा कि हम यह स्वीकार कर लें कि अपने नए मुद्रित रूप में कहानी का हिंदी साहित्य में आविर्भाव बीसवीं शती के आरंभ में होता हैं। साहित्यिक पत्रकारिता के उदय के साथ।

बीसवीं शती के पहले दशक में जो कहानियाँ प्रकाशित हुई उनमें कुछ के नाम इस प्रकार हैं, जो ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुईं–किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इंदुमती’–(1900), मास्टर भगवानदास की ‘प्लेग की चुड़ैल’ (1902), रामचंद्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ (1903), राजेंद्रबाला घोष बंगमहिला की ‘दुलाईवाली’ (1907)। कुछ साहित्येतिहास लेखक 1803 में प्रकाशित इंशाअल्ला खाँ की ‘रानी केतकी की कहानी’ से मुद्रित कहानी का प्रारंभ स्वीकार करते हैं, तो कुछ राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द के ‘राजा भोज का सपना’ और भारतेंदुकृत ‘एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न’ को भी कहानी वर्ग में शामिल करते हैं। कहानी विधा की अविच्छिन्न परंपरा आगे बढ़ी है। इसलिए हिंदी कहानी का आरंभ इंदुमती’ से मानना उचित होगा। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उसके पीछे कोई इतिहास नहीं है। अब तक साहित्य का इतिहास, कविता की ही विवेचना और इतिवृत्त का लेखा रहा है, उसी आधार पर सिद्धांत और निकष भी निर्धारित किए गए हैं। इसलिए कहानी के संदर्भ में उस पुरानी मानसिकता से अलग हटकर सोचने की जरूरत है। हमारी धारणा है कि कहानी का विकास किसी एक देश में संपूर्णतः हुआ भी नहीं है, वह अनेक देशों में एक साथ या अलग-अलग युगों में समानांतर ही हुआ है। यहाँ यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि हिंदी कहानी इस विकास में बहुत बाद में शामिल हुई है। उसे विगत एक सौ वर्षों में यह रास्ता तय करना पड़ा है, जो और देशों ने लगभग डेढ़ सौ वर्षों में किया है। इस देर का कारण स्पष्ट है। हमारे गौरांग महाप्रभुओं ने दुनिया को नहीं सिर्फ इंग्लैंड को हमारे निकट आने दिया और दुनिया को हमने इंग्लैंड की ही मार्फत जाना। यही कारण है कि जब बालजॉक, जोला, दोस्तायवस्की, फ्लावेयर, चेखव, तुर्गनेव, टॉल्सटॉय जैसे दिग्गज अपने कालजयी रचनाओं से विश्व को चमत्कृत कर चुके थे तब हम जेन आयर, टैस या कॉपरफील्ड को ही अपना आदर्श मान बैठे थे।

