भूला दिए गए ‘बिहार के प्रेमचंद’ : अनूपलाल मंडल
- 1 June, 2024
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भूला दिए गए ‘बिहार के प्रेमचंद’ : अनूपलाल मंडल
वे दिन : वे लोग
भागलपुर की ओर जितनी भी यात्राएँ हुईं, वे मेरे लिए कष्टकारी और संशयग्रस्त रहीं। लंबे समय के बाद इस बार लोकल ट्रेन पर फिर चढ़ा था। इधर के दिनों में बढ़े दायित्वों ने समय की परवाह करने का होश दे दिया है, वरना लोकल ट्रेनों में घूमने का आनंद तो करीब डेढ़ दशक तक उठाता ही रहा। मैं जिस सवारी गाड़ी पर चढ़ा था, वह वक्त भले अधिक रौंदती थी, पर यात्रा स्थल के हिसाब से अधिक मुफीद थी। इसलिए मैं निश्चिंत था कि सुबह होगी और कुर्सेला रेलवे स्टेशन पर गाड़ी खड़ी हो जाएगी। पर, ऐसा हुआ नहीं। सुबह होने में तीन घंटे से अधिक का वक्त बाकी था, रेलगाड़ी अपने तय समय के प्रति इतनी सावधान थी कि रात के तीसरे पहर में खड़ी हो गई। कुर्सेला में रेलगाड़ी छोड़कर स्टेशन पर घूमना मेरे लिए एकदम नया था। तभी मैंने समेली के लिए तुरंत कोई बस अथवा दूसरी गाड़ी पर चढ़ना उपयुक्त नहीं समझा। जाता भी कहाँ! अनजानी डगर, अनजाना सफर। दो बार अनूपलाल मंडल के पौत्र देवप्रिय मंडल से फोन पर बात हुई थी। वह साहित्यिक रुचि के एकदम नहीं हैं, इसलिए शायद ही वह तल्लीनता के साथ मेरी प्रतीक्षा कर रहे हों।
कुर्सेला कटिहार जिले में है। यहीं के त्रिमोहिनी घाट पर गंगा नदी से कोसी नदी का मिलन होता है। कोसी नदी सप्तकोसी है, असंयमित और अस्थिर धाराओं वाली डरावनी नदी। कुर्सेला के कटरिया गाँव के करीब त्रिमोहिनी घाट पर कोसी के जलवाही आवेग का गंगा में आत्मसमर्पण भले अनायास नहीं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि कोसी अपना विस्मयकारी प्रवाह पूरी तरह समेट ले। कोसी गंगा में समायी और उसके समाने के साथ ही कलबलिया नदी की व्यग्र उपधाराएँ निकल चलीं। कटरिया गाँव के जनजीवन में कलबलिया नदी के जलवेग से अनेक बार पराजय का सामना करना पड़ा है, मुझे त्रिमोहिनी घाट पर स्नान के लिए जुट रहे लोगों ने बताया। लोग स्नान करके समीपस्थ बटेश्वरनाथ मंदिर में पूजा-अर्चना कर रहे थे। यह वही घाट है, जहाँ महात्मा गाँधी का अस्थि कलश प्रवाहित किया गया था।
अच्छा समय बीता। सुबह का पर्यटन शारीरिक स्फूर्ति और मानसिक ऊर्जा के लिए उत्तम माना गया है। रेलवे स्टेशन से कोई डेढ़ किलोमीटर दूर बस स्टैंड है। पैदल जाने में कठिनाई नहीं हुई। एन.एच.-31 की सीधी सपाट और प्रशस्त सड़क पर कुछ वर्ष पूर्व आया था, जब फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के घर गया था। उस दिन की तरह इस यात्रा में कोई सहयात्री न हुआ। कहाँ तक कोई साथ दे! कुर्सेला बस स्टैंड से महज चार किलोमीटर उत्तर चलने पर समेली गाँव आ गया–शिवमंदिर चौक। बस से उतरकर मैं बायीं ओर की सड़क पर महज 500 मीटर बढ़ा होऊँगा, यहीं अनूपलाल मंडल का घर है। अनूपलाल मंडल स्वयं शिक्षक थे। उनके पुत्र और पौत्र भी शिक्षक हुए। मुझे इस बात पर कोई आपत्ति नहीं कि उनका कोई वंशज लेखक न हुआ। इस बात पर अवश्य आपत्ति है कि मैं उनके जिस पौत्र देवप्रिय मंडल से बातें करने बैठा था, उनके पास अपने दादा के विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं है। देवप्रिय मंडल का सीधा उत्तर था–विमल मालाकार मुझसे अधिक जानते हैं।
