बिन चर्चित उपखान
- 1 October, 2016
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- 1 October, 2016
बिन चर्चित उपखान
काशीनाथ सिंह
आपातकाल के दिनों में लिखी गई कहानियाँ बिन चर्चित रही। बिन चर्चित क्यों? चर्चा में न आने के पीछे बहुतेरी कारण हो सकते हैं, पर यह आलोच्य नहीं है। बिन चर्चित कहानियों में एक आपातकाल के दिन में लिखी गई है–‘मंगलगाथा’। आपातकाल में मंगलगाथा? क्या आपातकाल मंगल के लिए ही आया था? आपातकाल से किस ओर संकेत है? क्या आज का समय उस मंगलगाथा से बहुत आगे निकल चुका है जहाँ आजादी का अर्थ सही मायने में सभी समझते हैं, चापलूसी, बेइमानी से परे निरा निर्मल मुक्ति का स्वतंत्र आनंद सभी भोगते हैं? क्या यह एक ऐसा समय है जहाँ गाँव में गरीबों को शादी के बाद अपनी इच्छा को कफन देते हुए सलामी के लिए महाजन, मुखिया के पास और जाना नहीं पड़ता? मंगलगाथा आपातकाल और आपातकालोत्तर समय का सच्चा दलित भी हो सकता है। राजनीति जब समाज, जाति, देश पर अपना प्रभाव डालती है तब आपातकाल राष्ट्र की दहलीज पारकर भिन्न चेहरा लेकर घर के आँगन तक आ पहुँचता है। आज भी इस देश में स्वास्थ्य और शिक्षा अवहेलित है, विपुल जनसंख्या के लिए सरकार की ओर से सत्ता पर आसीन तथाकथित उत्तर-आधुनिक काल तक यह मूल चारित्रिक अवनमन आपात से आपदा का रूप ले लिया है। ‘मंगलगाथा’ को लेकर इस आलेख के अंत में चर्चा करेंगे क्योंकि बाकी अमंगल पहले कहना उचित लगता है। आँख की कोर में प्रेमजनित विनम्र सलज्जता या प्रियतम को न पाने की वेदना नमी छोड़ उसे उदंडता के साथ संसार से मिटा देने के लिए पलक झपटते ही तत्पर बनती है। किसी अनजान से सामान्य वार्तालाप में माधुर्य और सहज विश्वास न होकर झाँकने, परखने की अनपेक्षित चालाकी एक अजीब अशिष्टता बन चुकी है। सफलता का तोलमोल आर्थिक एवं पदेन सक्षमता के आधार पर किया जाना और उसी मानदंड से सामाजिक स्वीकृति मिलने और न मिलने की भद्दा परंपरा इस आधे अधूरे समाज की मानसिक बीमारी बन गई है। ये लक्षण आपातकाल की अस्थिरता, अनिश्चितता ही तो हैं। कहा जा सकता है कि ये ‘Grotesque civilization of modern to postmodern era or transitional period’ जिस पर बहुतेरों का झूठा अहंकार है।
बहुरंगी पहचान तो किस राह से गुजरे बाबा…?
1982 में अप्रैल से जून के समय काशीनाथ सिंह की कहानी ‘अपना रास्ता लो बाबा’ लिखी गई। अगर यह 2012 में लिखी जाती तो इसकी कथावस्तु में आवश्यक परिवर्तन अनुमेय है। हो सकता था कि कहानी का कलेवर और छोटा होता और शब्द संक्षिप्त, सीमित होते क्योंकि देवनाथ के साथ गाँव से आए बाबा की इतनी लंबी बातचीत की नौबत न आती अथवा हो सके तो देवनाथ की पत्नी यों ही बाबा को दरवाजे से लौटा देती, व्यतिक्रम अवश्य हो सकता है। कहानीकार की लेखनशैली, शब्द-चयन, संवाद और भाषागुण के कारण संपूर्ण कहानी एक फिल्म की तरह चलती रही। यहाँ तीसरी आँख काशीनाथ जी की है। जानी-पहचानी आवाज सुनकर मेवालाल की पान की दुकान से देवनाथ का झटपट घर तक पहुँचनेवाला सँकरा रास्ता पकड़ना जैसे अपनी परछाँई से पिंड छुड़ाने की दौड़ है। बाबा देवनाथ का सगा चाचा है। बचपन में उसे कंधे पर बिठाकर बाबा खेतवाही करते थे, दोनों पूरा गाँव घूमते थे, भदाहूँ के मेला जाते थे। बाबा पुरानी यादें टटोलकर कहने लगे–‘बस तेरी एक ही आदत खराब थी। कंधे पर बैठे-बैठे मूतनेवाली। तू ससूर!