एक विदुषी पतिता की किताब

एक विदुषी पतिता की किताब

‘एक विदुषी पतिता की आत्मकथा’ साफ संकेत करती है कि हमारे यहाँ जो चलन हैं, खासकर ब्रह्मचर्य और समाज की ऊँची भद्र नस्लों को लेकर और जो मान्यताएँ और तकाजा हैं, वो कितना संदेहास्पद और भ्रामक हैं। इन्हीं सवालों से टकराती है एक विदुषी वेश्या, जिसे इस पुस्तक में बखूबी देखा सुना पढ़ा जा सकता है। तमाम सवाल यह विदुषी हमारे सामने रखती हैं, जिनके जवाब आज भी देने से हम कतराते हैं या बचकर निकलने की फिराक में नजरें हटाकर निकल जाते हैं। इन्हीं में एक सवाल गाँधी और उनके ब्रह्मचर्य, गाँधी और उनके आंदोलन से जुड़ा है। गाँधी और उनके सत्य से जुड़ा है। गाँधी के गुरुत्व से जुड़ा है। और समूचे तौर से गाँधी के सत्य का गुरुत्व और मानदा के बीच के गुरुत्व और सत्य की टकराहट से जुड़ा है, जिसे देखा जाना बेहद जरूरी है।

मानदा देवी की यह पुस्तक मूल बांग्ला जुबान में 1929 में जब छपी, तब एक बांग्ला रिव्युवर ने कहा, इस किताब की इतनी जबरदस्त माँग की वजह ये नहीं कि इसमें वेश्याओं की ज़िंदगी के बारे में रस ले-लेकर लिखा गया है, बल्कि किताब में तो फिलहाल इसके विपरीत हालात बयान हुए हैं। शायद आम आदमी के मन में यह जानने का कौतूहल था कि एक वेश्या ने अपनी आत्मकथा में क्या कुछ लिखा है तथा इस आत्मकथा की एक बड़ी खासियत है इसकी जुबान। पढ़ते-पढ़ते ऐसा लगता है कि यह लेखिका द्वारा बताए गए सच का अनुलेखन (लिपिबद्ध) है अथवा लेखिका के सुने सच को कुशल संपादक द्वारा लिपिबद्ध किया गया है। यानी इसके सत्य और आत्म की कथा पर संदेह, आशंकाएँ, वहम की बुनियादें पैदा की गईं। तब इसके जवाब में मानदा ने बयान दिया, ‘मेरी यह जीवनी खुद मैंने लिखी है अथवा मेरी ओर से किसी पुरुष ने लिख दी है, इसे लेकर कुछ लोग झूठ-मूठ मगजमारी कर रहे हैं। औरतों के संबंध में पुरुषों के मन में जो तरह-तरह की हीन धारणाएँ जड़ीभूत हैं, उसके कारण ही स्त्री के लिए आज जरूरी हो गया है कि वह दुनिया के सामने समानाधिकार की माँग रखे और मैं भी खुद को ऐसा करने से रोक नहीं पा रही। यदि आलोचक केवल यह सोच रहे हैं कि क्या एक ‘पतिता’ में किताब लिखने की क्षमता हो सकती है तो इसके जवाब में कहा जा सकता है–यदि ‘पतितगण’ किताब लिख सकते हैं या पत्रिका का संपादन कर सकते हैं तो पतिताएँ क्यों नहीं कर सकतीं? प्रतिभा को विश्वविद्यालय की डिग्रियों के आधार पर तौला नहीं जा सकता। पूजनीय श्रीयुक्ता अनुरूपा देवी, निरुपमा देवी के पास तो कोई डिग्री नहीं, ये हिंदू परिवारों की पुरातन विश्वासों वाली महिलाएँ हैं। ‘रियलिस्टक आर्ट’ के नजदीक तक नहीं जातीं लेकिन इनकी लेखनी से जो रचनाएँ बाहर आई हैं, अब तक किसी उपाधिधारिणी ने समग्र रूप में वैसी सुंदर पुस्तक की रचना नहीं कर पाई। यह तथ्य तो सर्वसम्मति से स्वीकार्य है।’

