प्रेम : तब और अब

प्रेम : तब और अब

संपूर्ण विश्व साहित्य में प्रेम एक ऐसा विषय है जिस पर बहुत लिखा गया है। कोई अन्य विषय इसकी तुलना में नहीं ठहरता है, इसके बावजूद अब तक किसी ने इसकी मुकम्मल परिभाषा नहीं दी है। दरअसल, यह महाभाव अपने भीतर इतने भावों को समेटे-सँजोए रहता है कि हर परिभाषा अधूरी लगती है अथवा इन परिभाषाओं में कभी विभिन्नता नजर आती है तो कभी असमानता के कई आयाम प्रतिबिंबित होते हैं। यह प्रेम कहा जाने वाला तत्त्व सही मायने में है क्या? यह कैसे उत्पन्न होता है। इसका प्रकटीकरण किस रूप में होता है? हम सबके पास अपने-अपने फलसफे हैं जो हमारे-आपके व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित होते हैं। शाम के धुँधलके में असीम आकाश में अकेले उड़ते एक पक्षी को देखकर अकेले होने की पीड़ा सालती है। कहा तो यह गया कि नदी का सूना तट, संध्या की बेला, बाँसुरी की आवाज अकेलेपन को असह्य बना देते हैं और मिलन के आनंद को दुगुना कर देते हैं। सच पूछा जाय तो प्रेम में किसी तरह का जोड़-घटाव नहीं होता और ना ही सामाजिक वर्जनाओं और मर्यादाओं से कोई लेना-देना होता है। वास्तविक जीवन में इसकी पूर्ति शारीरिक एवं भावनात्मक संबंध से होती है। तेरहवीं सदी के फारसी कवि जलालुद्दीन रूमी ने कहा है–‘प्रेम इच्छा रखता है कि उसके रहस्य को प्रकट कर दिया जाए।’ यद्यपि इस तत्त्व की स्वाभाविकता है कि छिपाने से यह नहीं छिपता है–

‘खैर खून खाँसी खुशी वैर प्रीत मदपान
रहिमन दाबे ना दबै जानत सकल जहान।’

(रहीम)

यदि कोई दर्पण प्रतिबिंब नहीं दिखाता, तो उसकी क्या उपयोगिता है? ‘प्रेम का उदय’ आँखों से और आँखों में ही यह ‘अस्त’ भी हो जाता है–

‘होता है राज़-ए-इश्क-ओ-मुहब्बत इन्हीं से फाश
आँखें जुबाँ नहीं है, मगर बेजबाँ भी नहीं।’

आज के दौर में एक शब्द काफी प्रचलन में आया है और वह है ‘इंस्टेंट’ यानी तत्काल। ‘हम इंतजार करेंगे कयामत तक तेरा…’ ये कांसेप्ट आज के युवा का नहीं है। वह जल्दी में है। इंतजार करने की स्थिति में वह नहीं है। और हर मामले में वह कहीं न कहीं ‘रिजल्ट ओरिएंटेड’ नजर आता है। प्रेम के मामले में भी उसे ऐसी ही जल्दबाजी है। वैश्वीकरण के दौर में ‘लाभ’ केंद्रीय तत्त्व के रूप में उभरा है। पिछली जेनरेशन को प्रेम जैसे मूल्यों का ह्रास होता नजर आता है। विगत बीस-पच्चीस वर्षों में दुनिया तेजी से बदली है। बदली ही नहीं छोटी हो गई है। सूचना तकनीक और मीडिया में आए बड़े बदलावों ने बहुत सी ऐसी चीजों को उलट-पुलट कर रख दिया है। कभी महसूस होता है कि हम प्रेम के संक्रमण काल से गुजर रहे हैं क्योंकि नए दौर ने हर जगह अपनी छाप छोड़ी है, लेकिन इस ग्लोबल, दुनिया में क्या सचमुच सब कुछ बदल रहा है या कुछ पुराने मूल्य या परंपराएँ इतने गहरे तक पाँव पसारे हैं कि इन्हें उखाड़ फेंकना मुश्किल है।

प्रेम हर समय महत्त्वपूर्ण था, लेकिन इसमें मन के तत्त्व को सदैव केंद्रीय महत्त्व प्राप्त था। वैश्वीकरण के दौर ने इस संकल्पना को धरातल पर ला पटका। प्रेम एक व्यवस्था, एक प्रयोग, एक जरूरत बन गया। बस एक सनम चाहिए आशिकी के लिए…प्यार जरूरत बन गया है।

