हिंदी कविताओं में अनागत परंपरा

हिंदी कविताओं में अनागत परंपरा

अनागत कविता भविष्य के प्रति जिज्ञासा और आतुरता को लिए वर्तमान के साथ अतीत को जोड़ने वाली वह कड़ी है जिसमें साहित्यकार की समाज के प्रति एवं समाज में घट रही गतिविधियों के प्रति संचेतना को देखा जा सकता है। इन रचनाकारों की रचनाओं में एक बौखलाहट है। उस व्यवस्था के प्रति जो सिर्फ किसी एक वर्ग को तवज्जों देता है और विकास को संकुचित रूप में देखता है। जिस क्रांति और बौखलाहट की बात हम करते हैं, भविष्य की चिंता को लेकर समाज में गरीबों, मजदूरों और दलितों के लिए भी लिखा जा रहा था वह हमें दलित कविता में मिलती है। अनागत कविता की पृष्ठभूमि नई कविता के साथ-साथ बनने लगती है और इसकी झलक हम दलित रचनाकारों में बखूबी देख सकते है।

मूल बीज शब्द अनागत, कालखंड, तृष्णातुरता, तल्खी, आतुरता, अकुलाहट और आक्रोश, खुदगर्जी, प्रतिबद्ध, स्वर्णिम भविष्य, परिलक्षित, तिलांजलि, अपेक्षित। संस्कृत शब्द अनागत का अर्थ है, ना आया हुआ या आगे आने वाला। अनागत अर्थात आने वाला भावी भविष्य जो अनजान है, संभावित है। अनागत वह कालखंड है जिसमें व्यक्ति अपने वर्तमान के साथ अतीत की स्मृतियों को सँजोए हुए भविष्य की मंगलकामना करता है। अनागत एक संक्रांतिकालीन कविता है जिसकी अस्पष्टता या रहस्यमयता एक ऐसी रचनात्मकता है जो उसे अनेक अर्थ, स्तरीय तथा बहुआयाम प्रदान करती है। इसमें भविष्य के प्रति जिज्ञासा, आतुरता छिपी हुई है सामान्य अर्थों में कहा जाए तो अनागत आशावाद के सिवाय और कुछ नहीं है।

अनागत कविता अचानक से नहीं उत्पन्न हो जाती है इसकी पृष्ठभूमि नई कविता के साथ-साथ बनने लगती है। प्रयोगवादी कविता सन् 1950 से 1960 तक आते-आते जब नई कविता के रूप में ढलने लगती है, उसी समय साहित्य जगत में बहुत से परिवर्तन भी हम देखते हैं ऐसे में अनागत कविता का आगमन होता है और प्रयोगवादी कविता अपने ढलान पर है, वहीं दूसरी तरफ ‘तार सप्तक’ के कवियों की रचनाओं को भी देख सकते हैं। हिंदी कविता की परिपाटी को देखें तो अनागत कविता आंदोलन साठोत्तरी कविता के दूसरे दशक में अस्तित्व में आती है और समकालीन कविता फिर इक्कीसवीं सदी के वर्तमान तक अपने विस्तार के साथ उपस्थित होती है। आधुनिक कविता की बेचैनी बौखलाहट तथा तल्खी हमें अनागत कविता में भी देखने को मिलती है। इसी समय साहित्य के क्षेत्र में दलित कविताएँ भी लिखी जा रही थीं जिनसे मुँह मोड़ा नहीं जा सकता। जिस क्रांति, बौखलाहट की बात हम करते हैं भविष्य की चिंता को लेकर समाज में गरीबों, मजदूरों और दलितों के लिए भी लिखा जा रहा था वह हमें दलित कविता में मिलती है।

अनागत कविता पूर्ण रूप से यथार्थवादी है। ठीक उसी प्रकार आता है, ना जाता है। यह ना आने और ना जाने की स्थिति भविष्य तो नहीं हो सकती किंतु एक जिज्ञासा आतुरता छुपी हुई थी जो कुछ और ही संकेत करती है। ठीक जैसे हाथ उसके हाथ में आकर बिछड़ जाते कि मांसलता और इंद्रिय या अत्यंत निजी तथा गोपन प्रकार की तृष्णातुरता प्रकट करती है। जो प्रायः युवक उचित रोमानी प्रेम संबंधों में होती है, अतः यह अनायास ही नहीं था कि दूसरे सप्तक के कवि शमशेर बहादुर सिंह एवं तीसरे सप्तक के कवि केदारनाथ सिंह की कविता की प्रशंसा करते हुए उनकी कविता की समीक्षा में कहते हैं कि केदारनाथ सिंह युवकों के प्रिय कवि हैं। सन् 1972-73 की बात की जाए तो उस समय की सामाजिक परिस्थतियाँ ऐसी विषम थी जिसमें आजादी के बाद युवकों की जो आशा थी, जो उम्मीदें थीं वह कहीं धूमिल-सी होती हुई नजर आती हैं। ऐसे में कवियों ने लेखनी के माध्यम से जन-जन तक अपनी बात पहुँचाने की तथा उन्हें जागरूक करने की कोशिश की।