…’ गाँव का देवनाथ कब शहरी बन चुका है यह बाबा को पता न चला। बाबा को और भी पता न था कि उसे भगाने के लिए झटपट घर पहुँचकर देवनाथ बीमार होने का और घर पर न होने का झूठा पाठ अपनी पत्नी आशा को पढ़ा रहा था। बड़ी नौकरी करनेवाला देऊ उर्फ देवनाथ का सुसज्जित मकान देखकर बाबा की तारीफ, फर्श पर हाथ पैर धोना और कुल्ला करना, फर्श भीगो देना, मटर, होरहा लाना और गगरे भर रस निकालना, डॉक्टर को ‘सरकार’ संबोधन करना आदि देवनाथ के अंतरचेतना को झकझोरता गया जो उसने गाँव का जीवन छोड़ते और शहरी जीवन में रचते बसते समय ‘purlion’ किया यानी ‘to put aside’ अर्थात पास हटा दिया, जिस प्रकार पास-पास दो मानसिक स्तर होते हैं–चेतन और अवचेतन, जो पास-पास रहते हुए समय-समय पर सक्रिय या निष्क्रिय होते रहते हैं। बाबा कैंसर से पीड़ित जानकर भी तीन पैसेवाली बी-कमप्लेक्स की सौ गोली, पाँच पैसे वाली लिव फिफ्टी टू की पचास गोली और दर्द की दस टिकियाँ खरीदकर देवनाथ को जो राहत मिलती है कि सारा मामला दस रुपये के अंदर ही निपट गया यह उसकी संकीर्ण, दुर्बल मानसिकता का परिचायक है।
पैसा, समय और सेवा इन तीनों का अभाव बदलती हुई गतिशील जीवनधारा में सनी आत्मीयता एवं आंतरिकता की तरह अपना जीर्ण-शीर्ण शारीरिक ढाँचा पसारे प्रकट होता दिखाई देता है। पास रह गया मन का दूसरा संदर्भ तब सक्रिय बन जाता है जब देवनाथ बाबा को किसी बड़े डॉक्टर के पास ले जाता है, किचन में जाकर रस भरे उस गगरे की ओर एकटक देखता रहता है जो बाबा के सिर पर बस साठ सत्तर मील का फैसला तय किया। वस्तुतः देवनाथ और आशा तथा उनकी संकीर्ण मानसिकता के छाँवतले पल–बढ़ते गए दो बच्चे शहरी ‘upstart’ स्वार्थी मानसिकता में अपनो को इस तरह ढालते गए हैं कि असल में ये गाँव से आए हुए बाबा के सामने अपने पिता, माता की तरह और गँवई (ग्रामीण) बन गए। क्यों ऐसा होता है? फिर क्या यह परिवार हीन भावना से ग्रस्त होकर स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है? कहीं मन से गँवई होने या कभी गाँव से पिछला संबंध रहने से लज्जा, कुंठा की सिकुड़न से या यूरोप के न्यूक्लिअर परिवार के संबंध में मन में गलत धारणा पालते हुए उससे प्रभावित होकर ये ऐसा करते हैं? मन में अहम् के विविध रूपों के बारे में फ्रांसीसी मनोविश्लेषक ज्यॉ लॉकॉ का कहना है–‘…two different types of discourses…ego talk…and some other kind of talk…’ अहम् की इसी मिथ्या-बोध के कारण चाचा कैंसर से पीड़ित जानकर भी मामला दस रुपये में मिटा देने की प्रवृत्ति अथवा बाबा घर से विदा लेते समय देवनाथ की स्वगतोक्ति–‘सारी जिंदगी और सारी दुनिया और सारा जमाना तुम्हारे सामने पड़ा है और तुम एक बेमतलब के बुड्ढे को लेकर मुँह लटकाए बैठे हो।’ जैसे मानो अतीत पर कफन चढ़ाने की जल्दी देवनाथ को है। कहानीकार भीष्म सहनी विरचित ‘चीफ की दावत’ कहानी में शामनाथ के चरित्र में अनुरूप मेल दिखाई पड़ता है। शामनाथ और देवनाथ दो नामों में एकरूपता महज एक संयोग है पर दोनों की चारित्रिक विशेषता एक घिनौनी संस्कृति तथा दोहरी मानसिकता की ओर संकेत करती है। बाबा के मन में शंका थी कि कहीं फूट-फूटकर हँसनेवाले गाँववाले की बातें ही सही न साबित हों। पर जब उन्हें यकीन हो गया कि देऊ ने पट्टी नहीं पढ़ायी तब उनकी सहज स्वीकारोक्ति देवनाथ के झूठे अहम् को धक्का दे गई। बाबा ने कहा–‘और एक तूँ है। जब हम चले थे तो सारा गाँव मुझ पर हँस रहा था। समझ रहा था कि तू हमें पट्टी पढ़ा देगा। लेकिन तूँ है कि दिनभर से अपना हर्जा करके दौड़ रहा है और वह भी किसके लिए? एकबार भी नहीं पूछा कि इतने रुपयों की दवा कैसे आएगी?’ इस परिस्थिति में देवनाथ के मन में धोखाबाजी का एहसास होना स्वाभाविक है पर उससे वह बाहर कितना उबर पाएगा यह प्रश्न संदेहपूर्ण है। क्योंकि बाहर आने का अर्थ है अपने झूठे अहम् को नकारना या जिसे ‘purlion’ किया गया है, उसे ग्रहण करना।
‘The Four Fundamental Concepts of Psycho-Analysis’ में लॉकॉ की उक्ति आत्मविश्लेषण के लिए यथार्थ है। उनका प्रश्न रहा है–‘ How can we be sure that we are not impostors?’ बाबा का भरोसा दोऊ में ऐसी सोच अगर आई होती तो उसके चरित्र के दोहरा परिचय यूँ प्रकट न होता। यह पीढ़ी ऐसी दिशाहीन मंजिल की ओर दौड़ने में सदा व्यस्त (अस्त-व्यस्त?) है कि वे अपनी बुनियाद को भी नकारने (negate) या अस्वीकार करने में हिचकती नहीं और अनायास बता समझने की बड़ी गलती कर बैठती है। देवनाथ की इसी गलत सोच से उसके घर के बाकी सदस्य भी प्रभावित हुए और गाँव, शहर के लोगों में भेद मानकर स्वयं को गाँववालों से अधिक अभिजात, धनी, रुचिशील, शिक्षित, संस्कृत तथा प्रगतिशील समझने के गलत ख्वाब में जीने लगे। शहर की पेंचीदा संस्कृति के साथ-साथ गाँव के लोगों की सरलता और सादगी को ग्रहण करने की समझ अगर देवनाथ और आशा में होती, तो उनके बच्चों को भी अच्छा संस्कार मिलता। बंगाल के प्रसिद्ध नाटककार मोहित चट्टोपाध्याय की नाटयकृति ‘मायेर मतो’ यानी ‘माँ जैसी’ में एक माँ के साथ उसके लंदन निवासी पुत्र की बीस साल बाद मुलाकात उसी स्वार्थी और दोहरी मानसिकता का अनोखा साहित्यिक उदाहरण है। हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार शानी की कहानी ‘एक नाव के यात्री’ में मिसेज मित्तल का अपना प्रवासी बेटा रज्जन के लिए वाट जोहना और रज्जन के पास अपनी ही नींव के लिए समय न होना भी अत्यंत मर्मस्पर्शी दोहरापन और बजबजाती सड़ती अपसंस्कृति का अद्भुत दृष्टांत है। बहुसंस्कृति या मिश्रसंस्कृति से संपृक्त समाज में अधिकतर बच्चे होश सँभालते ही समझ जाते हैं कि घर में आए मेहमानों (माता-पिता भी मेहमान?) या रिश्तेदारों में किसे अधिक महत्ता दी जा रही है या देनी है अथवा किसके साथ ज्यादा समय बिताना उचित होगा और किससे नहीं। यह महत्ता देने की बात ज्यादातर उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा, आर्थिक सक्षमता, सामाजिक या प्रशासनिक ताकतों पर निर्भर करती है, सहज स्वभाव, रुचि, प्यार या आंतरिकता पर नहीं। अगली पीढ़ियों में इस प्रकार सड़न फैलती जाती है। इस कहानी में बाबा के बारे में आशा अपने बच्चों को जो कहती है वह किसी बुजुर्ग के संबंध में शिशुमन में अवज्ञा, अश्रद्धाजनित गलत प्रभाव डालने के लिए पर्याप्त है–‘बुढ़ऊ की खुराक और उनके चपर चपर खाने के ढंग और कमरे के कवाड़े के बारे में और इस बारे में कि तुम्हारे पापा के गाँव के लोग कितने फूहड़ और कितने गँवार होते हैं। और बाप रे। कितना चिल्ला-चिल्लाकर बोलते हैं रे-रे करके!’ कहानी इसी मोड़ पर बहुत कुछ कह जाती है। ‘किस राह से गुजरे बाबा’–यह प्रश्न मन में दब जाता है और अंतर्मन से एक अस्फुट असहाय शब्द उसी क्षण निकल आता है–‘किस राह से गुजर रहे हैं बाबा!’
