अज्ञेय की रचनाओं में सांस्कृतिक परिवेश
- 1 June, 2016
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अज्ञेय की रचनाओं में सांस्कृतिक परिवेश
सामान्य अर्थ में संस्कृत अवस्था का नाम ही संस्कृति है। संस्कृति मानव-जीवन की वह अवस्था है जहाँ उसके प्राकृत राग-द्वेषों में परिमार्जन हो जाता है। जहाँ मनुष्य व्यष्टि के तल से उठकर समष्टि के तल पर आता है। स्वयं को दूसरे की सापेक्षता में देखता है। यहीं संस्कृति का जन्म होता है। स्थूल आवरण के पीछे मानवता का जो सत्य, शिव और सुंदर छिपा हुआ है, संस्कृति उसको ही पहचानने का प्रयत्न करती है। जड़ता से चैतन्य की ओर, शरीर से आत्मा की ओर, रूप से भाव की ओर बढ़ना ही उनका ध्येय है। यह संस्कृति की आंतरिक धारणा है। संस्कृति के बहिरंग तत्त्व हैं–आचार-विचार, विश्वास, परंपराएँ, जीवन–तरीका और माध्यम हैं–कला, साहित्य इत्यादि।
अज्ञेय लिखते हैं–‘संस्कृति व्यक्तित्व का विस्तार और प्रसार माँगती है, संकोच या छटाव नहीं।’ अज्ञेय का यह मानना है कि ‘संस्कृति के सवाल उठाये बिना आधुनिक होने की बात करना मुफीद नहीं है। फिर न तो प्रगति की जा सकती है और न वास्तव में मनुष्य ही बना रहा जा सकता है। यह बात भी सत्य है कि हमें नई दृष्टि से नए संदर्भों में संस्कृति पर विचार करना चाहिए और सभी पक्षों को ध्यान में रखकर उसकी व्याख्या करनी चाहिए। ऐसा कह, हम नए विमर्शों से नए जीवन-सत्यों के आस-पास पहुँचकर वर्तमान की चिंताओं से सामना करते हुए उसका समाधान निकाल सकने में कामयाब हो सकेंगे।’ अज्ञेय के कई निबंध गहरे सांस्कृतिक-बोध से परिपूर्ण हैं जहाँ ‘भारतीय संस्कृति’ और ‘विश्व संस्कृति’ के गहन निहितार्थों को व्यंजित किया गया है। अज्ञेय की कविताओं में सांस्कृतिक-ऐतिहासिक सामंजस्य द्वारा परंपरा से जुड़ने का सचेष्ट प्रयत्न ही नहीं अपितु संस्कृति की सार्थकता का रेखांकन भी है। यद्यपि यह बहुत आसान काम नहीं है, एक कष्टसाध्य प्रक्रिया है। इस ओर संकेतित करते हुए अज्ञेय लिखते हैं–‘ऐतिहासिक परंपरा कोई पोटली बाँधकर रखा हुआ पाथेय नहीं है, जिसे उठाकर हम चल निकलें। वह रस है जिसे हम बूँद-बूँद अपने में संचय करते हैं–या नहीं करते, कोरे रह जाते हैं।’ जगदीश गुप्त भी लिखते हैं–‘अतीत की उपलब्धियों को निरर्थक घोषित करके बलात् आधुनिक बनना कल्याणकारी नहीं है।’
अज्ञेय टी.एस. इलियट से बहुत प्रभावित रहे हैं। इलियट कहते हैं कि–परंपरा का व्यापक महत्त्व होता है। उसे कवि बड़े प्रयत्न से उपलब्ध करता है। वह विरासत में यों ही नहीं मिलती। इस तरह वह सांस्कृतिक संगति की सार्थकता के महत्त्व को स्वीकार करता है। यह परंपरा मनुष्य की सांस्कृतिक चेतना, इतिहास-भावना तथा पूर्ववर्तियों की कृति से प्रसूत होती है। वह आगे लिखते हैं–‘यह इतिहास-भावना जो काल निरपेक्ष की एवं काल-सापेक्ष की पृथक-पृथक तथा समन्वित भावना है–रचनाकार को परंपरीण बनाती है। यही भावना रचनाकार को काल-प्रवाह में अपना स्थान और अपनी समसामयिकता का तीव्र बोध देती है। इस प्रकार यह साफ हो जाता है कि अज्ञेय पश्चिमी चिंतकों से प्रभावित होकर अपनी समस्या को नए रूप से व्याख्यायित और रूपायित करते हैं। साथ ही परिष्कृत दृष्टिकोण से रूढ़िग्रस्त मान्यताओं का विरोध करते हैं। वे जनतांत्रिक धारणा के अनुरूप कुंठारहित होकर व्यक्ति को निर्णय की स्वतंत्रता देना चाहते हैं। ऐसी स्वतंत्रता जो विवेकसम्मत है, आत्मघाती नहीं है। इसी रूप में उनका काव्य परिवेश आधुनिक होकर भी संस्कृति सम्मत है–
‘जानता क्या नहीं निज में बद्ध होकर है नहीं निर्वाह?