प्रेम ‘तब’ और ‘अब’ के संदर्भ में चर्चा-परिचर्चा करते हुए प्रेम के बहुआयामी संबंधों के अमूर्त भाव को इस रूप में समझा जा सकता है–एक व्यक्ति को प्रेम करने का अर्थ है–समस्त सृष्टि को प्रेम करना। यहाँ ‘करना’ शब्द किसी ऐसे कार्य का सूचक है जिसे आपने किया है। ‘होना’ सही शब्द है–प्रेम में होना, यहाँ आप कुछ नहीं कर रहे, हो रहा है पर निःसंदेह इसके पीछे प्रयत्न आपका ही है। करते आप ही हैं, पर होता स्वयं है।

इसी चर्चा के क्रम में प्रेम के प्रतीकों की बात आती है। इसी संदर्भ में कभी चाँद-तारों की, कभी फूलों-भौरों की तो कहीं शमा-परवाने की नजीर दी जाती है। पश्चिम में प्रेम की अवधारणा में ‘लव-बर्ड्स’ जैसे शब्द चलन में हैं। एक खास प्रजाति के पक्षियों परस्पर एकनिष्ठता की भावना यानी एक दूसरे के प्रति वफादारी निभाने की प्रकृति मानव जाति के लिए अनुकरणीय हो सकती है।

जिसे हम प्रेम कहते हैं, शाश्वत और सनातन है। हर काल व स्थान में एक रूप ही होता है। दुनिया विकसित हो रही है और समाज भी। तमाम धुंधलों के बावजूद प्रेम के जुगनू इस समाज को और रौशन करेंगे, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।

प्रेम प्राणियों का एक उदात्त भाव है, भले ही इसका प्रकटीकरण मनुष्यों की भाषा में अभिव्यक्त होता है। लेकिन इसका श्रेय सिर्फ मानव जाति को देना हमारी एकांगी सोच का परिचायक है। यद्यपि मनुष्य प्रेम की ही निर्मिति है। लेकिन मनुष्य ही क्यों? सृष्टि के सभी जीव प्रेम के प्रतिफल हैं। पर देखने-सोचने पर एक सच्चाई सामने आती है कि सृष्टि का सबसे सुंदर जीव मानव प्रेम से वंचित है। ऐसा नहीं कि संसार में प्रेम का अस्तित्व नहीं है। वह तो भरपूर है। कुछ लोग शिकायत करते हैं कि इस दुनिया में प्रेम रहा नहीं। यह तो किसी गुजरे जमाने की बात हो गई है। ऐसे में यह तथ्य प्रासंगिक हो उठता है कि अपने मूल रूप में प्रेम एक ऊर्जा है। विज्ञान कहता है कि ऊर्जा का नाश नहीं होता बल्कि रूपांतरण होता है। यह भी सत्य है कि आदिम युग में भी इस ऊर्जा की उपस्थिति थी पर तब मुखर नहीं थी यह ऊर्जा। आखेट में चोट-चपेट लगने के दौरान आदम जात के भीतर यह कामना रही होगी कि उसकी चोट पर कोई प्रेम का मरहम लगाए। स्वाभाविक है कि अपने कबीले के व्यक्ति को पीड़ा से छटपटाते देख सहानुभूति उपजी होगी और लग गया होगा स्पर्श का पीड़ाहारी बाम।

जहाँ तक भाव के स्तर की बात है, अनुभूति का सवाल है तो एक बार प्रकट हो जाने के बाद प्रेम चिरंतन रहा, शाश्वत रहा, परंतु जीवन में उसकी ठोस मौजूदगी अलग-अलग रूप पाती रही। सभ्यता के हर चरण पर उसका रूपांतरण होता रहा। यह रूप अपने समय के जीवन की प्रतिच्छाया रही। यदि नारी पराधीन रही तो प्रेम को सामंती रूप कहा। कहने का आशय कि देशकाल के अनुसार प्रेम भी उसी के अनुरूप शक्ल अख्तियार करता रहा। इसलिए जीवन की एक प्रेरक-शक्ति, एक गहन भाव, एक विलक्षण अनुभूति होने के बावजूद प्रेम की उदांत्त व्याख्याएँ उसकी संपूर्णता और समग्रता का एक अंश भर है।

प्रेम का स्तर-तल ऊँचा या नीचा या अलंघ्य नहीं है। वह तो बिल्कुल हमारी जद में है–‘दिल के आइने में है तस्वीरें यार की, जब चाही, गर्दन झुकाई और देख ली’ और उस तल का स्पर्श करते हुए वहाँ पहुँच जाते हैं जहाँ अकूत समृद्धि, ऐश्वर्य, वैभव है और है अपरिमित स्वतंत्रता। समृद्धि और स्वतंत्रता पा लेने के बाद सब कुछ निःशेष हो जाता है। ऐसा भाव अपनी वैयक्तिकता से उठकर अपने समय के पार ले जाता है, हमें रूपांतरित करते हुए चेतना के नए स्तर पर पहुँचा देता है।


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राजमणि मिश्र द्वारा भी