जवानी की पहली रोशनी, पहला मोहभंग…
काशीनाथ सिंह की कहानी ‘पहला प्यार’ में शशांक शेखर पांडेय उर्फ फत्ते गुरु के जीवन का वह चमत्कार है जिसे ‘प्रेम’ कहते हैं। यह प्रेम तेरह चौदह साल के विद्यार्थी फत्ते की जमीन में खिड़की पारकर भूरे-भूरे बाल वाली चिपरी पाथती हुई किसी लड़की की काँख देखकर आया। कस्बे में उसके बड़े भाई भोला शंकर पांडेय डाकिया थे। बड़े भाई के पास गर्मी की छुट्टियों में अँग्रेजी की तैयारी करने के लिए आए फत्ते का आना और वह डाकिया होने पर दिनभर घर में न रहने से फत्ते का ‘प्रेम योजना’ पर अमल करना और दिमाग लगाने का सुनहरा अवसर मिलना आदि बचपना एक अलग रंग लाता है। भावुक मन और कच्चे दिमाग का प्रेम में एक प्रकार निःस्वार्थ विश्वास और समर्पण की भावना होती है जो सारी वास्तविकता (reality) से दूर हो जाती है। फत्ते की जिद पर लड़की की बीड़ी नीचे रख देना, दुबारा बीड़ी पीते देख छिः छिः कर उठना आदि निर्मल प्रेमाभिव्यक्ति है। उसके भाई को लड़की का चाचा कहना पर स्वयं पद में चाचा हो जाने का डर प्रेम न खो देने का ऐकांतिक प्रयास है और यही शशांक के चरित्र की सादगी एवं नेक भावना को स्पष्ट करता है। इस प्यार में एक अद्भुत श्रद्धा का सरूर भी है। चिपरी पथरी हुई उस लड़की से बड़ा भाई भोला ने ‘तू’ कहकर संबोधन किया जो फत्ते को बिल्कुल नापसंद है। वह मन ही मन इस सहूर को लेकर असहाय प्रार्थना से कहने लगा–‘हे भगवान तू-ताम करना ये कब छोड़ेंगे?’ यह कहानी निरा अपरिणत, एकतरफा प्रेम की कहानी नहीं है, पहला प्रेमजनित भाव और उसके बाद लड़की के मन में कोई हलचल या संतोषपूर्ण प्रेममय संकेत न पाकर मोहभंग की कहानी है, अँग्रेजी में ‘infatuation’ कहा जाता है। समय का निरंतर बहना वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में इस कहानी को और अर्थपूर्ण बना दिया है। स्वार्थपूर्ण राजनीति और भोगवाद की लालच शहर के साथ-साथ ग्रामीण जीवन की हरियाली को विवर्ण बना चुकी है। शशांक की मानसिकता आज के विद्यार्थियों में मिलना आसान नहीं है। आज की स्थिति में अधिकतर अपरिणत प्रेम मोहभंग के बाद प्रेमिका के खून से हाथ रंग लेता है। न हासिल कर पाने का विषाद एवं इस जुनून से हत्या की खबरों से दूरदर्शन न्यूज, अखबार के पन्ने भर जाते हैं और फिर अदालत, मुकदमा का दूसरा अध्याय शुरू होता है। कभी-कभी यह केवल शारीरिक शोषण का रूप भी ले लेता है। शहर हो या गाँव, विद्यार्थियों की मानसिकता इतनी बदल चुकी है कि प्रकृति के स्वाभाविक नियमों को तोड़कर ये इन प्रेमभावों की उपेक्षाकर किताबों में इतना अधिक रमते हैं ताकि भविष्य में प्रतियोगिता की दौड़ में टिकने में सफलता प्राप्त करें और भोग के सारे साधन (हो सके परिवार भी) दूसरों से अधिकाधिक प्राप्त करने में सक्षम बनें। विद्यार्थी जीवन की इतनी दूरदर्शी सोच कुछ मिसाइल के इस लक्ष्य की तरह प्रतीत होता है जिसमें समाज या जनसेवा की उदार नीयत नहीं है, पर ध्वंस अवश्य है। शशांक उर्फ फत्ते इस दुनिया में विरल ही है, शांति, शामली या शेरू जो भी हों उससे प्रेममय संकेत न पाकर उसकी आँखे भर आती हैं और तपती धूप की तरफ सड़क के बीच