युद्ध नल की में समाता है कहीं ‘बेयाह’
मुक्त जीवन की सक्रिय अभिव्यंजना का तेज दीप्त प्रवाह!
जानता हूँ, नहीं सकुचा हूँ कभी समवाय को देने स्वयं को दान
विश्व-जन की अर्चना में नहीं बाधक था कभी इस व्यष्टि का अभिमान।’
अज्ञेय सांस्कृतिक भावना से अविछिन्न हैं, इसलिए वे देशकाल की महत्ता को स्वीकार करते हैं। अज्ञेय सभी स्तरों पर, (नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक) रूढ़ व्यवस्था के प्रति विद्रोह करते हैं। वे मानते हैं कि रूढ़ व्यवस्था व्यक्तित्व को कुंठित करती है और कुंठित व्यक्ति संस्कृति की गिरावट का सूचक है, जिससे सांस्कृतिक परिवेश पर बहुत गहरा असर पड़ता है। इसलिए वे सांस्कृतिक मूल्यों के स्वस्थ, विकसित तथा व्यापक रूप के प्रति गहरी आस्था प्रकट करते हैं। अज्ञेय लिखते हैं–‘जीवन की बात जब मैं चाहता हूँ, तब अपने से बड़े एक संयुक्त व्यापक समष्टिगत जीवन की बात सोचता हूँ–उसी के साथ एक होना चाहता हूँ–अगर वह बहुत बड़ा प्रवाह है तो उसकी धारा की बाँहों से घेर लेना चाहता हूँ–या वह छोटा मुँह बड़ी बात न लगे तो कहूँ उस पर एक पुल बाँधना चाहता हूँ चाहे क्षणभर के लिए।’ इस स्थिति में वे अपनी सांस्कृतिक चेतना को विस्तार देते हैं और सभी के साथ, परिवेश के साथ अपनी चेतना को संयुक्त करते हैं।
नई कविता की आधुनिकता भी मानवीय मनोभूमि में सांस्कृतिक शक्ति का आधार लेकर विकसित हुई है। अज्ञेय इस बात से पूर्णतः सहमत हैं। इसलिए वे कहते हैं–
‘दुःख सबको माँजता है
स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने
किंतु जिनको माँजता है
उन्हें वह सीख देता है कि
सबको उससे मुक्त रखो।’ (पूर्वा., पृष्ठ-242, अज्ञेय) युंग ने भी यह स्वीकार किया है कि ‘आधुनिकता तक पहुँचने के लिए यह आवश्यक शर्त है कि पुराने युग की चेतना के समस्त स्तरों को मानसिक तौर पर अनुभव किया जाए।’ आधुनिकता तक पहुँचने के लिए यह मानसिक अनुभव एक अनिवार्य प्रक्रिया है। अपनी काव्य-यात्रा में अज्ञेय ने इस शर्त को संस्कृति से जुड़कर पूरा किया है–
‘हँसा खेत : मरु काका ठीक है।
होगा वही
लू बहेगी
पाला भी पड़ेगा
दुःख होगा ही।
किंतु जब मेरी छाती फोड़कर अंकुर एक फूटेगा
और भोली गर्व भरी आस्था से निहारेगा
तब उस एक मात्र क्षण में
किंतु काका, आपसे क्या कहूँ और…
नवसर्जना में जो
अपने को होमकर होते हैं आनंदमग्न
उनकी तो दृष्टि और होती है।’
यहाँ कवि भूत-भविष्य और वर्तमान में सांस्कृतिक सजगता और जुड़ाव का परिचय दिया है।
‘सांस्कृतिक समग्रता : भाषिक वैविध्य’ नामक विचार प्रधान निबंध को पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि वे जीवन भर संस्कृति और भाषा तथा उसके संप्रेषण पर विचार करते रहे तथा यह मानते रहे कि हमें अपनी ‘सांस्कृतिक-बहुल’ अस्मिता को बचाना होगा। हमारी ‘भारतीयता’ ने जड़ परंपरावाद को कभी भी स्वीकार नहीं किया है। इसलिए परंपरा का संस्कारित रूप आधुनिकता या उत्तर आधुनिकता के कारण ‘भूमंडलीकरण’ का जो दौर शुरू हुआ उससे हमें अपनी भाषा-संस्कृति और साहित्य को बचाना ही होगा। उनकी इस चिंता ने अनेक व्याख्यान मालाओं के लिए उन्हें प्रेरित किया। अपने भाषिक चिंतन में उन्होंने अनेक प्रयास किए। ‘हिंदी के वर्तमान और भविष्य’ नामक निबंध में वे लिखते हैं कि ‘भारत की आधुनिक भाषाओं में हिंदी ही सच्चे अर्थ में सदैव भारतीय भाषा रही है, क्योंकि वह निरंतर भारत की समग्र चेतना को वाणी देने का प्रयास करती रही है। अन्य सभी भाषाओं में प्रदेश बोलता है…हिंदी में आरंभ से ही देश बोलता रहा है।’