आप सोच रहे होंगे कि विमल मालाकार कौन हैं। विमल मालाकार क्रांतिकारी नक्षत्र मालाकार के पौत्र हैं। वही नक्षत्र मालाकार, जो फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कथा-रचना में चलित्तर कर्मकार के रूप में उभरे। उन दिनों चकला मौलानगर गाँव बरारी प्रखंड के अधीन था। उसी गाँव में नक्षत्र मालाकार के पिता लब्बू मालाकार रहते थे। अनूपलाल मंडल के पिता का नाम भी लब्बू मंडल था। उन दिनों समनाम वाले लोग आपस में ‘मीत’ अर्थात ‘मित्र’ हो जाते थे। नक्षत्र मालाकार के पिता और अनूपलाल मंडल के पिता आपस में मित्रवत रहे। यही रिश्ता अनूपलाल मंडल ने नक्षत्र मालाकार से भी निभाया। नक्षत्र मालाकार से अनूपलाल मंडल नौ वर्ष बड़े थे। विमल मालाकार के संबंध में मुझे पता चला था कि वह अनूपलाल मंडल से एक-दो बार मिले थे, उनके प्रति श्रद्धा रखते थे। मैंने विमल मालाकार से फोन पर बातें की थीं, उन्होंने आश्वासन दिया था कि अनूपलाल मंडल के परिजनों से वह फिर मिलेंगे। देवप्रिय मंडल ने मुझे यह भी बताया कि विमल मालाकार दो-तीन दिनों पूर्व अनूपलाल मंडल के विषय में पूछताछ करने आए थे। लेकिन, विमल मालाकार से मिलना संभव न हुआ। मैं चकला मौलानगर के परिवेश और समेली गाँव की विशेषताओं के अध्ययन के लिए फिर किसी बंजारे की भाँति सड़क पर आ गया।
कटिहार जिले के समेली प्रखंड अधीन चकला मौलानगर में अनूपलाल मंडल का वह घर आज भी मौजूद है, जिसमें वह रहते थे। इस पंचायत में छौहार, डुम्मर, खैरा, मलहरिया और मुरादपुर जैसे गाँव हैं। अनूपलाल मंडल करीब दो दर्जन उपन्यासों के लेखक रहे। उनके उपन्यासों में गाँव का एक-एक जीवन ऐसे मुखरित हुआ जैसे उसकी अनसुनी कथाओं की संवेदनाएँ आगामी पीढ़ियों में भी जीवित रहेंगी।
समेली गाँव के लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में उल्लेखनीय भूमिका निभायी थी। इसी गाँव के नटाय परिहार अपने छह साथियों के साथ बर्बर अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हो गए थे। नटाय परिहार भी उसी कैवर्त जाति से थे, जिस जाति से अनूपलाल मंडल थे। अँग्रेजों की गोलियों से घायल नटाय परिहार की चिकित्सा नक्षत्र मालाकार ने की थी। परंतु, उन्हें बचाया न जा सका था। औपचारिक स्मरण ही सही, नटाय परिहार का शहीद स्मारक कुर्सेला में बनाया गया है। अनूपलाल मंडल का तो वैसा कोई स्मारक बनाने की चेष्टा भी न हुई। इसी समेली के पूर्वी चाँदपुर गाँव में बजरंगवली के मंदिर के समीप बहेलिया बाबा थान है। वहाँ के पुजारी बाबा ने बताया कि बहेलिया बाबा लोक देवता हैं, उनके प्रति गाँव के लोगों में असीम आस्था-श्रद्धा है।
