अन्याय के खिलाफ लड़ाई जारी है

अन्याय के खिलाफ लड़ाई जारी है

कथाकार अनंत कुमार सिंह के उपन्यास ‘ताकि बची रहे हरियाली’ की कथा भूमि बिहार का भोजपुर अंचल है। उपन्यास का नायक कृषि-वैज्ञानिक नवीन इस बात से दुःखी है कि ‘अपने देश में सरकार और विशेषज्ञ रासायनिक खाद और कीटनाशक (दवाओं) के कुप्रभाव को जानते हुए भी इनका प्रचार वैज्ञानिक खेती के नाम से करते आ रहे हैं।’ नवीन का मानना है कि देश के कृषि विज्ञान केंद्र के विशेषज्ञों ने बिना खेत की जुताई के जैविक खाद के साथ गीली जमीन पर बीज छिड़क देने से अधिक पैदावार को प्रभावित किया है। ‘…तब ट्रैक्टरों के कारखाने लगाने की क्या आवश्यकता है ? ऐसे में यह विडंबना ही है कि बिहार जैसे गरीब राज्य में सुशासन का सपना देखने वाले मुख्यमंत्री ट्रैक्टर के नए कारखाने का उद्घाटन करें…’ (पृष्ठ 167)। आँकड़ों के खेल के सहारे समाज की नब्ज को नहीं टटोला जा सकता। कथा नायक नवीन की चेतना किसानों की स्थिति से संवेदित और झंकृत है। देश में अगर कोई ज्यादा उपेक्षित है तो वह किसान है। किसान मतलब बेचारा, फटेहाल, बेहाल, परेशान, भूखा, कर्ज से डूबा हुआ लाचार आत्महत्या करने पर विवश (पृष्ठ 161)। भोजपुर में कृषि का पूर्णतः मशीनीकरण हो गया है। बैल बिक गए। हल-जुआठ, नाधा-जोती इतिहास में दर्ज हो गए। खुरपी-हँसुआ, फार बनाने वाले लुहार और हरीश-लगना, बनाने वाले बढ़ई गाँवों से उखड़ गए।

कथा नायक नवीन कृषि वैज्ञानिक की हैसियत से गाँव-गाँव जाता है और किसानों को खेतों में रासायनिक खाद के प्रयोग बंद करने का मशवरा देता है। उसकी जगह वर्मी कंपोस्ट खाद बनाने की प्रविधि और विशेषता बताता है। कीटनाशक दवाओं के कुप्रभावों को समझाता है और उसके बदले देशी दवाएँ जलकुंभी, अकबन, नीम की पत्तियाँ आदि से तैयार करने की प्रविधि बताता है। वर्मी कंपोस्ट के लिए वह गाँव-गाँव में बारह फीट लंबा, सात फीट चैड़ा और ढाई फीट गहरा ढाँचा तैयार करवाता है। स्वाभाविक रूप से रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं की खपत कम हो जाती है। इनके विक्रेता और स्टॉकिस्ट चोट लगे गेहुँवन की तरह फुफकारने लगते हैं। उनके आर्थिक स्वार्थ को चोट पहुँचती है। उपन्यासकार उन काली शक्तियों की पहचान करते हैं जो सत्ता के संरक्षण में पलते हैं और मुनाफा कमाने के अतिरिक्त उनकी कोई मानवीय संवेदना नहीं होती। कथा नायक नवीन को इन्हीं काली शक्तियों से जूझना पड़ता है। दरअसल, उपन्यास की कथावस्तु किसान पक्षधर नवीन और जनविरोधी रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाओं के माफियाओं और सत्ता के दलालों के संघर्षों से बनती है।

कथा नायक नवीन स्वयं भोजपुर का किसान नहीं है। वह एक मध्यमवर्गीय किसान परविार में जन्मा बुद्धिजीवी है। कृषि विभाग में कृषि वैज्ञानिक पद पर कार्यरत अधिकारी है। उसकी पत्नी है, दो बच्चे हैं। वह चाहे तो सत्ता से सामंजस्य स्थापित कर सामान्य जीवन जी सकता है। लेकिन गरीब किसानों की दुर्दशा देखकर उसकी संवेदना उसे विचलित कर देती है। वह वैचारिक संघर्ष करता है। वह बड़ा संतुलित दिमाग का है। आवेश और उत्तेजना में बात नहीं करता। उसकी जान, जोखिम में होती है तब भी संतुलित और शांत-चित्त होकर अपना पक्ष रखता है। वह नक्सलवादियों से निर्भीकतापूर्वक बात करता है और डी.एम., एस.पी. और कीटनाशक माफियाओं से भी।