हिंदी कहानी जब आरंभ हुई तो उसने कुछेक वर्षों में ही परिपक्वता प्राप्त कर ली। इसका महत्त्वपूर्ण साक्ष्य गुलेरी जी की ‘उसने कहा था–है, जो 1915 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई। लहना सिंह के शौर्यपूर्ण जीवन की इस कहानी में करुणा की अंतर्धारा आद्यंत विद्यमान है। करुणा और दुखांत के साथ है उदात्तता का भाव, जो लहना सिंह के आत्मत्याग में से बड़े कोमल रूप में प्रस्फुटित होता है। ‘उसने कहा था’ के प्रकाशन के आसपास ही प्रेमचंद की आरंभिक कहानियाँ छपने लगती हैं। उन्होंने किसी प्रकार के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक दबाव को कभी नहीं माना। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अध्यक्ष पद से (1936) उन्होंने अपनी दो टूक शैली में कहा था–‘इस कथन में उन्होंने अपनी कला-रचना का निर्देशक सूत्र और अगली पीढ़ी के लिए अपना संदेश भी दे दिया है। यह कहने के पीछे हमारा उद्देश्य यह बताना है कि प्रेमचंद और उनके युग की कहानियों का मूल स्वर गाँधीयुगीन चेतना का संवहन करना रहा है। प्रेमचंद ने लगभग 300 कहानियाँ लिखी थीं, जिनमें अधिकांश ‘मानसरोवर’ के आठ खंडों में संग्रहित हैं। ‘सप्तसरोज’, ‘नवनिधि’ ‘प्रेम द्वादशी’ आदि अन्य कहानी संग्रह भी हैं। प्रेमचंद की पहली कहानी ‘पंचपरमेश्वर’ 1916 में प्रकाशित हुई थी। इनकी अन्य कहानियों में ‘आत्माराम’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘अलग्योझा’, ‘ईदगाह’, ‘पूस की रात’, ‘कफन’ आदि में व्यक्ति परिवार, ग्राम पंचायत जैसी संस्थाएँ और उस युग का समाज यथार्थतः चित्रित हैं, भले ही लेखक का उद्देश्य आदर्श की स्थापना का रहा हो। वस्तुतः व्यक्ति परिवार और समाज प्रेमचंद के युग में विकसित हो रहे थे। इसका मुख्य कारण अँग्रेजों की विध्वंसक नीतियाँ थी। भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में सबकुछ सामान्य था। परिवार के लोग संयुक्त-रूप से साझा नियति के साझा साथी हुआ करते थे। अँग्रेजी शिक्षा और अँग्रेजों का सेवक बनकर व्यक्ति-व्यक्ति न रहा, परिवारों का विघटन हुआ। सामाजिक संस्थाएँ विद्रूप हुईं और समाज सांप्रदायिकता से ग्रस्त हो गया। प्रेमचंद ने सर्वसाधारण के जीवन की सामान्य उपस्थितियों एवं मनोवृत्तियों तथा समस्याओं को चित्रित करने का प्रयास किया है। पारिवारिक एवं सामाजिक विघटन को रोकने के लिए ही उन्होंने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया। उन्होंने घटना, कथानक, चरित्र और संवेदना सभी को ध्यान में रखकर कहानियाँ लिखी हैं।

प्रेमचंद ने सामाजिक बदलाव के साथ रचना को जोड़ते हुए धर्म, सुधारवाद, सत्य अहिंसा, न्यास जैसी गाँधीवादी धारणाओं को अपनाया लेकिन बाद की कहानियों में भारतीय किसान और शोषित वर्ग के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति का भाव यद्यपि वर्ग-संघर्ष को उजागर नहीं करता, लेकिन वर्ग संक्रमण की चेतना स्पष्टतः ध्वनित हो जाती है। प्रेमचंद के समकालीन कहानीकारों में जयशंकर प्रसाद, सुदर्शन, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, चतुरसेन शास्त्री आदि ने कहानी विधा को आगे बढ़ाया। उन कहानीकारों के पास एक और आजादी के लिए किए जाने वाले संघर्षों के प्रति लगन और मोह स्वाभाविक था तो दूसरी ओर परिवार, समाज और व्यक्ति के टूटन के प्रति गहरी चिंता भी थी। कौशिक की ‘ताई’, सुदर्शन की ‘हार की जीत’, उग्र की ‘दोजख की आग’, ‘चिनगारियाँ’, चतुरसेन की ‘रजकण’ और ‘अक्षत’ ‘दुखवा मैं कासो कहूँ मोरी सजनी’, ‘दे खुदा की राह पर’ आदि में यही प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। इन कहानीकारों की दुनिया जीवन के सीधे सरल आदर्शों पर खड़ी हुई है।