गाँव का लेखक अपनी ग्रामीण संवेदना के सहज संसर्ग से कभी नहीं चूका, न उसने इस प्रकार की किसी टूट पर खुशी व्यक्त की। गाँव अपनी समीपता से गाँव के लेखक को इस प्रकार स्नेहित करता रहा कि उसके लेखन का विचार-पल्लवन अपनी मौलिक प्रविष्टियों में समादृत हुआ। अनूपलाल मंडल के संपूर्ण साहित्य में इसी समेली गाँव के परिदृश्यों और प्रभावों का उदय है। यहाँ के जीवन से कथाएँ उठाकर उन्होंने ऐसे विस्तृत आधार लिए कि वे कथाएँ बिहार और इस जैसे दूसरे राज्यों की प्राकृतिक एवं सामाजिक संरचनाओं के प्रतिनिधि सूत्र के रूप में जीवंत हो उठीं। अतः मेरे लिए यह आवश्यक था कि अनूपलाल मंडल के वैयक्तिक पक्षों को उनके साहित्य में तलाशूँ। तब तो यह अत्यंत आवश्यक था कि समेली गाँव को उतना अवश्य जान जाऊँ जिससे यह पता चले कि अनूपलाल मंडल को लेखकीय अवसर-प्रेरणा कहाँ-कहाँ से मिली।
आज का समेली और उन दिनों के समेली में बहुत अंतर है। अब यह एन. एच.-31 के किनारे अवस्थित आधुनिक सुविधाओं से संपन्न गाँव है। कभी इसे ‘गंदी बस्ती’ कहा जाता था। उन दिनों यह गाँव चार प्रखंडों, दो थानों और चार पंचायतों के अधीनस्थ भू-भाग होने के बावजूद ‘नर्क का मार्ग’ कहा जाता था। इस गाँव के छोर चाँदपुर, नवाबगंज कुमरिया, चकला मौलानगर और खैरा सलेमपुर से जुड़ते थे। गाँव की प्रशासनिक अवस्थिति आज भी अजीब है। करीब दो तिहाई हिस्सा फलका प्रखंड में और एक तिहाई बरारी प्रखंड में है। गाँव के आधे भाग पर कुर्सेला थाने की हुकूमत है, तो आधे पर पोठिया थाने की। समेली कैवर्तों और कुम्हारों का गाँव है। कैवर्त अर्थात केवट, घटवार। लेकिन, कुर्सेला त्रिमोहिनी घाट को छोड़कर आसपास कोई घाट नहीं, जहाँ यहाँ के घटवार कैवर्त घटवारी करें। अब तो ये विशुद्ध कृषक हैं। समेली में कुम्हारों की बहुतायत आबादी है। अर्थात कैवर्त जाति के लोग मिट्टी में लोटकर अन्न उपजाते रहे और कुम्हारों ने उसी मिट्टी को ताम-कोरकर बर्तन-बासन बना लिए। कभी गुलाबबाग के मेले में इसी समेली के घड़े बैलगाड़ियों पर लदकर जाते थे और देखते ही देखते बिक जाते थे। कटिहार से लेकर पूर्णिया-अररिया की किसी बेटी की विदाई समेली के घड़े के बिना नहीं होती थी।
समेली अब बहुत बदल गया है। इसने अपने नाम की मलिनता मिटा दी है। गाँव के कोने-कोने तक सड़कें गई हैं। स्कूलों के भवन बन गए हैं। पेड़-पौधे अब गाँव की अधिसंख्य आबादी को छाया देने के लिए जरूरी नहीं समझे जाते। उनकी जगह कूलर-पंखों ने अपने अस्तित्व मजबूत कर लिए हैं।
अनूपलाल मंडल के इन गाँवों का जीवन इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने गाँव के एक-एक व्यक्ति में साहचर्य का भाव देखा और उसकी उपयोगिता रेखांकित की। समाज के अलग-अलग वर्ग और उनकी निजी हितचिंता में अनेक बार वैयक्तिक कुंठाएँ उपजती हैं। सभी वर्गों के साथ सुख और दु:ख जुड़े हैं, उनके प्रकार भले अनेक हैं, परंतु जीवन की परिधि पर उनकी प्रदक्षिणा का चक्र कभी नहीं थमा। अनूपलाल मंडल ने अपने लेखकीय कौशल से उन सभी पक्षों को समझाया और उनकी इसी कला ने उन्हें प्रेमचंद के समकक्ष का कथाकार बना दिया। अनेक कथा-समीक्षकों की दृष्टि में अनूपलाल मंडल के कथालेखन पर प्रेमचंद की शैली और छाया की प्रतीति है। परंतु, अनूपलाल मंडल ने हिंदी उपन्यास कम, बांग्ला उपन्यास अधिक पढ़े थे। उन्होंने अपने लेखन पर किसी का प्रभाव माना तो शरतचंद या बंकिमचंद का। उन्होंने स्वयं किसी को बताया था कि प्रेमचंद ने अपने उपन्यास ‘गोदान’ की एक प्रति उन्हें आशीर्वाद स्वरूप अपने हस्ताक्षर के साथ भेंट की थी। लेकिन, अनूपलाल मंडल के मन-प्राण पर शरतचंद की कार्यशैली इतना प्रभाव डाल चुकी थी कि उन्हें ‘गोदान’ ने बहुत मोहित व प्रभावित नहीं किया। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के पूर्व निदेशक और प्रसिद्ध कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर का मानना है कि–‘जन्मजात किसान होकर भी अनूप जी मुंशी प्रेमचंद की तरह किसानों के लेखक नहीं थे। अनूप जी में प्रेमचंद की वर्ग दृष्टि भी नहीं थी। यथार्थवादी लेखक होते हुए भी अनूप जी में आलोचनात्मक यथार्थवाद की तुलना में रोमांटिक यथार्थ अधिक था।’ अनूपलाल मंडल के जीवन और लेखन पर ‘आर्य संदेश’ नामक पत्रिका का विशेषांक निकाल चुके शिक्षा विभाग के प्रशासनिक अधिकारी अशोक कुमार आलोक का मानना है–‘अनूप जी की भाषा में तत्सम शब्दों की बहुलता के कारण साहित्यिकों को उनकी भाषा में उत्कृष्टता नजर आती है। जबकि तत्सम शब्दों का प्रयोग हिंदी साहित्य का शृंगार है।’ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना है कि अनूपलाल मंडल के जीवन की तरह उनके उपन्यास-लेखन में संवेदनशीलता अधिक है। उन्होंने उपन्यासों के गुणों का सम्मान करते हुए कहा है कि यदि उनके पात्रों में कुछ साहसिकता भी होती, तो उनके उपन्यास हिंदी की श्रेष्ठ कृतियों के रूप में समादृत होते। राहुल सांकृत्यायन ने भी लिखा है कि अनूपलाल मंडल के उपन्यास के पुरुष पात्रों में मर्दानापन नहीं दिखता। वक्त आने पर वे छुई-मुई हो जाते हैं। कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी ने इस बात की ओर संकेत किया है कि अनूपलाल मंडल के लेखन में उनके जीवन के संघर्ष समाहित हुए हैं। उन्होंने लिखा भी है–‘अनूप उपन्यास लेखक है। संसार के असंख्य प्रहारों को हँस-हँसकर झेलने वाले इस योद्धा की जीवनी स्वयं भी एक उत्तम उपन्यास का उपादान है।’
1929 में अनूपलाल मंडल का पहला उपन्यास ‘निर्वासिता’ प्रकाशित हुआ था। अंतिम उपन्यास ‘उत्तर पुरुष’ 1970 में। उसके बाद उन्होंने एक अंगिका उपन्यास ‘नया सूरज नया चान’ (1977) भी लिखा। उनके उपन्यासों में स्वतंत्रता पूर्व की संकीर्ण सामाजिक मान्यताओं और स्वतंत्रता पश्चात की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की विस्तृत व्याख्या हुई। उनके उपन्यास समाज के सभी वर्गों की मानसिक अपेक्षाओं के मनोवैज्ञानिक अध्ययन से लिखे गए। उनके उपन्यास ‘मीमांसा’ पर किशोर साहू ने ‘बहुरानी’ नामक फिल्म बनायी थी। उस फिल्म में राकेश रोशन, रेखा और उत्पल दत्त ने केंद्रीय भूमिका निभायी थीं। ‘साकी’, ‘ज्योतिर्मयी’, ‘रूपरेखा’, ‘सविता’, ‘वे अभागे’, ‘दस बीघा जमीन’, ‘ज्वाला’, ‘अवारों की दुनिया’, ‘दर्द की तस्वीरें’, ‘रक्त और रंग’, ‘अभियान का पथ’, ‘केंद्र और परिधि’, ‘तूफान और तिनके’, ‘शुभा’ आदि इनकी प्रतिनिधि औपन्यासिक कृतियाँ रहीं। ‘मंजिल और कितनी दूर’ इनकी आत्मकथा है। अपना जीवन वृत्त भी इन्होंने उपन्यास शैली में लिखा है। अनूपलाल मंडल के उपन्यास लेखन में सिर्फ शैली की मौलिक विशिष्टता नहीं, बल्कि भाषिक स्वाभाविकता और पात्रों के चयन की सावधानी भी आकर्षित करती है। उन्होंने 18 पत्रों को सूत्रबद्ध करते हुए ‘समाज की वेदी पर’ नामक उपन्यास