समकालीन कविता : परिवेश और मूल्य

समकालीन कविता : परिवेश और मूल्य

राजकिशोर राजन की कविताएँ

राजकिशोर राजन की कविताओं में जीवन के शाश्वत मूल्यों को बचाने के बजाय विघटित होते जीवन को बचाने की अंदरूनी छटपटाहट ज्यादातर दृष्टिगत होती है। आप देखेंगे कि मूल्यों के निरंतर अवगाहन से कविता प्रायः उपदेशपरक और आग्रहशील होने लगती है जो उसे कमजोर बनाती है, पर राजकिशोर राजन कविता के इस क्रियाव्यापार से साफ बच निकलते हैं और मूल्यों के अन्वेषण पर ज्यादा ध्यान नहीं देते, उनका सारा प्रयत्न सीधे जीवन के सत्यान्वेषण पर केंद्रित होता है। यही समकालीन कविताओं की पहचान है जहाँ लोक का आंतरिक यथार्थ और उसकी संचेतना जीवन-मूल्यों के बजाय सीधे परिवेश से ग्रहण करता है जिससे क्षण की तह की सच्चाई कविता में एकदम टटका दिखती है। इसके बावजूद कविकर्म की कार्यसाधना की यह विडंबना है कि जो उससे जीवन-पर्यंत छूट जाता है, वही बची हुई ‘अप्रकाशित’ का यह अंश–‘कुछ आलोचक, विचारक, काव्य-प्रेमी मानते हैं उस कवि को समझने के लिए/महत्त्वपूर्ण है उन्हें पढ़ा जाना/चूँकि यही होता आया है अब तक/प्रकाशित से ज्यादा/कवि रह जाता है/अप्रकाशित’, राजन की एक अन्य कविता ‘भगदड़ में छुटी हुई चप्पलें’ में कवि की संवेदना मन को कुरेदती हुई यथार्थ के उस सिरे को जा पकड़ती है जहाँ बहुत कम कवियों का ध्यान जाता है। ‘माता रोएगी पुत्र के लिए/पुत्र पिता के लिए/प्रेमिकाएँ प्रेमी के लिए और पत्नियाँ पतियों के लिए/पर कोई नहीं रोएगा/भगदड़ में छुटी हुई चप्पलों के लिए।’–यह पाठक के भीतर जो एब्सट्रेक्ट भाव रचती है वह परिवेशगत यथार्थ के वास्तविक संधान का ही प्रतिफल है। ‘टूटी हुई चप्पलें’ कितने बड़े फलक की कविता है, देखने लायक है, क्योंकि दुर्दिन में महज अपने-अपने संबंधी तक सीमित रहकर हमारी आत्मिक संपदा संकुचित रह जाती है, इस अर्थ में यह कविता यहाँ हमारे हृदय को विस्तार देती दिखती है। उपर्युक्त दोनों कविताओं में कवि की चिंता मूल्यगत न होकर परिवेशगत है।

परंपरा, मिथक और इतिहास में जो ‘सु’ है उसे समय की घानी पेरकर उससे मूल्य-तत्त्व को उत्पन्न करता है पर जब मूल्यों को कवि इतना कस कर पकड़ ले कि परिवेश उसकी मुट्ठी से फिसल जाए तो वह लोक के यथार्थ से दूर होने लगता है। उसके आसपास और पूरी दुनिया में जो चिरनवीन क्षण की तह में घटित सत्य है (जिसे हम कविता का खनिज कहते हैं) उसकी पकड़ से बाहर जाने लगता है। परिवेश से दूर जाने की यह पलायन-वृत्ति हम उन कवियों में अधिक देखते हैं जिनमें लोक के सत्य को भोगने का साहस और संघर्ष नहीं होता। उनकी मनोगत दशाएँ अंतर्मुख होती हैं और उनकी काव्य-प्रक्रिया अंदर से बाहर की ओर गमन करती है। उनमें कमरे में बंद होकर कृत्रिम वस्तुओं और किताबी मूल्यों का अवगाहन कर बुर्जुआ-सौंदर्य को रचने की आदत-सी पड़ जाती है जहाँ से साहित्य में रूपवाद का जन्म होता है। मूल्य परिवेश की अभिव्यक्ति का साधन है, वह साध्य नहीं हो सकता। इतिहास और मिथक भी परिवेश के द्वंद्व से ही रगड़ खाकर कविता में अपनी रूपाभा और चमक पाते हैं। इसका अन्यतम उदाहरण राजकिशोर राजन की कविता-पुस्तक ‘कुशीनारा से गुजरते’ है जिससे गुजरना भारतीय मिथक मूल्यों के एक अंध-पथ से गुजरना नहीं, बल्कि परिवेश के उस विस्तार से गुजरना है जिसमें जीवन और चेतना की मानवीय उपस्थिति दीप्त है। युवा कवि राहुल झा ने राजन के इस संग्रह की कविताओं पर इस बावत एक जगह बड़ी उल्लेखनीय बात कही है कि ‘भारतीय मनीषा के अस्तित्वगत चिंतन की महायात्रा में बुद्ध’ की पूर्णकालिक उपस्थिति दरअसल जीवन के संबुद्ध एकांत और विरोधाभासी संसार के भीतरी यथार्थ से सीधा और सहज साक्षात्कार है। राजकिशोर राजन की कविता की धार में पँखुड़ी-सी तैरती दार्शनिकता बुद्ध के जीवन और उनके प्रगल्भ छवि को एक अद्भुत अर्थ देती हुई दिखती है, शायद इसीलिए उनकी कविताएँ जिन जगहों, चीजों, पात्रों के बीच से गुज़रती हैं उनके गहरे मर्म भी साथ लेकर चलती हैं और वह तथागत की संबुद्ध महायात्रा की जमीन पर बीज की तरह पड़ती है और अंततः अपना एक विशिष्ट यथार्थ पाती हैं।…और बेशक उनकी कविता इतिहास और यथार्थ के बीच का एक संगत पुल है और यह पुल इधर या उधर की राह नहीं है। बुद्ध की सम्यक-संबुद्ध महायात्रा पर उनकी ये सारी कविताएँ दरअसल हलचल के भीतर की स्थिरता को देखने की एक भरपूर कैफियत है। इन कविताओं को कवि राहुल झा का देखने का जो तरीका है उसमें परिवेशगत मूल्यों के प्रति उनकी गहरी अंतर्दृष्टि और आग्रह है जो इस संग्रह की कविताओं की काया में प्रवेशकर उनमें उन लोकगत तत्त्वों को ढूँढ़ता है जो कवि राजकिशोर राजन को परिवेश के आत्मसंघर्ष से हासिल हुआ है। परिवेश के साथ मूल्यों का यह संघर्ष ही इनकी कविताओं में प्राण फूँकता है। वरिष्ठ कवि विजेंद्र का काव्य-सौंदर्य संबंधी चिंतन भी इन्हीं बातों को लेकर कविता-जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करता है जिसे वे लोकधर्मिता के विस्तृत फलक से जोड़कर काव्य-मूल्यों को उसी में अंतर्भूत कर देते हैं अर्थात उनके काव्य-संसार में मूल्य परिवेशगत है, उससे अलग नहीं।

हर कवि को परिवेश और मूल्य के बीच के इस अंतर्संघर्ष को जानना और समझना चाहिए। इसे जाने-गुने बिना कोई कवित सही अर्थों में समकालीन नहीं हो सकता क्योंकि समकालीन यथार्थ को केवल मूल्यगत काव्य-वस्तु से समझना-परखना चीजों को दूर किसी टीले पर बैठकर दूरबीन से देखने जैसा है, उसके पास जाकर नहीं।

