मैं गाँव पर ही क्यों लिखती हूँ

मैं गाँव पर ही क्यों लिखती हूँ

व्याख्यान

‘मैं गाँव पर क्यों लिखती हूँ’ का जवाब इस सवाल में छिपा है कि मैं क्यों लिखती हूँ! इतने सारे काम थे करने के लिए और एक स्त्री को तो काम बताने वाले लोग पहले से ही मौजूद रहते हैं, घर के बाहर भी…घर के भीतर भी। बहुत बार तो स्त्री को पता ही नहीं होता कि जीवन की किताब में आशा, स्वप्न, इच्छा और निर्णय जैसे शब्द भी होते हैं!

मुझे भी न पता होता, अगर मेरी माँ जैसी माँ मुझे न मिली होती। उनके बारे में मैंने ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ में विस्तार से लिखा है। माँ से मिला जीवट और अनुभवों से उपजी अनगढ़-सी चेतना–ये जिम्मेदार हैं कि मैंने शब्दों की राह क्यों पकड़ी।

शब्दों का महत्त्व मैंने बचपन में ही जान लिया था। असर पड़ता है, यदि बात दिल से कही और लिखी जाए तो।…मैं चिट्ठियाँ खूब लिखती थी। किशोर मन की हलचल व्यक्त करने के लिए। शायद उस सन्नाटे को भरने के लिए भी जो एक लड़की को चारों ओर से घेरे रहता है। एक बार किसी ने फसल का हिसाब समय से नहीं किया। आर्थिक संकट आ गया। माता जी परेशान। हारकर और हिम्मत कर मैंने पैसा न देने वाले को चिट्ठी लिखी। कुछ दिन बाद माता जी बोलीं, तूने ऐसा क्या लिख दिया वे घर आकर पैसे दे गए। उस दिन जाना, शब्द असर तो करते हैं।…मुझे ऐसा लगता है कि मेरा सारा लेखन एक चिट्ठी है। अन्याय, असमानता, अत्याचार, बेईमानी के खिलाफ प्रतिरोध-पत्र। मुझे सुरक्षित-संरक्षित-पोषित जीवन नहीं मिला था। लड़ तो सकते नहीं थे, इसलिए शब्दों का सहारा लिया।…और मुझे परिवेश मिला गाँव का। जहाँ कई शताब्दियाँ एक साथ साँस लेती हैं। जहाँ दुखों से लड़ते-लड़ते पूरा जीवन बीत जाता है। ये सब मैंने केवल देखा ही नहीं, भुगता भी। हिंदी में अधिकतर लेखिकाएँ मध्य वर्ग से आई हैं या उन जगहों से जहाँ गाँव जैसी तकलीफें नहीं हैं। अगर हैं भी तो उनके लेखन में धीरे-धीरे यह बोध कम होता गया। जीवन में निहित क्रांतिकारी तत्त्व की पहचान के लिए भी तो दृष्टि चाहिए। हम जो लिखते हैं वह हमारे जीवन की जरूरतों से जुड़ा होता है। यह जरूरतें मानसिक भी होती हैं। नहीं तो अलग-अलग तरह का लेखन क्यों होता!

मैंने गाँव पर लिखा नहीं, मुझे लिखना पड़ा। जो देखती थी, सुनती थी, सहती थी उसे कहने और लिखने की बेचैनी मेरे भीतर बढ़ती जा रही थी। जाने कितनी विसंगतियों में उलझा था समाज। पुरुष का सनातन वर्चस्व! कि औरत तो घर की शोभा है। उसे घर, परिवार, समाज, राजनीति में दखल नहीं देना चाहिए। प्राइमरी शिक्षा से लेकर जाने कहाँ-कहाँ अभावों के दरवाज़े खुले हुए थे। एक सांस्कृतिक और राजनीतिक बदलाव की जरूरत थी।…और इसमें मुझे अपनी ज़िम्मेदारी तय करनी थी। ज़िम्मेदारी निभाने के लिए मैंने कलम उठाई। राजेंद्र यादव चंबल के पानी से मुझे जोड़ते थे। शायद ठीक ही कहते थे। अन्याय के ख़िलाफ विद्रोह मेरे स्वभाव में है।

‘इदन्नमम’ का एक प्रसंग है, ‘कितनी बार सुनोगी बऊ? तुम तो हमने वनगमन से आगे नहीं बढ़ने देतीं। यह भी तो सुनो कि सुग्रीव की सेना ने राम के साथ मिलकर सागर कैसे पाटा था। कोई पाट सकता है बऊ? नदी तक पुल बनाना तो कठिन लगता है।’ मंदा की बात मेरी बात है। मैं जीवन और लेखन के बीच एक सेतु बनाना चाहती थी।

यह सब इस तरह से आज सोच रही हूँ। जब लिखना शुरू किया था तब ऐसा कुछ नहीं था मन में। एक तकलीफ़ रही होगी। तकलीफ़ तो आज भी हैं। बल्कि आज शायद बढ़ गई है।