लिखा। पत्र शैली में लिखा गया यह उपन्यास उनके लेखन में प्रयोगधर्मिता की उपस्थिति का उदाहरण है। पत्र शैली में लिखी गई उनकी कहानी ‘आत्म मर्यादा’ भी इसी दृष्टि से आकर्षित करती है। ‘उपनिषदों की कहानियाँ’ (कुल दो भाग), ‘उपदेश की कहानियाँ’ (कुल चार भाग) उनकी अन्य कथा कृतियाँ हैं। अनूपलाल मंडल महर्षि अरविन्द और श्रीमाँ के जीवन दर्शन से बहुत प्रभावित थे। उनके घर की दीवारों पर आज भी महर्षि अरविन्द और श्रीमाँ के चित्र टँगे हुए हैं। श्री अरविन्द के जीवन चरित्र के अतिरिक्त उन्होंने ‘श्री महर्षि रमण’, ‘मुसोलिनी का बचपन’ तथा ‘रघुवंश नारायण सिंह : व्यक्तित्व और कृतित्व’ जैसी जीवनी कृतियाँ भी लिखीं। ‘रहिमन सुधा’, ‘गद्य मानस’, ‘पंचामृत’ और ‘काव्यालंकार’ जैसी कृतियों का संपादन किया। ‘प्रवेशिका’, ‘नीति शास्त्र’, ‘गरीबी के दिन’, ‘शेष पांडुलिपि’ उनके द्वारा किए गए अनुवाद की कृतियाँ हैं।
अनूपलाल मंडल का जन्म 06 अक्तूबर 1896 को एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। पढ़ाई शुरू करने के सातवें-आठवें साल में उन्हें स्वयं शिक्षक बनकर कुछ बच्चों को पढ़ाने का काम करना पड़ गया था। 1910 में उन्होंने अपर प्राइमरी स्कूल की परीक्षाएँ और 1913 में अपर गुरु ट्रेनिंग स्कूल से मास्टरी ट्रेनिंग की परीक्षाएँ पास की थी। लक्ष्मीपुर के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हुए फिर फारबिसगंज ट्रेनिंग स्कूल में सहायक प्राध्यापक रहे। भागलपुर नार्मल ट्रेनिंग स्कूल से बीएम की डिग्री हासिल करने के बाद मतहरिया मिडिल स्कूल, कोढ़ा में प्रधान पंडित की नौकरी की। बेली हाई स्कूल, बाढ़ (पटना) में भी सहायक शिक्षक रहे। प्रयाग हिंदी साहित्य सम्मेलन से ‘साहित्य रत्न’ की परीक्षा उन्होंने 1927-28 में उत्तीर्ण की। उन दिनों वह पी.के. घोष एकेडमी, पटना में नौकरी कर रहे थे। 1958 में नरही चाँदी उच्च विद्यालय, शाहाबाद में शिक्षक बने। परंतु वहाँ भी उनका मन नहीं रमा। 1930 में बीकानेर के सेठिया गाँव में नौकरी की और कुछ ही दिनों बाद वहाँ से भी भाग खड़े हुए।
अनूपलाल मंडल विशुद्ध लेखक थे। मानसिक स्वतंत्रता उनकी स्वाभाविक चेतना से जुड़ी हुई थी। फिर भी जीविका की समस्या ने उन्हें अनेक बार ऐसे प्रताड़ित किया कि वह नौकरियों के लिए इधर-उधर आए-गए। जब वह बीकानेर के सेठिया कॉलेज में नौकरी कर रहे थे, वहाँ की एक शिक्षिका उनसे प्रेम कर बैठी थीं। उनके एक उपन्यास से प्रभावित होकर उस विधवा ने उनसे ट्यूशन पढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी। लेकिन, अनूपलाल मंडल ने मना कर दिया था। बाद में वह उसकी लिखीं कहानियों को ठीक करने लगे। फिर महिला ने प्रणय-निवेदन भी कर दिया। अनूपलाल मंडल ने यह बता दिया कि वह विवाहित और दो बच्चों के पिता हैं। तब भी वह नहीं मानी। अनूपलाल मंडल ने स्वीकार कर लिया। लेकिन, जब वह अपने आवास पर आए, तो उन्हें अपनी विधवा माँ का ध्यान आया कि कहीं उनके इस कृत्य से वह विष न खा लें। अनूपलाल मंडल के इस प्रेम-प्रसंग का पता कॉलेज के संस्थापक सेठिया जी को भी चल चुका था। 