देखा जाए तो आलोचना और कविता का भारतीय चित्त तुलसी-सूर के काल से ही नहीं, बल्कि हिंदी के उद्भव-काल से ही शाश्वत मूल्यों और परंपराओं के प्रति आग्रहशील रहा है लेकिन जैसे ही कविता साठ के दशक से आगे आई, वह अपना पुराना चोला तेजी से उतारने लगी, कविता की मुक्ति-प्रक्रिया में उसके रूप और कथ्य में ही नहीं, उसकी भाषा में भी अविश्वसनीय परिवर्तन दृष्टिगत हुए। इससे नई कविता में शाश्वत मूल्यों की आग्रहमूलकता न केवल खंडित होने लगी, बल्कि बहुत हद तक इन मूल्यों के प्रति अस्वीकार-भाव भी आने लगे। निरंतर बदलते परिवेश में आदमी के अस्तित्व-संकट के रूप और संघर्ष की प्रकृति भी पहले से भिन्न हो गई। जीवन-संघर्ष के सामने उन मूल्यों की अमरता को एक प्रकार से धक्का लगने लगा जिसे आदिकाल से प्रगतिशील साहित्य तक महाकवियों और मनीषी-आलोचकों ने रच रखा था, अथवा कहें तो पूरे विश्व में आदर्शवाद को ‘यथार्थवाद’ ने समय की चादर से ढँक लिया। इसलिए जीवन-मृत्यु के सिवाय अब और बातें उतनी शाश्वत और टिकाऊ नहीं रही। परिवेश ने पुराने मूल्यों को धीरे-धीरे नए और आधुनिक मूल्यों में बदलना शुरू कर दिया। समकालीन कविता के मूल्यांकन की दृष्टि से कवियों और आलोचकों का यह साझा नया परिवेश जितना विवादास्पद और उत्तेजक है उतना ही महत्त्वपूर्ण और रचनात्मक, जो समकालीन हिंदी कविता की बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है। कवियों की नई पीढ़ी ने एकदम नंगी और बेलौस आवाज और खुरदुरी भाषा में परिवेश के यथार्थ और अंतर्द्वंद्व को व्यक्त करना शुरू किया जिन पर अखबारीपन, रिपोर्ताज, गद्यमयता, सरलीकरण सपाटबयानी, लयहीनता आदि तरह-तरह के आरोप लगने लगे लेकिन बकौल नामवर सिंह ‘वर्तमान की सही पहचान, सूक्ष्म पर्यवेक्षण और अप्रतीकी अभिव्यक्ति’ के कारण वह सार्थक हुई। ‘कहना न होगा कि बिंब और प्रतीक ही एक मात्र रचनात्मक माध्यम नहीं है, नंगे तथ्यों का नाटकीय उपयेाग भी उतना ही रचनात्मक है’ (कविता के नए प्रतिमान : पृ.सं. 206)। लेकिन लोकधर्मी परंपरा के कवि विजेंद्र ने इसके उलट, लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र के आख्यान में अपना तर्क देते हैं कि ‘कविता के सौंदर्यशास्त्र में यह बात प्रमुख है कि हम किसी भाव को कितना संश्लिष्ट बना पाते हैं। जीवन की कोई भी क्रिया सामान्य होकर भी कविता में संश्लिष्ट रूप ले लेती है। बिंब उसी संश्लिष्ट भाव का मूर्तन है। यही वजह है कि कविता बिना बिंब के सतही और इकहरी बनी रहती है। भाषा के चमत्कार और वाग्मिता से संश्लिष्टता पैदा नहीं होती। वह होती है क्रियाशील जीवन, प्रकृति और समाज को गहराई तक समझने से। फिर भावों की संश्लिष्टता तभी आती है जब हम अपनी सामान्य संवेदना को बुद्धिगत बनाकर पुनर्गठित कर लेते हैं। यही काव्य-रस है। कविता के सौंदर्य की सहज प्रक्रिया भी। यह भी लक्ष्य किया जा सकता है कि जब कवि अपना कथ्य और सामाजिक सरोकार बदलता है, सौंदर्यशास्त्र भी बदलता है। कविता के रूप, शिल्प, लय, भंगिमा, भाषा, पद-रचना और स्थापत्य में भी बदलाव होते हैं। पर यह सब कविता में घुलमिल कर ही होता है। बाहर से कुछ टाँका या थोपा नहीं जाता। आदिकवि वाल्मीकि यही कर रहे हैं।’ (सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता, पृ.सं. 80)।