कवियों ने न सिर्फ अपनी कविताओं में प्रतीकों और बिंबों का नए-नए रूपों में प्रयोग किया बल्कि उसके साथ ही यथार्थ को ऐसा स्थापित किया जिसमें कल्पना का लेशमात्र भी नहीं हैं। एक तरफ केदारनाथ सिंह, रघुवीर सहाय, दुष्यंत कुमार, धूमिल आदि कवियों ने अपनी गजलों कविताओं के माध्यम से समाज के युवा क्रांतिकारियों में जोश भर दिया। इस प्रकार हम देखते हैं कि समाज में एक ही समय में कई प्रकार की साहित्य रचनाएँ की जा रही थीं। बशर्ते समाज में जो परिस्थिति अधिक हावी रूप में प्रतिष्ठित होती है, रचना पर भी उसी का मूलतः प्रभाव देखा जाता है। समाज में शोषित और पीड़ित वर्ग के प्रति साहित्यकारों की छटपटाहट और उनकी बेचैनी को हम उनकी रचनाओं के माध्यम से देख पाते हैं। जब दुष्यंत कुमार अपनी गजल के माध्यम से कहते हैं–

‘कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।’

सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ ने राजनीति को ही केंद्र में रखकर ‘संसद से सड़क तक’, ‘कल सुनना मुझे’ और ‘सुदामा पांडे का प्रजातंत्र’ जैसी रचनाओं को मूर्त रूप दिया है। धूमिल अपनी कविता ‘संसद से सड़क तक’ में व्यंग्य करते हुए कहते हैं–

‘एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है ना रोटी खाता है
सिर्फ रोटी से खेलता है।

मैं पूछता हूँ
यह तीसरा आदमी कौन है
मेरे देश की संसद मौन है।’

उस समय समाज में राजनीतिक परिस्थितियों में उथल-पुथल मची हुई थी। बुद्धिजीवी वर्ग संभावित भविष्य को लेकर चिंताग्रस्त था। समाज में एक ऐसा तबका भी था जिसने आजादी के बाद की लहर में आशा रूपी नए स्वर्णिम सपनों को सँजोए अपने विकास की त्वरित गति को देखा था। सभी भारतवासियों के मन में यह आशा थी कि देश की आजादी के बाद सबको समानता का अधिकार दिया जाएगा। सबको समान रूप में आगे बढ़ने के लिए अवसर प्राप्त होंगे, लेकिन स्वतंत्रता के बाद की स्थिति कुछ और ही बयाँ करती है। उनकी जो आशाएँ थी, जो सपने थे, वे उन्हें धूमिल होते हुए नजर आ रहे थे। ऐसे में साहित्यकारों ने जो मुहिम चलाई उसे हम भली-भाँति देख सकते हैं। डॉ. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की ‘चमार की चाय’ कविता-संग्रह की कविता ‘इकतारा’ में कवि गरीबों की, दलितों की, मजदूरों की, असहाय लोगों की बात स्पष्ट रूप में रखते हुए कहते हैं–

‘गफलत में सोई जनता को
जब हालात जगाते हैं।

तड़प दिलों में उठती है,
वे सड़कों पर आ जाते हैं।’