प्रेमचंदोत्तर कहानीकारों में यशपाल और अज्ञेय ने व्यक्ति, परिवार और समाज के फासले को और आगे बढ़ाया। यशपाल का चिंतन आर्थिक रोशनी से आप्लावित है। उनकी मान्यता है कि सामाजिक गतिविधियों का मूल आधार भौतिक जगत हैं, जिसके मूल में आर्थिक-स्वार्थ निहित है। इसलिए मानवीय चेतना को स्वस्थ रूप में विकसित करने के लिए वर्ग-वैषम्य की समाप्ति आवश्यक है और यह तब तक संभव नहीं है जबतक सामंती पूँजीवादी ताकतें पराजित नहीं हो जातीं। शोषण-चक्र से व्यक्ति की मुक्ति के लिए यशपाल धार्मिक आडंबर, अंधविश्वास और गलित परंपरावाद की समाप्ति के पक्ष में हैं। इसलिए इनकी कहानियों में समाज में होने वाले अन्यायों, कुरूपताओं, अंधविश्वासों, धार्मिक आडंबरों, अनैतिक आचरणों, शोषकों एवं दलालों पर सख्त प्रहार मिलता है। उनकी कहानी ‘परदा’ और ‘तुमने क्यों कहा था मैं सुंदर हूँ’ दो भिन्न भावभूमियों पर अवस्थित हैं। निगम और माया के व्याज से कहानीकार ने व्यक्तिमन की अनगिनत परतें खोली हैं और दहेज न दे सकने के कारण एक समृद्ध वकील की तीसरी पत्नी और कानूनन पाँच बच्चों की माँ का दर्जा प्राप्त करती है।

प्रेमचंद युग में प्रसाद ने ‘इंदु’ पत्रिका के माध्यम से कई श्रेष्ठ कहानियाँ दी। उन्होंने सामाजिक दायित्व के आलोक में व्यक्ति के अंतर्मन का विश्लेषण अपनी कहानियों में किया। ‘आकशदीप’, ‘गुंडा’, ‘विरामचिह्न’ आदि कहानियों में मनोविश्लेषणात्मक पद्धति का सहारा लिया गया है। इस धारा को आगे चलकर जैनेद्र, इलाचंद्र जोशी और अज्ञेय ने बढ़ाया। जैनेंद्र ने मनोविज्ञान और सामाजिक चेतना के समन्वय से व्यक्तिवाद को कहानियों में निरूपित किया तो जोशी ने मनोविश्लेषणवाद की सीमाओं में अवचेतन मन की ग्रंथियों, स्त्री-पुरुष के आंतरिक संबंधों का उद्घाटन किया। ‘नीलम देश की राजकन्या’, ‘ईनाम’, ‘पाजेब’ आदि कहानियों में व्यक्ति मन की परतें खोली गई हैं। उनका नायक व्यक्ति है और प्रायः मैं का प्रतिरूप। मनोविज्ञान की अभिव्यक्ति कर अज्ञेय ने कहानी को आगे बढ़ाया। ‘हीलीबोंन की बतखें’, ‘रोज’ आदि इसी प्रकार की कहानियाँ हैं। इनकी कहानियों में समष्टि गौण हो गया और व्यक्ति प्रतिष्ठित हो गया। उनका नायक एक दृढ़ निर्भीक, अडिग और यायावर है। इन कहानियों में जीवन के एक अंश की झाँकी, स्वभाव, चरित्र या मनःस्थिति को आलोकित करने वाली समस्या, घटना, मन की जटिलता, अंतद्वंद्व, संघर्ष आदि का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण फ्रायड, एडलर, युंग ने किया। प्रसादोत्तर युग के अन्य कहानीकारों में रांगेय राघव, अमृतलाल नागर, अश्क आदि ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया।