अज्ञेय ने सांस्कृतिक परिवर्तन को नई-नई परिकल्पनाओं और वैज्ञानिक प्रगति से जोड़ते हुए मानव की स्थिति पर विचार करते हुए लिखा है कि ‘वह एक नीतिविहीन अथवा अनैतिक (क्योंकि यांत्रिक) समाज में रहने वाला नैतिक जीव है। वास्तव में आज के सामाजिक रोग इसी अंतर्विरोध के परिणाम हैं।… जीवन की प्रक्रिया का यह बढ़ता हुआ ज्ञान, जीवन-यंत्र की यांत्रिक गति का यह बढ़ता हुआ परिचय अपने-आप में एक समस्या है। जितना ही अधिक हमारा जीवन सतह पर आता जाता है उतनी ही सतह बढ़ती जाती है; अर्थात उसके अनुपात में आभ्यंतर जीवन उतना ही छोटा होता जाता है। जीवन-स्फटिक रचना ही रचना है; गति ही गति है; तत्त्व कुछ है या नहीं, हम नहीं जानते! कवि कहते हैं–
‘हम बार-बार गहरे उतरे
कितना गहरे! –पर
जब-जब जो कुछ भी लाये
उससे बस
और सतह पर भीड़ बढ़ गई।
सतहें-सतहें
सब फेंक रही हैं लौट-लौट
वह कौंध
जिसे हम भर न रख सके
प्याले में।
छिछली, उथली, घनी चौंध से अंध
घूमते हैं हम
अपने रचे हुए
मायावी उजियाले में।’
इस तरह से आधुनिक संवेदना से युक्त सांस्कृतिक परिवर्तन से अज्ञेय चिंतित दिखाई देते हैं। उनका मानना है कि आधुनिक साहित्यकार के लिए इस परिस्थिति को अनदेखा करना असंभव है लेकिन देखकर स्वीकार कर लेना भी असंभव है। अपनी साहित्यिक कृतियों में वे सदैव इस बात पर विचार करते रहे हैं कि समकालीन परिवेश में हमारा आचरण कैसा हो कि एक समग्र सांस्कृतिक-चेतना उभरे। आज का युग भूमंडलीकरण का युग है जिसमें संचार माध्यमों का विकास हमारी जानकारी तो बढ़ता है; लेकिन यह जानकारी एकांगी और विकृत होती जा रही है, कारण यह कि संचार माध्यम स्वार्थ-समूहों में बँधे हुए हैं। जबकि सांस्कृतिक-चेतना के लिए व्यापक दृष्टि चाहिए। अज्ञेय के अनुसार संस्कृति के अध्ययन का अपना महत्त्व है। भारतीय संस्कृति में मूल्यवान और स्पृहणीय क्या है, इस पर विचार होना ही चाहिए। भारतीय संस्कृति के किन मूल्यों में उसका सामर्थ्य निहित है और कौन-सी प्रवृत्तियाँ उसे वह बल और गतिशीलता दे सकती है, जिसकी उस पश्चिमी संस्कृति का मुकाबला करने के लिए आवश्यकता होगी, यह प्रश्न भी हमारे सामने है। अज्ञेय पाते हैं कि भारत में रहते हुए भी लोग भारतीय संस्कृति के प्रति नितांत उदासीन होकर रह लेते हैं। पिछले कुछ दशकों से इस देश के लोग ‘विश्व संस्कृति की एक मरीचिका’ के शिकार हो गए हैं। अज्ञेय लिखते हैं कि ‘विश्व संस्कृति, विश्व-मानव अथवा विश्व-नागरिक का आदर्श इस देश की परंपरा में भी रहा है। वैदिक काल का सामाजिक जब ‘कण्वंतो विवर्मायम्’ की बात सोचता था तब स्वयं अपने आर्यत्व में उसकी आस्था थी और उस पर वह गर्व भी करता था। मध्यकाल में वैष्णव भी जब कहते थे कि ‘सबके ऊपर मनुष्य है, उसके ऊपर कुछ नहीं’ अथवा जो भी हो मेरा पड़ोसी है, जहाँ भी हो मेरा देश है। तब उनकी विश्व मानवता या विश्व नागरिकता को पुष्ट करने वाली एक देशव्यापी वैष्णव अथवा भक्त समाज की परिकल्पना थी।