इन पंक्तियों के माध्यम से कवि डॉ. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ जी की बेचैनी, अकुलाहट और आक्रोश को हम महसूस कर सकते हैं कि गफलत अर्थात अचेतनता, बेसुधि, असावधानी और बेपरवाह होकर सोई हुई जनता को कवि उनके नींद से जागने के बाद की स्थिति की बात करते हैं कि जनता जब नींद से जगती है तब उसके हालात उसे झकझोरते हैं और अपने दिल की तड़प को, अपनी यातनाओं से मजबूर होकर अपनी हक की माँग के लिए सड़कों पर उतर जाते हैं। वर्तमान परिस्थिति में भी हम देख रहे हैं कि करोना महामारी के कारण बहुत से ऐसे मजदूर थे जिन्हें कहीं से किसी प्रकार की आशा की उम्मीद नहीं थी, कि उनके लिए कुछ किया जा रहा है। अंततः विवश होकर अपनी भूख से, अपनी बेरोजगारी से लड़ते हुए, अपने घर, अपने गाँव के लिए, अपनो के लिए, पद यात्रा के लिए सड़कों पर निकल पड़ते हैं। समाज में वर्ण व्यवस्था के कारण जो आपसी द्वेष फैला हुआ है, जिसने देश की कंचन काया में कोढ़ रूपी बीमारी को जन्म दे दिया है इसे दूर करने का प्रयास अभी भी हम देख सकते हैं। देश में वर्ण विषमता की व्यवस्था के कारण समाज में जो अराजकता फैली हुई है। एक वर्ग जहाँ है फल-फूल रहा है, अर्थात विकास की गति में तीव्र गति से विकास कर रहा है, वहीं दूसरा वर्ग शासकों का शिकार बना हुआ है, तभी श्यौराज जी अपने देशवासियों से गुहार लगाते हुए कहते हैं कि अपने हक़ के लिए लड़ो। वे देश में वर्ण व्यवस्था को कोढ़ मानते हुए कहते हैं–

‘निज देश की कंचन काया में
यह वर्ण–‘विषमता का कोढ़ हुआ।

कहीं शोषक, शासक बन बैठा
कहीं दोनों में गठजोड़ हुआ।’

अपनो के लिए, उनके दुख-दर्द के लिए कवि की जो छटपटाहट है वह कविता के माध्यम से प्रतिक्रिया के रूप में न सिर्फ व्यक्त होती है बल्कि लोगों को जागरूक करने के साथ-साथ देश के राजनैतिक दलों पर भी प्रश्न उठाते हैं कि जो देश के सांसद हैं–कैसे खुदगर्ज और स्वार्थी हैं, जिन्हें ना तो अपने कर्तव्यों से कोई मतलब है, और ना ही अपनी जनता की सुध है। उन्हें सिर्फ अपने स्वार्थ से मतलब है, अपने फायदे के लिए दल-बदलने में भी हिचकिचाहट नहीं होती। तो ऐसे लोग भला अपनी जनता का क्या ध्यान रख पाएँगे? कवि ‘हम होने वाले सांसद हैं’ नामक कविता में  ऐसे खुदगर्ज सांसदों के लिए कहते हैं–

‘खुदगर्जी–
से हैं ओत-प्रोत।

झगड़े दंगों
के महास्रोत
हम दलबदलू,
हम बिके हुए
कोई सीखे हमसे
छल-फरेब
रग-रग में
अपने भरे ऐब
सब फर्ज-उसूल नदारत हैं।

हम होने वाले सांसद हैं।’

अनागत काव्य आंदोलन के समय 1972-73 की परिस्थितियों को ध्यान दिया जाए तो उस समय की राजनैतिक, सामाजिक परिदृश्यों को भुलाया नहीं जा सकता है। ऐसे में साहित्यकार की छटपटाहट अपने समाज और देश के लोगों के प्रति उसे विवश करती है कि वह अपनी लेखनी के माध्यम से समाज के लोगों का मार्ग प्रशस्त करें। हम देखते हैं कि हिंदी की सभी विधाओं में कविता हो, गजल हो, कहानी हो या उपन्यास हो साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से अपनी बेचैनी को व्यक्त किया है। साहित्यकार मार्क्सवाद से प्रभावित थे, वहीं दूसरी तरफ समाज में समानता की बात जोर शोर से कर रहे थे। डॉ. श्यौराज  सिंह ‘बेचैन’ पर भी यह प्रभाव देखा जा सकता है क्योंकि ये राजनीतिक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता भी थे। कवि कहते हैं–

‘आवरण ही नहीं आचरण देखिए
फिर नहीं योजना का चरण देखिए
इससे पहले कि चुनिए कोई रहनुमा
है जरूरी कि अंतःकरण देखिए।’