कविता में संश्लिष्ट भावों की मूर्तनता, विचार की भावमयता, काव्य-बिंबों और प्रतीकी अभिव्यक्ति को लेकर दो परस्पर विरोधी स्थापनाओं का परिणाम यह रहा कि जनधर्मी कविता के अंदर दो अलग-अलग प्रवृतियाँ सामने आई। एक तो सपाटबयानी की ओर मुड़ गई जो रूखड़ी और लगभग बिंबरहित भाषा में परिवेश के आंतरिक यथार्थ को व्यक्त करने लगी और दूसरी, बिंब वाली लोकधर्मी कविता-धारा में। हालाँकि विजेंद्र जी ने यह स्वीकार किया है कि जब कवि अपना कथ्य और सामाजिक सरोकार बदलता है, सौंदर्यशास्त्र भी बदलता है। कविता के रूप, शिल्प, लय, भंगिमा, भाषा, पद-रचना और स्थापत्य में भी बदलाव होते हैं। लेकिन उनकी पक्षधरता काव्य-बिंब की ओर है। यहाँ यह महसूस किया जा सकता है कि विजेंद्र जी का ‘परिवेश’ काव्य-बिंबों से बना वह सक्रिय-सचेतनजन (अभिजन नहीं) का लोक है जो इंद्रियबोध की राह से होकर गुजरता है अर्थात उनकी कविता की दुनिया दृश्य-श्रव्य-स्पर्श-गंध से प्रतिकृत और प्रकृति के धूप-धूल-ताप-जल-रश्मि-वायु आदि उपकरणों से युक्त है। जबकि नामवर सिंह ‘सापेक्ष स्वतंत्रता’ के साथ कविता की एक स्वायत्त दुनिया रचने की वकालत करते हैं और कोई भी सेंसर लगाने के पक्षधर नहीं हैं। उनकी इस खुलेपन और उदारवाद आलोचना-दृष्टि से जहाँ एक ओर जनधर्मी कविताओं के विकास को व्यापक पाट मिला, कविता में नए ‘डाइमेंशन्स’ का उदय हुआ, कविता का सपाटबयानी शैली में उत्कृष्ट रचनाओं का सृजन हुआ, वहीं दूसरी ओर कविता में रूपवादी झुकाव और बुर्जुआ-सौंदर्य को भी तवज्जो मिली जो स्वभाव से लगभग अभिजनवादी है यानी कविता के अपने प्रतिमान-पाश में ही नामवर जी ने कविता के विष-तत्त्व भी छिपा रखे हैं। अपने प्रतिमान के द्वितीय संस्करण की भूमिका में इस पर उन्होंने जो स्पष्टीकरण दिए हैं उसे पढ़कर यही लगता है कि रूपवाद को कविता के प्रतिमान में अभिव्यक्ति जानबूझ कर नहीं दी थी। कविता में मूल्य की प्रासंगिकता पर गहरी बात करते हुए आगे कहते हैं कि ‘निःसंदेह किसी कविता का सिरजा हुआ संसार कितना वास्तविक है अथवा वास्तविकता के बारे में हमारी समझ को कितना गहरा और कितना समृद्ध करता है, हमारे आसपास के संसार को अर्थ प्रदान करने में ही किसी कविता के अपने संसार की सार्थकता है। वास्तविकता की इस अर्थ-भूमि पर ही मूल्यों का सच्चा संघर्ष होता है।’ (कविता के नए प्रतिमान : पृ.सं. 217)। यहाँ ‘सिरजा हुआ संसार’ का मतलब कवि के परिवेश यानी कविता-लोक से है। स्पष्टतः उनके परिवेश का दृष्टिकोण विशुद्ध यथार्थवादी है और ‘मूल्य’ का खनिज भी वह वहीं से लेते हैं। उसमें बिंबों-प्रतीकों का महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं। कविता में बिंबों को लेकर उनकी चुप्पी से उनकी ‘अप्रतीकी अभिव्यक्ति’ की पक्षधरता साफ झलकती है। तब संतोष की बात यह है कि इन दोनों विपरीत ध्रुवों की स्थापनाओं का लक्ष्य सर्वदा एक ही रहा है। वह है जनधर्मिता।