किंतु आज स्वयं भारतीय ही व्यापकता विश्व दृष्टि के लिए पश्चिम का मुँह जोह रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो भारतीय संस्कृति अपनी सर्जनशीलता खो बैठी है। अज्ञेय के शब्दों में ‘उसने अपनी सर्जनशीलता मानो खो दी है। उसके अस्तित्व का हेतु क्या रहा है यह पहचानने की अंतर्दृष्टि जैसे उसके पास नहीं है। यह भी देखने में आया है कि कभी-कभी एक स्वस्थ सजीव पौधे की आत्मा की तरह संस्कृति की आत्मा भी अपनी जन्मभूमि छोड़कर दूसरी भूमि में जम जाती है और अच्छे ढंग से पनपने लगती है। जैसा कि चीनी संस्कृति के साथ (19वीं शती के अंत) हुआ। चीनी संस्कृति की ज्योति जब अपने देश में बुझ रही थी तब जापान में उसकी ज्योति चमक आई थी। इस संदर्भ में अज्ञेय का प्रश्न है कि–‘भारतीय संस्कृति की ज्योति कहाँ चमकेगी? क्या बीसवीं शती के अंत तक अमेरिका में! तब क्या भारत के सांस्कृतिक अवदान को समझने के लिए हमारे अध्येताओं को अमेरिकी विश्वविद्यालय में जाना पड़ेगा।’
अज्ञेय का उपर्युक्त विचार स्पष्ट करता है कि अज्ञेय एक जागरूक सर्जक के लिए यह आवश्यक मानते हैं कि वह अपने देश की परंपराओं से परिचित हो और संस्कृति के जीवंत तत्त्वों की तलाश करें न कि अंधानुकरण। अज्ञेय ने स्वयं अपने ऊपर लगाए गए इस आरोप कि ‘उनका साहित्य पाश्चात्य सांस्कृतिक प्रभावों से मंडित है’ का बड़े ही स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया–‘मौलिक चिंतक सौ-दो सौ बरस में एक कोई हो जाए तो बड़ी बात है, यह भी आवश्यक नहीं कि हर कृतिकार ‘चिंतक’ भी हो। प्रायः सभी चिंतक दूसरों के विचारों से प्रभावित होते ही हैं।… मैं केवल पाश्चात्य विचारकों से ही प्रभावित नहीं हूँ; कई वैचारिक परंपराओं से प्रभावित हूँ देशी भी और विदेशी भी।’ मुझमें इससे लज्जित होने की बात भी नहीं दिखती : उस दशा में और भी नहीं, जब ये अनेक प्रभाव मुझे अपना व्यक्तित्व पहचानने में सहायक होते हैं। एक सच्चा सर्जक विभिन्न विचारधाराओं से अप्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है, चाहे वो देशी हो या विदेशी। इस अर्थ में अज्ञेय एक सच्चे सर्जक हैं जो देशी संस्कृति के साथ-साथ विदेशी संस्कृति के परिवेश और प्रभाव को भी वैचारिक परंपरा के रूप में स्वीकार करते हैं बिना अंधानुकरण के व बिना किसी हिचकिचाहट के। उसका काव्य सांस्कृतिक परिवेश की समग्रता को धारण करता है–
‘जो फूल जहाँ
जो भी सुख
जिस भी डाली
हुआ पल्लवित, पुलकित
मैं उसे वहीं पर
अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल
हे महाबुद्ध!
अर्पित करती हूँ तुझे।’ (अरी ओ करुणा प्रभामय)
Original Image : Govardhan. A Discourse Between Muslim Sages ca.-1630 LACMA
Image Source : Wikimedia Commons
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Note : This is a Modified version of the Original Artwork