कथा नायक नवीन शिवहर जिले में कृषि-वैज्ञानिक था। उसकी सामाजिक संवेदना उसे वहाँ एक स्वयंसेवी संस्था से जुड़ने के लिए प्रेरित करती है। स्वयंसेवी संस्था किसानों में कृषि चेतना जगाने का कार्य करती है। रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के व्यापारी नवीन का स्थानान्तरण भोजपुर करा देते हैं। भोजपुर में नवीन अपने विभाग से जुड़े अधिकारियों-कर्मचारियों को अपनी भावनाओं-योजनाओं से अवगत करवाता है। वह एक सहृदय मित्र है। शीघ्र ही इसकी एक टीम तैयार हो जाती है, जिसमें कृषि वैज्ञानिक (फसल प्रबंधन) शौकत हयात, उद्यान शाखा के वैज्ञानिक कृष्णानंद गर्ग, भूमि सुधार एवं कृषि अभियंत्रण के प्रभारी अखिलेश मेहता, पशुपालन प्रभारी रवि वर्मा, गृह विज्ञान के प्रभारी आदित्य सिंह, कृषि प्रभारी अजय श्रीवास्तव ने रासायनिक खाद माफिया गणेश यादव की तारीफ सुनाई थी। गणेश यादव के आतंक के कारण नवीन कुमार के पूर्व कृषि वैज्ञानिक विपिन शर्मा भोजपुर छोड़कर चले गए थे। विपिन शर्मा कार्यालय में ईमानदारी और पारदर्शिता बरत रहे थे। गणेश ने उनके बेटे का अपहरण करा लिया। जिलाधिकारी के हस्तक्षेप से बेटा मुक्त हुआ, लेकिन भोजपुर से जाना पड़ा। इस यथार्थ को जान लेने के बाद भी कथा-नायक नवीन कुमार विचलित नहीं होता। उसके पास अपार गाँधीवादी नैतिक बल है। वह गाँधीवादी सत्याग्रही का प्रतिरूप है। ‘हिंद-स्वराज’ में महात्मा गाँधी कल-कारखानों एवं मशीनीकरण के विरूद्ध हैं।

गणेश यादव उन काली शक्तियों का प्रतिनिधि है, जिसे हर कीमत पर मुनाफा चाहिए। स्थानीय सांसद और विधायक उसके रिश्तेदार हैं। यहाँ तक कि कृषि-मंत्री रामनारायण बाबू कथा-नायक नवीन कुमार के खिलाफ सभा करते हैं। खाद और कीटनाशक माफिया ने पत्र देकर कथा-नायक नवीन को धमकी दी-‘तुम्हारे बच्चों को उठा लिया जाएगा, पत्नी को नंगा घुमाया जाएगा और तुम्हारी बोटी-बोटी काटकर चील कौवों को दे दी जाएगीं।’ उपन्यास में वर्णित यह कथा-व्यापार न मनगढ़ंत है न कपोल कल्पित। बिहार के समकालीन यथार्थ का यह परिचित चेहरा है। जगधर राय और गणेश यादव जिले के खाद और कीटनाशक दवाओं के संयुक्त थोक विक्रेता व स्टॉकिस्ट है। ये लोग खाद का मनमाना व्यापार कर चुके हैं। कभी खाद की कमी दिखाकर, कभी खाद बैग का आपरेशन करके, कभी सरकारी दाँव चलकर, कभी विस्कोमान, व्यापार मंडल के अधिकारियों को धमकाकर, फुसला कर, नोट दिखाकर किसानों से मनमानी कीमत वसूलते रहे हैं।