अगर इन स्थापनाओं के मध्य नब्बे के दशक से आगे समकालीन कवियों की कविताओं को रखकर बात करें तो यह साफ झलकता है कि उनके काव्य-संसार का परिवेश न तो केवल काव्य-बिंबों और प्रतीकों से बना है न मात्र सपाट शैली की अप्रतिकी अभिव्यक्ति से। सच्चाई तो यह है कि कोई भी कवि न पूरा सपाट होता है, न पूरा बिंबों का धनी। सबमें न्यूनाधिक दोनों बातें पाई जाती हैं जिसे नकारा नहीं जा सकता। लेकिन अभी लोकधर्मी प्रतिमान के अंतर्गत ये वर्जनाएँ या सेंसर्स सक्रिय हैं जो जनधर्मी रचनाओं की सही और निष्पक्ष समीक्षा से आलोचकों को रोक रही है। फिर भी इन वर्जनाओं की परवाह किए बिना नब्बे के दशक से अब तक के लोकधर्मी कवियों ने जो कविताएँ रची, वे अपने रूप, कथ्य, अभिव्यक्ति के ढंग और उसकी भंगिमा, अंतरलय, सरोकार की गहराई व व्यापकता और सबसे बड़ी बात कि जनसंघर्ष की लहक के कारण जनधर्मी कविताओं में शुमार हुई हैं। इनमें एक बेहद महत्त्वपूर्ण नाम है–राजकिशोर राजन, जिनकी कविताएँ विमर्श के केंद्र में है।

राजकिशोर राजन की कविता में जब मिथक कवि के परिवेश में अपना स्वरूप ग्रहण करता है तो वहाँ भी यह बात साफ तौर पर घटित होती है। ‘कुशीनारा से गुजरते’ संग्रह की पहली कविता ‘कला और बुद्ध’ को देखिए, सौंदर्य संधान में किसी प्रतिमान की आवश्यकता नहीं पर मन के बीहड़ में प्रवेश करती है–‘सौंदर्य तो पात-पात में/क्या देखन पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण/ऊपर-नीचे/वह नित  परिवर्तित सौंदर्य/है कण-कण में विद्यमान/वही सत्य का आधार/जिसका, न आर-न-पार/जो कर लेता/अपने हृदय में/उस अप्रतिम सौंदर्य का संधान/कला करती उसी का अभिषेक/करती उसी का सम्मान/जब तक, इसका नहीं ज्ञान/नहीं तब तक, सकल मान-अभिमान’। मिथ का सोना कवि के परिवेश की भाँथी में गलकर वर्तमान के द्वंद से कितना टकराता है और दमकता है, देखिए ‘बैर’ कविता का एक अंश–‘परसों ही एक पड़ोसी ने मुझे छला था उसके बाद देर तक मैं क्या-क्या सोचते गला था…क्यों नहीं लौटा दिया उसे, जिससे लिया बैर से, स्वयं को भरता रहा।’ यह कविता अपने कथ्य में जितना प्राचीन है, भाव में उतना ही अर्वाचीन अर्थात क्षण का सूक्ष्म निरीक्षण। जगत के वैर-भाव का तथागतीकरण। मिथक-मूल्य के उपकरण से वर्तमान का अवगाहन कविता में बहुत ही जटिल और श्रमसाध्य कार्य होता है जिसे कवि राजकिशोर ने बखूबी किया है, यही वस्तु का पुनः सृजन है जो विशिष्टता का सर्वव्यापीकरण करता है, जब वस्तु बिल्कुल वही नहीं होती जो उसका मूल स्वरूप है बल्कि कवि के परिवेश यानी आभ्यांतर से प्रतिकृत होकर नए संघटन में पुनर्रचित हो जाती है और तब सृजन जन-संप्रेष्य हो जाता है जो उसकी सफलता है।