हिंदी कहानी 1947 के भारत के विभाजन के पश्चात एक नया मोड़ लेती है। आजादी के पूर्व देशवासियों ने एक सपना सँजो रखा था, पर देश की आंतरिक प्रशासनिक व्यवस्था से उसका शीघ्र ही मोहभंग भी हो गया। आजादी के समय हालात ने न केवल देश के कुछ टुकड़े किए, बल्कि व्यापक जनसमुदाय के दिल के टुकड़े भी किए। लाखों लोगों के बेघर होने, लूटमार-नृशंस हत्याएँ, भूख से तड़पते पुरुष-स्त्री, कारुणिक दृश्य सबने मानवीय संबंधों, संस्कारों और आस्थाओं को स्पंदनहीन बना दिया। चारों ओर शोर, अभाव, अस्मिता के संकट में आत्म रक्षार्थ अनैतिकता और अमानवीय उपाय जायज लगने लगे। पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक, मूल्य-मर्यादाएँ सबकुछ अर्थहीन हो गईं। इस परिस्थिति में लिखी कहानियाँ जीवन के भोगे हुए यथार्थ की जीती-जागती तस्वीर पेश करती है। यही वह समय है जब नयी कहानी नाम से एक आंदोलन (1950-60) चला। अमृत राय, मोहनराकेश, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, निर्मल वर्मा आदि ने व्यवस्था को और राजनीति पर एकाधिकार करने वाले लोगों और उनकी नैतिकता का विरोध कहानियों के माध्यम से किया। इधर मंटो अपनी ‘हतक’, ‘बू’, ‘ममी’ और ‘खोल दो’ कहानियों के माध्यम से अपने वर्ग के लेखकों से अलग दिखाई देते हैं।

नई कहानी-परिवेश के माध्यम से व्यक्ति और व्यक्ति के माध्यम से परिवेश को पाने की एक प्रक्रिया है और हर कहानीकार ने इस प्रक्रिया को अपने ढंग से ग्रहण किया है। इसमें जहाँ रेणु की आंचलिकता और मार्कंडेय, राजेंद्र अवस्थी, शिव प्रसाद सिंह, अवधनारायण सिंह के ग्राम हैं, वहीं दूसरी ओर उषा प्रियंवदा, निर्मल वर्मा, विजय चौहान की अंतरराष्ट्रीयता भी है। एक ओर नगर संकुल सभ्यता कमलेश्वर, मोहनराकेश, कृष्णबलदेव वैद, भीष्म साहनी, अमरकांत, रमेश बक्षी, दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, गिरिराज किशोर, मन्नू भंडारी, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी में आई है तो दूसरी ओर बस्तर के आदिवासियों और कुमाऊँ आदि पहाड़ी जीवन को शानी, राजेंद्र अवस्थी, शैलेंद्र मटियानी, शिवानी, पानू खोलिया ने चित्रित किया है। इनमें व्यक्ति की जिंदगी में उसके आपसी संबंधों के पर्याप्त रूप मिलते हैं। इन कहानीकारों ने स्वातंत्र्योत्तर भारत के महानगरों के स्वरूप उनके संस्कार, जनजीवन के बिखराव, संबंध-विच्छेद, अकेलापन, अवसाद आदि की स्थितियों को तो मुखरित किया ही, साथ ही कस्बाई मनोवृत्ति को भी चित्रित किया। अतिरिक्त उत्साह में इन कहानिकारों ने यथार्थ के नाम पर मांसलता, जीवन मूल्यों की विशृंखला, यौन-कुंठाओं, वैयक्तिक आक्रोश, ऊब, अकेलापन, भविष्य के प्रति अनास्था और पाश्चात्य संस्कृति की अंधी गुफाओं में ढकेल दिया। ऐसा भटकाव मोहन राकेश में अधिक मिलता है।

सन् 60 आते-आते फ्रांस की ‘एंटी स्टोरी’ की तर्ज पर हिंदी कहानी में ‘अकहानी’ का आंदोलन चला था, जिसे गंगाप्रसाद विमल, जगदीश चतुर्वेदी, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, श्रीकांत वर्मा आदि ने हवा दी और इसे साठोत्तरी कहानी की संज्ञा भी दी गई। यहाँ तक कि श्याममोहन श्रीवास्तव और सुरेंद्र अरोड़ा के संपादन में ‘अकहानी’ नाम से एक पुस्तक भी प्रकाशित की गई। ‘अकहानी’ को शिल्पहीन कहानी के रूप में प्रचारित किया गया। इन कहानियों में जीवन में सम्पृक्तता, लेखकीय आजादी और विद्रोही भावना परिलक्षित होती है। जीवन की तमाम मन्यताओं, मूल्यों के अस्वीकार के कारण इसमें अभिव्यक्ति की निरर्थकता, भावों की अपूर्वता, जीवन की विसंगति, व्यक्त्वि का विघटन, संत्रास, आत्मपीड़न, अकेलापन, अजनबीपन, ऊब आदि की प्रबलता दिखती है। अधिकांश रचनाओं में पुरानी मूल्य व्यवस्था के प्रति घृणा और आक्रोश का भाव ही चित्रित हुआ है। पारंपरिक व्यवस्था और संबंधो का तीखापन इन कहानियों का मूल स्वर है।