संविधान में समाजवाद का जो स्वप्न और संकल्प था, वह छूट गया। सत्ता में वैसे अपराधी तत्त्व आ गए जिनको लूट-खसोट का अवसर चाहिए। नौकरशाही से सांठगांठ उन्होंने कर ली या उसे पंगु बना दिया। कथा नायक नवीन कुमार एवं उसके अन्य सहयोगी कर्मठ, ईमानदार जनपक्षधर अधिकारियों को अपराधी, माफिया और नौकरशाह अपमानित करते हैं। नवीन कुमार को नौकरशाहों से दो आरोप पत्र भेजवाया है जगधर-गणेश गिरोह ने। एक में आरोप है कि आप कार्यालय से अनधिकृत रूप से अनुपस्थित रहते हैं और भ्रमण का फर्जी आँकड़ा पेश करते हैं। उनपर यह भी आरोप है कि आप अवैज्ञानिक, अव्यावहारिक सलाह किसानों को देते हैं, जो किसानों को सैकड़ों वर्ष पीछे ले जाने का कृत्सित प्रयास है। उपन्यास की मूल कथा इन्हीं विवादों के इर्द-गिर्द विकसित होती है। बाद में मुसहरटोली वाली घटना के बाद माफिया-गिरोह और नौकरशाही कथा-नायक नवीन कुमार को नक्सलवादी कहने में भी संकोच नहीं करता। जब कथानायक नवीन कुमार पर खाद माफिया और नौकरशाही के हमले होते हैं तब उसके परिवार की शांति भंग होती है। नवीन कुमार की पत्नी पढ़ी-लिखी मध्यवर्गीय गृहिणी का प्रतीक है जो शांतिपूर्वक अपने दोनों बच्चों-का भविष्य संवारना चाहती है, किंतु उसके शांतिपूर्ण जीवन जीने की आकांक्षा की झील में माफियाओं की धमकी और नौकरशाहों के पत्र तूफान ला देते हैं। प्रगतिशील विचारों की माधुरी का मानसिक संतुलन विचलित होता है और वह अकारण बच्चों को पीट देती है। मनोवैज्ञानिक रूप से वह पति की कार्यशौली से नाखुश है, पर गुस्सा निकालती है बच्चों पर। नवीन भी चिंतित और उदास होता है। वह प्रकृति-प्रेमी है। उसका आवास तीन एकड़ में फैले बगीचे में है जिसमें तीतर, तोते, कठफोड़वा, चकोर सहित कई प्रकार के पक्षी अभय विचरण करते हैं। वह पक्षियों के जीवन का सूक्ष्म पारखी है। उन्हें अन्न के दाने खिलाता है। जब कभी उसका मन उद्विग्न होता है, इन्हीं पक्षियों के खेल को निहार कर दिमाग को संतुलित करता है। उपन्यास की कथा वस्तु में नवीन और पक्षियों के तादात्म्य संबंधों की अद्भुत और रोचक उपकथाएँ विन्यस्त हैं। ‘ताकि बची रहे हरियाली’ उपन्यास पर्यावरण संरक्षण का अद्भुत संदेश देता है।

बिहार में सिर्फ खाद और दवा के माफिया ही सक्रिय नहीं है, यहाँ खनन माफिया, गाँजा माफिया, शिक्षा माफिया, भू-माफिया आदि कई प्रकार के माफिया सरदार हैं। एक-एक माफिया का औपन्यासिक चरित्र है। कथानायक नवीन कुमार प्रखंड विकास पदाधिकारी से फॉर्म प्राप्त कर आजादनगर के भूमिहीनों का नाम बी.पी.एल. सूची में दर्ज कराते हैं। मुर्गी-बकरी पालन के लिए बैंकों से कर्ज दिलाने का प्रयत्न करते हैं, तब खाद माफिया उनके खिलाफ फर्जी किसानों का फर्जी आंदोलन खड़ा कर देते हैं। कृषि मंत्री, सांसद और विधायक पुलिस अधीक्षक से शिकायत करते हैं कि नवीन नक्सलवादी है। उसकी टीम में शमिल लोग नक्सलवादी हैं। फर्जी किसानों के फर्जी आंदोलन से नवीन की टीम के सदस्य घबरा गए। आजादनगर में नक्सलियों से अप्रत्याशित मुलाकात से टीम के सदस्य कृष्णानंद गर्ग, शौकत हयात, आदित्य सिंह, अखिलेश मेहता भी विचलित हो गए। एकमात्र ‘आत्मा’ के राणा उनके साथ दूसरे दिन आजादनगर गए। गाड़ी का ड्राईवर रामलाल एक महीना पहले से छुट्टी पर चला गया है। दूसरा ड्राइवर अनूप भी सप्ताह भर की छुट्टी चाहता है। रवि वर्मा छुट्टी में भाग गए। कथा नायक नवीन कुमार के अतिवादी रवैये से गर्ग जैसा उनका समर्थक साथी उसके विरोध में चला जाता है। उपन्यासकार ने नवीन की टीम के सदस्यों के द्वंद्वों का चित्रण बखूबी यथार्थवादी ढंग से किया है। जीवन का द्वंद्व यही है, यथार्थ यही है।