अक्षत दुनिया कभी किसी कवि का काव्य-संसार नहीं होती। जब काव्य-संसार की बात कर रहे होते हैं तो यह कवि द्वारा आत्मसात किया हुआ उसके परिवेश का वह हिस्सा है जो उस परिवेश से निष्पन्न होकर भी उससे भिन्न होता है। जैसे सब व्यक्तियों का चेहरा एक सा नहीं होता, उनका स्वभाव एक सा नहीं होता, उसी प्रकार एक जगह, एक भौगोलिक परिवेश में रहते हुए भी कवियों के आपसी रचना-परिवेश में वैयक्तिक भिन्नता होती है। अगर किसी कवि में रचनाशीलता नहीं दिखती है तो इसका मतलब यह है कि कवि ने काव्य-वस्तु को मूल परिवेश से ज्यों का त्यों उठा लिया है, गृहित परिवेश की अर्थवत्ता के संधान का प्रयास कवि के द्वारा नहीं किया गया अर्थात वस्तु के ‘पुनर्सृजन’ में चूक हुई है। साहित्य का यथार्थ अखबारी समाचार की तरह नहीं होता बल्कि रचनाकार द्वारा भुक्त यथार्थ की पुनर्रचना होती है, यह परिवेश का नकल मात्र भी नहीं होता। परिवेश की पुनर्रचना, कवि की जीवन-दृष्टि, आत्मसातीकरण की क्षमता, इंद्रियबोध की प्रखरता और जीवनानुभव से बनती है। हमें राजकिशोर राजन की कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि उनका काव्य-परिवेश लोकजीवन का वह देखा-सुना-भोगा हुआ यथार्थ है जिसमें कविता ‘गरीबों की हूक’ और किरकिराती आँखों में ‘फूँक’ की तरह महसूस होती है, कहीं वह ‘आँखों का पानी’ बनकर तो कहीं प्रेम और जादू का रूप बनकर आती है जिसमें कवि की ‘पृथ्वी घूमती है अपनी वृत्त पर’। यहाँ कवि के लोक का विद्रूप स्वर भी उतना ही मुखर है–‘खुरपी और हँसुआ से भी तेज है बोली, पता नहीं, कब, किस बात पर चल जाए लाठी-गोली, दरिद्रता में भी हठी बेजोड़, एक कट्ठा खेत में डाली जाती, कितनी राजनीति की खाद, कभी जानना हो तो पधारिए हम्मर गाँव’–कविता ‘पधारिए हम्मर गाँव’ से। कहना न होगा कि कवि का परिवेश वह जीती-जागती जगह है जिसमें अस्तित्व के लिए अंतद्वंद्व और जद्दोजहद पूरे स्वरित तेवर में मौजूद हैं। इसमें आदमी के श्रम का औजार ‘हँसुआ और खुरपी’ ही नहीं, बदरंग होते समाज में हिंसा-प्रतिहिंसा की प्रतिध्वनियाँ भी हैं अर्थात कहीं ‘गोली और लाठी’ है तो कहीं जल बिन ‘छूँछ’ और ‘बेरौनक होती नदियाँ’। कहने का तात्पर्य यह है कि उनके काव्य-संसार में कविताएँ उसी तरह पक रही है जैसे समय की धौंकनी में खेतों में धान पकती है। इसमें जीवन प्राकृतिक ऊष्मा और पूरी गति के साथ में उपस्थित और दीप्त है।