21 दिनों तक अनूपलाल मंडल बीमार रहे और जब स्वस्थ हुए तो सेठिया परिवार ने एक माह की छुट्टी दे दी कि अपनी पत्नी और बच्चों को ले आएँ। उनकी ट्रेन खुलने ही वाली थी कि वह महिला दौड़ी हुई आई। उसके हाथ में इलायची बाँधा एक रूमाल था। रूमाल पर उसके नाम का पहला अक्षर ‘एस’ लिखा हुआ था। अनूपलाल मंडल ने लौटने का वादा तो किया, लेकिन वह लौटे नहीं। इस प्रसंग का उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘और कितनी दूर है मंजिल’ में किया है। वास्तव में यह आत्मकथा उनकी किसी अंतहीन यात्रा-कथा का विस्तृत कैनवास रचती है, हर युवा को संघर्ष और कठिनाइयों के दौर में नहीं हारने का संदेश देती है।
वह दरभंगा राज के लक्ष्मीपुर एस्टेट में सहायक मैनेजर की नौकरी करने लगे। कथा यह है कि जब दरभंगा राज को तीन वर्षों तक लगान न चुकाया जा सका तो जमींदारी ‘कोर्ट ऑफ वार्ड’ के अधीन हो गई। उन दिनों जेनरल मैनेजर देवेन्द्रनाथ गुप्ता को एक सहायक की जरूरत थी। अनूपलाल मंडल बीकानेर की नौकरी छोड़कर गाँव समेली में रह रहे थे। उन्हें उनके एक विद्यार्थी रामप्रसाद सिंह ने सहायक मैनेजर की नौकरी का प्रस्ताव दिया था। लेकिन, वह नहीं माने। तब उनकी माँ ने उन्हें मना लिया और 50 रुपये मासिक पगार पर वह नौकरी करने लगे। एक व्यक्ति को लगान नहीं देने के जुर्म में उन्होंने दंडित किया। लेकिन, जब उन्हें उसकी माली हालत का पता चला, तो अपनी नौकरी से वितृष्णा हो गई। वह घर लौटे, तो गए ही नहीं। उन्हें पुस्तकें लिखने, छापने-छपवाने और बेचकर अपनी गृहस्थी चलाने के सिवाय दूसरा कोई रोजगार उपयुक्त न लगा। 1930 में कटिहार के गुरुबाजार में उन्होंने किताब की दुकान खोली। फिर भागलपुर में युगांतर साहित्य मंदिर की स्थापना की। पूर्णिया के गुलाबबाग, अररिया के फारबिसगंज, कटिहार के कुर्सेला से लेकर वाराणसी, प्रयाग, हरिद्वार, नैनीताल, अल्मोड़ा आदि जगहों पर किताब बेचने चले जाते थे। 1935 का साल था। अनूपलाल मंडल अपनी लिखी हुईं पुस्तकों को छपवाकर अपनी जीविका चला रहे थे। उनकी ‘युगांतर साहित्य मंदिर’ नाम की भागलपुर में एक साहित्य संस्था और दुकान थी। वहीं पुस्तकें बिक जाती थीं। कभी-कभार पुस्तकें बक्से में लेकर फारबिसगंज चले जाते थे। वहाँ वह नेशनल स्कूल में अपने साथी बौकाय मंडल के यहाँ रहते थे। वहाँ के अतिसम्मानित नाटककार रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’ के सहयोग से उनकी पुस्तकों की अच्छी बिक्री हो जाती थी। द्विजदेनी जी के यहाँ ही शिलानाथ विश्वास अर्थात फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के पिता से अनूपलाल मंडल का परिचय हुआ था और मित्रता हो गई थी। उन दिनों फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ पढ़ाई-लिखाई छोड़कर वॉलंटियरी करते थे। अनूपलाल मंडल ने उन्हें पढ़ाई जारी रखने को कहा था। कुछ वर्षों के बाद पूर्णिया के भट्ठा बाजार में जब अनूपलाल मंडल बस पकड़ने जा रहे थे, तभी अकस्मात एक युवक ने उन्हें एक पत्रिका भेंट की। वह युवक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ थे और वह पत्रिका ‘नई दिशा’ थी। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने कहा था कि वह विराटनगर में प्रवेशिका पास करने के बाद हिंदू विश्वविद्यालय से आई.ए. कर चुके हैं और अब यही पत्रिका प्रकाशित करते हैं।