उपन्यास में एक जोड़ी उपनायक हैं- राम और शेखर जिनकी उपकथा उपन्यास के 23 पृष्ठ घेरती है। बसंतपुर का राम और दौलतपुर का शेखर, किसान पृष्ठभूमि से आते हैं। दोनें बचपन के मित्र हैं, शेखर गाँव में खेतीबाड़ी करता है और रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का विरोधी है। राम अपने कॉलेज की मित्र आराधना से प्रेम विवाह करता है। रूढ़ियों को तोड़ने में वह परिवार की सहानुभूति खो देता है। संयोग ऐसा है कि आराधना के पिता सूर्याजाइम दवा कंपनी के मालिक हैं। आराधना उनकी इकलौती संतान है। उसके पिता की शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है और राम दवा कंपनी का सर्वेसर्वा बन जाता है। नोएडा में उसकी कंपनी का काफी विस्तार होता है। उसकी कंपनी सूर्या, सल्फान, सूर्याफास, सुरेंट का उत्पादन करने लगती है। ये दवाएं कीटनाशक तो हैं पर खाद्य पदार्थ को जहरीला भी बनाती है। राम बीस साल बाद गाँव लौटता है। गाँव में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है। वहाँ विशाल निजी अस्पताल खुल गया है। मित्र शेखर से वह कीटनशक दवाओं के कुप्रभाव से अवगत होता है। गाँव के गरीबों का विकास अवरूद्ध है। राम का बनिहार दुखन भूइयाँ वहीं है, जहाँ बीस वर्ष पूर्व था। राम के भाई लक्ष्मण की पत्नी बीमार है। जहरीली दवा के प्रभाव से बच्चे विकलांग पैदा होते हैं, शीघ्र ही मर जाते हैं। राम का मित्र शेखर इन दवाई का घोर विरोधी है। वह हिंसक प्रतिरोध के लिए मानसिक रूप से तैयार है। जहरीले खाद्यान्न से प्रभावित रोगियों की दुर्दशा देखकर कथा उपनायक राम पाप-बोध से ग्रस्त हो जाता है। उपन्यासकार फैंटेसी शिल्प का प्रयोग करते हुए राम की मनोदशा का वर्णन करते हैं। राम टाल्सटॉय के उपन्यास ‘रिसरेक्शन’ के सह नायक नेख्लूदोष की तरह पश्चाताप करता है। कंपनी मालिक राम का हृदय परिवर्तन होता है। वह नोएडा की कीटनाशक दवाओं का उत्पादन ठप्प कर देता है। वह प्रेमचंदीय पश्चाताप और भूल सुधार का रास्ता अपनाता है जो यथार्थ जीवन में विरल है पर नामुमकिन नहीं। उपन्यास में राम के नायक व्यक्तित्व के बरक्स गणेश यादव, जगधर राय, संकटा प्रसाद, शिवजग राय जैसे कई प्रतिनायक हंर जिनको अपने कुकर्मों का कोई एहसास नहीं है।

अंत में उपन्यास संघर्ष और प्रतिरोध के चरमोत्कर्ष के साथ कथा नायक नवीन कुमार के भीतर से एक नया नायक जन्मता दिखता है। वह गहरे आत्मचिंतन से गुजर रहा है। उसके विचारों का राजनीतिकरण हो रहा है। वह चिंतन करता है- ‘आज गाँव-देहात में टी.वी है, अखबार पढ़े जाते हैं। जिले में साक्षरों और शिक्षितों की संख्या अच्छी खासी है। यह क्षेत्र आंदोलन और क्रांति की भूमि रही है….।’ आश्चर्यजनक रूप से वह याद करता है – ‘नक्सलवादी के बाद यह क्षेत्र कभी उन गतिविधियों का केंद्र रहा है… मजदूरों-सामंतों की भी लड़ाई खूब लड़ी गई यहाँ….।’

‘क्या यहाँ की प्रगतिशील पाटियाँ इन बातों से अनजान हैं ? अगर ऐसा है तो गहरी चिंता का विषय है और सब कुछ जानते हुए प्रतिरोध का स्वर सामने नहीं आ रहा है तो यह चिंताजनक स्थिति है।’ (पृष्ठ 192-193) स्पष्ट है कि कथा-नायक संगठित प्रतिरोध के लिए मानसिक रूप से तैयार हो गया है। प्रगतिशील पार्टियों पर से उसका विश्वास डगमगा गया है। आखिर वह नक्सलबाड़ी को क्यों याद करता है ? उपन्यास का अंत बड़ा दिलचस्प है। स्थानीय माफियाओं के साथ राज्य सत्ता के संबंध उजागर हो जाते हैं। कृषि मंत्री रामनारायण बाबू स्वयं भाड़े के किसानों के मंच से एक ईमानदार एवं किसान हितैषी अधिकारी को समाजद्रोही ठहराते हैं। हद पार करते हुए बर्खास्तगी का पत्र मंच पर बुलाकर देते हैं। अन्याय का चरमोत्कर्ष चमकने लगता है। अचानक श्रोताओं में खलबली मच जाती है। जनता हिंसक हो उठती है। मंत्री के खिलाफ नारे लगाती है। पुलिस लाठी-चार्ज से भी जनता नहीं डिगती। उत्तेजित लोक मंच की ओर ईंट-पत्थर प्रक्षेपित करते हैं। मंत्री जी की नाक में चोट लगती है। छद्म आंदोलनकारियों के तंबू उखाड़कर फेंक दिए गए और वहाँ पर ठेठ किसानों ने कब्जा जमा लिया। अंतिम पंक्ति बहुत मायनेखेज एवं प्रतीकात्मक है- लड़ाई अभी जारी है और उसके रूकने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। भोजपुर के वर्तमान यथार्थ से परिचित लोग सहमत होंगे कि यहाँ अन्याय के खिलाफ लड़ाई जारी है।


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