इसी में एक बात साफ तौर से उठती है कि ब्रह्म का गुरुत्व, ब्रह्मचर्य का गुरुत्व और मानदा का जो सत्य है उसका गुरुत्व, इसको कैसे समझा जाय। किसका गुरुत्व ज्यादा प्रभावशाली, ज्यादा मानीखेज है। असल में तो ब्रह्म के गुरुत्व में ये पूरी कायनात, पूरी सृष्टि, ये समूचा ब्रह्मांड शामिल है, सक्रिय है। गाँधी के सत्य और ब्रह्मचर्य का जो गुरुत्व है वो संदेह पैदा करता है और गुरुत्व से कहीं अधिक उसमें अनाकांक्षित महत्त्वकांक्षा की ध्वनि अनुगुंजित है। गाँधी का अपना रेलेवेंस और गाँधी की अपनी इच्छा कि गाँधी क्यों बाकी तमाम श्रेष्ठ पुरुषों से भिन्न और अलग हैं।

गाँधी ने अपना गुरुत्व आंदोलनों के जरिये जनता के भीतर देख लिया। गाँधी ने अपना गुरुत्व जो सियासी दौर चल रहे थे तमाम मुलाकातों के, वो चाहे काँग्रेस पार्टी के रहे हों, चाहे वो महासभाओं के रहे हों, चाहे वो ब्रितानिया हुकूमत के रहे हों! इन सब के बीच एक सर्वाधिक प्रभावशाली निर्णायक भूमिका में गाँधी हमेशा बने रहे। उनका गुरुत्व इस मायने में महत्त्वपूर्ण है कि वो समदृष्टि, समागमता इन दो चीजों पर सबसे अधिक फोकस करते थे। यानी आप अपनी अपनी दृष्टि से दुनिया को देखें, देख सकते हैं। लेकिन गाँधी ने इस दृष्टि से ग्राम स्वराज की चाहे वो भावना हो, चाहे वो आजादी पाने का एक रास्ता हो इसको जिस नजर से देखा वह गुरुत्व कमाल का था। गाँधी अपने अहिंसा के गुरुत्व की वजह से, अस्तेय के गुरुत्व की वजह से, अपरिग्रह के गुरुत्व की वजह से और सत्य के जो भी आमूलचूल उनके जीवन के दर्शन के बुनियादी हिस्से थे यानी उनके आदर्श और सिद्धांत, उसका गुरुत्व, इन सबको आप मिलाएँ तब गाँधी का एक समूचा व्यक्तित्व बनता है यानी गाँधी का गुरुत्व।

यहीं से एक हिस्सा गाँधी का निकलता है ब्रह्मचर्य के गुरुत्व का, गुरुत्व ब्रह्मचर्य के दो तरह से पाए जा सकते हैं या दुनिया में एक ही मंजिल के दो रास्ते हो सकते हैं। एक ही मंजिल को पाने की दो राहें, दो साध, दो मोड़ हमेशा होते हैं। एक सद्आचरण और दूसरा वह आचरण जिसमें आप दुराग्रह देख सकते हैं, दुस्साहस देख सकते हैं और अराजकता देख सकते हैं, असंगति देख सकते हैं, असाधारणता देख सकते हैं। गाँधी के ब्रह्मचर्य का जो गुरुत्व है वो सद्आचरण का है कि जहाँ हम किसी दूसरे को बिना क्षति पहुँचाए ब्रह्मचर्य की इच्छा का पालन करते हैं। लेकिन क्या यह मुमकिन हुआ? या हो सका? वहीं दूसरी तरफ जिस ब्रह्मचर्य के गुरुत्व की बात हमने की वो मानदा में देखी जा सकती है। एक आवेग, एक उत्पात, एक उत्साह, एक आकर्षण और एक अराजकता। यह जो वृत्ति है। मानदा की, यही उसके जीवन की वृत्ति बन गई और उसके ब्रह्मचर्य की भी वृत्ति यही थी, उसके ब्रह्मचर्य का गुरुत्व भी यही बना। उसने अपने जीवन के शील, शैली और शालीनता के बाहर जाकर के और दुनिया की कामनाओं को, वर्जनाओं को, वासनाओं को और कामवृत्तियों को किस तरह से एक देह में धारण किया और फिर उस देह से बाहर निकलकर के एक मानदा जब नए स्वरूप में आई, जहाँ वह केवल और केवल वेश्या नहीं रही एक लेखिका की शक्ल में हमारे सामने अपने वास्तविक जिए गए, भोगे गए जीवन के सारे गुरुत्वों को समेटकर अपनी अनुभूतियों को, विश्वासों को पूरी शिद्दत के साथ उतरती है।