…तो मैंने ऐसा कुछ सोचा नहीं था। केवल मंदा के जीवन में नहीं, पूरे गाँव के जीवन में तकलीफ़ें थीं। सहा नहीं जा रहा था। भीतर से कोई पुकारता था कि इससे लड़ना होगा। तकलीफ़ों को मिटाना होगा। कुछ करना चाहिए। अगर केवल कहने के लिए ही कहना होता तो बात दूसरी थी। कहना ही होता तो मेरा लेखन केवल आँसू-वाँसू बहाकर चुक जाता। बहुतेरे लेखक जब लिखने के लिए लिखते हैं तब क्या गाँव, क्या शहर, उनका लेखन मनोरंजन, आनंद, चिरंतन का नमूना बना चला जाता है।

आप ‘इदन्नमम’ को याद करिए। मंदा कहती है तो करती भी है। मैं खुद लिखने में कम और करने में ज्यादा भरोसा करती हूँ। इसीलिए पुल बनाना पड़ा। मैं अगर ‘मित्रो मरजानी’ लिखती तो मेरा रचाव दूसरा होता। मेरी मित्रो कभी नहीं लौटती। लौटना ही था तो इतने विद्रोह, तेवर, बड़बोलेपन और गुमान का अर्थ ही क्या। क्या यह सारा एक नाटक था जो पुरानी पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के मंच पर घटित हुआ। मुझे तो सारा विद्रोह, चूड़ी, बिछिया, सिंदूर की दहलीज़ पर सिर पटकने सरीखा लगा।

मेरी रचनाओं में स्त्रियाँ फैसला लेती हैं और मुझमें ऐसा सोच सकने की शक्ति मेरे गाँव से आई है। आज भी गाँव से मेरा रिश्ता वैसा ही बना हुआ है। बल्कि ज्यादा प्रगाढ़ हुआ है। शहर से तो मेरा कभी वैसा रिश्ता बन ही नहीं पाया। जिनका रिश्ता गाँव से नहीं है या जिनको गाँव के जीवन की समझ नहीं है, उनको कई बार मेरा लेखन समझ में नहीं आता। वे नहीं जान सकते कि गाँवों में स्त्री और दलित की हालत एक जैसी है। उनको लगता है कि राजनीति में आने के लिए उत्सुक स्त्री कोई बेजा या गढ़ा हुआ चरित्र है। मेरा मानना है कि जब तक स्त्री राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप नहीं करेगी तब तक उसकी हाल सुधरने की नहीं। उसका इस्तेमाल होता रहेगा, उसकी आवाज़ कभी नहीं सुनी जाएगी। मेरी रचनाओं में यह बात आती है। ‘अल्मा कबूतरी’ में तो पुरजोर तरीके से आई है। हालाँकि कुछ आलोचकों को लगा कि अल्मा के राजनीति में आने से ‘उपन्यास’ कमज़ोर हुआ। मैं जोर देकर कहना चाहती हूँ कि जीवन का सच कमज़ोर न हो, उपन्यास को जाँचने के पैमाने बदलिए। रचना जीवन से निकलती है। गाँवों पर लिखते हुए जो जीवन मैंने जाना वही लिखा। मैं रचनाओं में अपनी आत्मा का एक हिस्सा निकालकर रख देती हूँ। लोग समझाते रहें कि यह साहित्य का चलन नहीं है। यह शास्त्र समझो। वह सौंदर्यशास्त्र समझो। दोस्तो, अपने अधिकार और हक के लिए लड़ते हुए आदमी से अधिक सुंदर भला कुछ हो सकता है क्या! होते हैं कुछ मेरे जैसे सिरफिरे भी जो ‘अतिप्रश्नों’ की परवाह नहीं करते। जो शास्त्रों की जड़ता को चुनौती देते हैं।

यह चुनौती देने का अंदाज उनलोग को पसंद नहीं आया जो शास्त्रों में भरोसा करते रहे। मेरे स्त्री पात्रों के आचरण पर सवाल उठे। अजीब बात है कि आचरण और चरित्र की पवित्रता के सारे शास्त्र पुरुषों ने लादे। पुरुष ने बनाया है कि तुम पवित्र रहो मेरे लिए। तुम पर केवल मेरा अधिकार है। यही सांस्कृतिक कानून तो सदियों से चल रहा है। स्त्री अपवित्र है यह वाक्य संस्कृति से मिटा देना चाहिए।

…तो जिन्हें पसंद नहीं आया उन्होंने सवाल उठाए। आलोचकों ने भी। मन्नू भंडारी मेरी प्रिय लेखिका हैं। उन्होंने कहा कि ‘अल्मा कबूतरी’ में कबूतरा कहाँ है। मैंने कहा था कि वे हैं लेकिन उनके तमाशे नहीं हैं। इस उपन्यास का एक पात्र कहता है कि जब तक कचहरी में हम नहीं होंगे तब तक हमारा सवाल कौन उठाएगा।