वह खड़ा हो जाता है। ऐसा सुकुमार मन भोगवाद के इस क्षण में कहाँ मिलनेवाला है। अगर प्रेमानुभूति या प्रेम संबंधी मोह सहज सत्य है, तो उसे बिना समझे निरुत्तर रहना (जैसे फत्ते की शेरू ने की) अथवा तोलमोल के हिसाब में नुकसान भाँपकर मुकर जाना (जैसे आजकल के अधिकांश युवा-युवती इस रवैया को सही समझते हैं) उतना ही कड़वा सच है। प्रेमजनित मोहभंग से पीड़ा तब और अधिक चुभती जाती है जब जवानी के पहला प्यार बिखरने से वह पनपती है।
जिस कोठरी का कोई दरवाजा नहीं…
अगर दान में दस दरवाजे की कोठरी कोई देता है तो ‘गरहन’ नहीं लगता। परिस्थिति कैसी भी हो, ऐसे मन की कोठरी ‘गरहन’ से अछूत रहती है और मन के वासी परमानंद से झूमकर कह सकते हैं–‘हम तू गुइयाँ/मछरी की चुइयाँ…’ पर ऐसा दान क्या किसी ने दिया है या नहीं, यह मनुष्य को ठीक से पता है? कौन जाने? अतः नसीब में हो तो हाथी, घोड़े, सोने, चाँदी, रुपये, पैसे आदि दान में मिला सकते हैं। इससे क्या पुण्य मिलेगा कहना मुश्किल है पर ऐसे दान से ग्रहीता की आकांक्षा पर ग्रहण लग सकता है, उसके मन की कोठरी के सारे दरवाजे बंद हो सकते हैं, यह अवश्य कहा जा सकता है। गंगा के किनारे मिली तीन कोठरियों में किराये पर रहनेवाले ब्राह्मण मदन और उसके पड़ोस के गाँव के चमटोल चमार, बचपन का साथी विपतराम की यह कहानी ‘वे तीन घर’ नाम से प्रकाशित हुई। बचपन से ही विपत अपनी जमात का सबसे तेज और जमाने का रूख समझने वाला लड़का था। वह कहता–‘सोवराज चमार हल जोतना बंदकर दें, बब्बन धोबी कपड़े न धोएँ, महमूद नाऊ बाल न काढ़ें, राम कुम्हार कुल्हड़-गगरी न बनाएँ तो उनकी बबुआई कहाँ जाएगी?’ विपत धीरे-धीरे शहर में नेता बन गया और कभी कभी बड़े नेताओं के साथ मंच पर भाषण करते उनके फोटो दिखाई पड़ते। मदन और विपत दोनों के रास्ते भी अलग हो गए और उसूल की बातें कहानी के अगले में अलग होने की हकीकत बनकर रह गई। मदन अपने उसूलों से कभी डिगे नहीं, यहाँ तक कि अपनी सयानी लड़की अनब्याही रहे तो भी ठीक लेकिन दहेज शादी करवाने के सखत खिलाफ थे। यही कारण था कि हाकिम होकर उसे अपने मातहत कर्मचारियों से भयमिश्रित श्रद्धा, कृतज्ञ भाव और सम्मान मिलते रहे। विपत की यथार्थपरक मानसिकता और अपने उसूलों के प्रति श्रद्धाशीलता मदरसे के दिनों में ही मदन के मन में गहरी लीक छोड़ चुकी थी। बहुत दिनों के बाद अचानक विपत से मुलाकात होने पर मदन को बहुत खुशी मिली। एक बार फिर से उसी जोश के साथ शुरू हुई दोनों में बातचीत, मतों का आदान-प्रदान, यथार्थ, उचित, अनुचित पर तर्क, हँसी ठहाके और पुरानी बातों का उधेड़-बुन। चमार की औरतों के प्रसंग में विपत पुरानी बातें कहना शुरू किया। उसने कहा–‘…और उनकी औरतें? उन्होंने तुम्हारी माँ की कोख से तुम्हें जनमाया है, तुम्हारे नार काटें हैं, मालिशें की हैं, छातियों में दूध न उतरने पर तुम्हें अपना दूध पिलाया है और बारही के बाद तुम्हारे माँ, बाप ने उन्हें तुमको छूने का हक नहीं दिया है।’ मानो यह एक अनकही व्यथा की पोटली विपत ने सहानुभूति से खोल दी। प्रश्न यह उठ खड़ा होता है कि विपत की इस सहानुभूति में कितनी आंतरिकता है, व्यथा में कितनी गहराई है?