किताब में खासतौर से कई नामी गिरामी शख्सियतों को बाकायदा नाम लेते हुए उनसे मुआफीनामे की ओर साफ इशारा भी दिखाई देता है, जहाँ शिवनाथ शास्त्री,  सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, देशबंधु चितरंजन दास, अश्विनी कुमार दत्त, बासंती देवी, सरला देवी, काजी नजरूल इस्लाम, मोतीलाल नेहरू, शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय और रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे समाज में ख्यातिनाम उद्धारकों का जिक्र आया है। आत्मचरित की मानें तो हकीकत बयान करने वाली मानदा अपने आपको ही सामने रखकर सवाल और सुविचारित जवाब देते हुए कहती है ‘मेरी जैसी नौसिखिया लेखिका की अक्षमता के कारण यदि इन लोगों के सुनामों को कोई क्षति पहुँचे तो मैं उनमें से हरेक जीवितों के प्रति क्षमा की प्रार्थना करती हूँ।’

मानदा के ब्रह्मचर्य का असल गुरुत्व यहीं से आरंभ होता है कि वह एक स्त्री है और बहुत हद तक साफ है कि स्त्री केवल एक योनि नहीं हो सकती। ब्रह्मचर्य का यह गुरुत्व बड़ा महत्त्वपूर्ण है। एक निहायत जरूरी बिंदु है। यहीं पर गाँधी और मानदा एक साथ आपसी वैचारिक मतभेदों के दरमियाँ टकराते हैं। यहीं मानदा और ब्रह्मसमाज की जो दार्शनिक शैली का जो गुरुत्व है वह एक-दूसरे से टकराता है। यहीं मानदा और समाज के भीतर पैदा हुई जो वृत्तियाँ हैं कलुषित वृत्तियाँ और कलुष से बाहर रखने के लिए सांस्कृतिक सामाजिक या सभ्य समाज का चेहरा बनने वाली वृत्तियाँ इनके गुरुत्व से टकराती है मानदा। मानदा का ब्रह्मचर्य सघन और वजनी है। बाकी सभी से बड़ा है क्योंकि उसने जिए गए जीवन की अपनी धारणाओं से एक नए जीवन की तरफ जब कदम बढ़ाया तो खुद भी देखा और आप भी देखें कि सबसे बड़ी चुनौती उसके ब्रहचर्य की, गुरुत्व की कि मानदा का गुरुत्व इस सृष्टि के गुरुत्व के बराबर अगर नहीं भी मानते हैं या नहीं भी माने तो भी इस दुनिया के भीतर जो समाज सभ्यताएँ संस्कृतियाँ जी रही हैं उनके गुरुत्व से कहीं अधिक बल और भार लिए हुए है। कहीं अधिक आकर्षण और कहीं अधिक चुंबकत्व लिए हुए है। उसका क्षेत्रफल बहुत बड़ा है।