दूसरी बात, शहराती (शहर के नहीं) आलोचक कह सकते हैं कि मैत्रेयी ने ऐसा यथार्थ क्यों लिखा! अरे भाई यह यथार्थ है, काल्पनिक नहीं हैं। और हाँ, अगर काल्पनिक होता तो यही तारीफ़ के पुल बाँध देते। यथार्थ था इसलिए आपत्ति हुई। मैंने यथार्थ को अपनी तरह से परिभाषित किया। ‘कही ईसुरी फाग’ में यह बात देखी जा सकती है। उसकी रजऊ का ऐसा रूप लोगों को नहीं दिखा था। लोग ईसुरी पर फिदा थे। मैंने बताया कि सच यह है…रजऊ ढोलक बजाकर अलख जगाती है। ईसुरी फागें लिखते रहे, बख़्शीशें लेते रहे और वहीं झाँसी में संग्राम होता रहा। इतिहास कथा और यथार्थ को अपनी तरह से देखने की ज़िद भी गाँव से मिली है।

इसी जिद ने मुझसे ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ लिखवाई। आत्मकथा कोई शौक से नहीं लिखता। मेरे ऊपर भी न दबाव था, न ऐसी कोई इच्छा थी। शुरुआत में एक वृत्तांत लिखा था। ‘हंस’ में छपा था। वह माँ की कहानी थी। उसमें थोड़ी-सी मैं भी आती थी। बहुत पसंद किया गया उसे। राजेंद्र जी और तमाम लोगों ने कहा कि इसे आगे बढ़ाओ। मेरी भी उत्सुकता बढ़ी। मुझे आत्मकथा की चुनौतियाँ भी पता थीं। मगर यहीं से जिद ने सिर उठाया, कि सच कहना है और लिखना है। न मेरे पास डायरी न कोई नोट्स। मैं अपने को ही याद करने लगी। आत्मकथा में जाने कितने चरित्र शामिल होते हैं। उनको बुरा बताकर खुद को भला बताना मुझे अच्छा नहीं लगा। जो ऐसा लिखते हैं वे इकहरी आत्मकथा लिखते हैं। बाकी जैसे थे, मैं भी वैसी ही थी। बाकी खराब थे तो मैं कौन-सा कम थी। बाप था न कोई संरक्षक। मैं लड़ना और अपना बचाव करना सीख गई थी। मैं बहुत भोली नहीं थी। हालाँकि चाहती तो ऐसा लिखकर कुछ परंपरावादियों की तालियाँ बटोर सकती थी। मैंने सच लिखा, जिससे बहुत से बुद्धिजीवी नहीं भी सहमत हुए। ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ का मामला तो और गंभीर था। ऐसी कोई भी स्त्री है जिसे पारिवारिक मार्यादाओं का डर न रहे। मुझे तो और ज़्यादा था क्योंकि मुझे तो परिवार नाम की संस्था का अपनी संपूर्णता में यह पहला अनुभव था। तालमेल खत्म हो या टूटन आए, ऐसा कौन चाहेगा। लेकिन इस आत्मकथा में भी मैंने अपने को आईने के आगे खड़ा किया। अगर मैंने किसी और की वफादारी पर टिप्पणी की है तो यह भी लिखा है कि मैं कितनी बेवफा थी। अपनी चीर-फाड़ भी की।…और सच कहूँ तो मुझे लगता था कि इस किताब में मैंने कोई बड़ी-बड़ी बातें तो की नहीं है। जिंदगी के छोटे-छोटे प्रसंग दर्ज किए हैं। लिखने के एक साल तक छपने नहीं दिया, राजेंद्र जी के कहने के बावजूद। मुझे लगता था कि मन्नू भंडारी और प्रभा खेतान की आत्मकथाओं के आगे मेरी किताब कौन पढ़ेगा।…लेकिन ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ छपी और बेस्ट सेलर साबित हुई। यह पाठकों ने साबित किया। लेखक की सबसे बड़ी पूँजी उसके पाठक ही होते हैं।

इसी पूँजी के सहारे मैं फैसले लेती हूँ। मेरी रचनाओं के पात्र फैसले लेते हैं। क्योंकि अगर निर्णय लेने के क्षण में ही चूक गए तो सारी बौद्धिकता या मानवता का मतलब ही क्या है। मैंने ‘फरिश्ते निकले’ की बेली बहू के लिए जो लिखा, वह यहाँ दोहराना चाहती हूँ,–‘जीवन के बारे में उनको किसने ज्ञान दिया और किसने बताया कि अपने वजूद से बड़ी चीज दुनिया में कोई नहीं है।’ बेला बहू जिंदा भी रही और आज़ाद भी, इसी भावना के तहत उन्होंने आने वाले समय के लिए उम्मीद और अनुराग सँजोकर, भयानक स्थितियों में भी आशा छीजने नहीं दी। मैं गाँव पर इसलिए लिखती हूँ कि मनुष्य भयानक स्थितियों में भी उम्मीद, अनुराग और आशा बनाए रखे।

(नई धाराद्वारा आयोजित 2 दिसंबर, 2016 को साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के सभागार में दिया गया द्वादश उदय राज सिंह स्मारक व्याख्यान’)


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