राजकिशोर राजन कविता में मूल्यों के गढ़ने के आदी नहीं, वहाँ कविता का परिवेश ही एक ऐसे दुर्निवार समय का आख्यान रचना है जिसमें मूल्य स्वयं परिवेशगत हो जाता है और जन से लेकर प्रकृति तक लोकजीवन की अविकल अंदरूनी व्यग्रता दीखती है–गोया कि, वहाँ नदियों का समुद्र से मिलने की इच्छा खत्म हो चुकी है, कोयल कूकना बंद कर चुकी है, तितलियों में चपलता नहीं रही, हँसी भी दिल से नहीं, दिमाग से आने लगी है और यह सब देखते-सुनते कवि भी अब बूढ़ा हो रहा है पर जिजीविषा मरी नहीं है, वह उद्वीप्त है स्फुट चिंगारियों की तरह। उनके लेखक का मूल्य लोक से संपृक्त होकर कितना समसामयिक और जीवन की गतिकी से भर उठता है, यह आप इस कविता के सहारे देख सकते हैं : ‘मिट्टी में पड़ा धान–ठीक नहीं लगता, जब दादी चुनती, मिट्टी से धान का एक-एक दाना/अक्सर दादी से कहता, क्या इतने गरीब हैं हम कि तुम नाखुनों से उठाती हो धान/परंतु दादी बुरा मान जाती और हम मिट्टी से चुनने लगते धान/उन दिनों बैलों को भर दुपहरिया, गोल-गोल चलना पड़ता धान के पुआल पर/हम भी चलते गोल-गोल जैसे पृथ्वी को नाप लेंगे आज ही/सन जाते हाथ-पैर, कपड़े, पसीने-मिट्टी से/होने लगती साँझ/तब दादी को आता हम पर दुलार/चूम लेती हमारा माथा और बताती, मिट्टी में पड़ा धान रोता है बेटा कि मिट्टी से आए और मिट्टी में मिल गए/तब बरकत नहीं होती किसान की/नहीं रही दादी पर/मिट्टी में पड़ा धान/आज भी दिखाई देता है रोते’ अन्न के बर्बाद न करने का यह पुराना ‘मिथ’ लोक-बिंब के जिस ऐंद्रिक रचाव और ‘पोएटिक विजन’ के साथ पाठक के अंतस्तल को छूता है, मिथ का मूल्य जिस तरह परिवेश के तत्त्व में नहीं, कथ्य बिंब को स्वभावतः रचते हैं। देशज भंगिमा और संवेदना की नव्यता राजन के कविता-संसार में अँटा पड़ा है, फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘रसप्रिया’ में कवि ने उसी भंगिमा का कविता-रूप में नवोन्मेष किया है जहाँ अपरूप प्रेम की प्रतिच्छाया पाठक के मन को हिलोर कर रख देती है, देखिए–‘असमाप्त ही रह जाती है रसपिरिया की कथा/रह-रह फूटती, मिरदंगिया की हूक/कि रसपिरिया नहीं सुनेगा मोहना, देख न/आ गया कैसा कठकरेज वक्त कि पहले रिमझिम वर्षा में लोग गाते बारहमासा/चिलचिलाती धूप में बिरहा, चाँचर, लगनी/अब तो भूलने लगी है कूकना कोयल भी/पंचकौड़ी मिरदंगिया को पता होगा जरूर/अगर परमात्मा कहीं होगा, तो होगा रस-रूप ही/तभी तो टेढ़ी उँगली लिए/बजाता रहा आजीवन मृदंग और इस मृदंग के साथ फूटता रहा रमपतिया का करुण-क्रंदन/कि मिरदंगिया है झूठा! बेईमान! फरेबी/ऐसे लोगों के साथ हेलमेल ठीक नहीं बेटा/भौचक है मोहना! ठीक मेरी तरह’ इस अपरूप प्रेम की कथा में अनुभवसिक्त परंपरा मूल संबंधों के रूप में कवि के यहाँ इस कदर ढलता है कि कवि पूछता भी है : ‘मेरा तो मानना है ऐसे अनुभव को ले तुम ओढ़ोगे कि बिछाओगे, खाओगे कि नहाओगे…, दादा की अनुभवी आँखों में कितनी घृणा थी अनुभव से कि जब कोई बच्चा उन्हें चिढ़ाता मुँह, वे उसे न समझाते, न गुस्साते, चिढ़ाने लगते मुँह।’ लेकिन ‘पेट की आग’ से बेफिक्र लोग भी वहाँ हैं जहाँ कविता गहरी व्यंग्यात्मक अभिव्यंजना के साथ व्यक्त होती है कि ‘जो पेट से बेफिक्र हैं/घूम रहे झक्क-सफेद दिल्ली-पटना, लगाने को आग/मनुष्य का दिपदिपाता हुआ मुखमंडल/तब स्याह हो जाता है।’ लेकिन फिर भी कवि की प्रतिबद्धता बनी रहती है और ‘रसूखदार आदमी के प्रश्न पर’ कवि कहता है कि ‘गनीमत है, कम से कम एक कविता तो आप से छूट गई। कवि का यह प्रतिबद्ध संसार उस लोक का हिस्सा है जिसमें पृथ्वी के पेड़ उनके पुरखों की तरह हैं और खेतों की फसलें उनके सपनों की तरह। यह चिंतन कवि को अपनी जगह पर रहते हुए उसे वैश्विक बनाता है जिसमें पूरी पृथ्वी पर जीवन को किसी तरह बचाने की चिंता आत्मगत है। अपनी मिट्टी और भाषा से कवि का राग इतना गहरा और लोक-प्रसूत है कि दुःख के कठिन समय में भी वह उससे अलगना नहीं ‘कोड़ते-सोहते, ढेला फोड़ते धान, सरसों, गन्ना रोपते जिस मिट्टी में/मिल गए दादा भी/इसी मिट्टी में जन्म लूँगा मैं’। कविता की दुनिया में कवि-कर्म की यह प्रतिबद्धता और अधिक पारदर्शी हो जाती है–‘और मेरी कविताएँ ठीक मेरी तरह/न उनमें आलंकारिक भाषा, न चमत्कार/न कलात्मकता का वैभव, न बौद्धिकों के लिए यथेष्ट खुराक तो मैं क्या करुँ’–एक बात यह भी यहाँ दीगर है कि कवि के नदी का जल सूख चुका है, नदी के विलाप में पूरी प्रकृति और लोकजीवन का विलाप है। सूक्ष्मता से, संकेत में इस जलाभाव को लक्ष्य करते हुए कवि ने लोकजीवन के सर्वग्रासी त्रास का जो बिंब इस कविता में रचा है, वह परिवेश की तात्कालिकता का अर्थगर्भी चित्रण है, देखिए इसका एक अंश–कविता : ‘नदी का विलाप’, ‘चिरई-चुरूँग उड़ना भूल जैसे ठिठके पड़े हैं पेड़ों पर…होने को है साँझ और गाँव के सिवान पर सन्नाटे में बरस नहीं है उदासी रात्रि के प्रथम प्रहर में करती है नदी रोज धरती से गुहार, आज भी उसके रूदन से फटेगी धरती, आँसू पोंछते कहेगी वह कितनी असहाय, न कुदाल, न ट्रैक्टर, न मजदूर, न किसान, कोई नहीं सुनता उसकी बात, सभी काट-कोड़ उसे बना रहे खेत, हर दिन सूर्यास्त के साथ, हो रहा उसका अस्तित्व समाप्त…तुम्हें भरोसा है किताबों पर। पर, नदी पर नहीं, उस दिन समझोगे जब नदी की आँखें हो जाएगी कोटरलीन।’ कवि अब भी अच्छे दिनों की आश में है, उसमें जीवन के वसंत की अदम्य लालसा है और अनवरत खोज भी, एक चीत्कार भी है, एक पुकार भी–‘हाँ’! वसंत! हो वसंत! जो वसंत! तुम कहाँ किस अरण्य में गए हो वसंत।’

हमें यह कहने में सकुचाहट नहीं कि युवा कवि राजकिशोर राजन का काव्य-परिवेश, प्रकृति और मानवीय अंतर्संबंधों के यथार्थ के मध्य दुर्निवार दुःख-तंत्र और उसके अंतःसंघर्ष की वह काव्य-कथा है जो सहज भाषा में लोकजीवन की संश्लिष्ट और अविकल अर्थ-छवियाँ रचती हैं। इनसे होकर गुजरना लोक के समकालीन स्पंदन के बीच से गुजरते हुए लोक से अपने को पुनर्नवा करने जैसा है।


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Artist : Jindrich Styrsky
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