1954 में अनूपलाल मंडल पटना के अबुलास लेन में भाड़े का मकान लेकर रहते थे और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद में प्रकाशन अधिकारी की नौकरी करते थे। वहीं रात्रि के आठ बजे फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ अनूपलाल मंडल से मिलने पहुँचे थे। उन्होंने उन्हें ‘मैला आँचल’ की पांडुलिपि राय देने के लिए दी थी। इस आशय का उल्लेख अनूपलाल मंडल ने अपने एक आलेख में किया है। ‘मैं क्या कहूँ–वह थी उसकी पहली कृति ‘मैला आँचल’। एक उपन्यासकार के नाते उस उपन्यास को पढ़कर मैं हैरत में पड़ गया। इतना सजीव वर्णन पूर्णिया जिले का! परिवेश, पात्र-पात्रियों का चित्रण, प्रवाहमयी आँचलिक भाषा का प्रयोग। उस दिन मुझे लगा कि रेणु अवश्य नाम करेगा।’
उल्लेखनीय है कि शिलानाथ विश्वास के बेटे फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के पहले साहित्यिक गुरु अनूपलाल मंडल ही थे। ‘मैला आँचल’ का व्याकरण अनूपलाल मंडल ने ही ठीक किया था और शिवपूजन सहाय को उसके विमोचन के लिए उन्होंने ही मनाया था। अनूपलाल मंडल को ‘मैला आँचल’ की पहली प्रति फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने भेंट की थी। पूज्य दोसबाप श्री अनूप ‘साहित्य रत्न’ को सश्रद्धा भेंट। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का उदीयमान लेखक पुरस्कार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ को दिलवाने में अनूपलाल मंडल की अहम भूमिका थी। एक प्रकार से फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ जैसे कथाकार के निर्माण में अनूपलाल मंडल ने ही नींव रखी थी।
अनूपलाल मंडल का निजी जीवन अभावों और परेशानियों से प्रताड़ित होता रहा। 10 वर्ष की अवस्था में विवाह हो गया था। पत्नी वसुमति कुछ ही दिनों तक जीवित रह पायीं। 16 वर्ष की अवस्था में सुधा से विवाह हुआ। लेकिन, उनका दांपत्य जीवन सफल न रहा। फिर 27 वर्ष की अवस्था में उन्होंने मूर्ति देवी के साथ तीसरा विवाह किया। अनूपलाल मंडल सिर्फ हिंदी के लेखक नहीं थे, अँग्रेजी, उर्दू, बांग्ला और नेपाली भाषाओं में भी उनकी कलम प्रखरता के साथ चली। बिहार के अलावा नेपाल में भी वह अपने उपन्यास-लेखन के लिए चर्चित हुए। 1935 में जब जापान के कवि योने नोगूची कलकत्ता आए, तो उनके अभिनंदन के लिए गठित प्रतिनिधि मंडल में अनूपलाल मंडल भी शामिल रहे। उन्हें विराटनगर (नेपाल) में 25 एकड़ जमीन रजिस्ट्री से प्राप्त हुई थी। उनके उपन्यास ‘मीमांसा’ पर जब फिल्म ‘बहुरानी’ प्रदर्शित हुई, तो निर्माता किशोर साहू ने उन्हें पाँच सौ रुपये मासिक वेतन पर नौकरी करने का आमंत्रण दिया। लेकिन, अपने स्वाभिमान के प्रति आजीवन सचेत रहे अनूपलाल मंडल ने उस नौकरी को भी ठुकरा दिया। वह सेवाभाव से संपन्न लेखक थे, अरविन्द आश्रम से उनका लगाव था। उन्होंने बीकानेर के सेठिया कॉलेज की नौकरी छोड़ने के बाद समेली में भी ‘सेवा आश्रम’ की स्थापना की। आजीवन लिखने और प्रकाशित करने के अभियान से जुड़े रहे अनूपलाल मंडल के उपन्यास दुर्लभ जैसे हो गए हैं।