इस प्रकार की कहानियों की नकारात्मक प्रवृत्ति के विरोध में कुछेक वर्षों में ही महीप सिंह ने ‘सचेतन’ कहानी का नया नारा दिया और कहा कि व्यक्ति को समस्याओं से ऊबकर पलायनवादी होने की बजाए सामाजिक परिवेश से जूझने की जरूरत है। धर्मेंद्र गुप्त, मनहर चौहान, श्याम परमार, रामदरश मिश्र आदि ने इस स्वरूप को बल प्रदान किया। महीप सिंह की ‘कील’, राजकुमार भ्रमर की ‘लौ पर रखी हथेली’, कुलदीप बग्गा की ‘जड़ता’, मनहर चौहान की ‘बीस सुबहों के बाद’, सुरेंद्र अरोड़ा की ‘बर्फ’ आदि कहानियों में जिंदगी के भिन्न-भिन्न रूप मिलते हैं। इस प्रवृत्ति का उत्कर्ष हमें कमलेश्वर के समांतर कथा आंदोलन के दौरान देखने को मिलता है।

प्रेमचंद के बाद आम आदमी कहानियों में पुनः प्रतिष्ठित हुआ। होरी इस कहानी-लेखन का हीरो बना गया, एक ऐसा हीरो जो अपनी तकलीफों और शोषण के विरुद्ध दिलेरी से संघर्ष करता हैं। यदि वह हारता भी है तो अस्थाई तौर पर, वह फिर खड़ा होता है। उसकी लड़ाई बड़ी जटिल है, क्योंकि वह बाहरी दुश्मनों की बजाए भीतरी शोषकों से लड़ रहा है। यहाँ आम आदमी के दायरे में किसान, मजदूर, किरानी, शिक्षक, दर्जी, छोटे दस्तकार आदि सभी शामिल हैं, जो निम्न या निम्न मध्य वर्ग से आते हैं और जो चाहकर भी आर्थिक दबाव से मुक्त नहीं हो पाते। जवाहर सिंह की ‘गुस्से में आदमी’, आशीष सिन्हा की ‘आदमखोर’, हिमांशु जोशी की ‘जलते हुए डैने’, जितेंद्र भाटिया की ‘शहादत नामा’, मधुकर सिंह की ‘हरिजन-सेवक’ आदि कहानियाँ आम आदमी की व्यथा और संघर्ष को व्यक्त करती हैं, लेकिन इन कहानीकारों की अपनी सीमा थी। नगरों या महानगरों की जिंदगी जीने वाले कहानीकारों के पास भोगे हुए यथार्थ की कमी थी, इसलिए आम आदमी की तस्वीर सही ढ़ंग से उभर न सकी। इसलिए आठवें दशक के उत्तरार्ध में जनवादी कहानी के नाम से एक नया आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन को ‘कथन’, ‘कलम’, ‘उत्तरार्द्ध’, ‘कंक’, ‘उत्तरगाथा’ जैसी पत्रिकाओं ने गति एवं दिशा दी। यह मूलतः मार्क्सवादी विचाराधार से प्रभावित रही।