गाँधी इन्हीं जगहों पर ब्रह्मचर्य के लिए सत्य का प्रयोग करते रहे और मात्र देह को देह से या विपरीत लिंग के साथ न जुड़ने और जुड़ सकने के बीच जो आशंकित इकाई है, वहाँ स्वयं के ब्रहचर्य को रखकर आँकते भाँपते नापते रहे और उनके आस-पास की दुनिया ने भी अपने ब्रह्मचर्य को सिर्फ यहीं तक आँका कि सांसारिक सदाचारों से जुड़ने के लिए सांसारिक विकारों से बाहर रहने के लिए जरूरी है कि देह के भीतर यह जो विकार पैदा हो रहे हैं, उनसे बाहर उन कलुषताओं से निकलकर एक मनुष्य का जन्म हो सके और संस्कृतियों, सभ्यताओं ने इसके लिए सबसे आसान तरीका ढूँढ़ निकाला कि संस्कृतियों पर अपना साम्राज्य बनाए रखने वाले मर्दों की यह जो दुनिया है, उसका जो गुरुत्व है, उसके सामने एक औरत को, औरत की देह को मनुष्य की विकृतियों का विरेचन करने का माध्यम बना डाला। वह पत्नी के रूप में भी बना, वेश्या के रूप में भी बना, उपपत्नियों, महारानियों, पटरानियों, और तमाम-तमाम के रूप में भी बना। नाजायज या फिर एक्स्ट्रा मैरिटल या प्री-मैरिटल आदि-आदि। इन तमाम रूपों में आप देखेंगे कि कहीं पर धन की आवृत्ति के साथ एक संबंध बनता है और कहीं बिना धन के मनोआवेगों आवृत्तियों के साथ संबंध जोड़ा जाता है और कहीं जबर्दस्त देह की टकराहट है और कहीं एक देह पर दूसरी देह का दबाव।

ब्रह्मचर्य का जो गुरुत्व है, वह केवल और केवल इस बात में नहीं है कि एक पुरुष देह एक स्त्री देह के साथ किस तरह से संचरण करे, ब्रह्मचर्य का पालन तो जीवन का पालन है, ब्रह्मचर्य की शैली तो जीवन की शैली है। और ब्रह्मचर्य का आकर्षण, गुरुत्व और चुंबकत्व यह जो तीनों तत्व व बोध हैं, यह उस श्रेष्ठ चेतना के संस्कारों से पैदा हुए हैं, जहाँ एक ब्रह्म है और ब्रह्म की रची हुई सृष्टि है और उसकी चेतना से जुड़ी हुई जो अन्यान्य सृष्टियाँ पैदा हो रही हैं, जीव-जंतु-जगत प्रकृति-सृष्टि यह जो गुरुत्व है। मानदा का अकेले वो इन सारे गुरुत्वों के साथ अपने आप को जोड़ कर देखती है। वह इन बातों को कहती कहीं नहीं बल्कि जीती है। जीकर दिखाती है, चुनौतियों से लड़ती है, सामना करती है और वहाँ से निकलकर बाहर एक नई औरत के रूप में, एक नई शक्ति के रूप में, एक नए गुरुत्व के रूप में, एक नई दुनिया के रूप में अपनी आत्मकथा के साथ संस्कृतियों के सामने खड़ी होती है।

यों तो मूल बांग्ला में छपी यह आत्मकथा, जिसका हिंदी अनुवाद 85 पृष्ठों की एक लंबी भूमिका के साथ डॉ. मुन्नी गुप्ता ने किया है, अपने आप में एक बेहतरीन दखल है–देश दुनिया के उन हालातों का जब मुल्क आजाद नहीं हुआ था, मगर उससे भी बड़ी बात है, किसी लड़की का वेश्या होकर भी एक विदुषी के बतौर ब्रह्मसमाज और गाँधी आंदोलनों में शिरकत करते हुए अपनी बेबाक राय रखना। साथ ही तत्कालीन समय के बड़े-बड़े रइसों, बुद्धिजीवियों, मुंशियों, लेखकों और  कलाकारों को लेकर खुली चुनौती देना। यह सब मानदा ने अपनी इस आत्मकथा में बखूबी किया। इसे पढ़ने के बाद तमाम बार एक औरत, एक लड़की और एक वेश्या के प्रति हमारे नजरिये में बदलाव आना लाजिमी है।


Image :Young woman writing a letter
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Artist : Albrecht Anker
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अनिल पुष्कर द्वारा भी