अनूपलाल मंडल के परिजनों ने संभवतः उनके साहित्यकर्म का समर्थन नहीं किया। यदि किया होता, तो उनके साहित्य आज दुर्लभ न होते। उनकी पांडुलिपियाँ गुम न हो गई होतीं। विमल मालाकार से अभी बात नहीं हुई थी। लेकिन, मुझे उनके एक संस्मरण का ध्यान हो आया। अनूपलाल मंडल के वह छात्र भी रहे थे। 1980 का वर्ष था। अनूपलाल मंडल के दूसरे पुत्र सुशील मंडल उन दिनों बी.बी. मेमोरियल हाईस्कूल में शिक्षक थे। विमल मालाकार ने जब उनके घर जाकर अनूपलाल मंडल से मिलने की इच्छा व्यक्त की, सुशील मंडल ने उसमें बहुत रुचि नहीं दिखायी थी। संभवतः सुशील मंडल को इस बात पर कोई गर्व नहीं था कि उनके पिता लेखक हैं। अनूपलाल मंडल 12 सितंबर 1982 को चल बसे। उनके द्वारा खुदवाया गया कुआँ आज भी उनके दरवाजे पर है। लेकिन, वह पानी पीने के लिए नहीं, पानी सोखने के लिए उपयोग में लाया जाता है। दरवाजे पर उनकी एक प्रस्तर प्रतिमा स्थापित है, जिसे बडे़ पुत्र सतीश चन्द्र मंडल ने भागलपुर के साहित्य लेखक चन्द्रनारायण सिंह के सहयोग से स्थापित किया था। अनूपलाल मंडल के तीन पुत्र थे। बड़े पुत्र सतीश चन्द्र मंडल का 2008, मँझले पुत्र सुशील मंडल का 2019 और तीसरे पुत्र सुबोध चन्द्र मंडल का 2022 में देहांत हो गया।
दूसरे दिन मेरी बात विमल मालाकार से हो गई। वह मेरे काम के लिए अनूपलाल मंडल की वंशावली खोज लाए थे। सबूरी मंडल के दो पुत्रों में छोटे पुत्र कर्रू मंडल का वंश नहीं चला। बड़े पुत्र गोपाल मंडल के चार पुत्र हुए–लब्बू मंडल, बंगाली मंडल, मिट्ठन मंडल और ऊधो मंडल। लब्बू मंडल की तीन संतानों में दो बेटियों श्रुति देवी और रामपुजारी देवी के बीच में अनूपलाल मंडल हुए। अनूपलाल मंडल की पहली पत्नी वसुमति निःसंतान ही चल बसीं। दूसरी पत्नी से सुशीला और सतीश चन्द्र मंडल हुए। सतीश चन्द्र मंडल की चार संतानें हुईं–श्यामा, इला, शीला और अमित। चारों दिवंगत हो गए। तीसरी पत्नी मूर्ति देवी से इंदिरा, शोभा, सुशील चन्द्र मंडल, राधा रानी और सुबोध चन्द्र मांडलिक का जन्म हुआ। राधा रानी के पुत्र आदित्य कुमार दास आई.ए. एस. अधिकारी हुए। अनूपलाल मंडल के बड़े पुत्र सतीश चन्द्र मंडल ने पिता के साहित्य और अन्य सामग्री को सुरक्षित किया था। उनमें संदूक, कुर्सी, चौकी और बेंच अभी भी हैं। साहित्य उन्होंने आदित्य कुमार दास के हवाले कर दिया था। सुबोध चन्द्र मंडल की चार संतानों में से एक कुणाल ने अनूपलाल मंडल का एक उपन्यास ‘तूफान और तिनके’ पढ़ा है। उनके साहित्य का संग्रह-संरक्षण करने की बात तो दूर किसी को उन किताबों को खोजकर पढ़ने की फुर्सत नहीं! समेली 1992 में प्रखंड बना। तब से पूर्व प्रमुख मणिकांत यादव के प्रयास से अनूपलाल मंडल की जयंती और पुण्यतिथि पर कार्यक्रम आयोजित होते हैं। डॉ. रामनरेश भक्त ने बताया कि उनके पूर्वजों ने वर्षों पूर्व इस प्रकार के किसी कार्यक्रम के बारे में ऐसी अरुचि दिखायी कि उनके दरवाजे पर कोई आयोजन करना संभव नहीं हो सका। अनूपलाल मंडल के साहित्य में अब भी गाँव जिंदा है, पर अपने ही घर और गाँव में उन्हें याद करने की कोई सार्थक कोशिश नहीं हो पायी है। सरकार बस कटिहार जिले के स्थापना दिवस समारोह में उन्हें याद कर लेती है, यही काफी है।