जनवादी कहानियों में भी उपेक्षित, शोषित, प्रताड़ित पात्रों को कहानी के केंद्र में रखा गया। उसे अधिक जुझारू बनाया गया ताकि वह असली अपराधियों का नकाब उतार सके। धर्म, न्याय, दया, ईश्वर, अंधविश्वास की ओट में सर्वहारा के संघर्ष को बरगलाया नहीं जा सकता। सर्वहारा के आक्रोश और गुस्से से आतंकित शोषकों का चित्र रमेश उपाध्याय की ‘देवी सिंह कौन?’, ‘पानी की लकीर’, इसराइल की ’फर्क’, नमिता सिंह की ‘समाधान’, अनिल की ‘विस्फोट, सुरेश कांटक की ‘एक बनिहार का आत्मनिवेदन’ आदि में देखा जा सकता है। यह कहानी पेट की भूख से जूझते संघर्ष शील सर्वहारा की कहानी है, जो उसकी मंगल कामना के साथ उसकी लड़ाई में शामिल है और उसे न्याय दिलाने के लिए संकल्पित भी। लेकिन, कुछ दिनों के बाद जनवादी कहानी की एकरसता, नारेबाजी और दलगत प्रतिबद्धता का तीखा विरोध भी हुआ। हमारी धारणा है कि प्रतिबद्ध लेखक होना और एक अच्छा प्रतिबद्ध लेखक होना दो अलग बातें हैं। प्रतिबद्धता अच्छे लेखन की गारंटी नहीं है। कोई लेखक अच्छा प्रतिबद्ध लेखक हो सकता है और कोई सिर्फ प्रतिबद्ध लेखक।

इसी प्रतिबद्धता की प्रतिक्रिया में राकेश वत्स ने ‘सक्रिय कहानी’ जैसी नया नाम दिया। उन्होंने वामपंथी चेतना और जनवाद का समर्थन करते हुए भी किसी वाद से अपने को बाँधने से इंकार किया। वह कोरे किताबियों और छद्म मार्क्सवादियों का विरोध करते हैं। लेखक से उनकी अपेक्षा है कि वह किसी पार्टी का कार्ड होल्डर बनकर न रहे। वे ऐसे साहित्य का सृजन करने के पक्षधर हैं, जिसे कम पढ़े-लिखे मजदूर और रिक्शावाले से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग भी समान रूप से पसंद कर सके। यह कहानी बड़े घराने एवं नव कुबेरों की संपन्नता और आम आदमी को रोज-ब-रोज कमजोर होने से ज्यादा दुखी है। यह आम आदमी को सक्रिय, समझदार और जुझारू बनाने में कहानी का हथियार रूप में इस्तेमाल के पक्षधर हैं। इस दृष्टि से सुरेंद्र कुमार की ‘उसका फैसला’, सुरेंद्र मनन की ‘उठो लक्ष्मी नारायण’, रमेश बत्रा की ‘जंगली जुगराफिया’, कुमार संभव की ‘आखिरी साँढ़’, नवेंदु की ‘एक-न-एक दिन’, राकेशवत्स की ‘काले पेड़, ‘समूहगान’ आदि सार्थक कहानियाँ हैं। इनमें आम आदमी को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष का आह्वान तो है, पर खूनी क्रांति का मुद्दा नहीं है, पर जरूरत पड़ने पर खून से प्यास बुझानेवाले दानवी प्रवृत्तिवाले शोषकों के लिए हिंसा का समर्थन भी है। सच्चाई, ईमानदारी, परोपकार जैसे मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए संघर्षरत पात्रों के प्रति सक्रिय कहानियाँ सहानुभूतिशील दिखती हैं। कहानी में व्यक्ति चेतना की जगह सामाजिक चेतना को प्रतिष्ठित किया गया है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि व्यक्ति, परिवार, सामाजिक संस्थाएँ और सामाजिक परिवेश को लेकर कहानी की जो विकास-यात्रा प्रेमचंद से शुरू हुई थी, वह विभिन्न कहानी नामों के दौर से गुजरती हुई सांप्रतिक कहानी-लेखन में भी द्रष्टव्य है।


Original Image: Young Girl Reading
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Artist: Federico Zandomeneghi
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पूनम कुमारी द्वारा भी