आबु जाफर शाम्सउद्दीन (1911-1988) बंगलादेश के कथाकार हैं। उनकी कहानी ‘नेता’ में नेता के चारित्र के साथ विपत के चरित्र का अद्भुत मेल दिखाई पड़ता है, सिर्फ समयांतर के कारण उनकी नीयत एकरूप होने पर भी सामान्य अंतर कहीं रह जाता है। विपत की तरह यह नेता भी अच्छा भाषण देने में सक्षम था। जो कहता था मानो श्रोताओं के निराशा, क्षोभ से तड़पते, तपते दिलों को बिल्कुल शांत कर देता, ठंडक पहुँचता। ‘वे तीन घर’ कहानी में विपत के मुँह से बार-बार चमार, डोम, हरिजन और उनकी औरतों की दयनीय जिंदगी का प्रसंग आता है, जिससे स्पष्ट होता है कि ये समस्याएँ कुसंस्कार और राजनीतिक फायदा के कारण बनी हैं। ‘नेता’ कहानी में अकाल का प्रसंग आता है। ‘वे तीन घर’ कहानी में चमार की दुर्दशा की तरह ‘नेता’ कहानी में सभा में आने लगे अकालग्रस्त लोगों का वर्णन इस प्रकार है कि रोंगटें खड़ी हो जाती हैं। ‘नेता’ कहानी में नेता सोच रहा है कि इन नरकंकालों की मौत होने पर ही मेरा सुनहरा समय आ सकता है और विपत शहर के किसी इलाके में तीन घर छोड़कर अपना मकान इसलिए बनाता हैं क्योंकि उसकी पत्नी के कथनानुसार उन तीन घरों में ‘चमरा-सियरा’ रहते हैं। अचरज की बात तो यह है कि नेतागिरि से दो पैसे बनाकर ‘राजनीति-व्यापार’ से अपना निश्चित भविष्य सँवारने के बाद अपने सारे उसूलों से हटकर विपत और उसका परिवार अपनी परछाई से पिंड छुड़वाने की चेष्टा में सफल हैं। यही समझने के बाद मदन विपत के बारे में सारा आग्रह खो बैठता है जैसे आज नेताओं के बारे में या राजनीति के बारे में बहुतेरे अपना आग्रह खो बैठे हैं। सत्ता की ताकत और पैसा ऐंठने के लिए चमार, हरिजन, डोम की बात करना तो विपत के लिए महज एक जरिया है। ठीक उस प्रकार नरकंकालसार मनुष्यों को देखकर नेता का दौड़ लगाना भी अपनी परछाई से भागना है, उन्हें आश्वस्त करना या इस दर्दनाक हाल से बाहर लाने का कोई समर्थक नेता जैसी प्रवृत्ति नहीं है। दोनों के चरित्र में सिर्फ अपना फायदा उठाने के लिए परस्परविरोधी भाव और पलायनवादी मनोवृत्ति है। कहानी ‘वे तीन घर’ इस दृष्टिकोण से तात्पर्यपूर्ण है। ‘The American Crisis’ में एक एंग्लो-अमरिकी राजनीतिक दार्शनिक थॉमस पॉइन (Thomas Paine) की राजनीति के बारे में यह उक्ति महत्त्वपूर्ण है–‘A bad cause will ever be supported by bad means and bad men.’ राजनीतिक फायदे के साथ-साथ वैयक्तिक स्वार्थपरक फायदे उठाने के कारण यहाँ ‘bad cause’ है और इस संदर्भ में विपत अथवा नेता दोनों के बारे में यह कथन समान रूप से प्रयुक्त हो सकता है। आज के परिप्रेक्ष्य में नेताओं का चरित्र, उनकी नीयत खास कुछ बदली है ऐसा निश्चित कहना मुश्किल है। प्रारंभ में कहा था कि दान में अगर दस द्वार की कोठरी मिलती तो उस दान से हर पल के लिए आनंद मिलता रहता। परमात्मा दशम् द्वार की कोठरी जन्म से ही प्रत्येक मनुष्य को दिए हैं। दसवाँ द्वार ब्रह्मरंध्र है और दस द्वारों वाला देवालय रूपी कोठरी अर्थात शरीर में ही आत्मज्योति है। अगर ‘दस द्वारे का देहरा’ और ‘ताम जोति पिछानि’ की पहचान हमें होती तो बिन दरवाजे की बंद कोठरी से निकलकर ‘तीन घर’ की अछूत घृणाभरी मनोवृति और दोहरी मानसिकता को त्याग पाते। यूँ मैले मन से जनसेवा का ढोंग न रचते। अंत में कहानीकार काशीनाथ सिंह ने मदन के माध्यम से उस आत्मानात्म या विवेक अर्थात ‘Self-realization’ की ओर भी संकेत किया है जिस ओर विपत का रास्ता कभी नहीं जाता। आखिर बिन दरवाजे की कोठरी सभी को स्वीकार्य नहीं हैं।