अनागत कविता आंदोलन का मूल आधार अनागत की वर्णित अवधारणा में ही निहित है। नई कविता से निकलकर साठोत्तरी हिंदी कविता यात्रा में बहु स्वीकृति विद्रोही चेतना और तीखे व्यंग्य हैं, हालाँकि अनागत कविता आंदोलन सन् 1972-73 में अस्तित्व में आया। लेकिन इसमें नई कविता की प्रवृत्तियाँ ही परिलक्षित होती हैं। कविता समग्र जीवन की प्रामाणिक अनुभूतियों को जीवंत परिवेश में देखती है। इसमें व्यक्ति द्वारा भोगी जा रही जीवन की बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी सच्चाई को बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। इसके साथ ही नई कविता की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह वर्तमान की पीड़ा के बीच भविष्य निर्माण के प्रति सकारात्मक आशा को अभिव्यक्त करती है व भविष्य के लिए सजग दिखाई देती है। नई कविता की यह विशिष्टता अनागत कविता आंदोलन की मुख्य प्रवृत्ति के रूप में परिलक्षित होती है। इस संदर्भ में अनागत कविता आंदोलन स्वयं में अपना विशेष महत्त्व स्थापित करता है, जिसे वर्तमान के कठिन संघर्षों के बीच भविष्य की कामना को अभिव्यक्त करने वाले कवियों और कवयित्रियों को एक मंच प्रदान किया।

अनागत कविता आंदोलन साठोत्तरी कविता के दूसरे दशक में अस्तित्व को पाकर समकालीन कविता और फिर 21वीं सदी के वर्तमान तक अपनी विस्तार के साथ साठोत्तरी कविता के दौर में लगभग पचास कविता आंदोलन अस्तित्व में आए, बहुत चर्चित भी हुए, विभिन्न कविता आंदोलनों की तुलना में यह कविता आंदोलन चर्चाओं, समीक्षाओं के क्षेत्र में अपेक्षित स्थान नहीं पा सका, तथापि अनागत कविता आंदोलन की अपनी सशक्त उपस्थिति रही है और वर्तमान में भी है।

कठिन वर्तमान जीते हुए स्वर्णिम भविष्य की कल्पना के ध्येय वाक्य के साथ प्रारंभ हुए अनागत कविता आंदोलन में व्यक्ति के स्वर्णिम भविष्य की कल्पना की गई है। व्यक्ति से समाज, राष्ट्र, विश्व और समग्र मानवता के भविष्य को वर्तमान के संदर्भ के साथ देखने का प्रयास किया गया है। सामान्यतः रचनाकार अपने स्वर्णिम अतीत की बात करते हैं, अतीत के कष्टों की बात करते हैं या फिर वर्तमान की बात करते हैं किंतु अनागत कवि इससे आगे बढ़कर अतीत के संदर्भ लेते हुए वर्तमान की बात करते हुए स्वर्णिम भविष्य की कल्पना प्रस्तुत करता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि समाज में ऐसी रचनाएँ लिखी जा रही थीं जो राजनीति से संपूर्ण रूप से ओत-प्रोत थी। उस दौर में राजनीतिक उथल-पुथल के बीच भविष्य की संभावनाएँ डगमगाती हुई नजर आती है और ऐसे में रचनाकार समाज में जनतंत्र की लहर की क्रांति लाना चाहता है, क्योंकि सत्ता की मोह में  देश के नेता, सांसद अपनी स्वार्थपरता में अपने कर्तव्य को तिलांजलि दे चुके हैं। देश की भोली-भाली जनता को अपनी राजनीतिक दांव-पेच में फँसा कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। गौरतलब है कि एक ही समय में समाज में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के कारण रचनाओं में भी अंतर हमें दिखता है। संपूर्ण रूप से देखा जाए तो सारी रचनाएँ जो हैं, नई कविता की या समकालीन कविता की वे सभी अनागत कविता से संबंधित हैं। अनागत कविता आंदोलन का उद्देश्य इन कविताओं में स्पष्ट रूप में दिखता है। भावी भविष्य की संभावनाओं को लेकर साहित्यकार चिंतित और व्यथित हैं तथा अपनी लेखनी से समाज में क्रांति की बात कर रहे हैं। चाहे वह दलित साहित्य ही क्यों ना हो।

साहित्य किसी भी सीमा से परे है। कविता तो अनुभव के आधार पर और संवेदनाओं के आधार पर ही लिखी जाती है। इस समय की रचनाएँ भले ही अन्य-अन्य नामों से समाज में प्रतिष्ठित हुई किंतु इन सभी का लक्ष्य सबकी समानता एवं अधिकार की बात करना ही था। अनागत कविता आंदोलन का भी मुख्य उद्देश्य ही है–समता और समानता को समाज में स्थापित करना–

‘आगत की आहट दे जाता अनागत
नहीं परे हैं इसके कुछ भी
भूत, वर्तमान और स्वर्णिम भविष्य
छिपा इसी के गर्भ में
कर स्वप्नों को तैयार
देखो आया अनागत
कर स्वयं शृंगार।’


Image Source : Nayi Dhara Archives

गुड़िया चौधरी द्वारा भी