मंगलगाथा की स्मृतिपट में अमंगल के बीज…
इस बात को लेकर मन की सहमति नहीं मिलती कि ‘मंगलगाथा’ कहानी है। यह कहानी से अधिक कहीं एक इंप्रेशन (Impression) है। इसे और पल्लवित करूँ तो कहा जा सकता है कि कोई सफेद कपड़े पर रंग-बिरंगी सुतलियों से बड़े यतन के साथ नक्काशी किए हैं, नक्काशी में गेहूँ, फूल, आम, पेड़, पौधे के साथ चिड़ियाँ, गाय, नीलगाय, साँड़, भैंस, सूअर, सियार, बच्चे, बूढ़े, औरतें भी हैं, मूँगफली, रेवड़ी, बताशे, बिस्कुट, लेमनचूस, गुब्बारे और तल्लू महादेव भी हैं। सड़क, बाजार, बगीचा, खेत, मेला, ठेला में गाँव-जीयनपुर का चित्र मानो सजीव हो उठा है। जीयन के साथ जीवन या जीवित शब्द का न जाने कैसा चचेरा-मौसेरा संबंध है। और जीयनछड़ी के बारे में बाद में कहेंगे। आस पड़ोस में हेतमपुर, आवाजपुर, मिर्जापुर, भदाहूँ, कवँई, करजाड़ा आदि गाँव है। संपूर्ण वर्णन मानो ‘नकशीकांधार माठ’ अर्थात फुलकारी भरी गुदड़ी का मैदान है। 19वीं सदी में पेरिस में चित्रकारों के आंदोलन से इंप्रेशनिज़म का जन्म हुआ और बाद में यूरोप के साहित्य में भी इसका प्रभाव पड़ा। इंप्रेशनिज़म के बारे में कहा गया है–‘Impressionism includes ordinary subject matter, the inclusion of movement as a crucial element of human perception and experience, and unusual visual angles. It has firm emphasis on instinct and feeling, rather than judgment and restraint.’ ‘मंगलगाथा’ नगरशास्त्र संबंधी झा साहब की उक्ति–‘नागरिक वह है जो नगर में रहता हो!’ में कहानीकार के ‘Perception’ का एक सामान्य दृष्टांत है। गर्मी में पाल का पका आम, बरसात में ककड़ी और सवाँ, बाजरे का दाना और भात, जाड़े में मटर की घुघुरी, गन्ने का रस, गेहूँ का हावुश, चने का होरहा, चूड़ा और लाई, तोखवा नीम के पास गोवर्धन अहीर का कोल्हू, बरसात में करेम और जाड़े में बथुआ, मटर, चने-सरसों का साग ये सब कुछ जीयनपुर गाँव संबंधी स्मृतियों में है।
कहानी में स्वातंत्र्यपूर्व और स्वातंत्र्योत्तर समयकाल की घटनाएँ हैं। सन् 1942 के अगस्त महीने की बात है। सभी गाँव के सिवान अपनी आवाज बुलंद करके चिरई उड़ाने और चिल्लाने की लड़ाई में जुटे रहते। कहानीकार का कथन सीमित शब्दों में मानो बहुत कुछ कह देता है–‘वह जमाना था जब फसलों का खतरा आदमियों से नहीं, चिड़ियों सियारों, नील गायों और साँड़ों-भैंसों से था।’ पराधीन भारत के जीयनपुर का एक बहादुर निडर लड़का सिमंगल ने दिन-दहाड़े थाने लूटते समय घड़ी चुराकर कभी जियनपुर की नाक कटवा दी पर सन् 1947 के बाद वही सिमंगल उर्फ शिवमंगल प्रसाद जी वर्मा सरकार के कानून और न्याय मंत्री बने एवं पद्मश्री से नवाजे गए। जीयनपुर और गौसपुर के बीच ‘शिवपुरम’ में ‘उच्चतर माध्यमिक विद्यालय’, ‘आदर्श बालिका इंटर कॉलेज’ की स्थापना उनकी सदिच्छा से हुई। ‘मंगलगाथा’ तब और मंगलमय हो उठी जब इसमें आजादी मिलने से निर्मल आनंद और उच्छ्वास का वर्णन किया गया। पर इसके साथ धीरे धीरे अमंगल का बीज भी उपजना शुरू हुआ। सादा जीवन उच्च विचार का उसूल बदलता गया। शिवमंगल प्रसाद का पुत्र रामराज्य जो ‘उच्चतर माध्यमिक विद्यालय’ के प्रिंसिपल बने, जरूरत से अधिक धन कमाकर लाखों की लागत से तीन बीघे का ‘रामराज्य बिला’ बनवाए और शिवमंगल प्रसाद के असंतोष के कारण बने। यह रामराज्य की स्थिति अमंगल का पहला संकेत था। दूसरा जगदंबा लाल उर्फ जद्दू को स्कूल से देश की आजादी की खुशी में जयहिंद बोलने पर दो लड्डू मिले और घर आकर उसे अपने पिता की मार खानी पड़ी। इसके पीछे कारण यह रहा कि जद्दू ऊँची जात राजपूत छत्री होकर कैसे किसी वर्मा के हाथ से लड्डू ले सकता है। जातपात की यह भेदरेखा आज भी भारत की विकट समस्या है। कहानी के अंत में काशीनाथ सिंह का यह स्पष्ट कथन उल्लेखनीय है–‘मैं सिर्फ इतना देखता हूँ कि मेरे लिए आजादी की शुरुआत चापलूसी और बेईमान की शुरुआत थी।’ चापलूसी और बेईमानी की परंपरा आज भी और अधिक है। स्वतंत्रता के बारे में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में कहा था–‘At the stroke of the midnight hour, India will a wake to life and freedom. A moment comes which comes but rarely in history, when we step out from the old to the new, when an age ends, and when the sound of a nation, long suppressed, finds utterance.’ एक सहज जिज्ञासा बनती है कि देश की वांछित स्वाधीनता मिलने के बाद क्या देश के निवासी स्वयं को सदर्थक रूप से ‘step out’ कर पाए हैं? क्या कुछ स्वार्थियों के कारण एक अलग अवदमित स्थिति (Suppression) आज भी नहीं है? इस देश की जनता के एकांश में मूल्यबोध, ईमानदारी, जातपात भूलकर एकता की भावना पर विश्वास रखने की बात क्या किसी जादुई छड़ी से सजीव हो सकती है? किसी जीवनछड़ी से क्या इन विपथगामियों की नींद टूट सकती है? जिस आजादी की शुरुआत गलत तरीके से हुई हो क्या उसका भविष्य सुधर सकता है? यह संशय कहानीकार के मन में भी रह गया है। अमंगल के बीज तो अब फल-फूलकर महीरूह बन चुके हैं।
ग्रीक पुराण के अनुसार कोणस इस महाविश्व का पहला शासक है। इसके शासनकाल में सद्भावना और न्याय की प्रतिष्ठा हुई थी। ग्रीक कवि हेसिअड (Hesiod) ने उनकी काव्यकृति ‘Works and days’ में कोणस की मानवीयता, न्याय और सद्भावना के बारे में उल्लेख किया जिसे दो शब्दों में ‘Golden Age’ कहा जाता है। इस भूखंड में ‘Golden Age’ की आशा करना दिवास्वप्न देखना होगा। फिर भी दूसरे आशावादियों की तरह कुछ सुधार की उम्मीद तो अवश्य रहेगी। ‘बिन चर्चित उपखान’ के अंतिम चरण में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि ‘कहनी उपखान’ के सर्जक काशीनाथ सिंह की कहानियों में मानवीयता या ‘Humane approach’ है। आपातकाल और बाद की बिन चर्चित कहानियों में वे ‘न सत्यं अगाः’ अर्थात सत्य से च्युत नहीं हुए हैं।
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Artist :Federico Zandomeneghi
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