अज्ञेय के उपन्यासों में संस्कृती विमर्श

अज्ञेय के उपन्यासों में संस्कृती विमर्श

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हिंदी के बहुआयामी प्रतिभा संपन्न विवादास्पद लेखक हैं। प्रेमचंदोत्तर काल में ‘गोदान’ के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के बाद मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद की प्रभावछाया में साहित्य का एक बड़ा भाग आ जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध की छाया, भारतीय स्वाधीनता संग्राम, साहित्य में पश्चिमी प्रभाव की छाया, किशोर से युवा के बीच के कालखंड, युवा मन के अंतर्द्वंद्व, अहंकार, विद्रोह और सेक्स की नकारने-स्वीकारने की स्थितियाँ, रूमानियत से लबरेज तरल लाक्षणिक विडंबनात्मक व्यंजना में रचे-बसे हैं।

संस्कृति के दो पक्ष हैं–आधिभौतिक संस्कृति और भौतिक संस्कृति। सामान्यतः आधिभौतिक संस्कृति को ‘संस्कृति’ और भौतिक संस्कृति को ‘सभ्यता’ के नाम से अभिहित किया जाता है। ‘संस्कृति’ आभ्यंतर है, इसमें परंपरागत चिंतन कलात्मक अनुभूति, विस्तृत ज्ञान एवं धार्मिक आस्था का समावेश होता है। ‘सभ्यता’ से किसी संस्कृति की बाहरी चरम अवस्था का बोध होता है। संस्कृति विस्तार है तो सभ्यता कठोर स्थिरता। सभ्यता में भौतिक पक्ष प्रधान है जबकि संस्कृति में वैचारिक पक्ष प्रबल होता है। यदि सभ्यता शरीर है तो संस्कृति उसकी आत्मा। सभ्यता यह बताती है कि ‘हमारे पास क्या है’ और संस्कृति यह बताती है कि ‘हम क्या हैं’। गिलिन के अनुसार–‘सभ्यता संस्कृति का अधिक जटिल तथा विकसित रूप है।’ भारतीय संस्कृति व्यक्ति-समाज-राष्ट्र के जीवन को सिंचित कर उसे पल्लवित-पुष्पित फलयुक्त बनाने वाली अमृत स्रोतस्विनी चिरप्रवाहिता सरिता है। भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीनतम संस्कृति है।

संस्कृति के संबंध में अज्ञेय की मान्यता है कि ‘संस्कृति न केवल बुर्जुआ है, न प्रगति विरोधी है, वह समाज को स्थायित्त्व तो देती है तो यह अर्थ नहीं है कि वह उसे स्थितिशील बनाती है। संस्कृति एक कब्र नहीं है, वह तो जीवन है जिस पर पैर टेके बिना प्रगति हो ही नहीं सकती।’

सामाजिक जीवन, धार्मिक जीवन, राजनीतिक व आर्थिक जीवन सभी में भारतीय संस्कृति देखने को मिलती है। एक ओर जहाँ सामाजिक जीवन में वर्ण, जाति, आश्रम, परिवार, विवाह, आदर्श सतीत्व, भाई-बहन के प्रेम, माता-पुत्री के प्रेम, परोपकार, सेवा, धर्म, त्याग, सत्य आदि का आदर्श पेश किया जाता है वहीं धार्मिक जीवन में सभ्यता, संस्कृति, लोकविश्वास, भूत-प्रेत, देवी-देवताओं की पूजा, व्रत-त्यौहार, शकुन-अपशकुन, अंधविश्वास, पुनर्जन्म, जादू-टोना, भाग्यवाद, कर्मवाद, दान-पुण्य आदि भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है। आर्थिक और राजनैतिक संस्कृति में आर्थिक संकट, बेरोजगारी, किसान जीवन की साध, आत्मसम्मान की अभिव्यंजना होती है वहीं देशभक्ति, अँग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ना, मुगलों के अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष, आंदोलन और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्राण तक न्योछावर कर देना हमारी संस्कृति रही है। अतः हमारी भारतीय संस्कृति में प्रधान रूप में धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञान और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है।

अज्ञेय के विस्तृत और वैविध्यपूर्ण जीवनानुभव उनकी रचनाओं में यथार्थवादी ढंग से अभिव्यक्त हुए हैं। उनकी रचनाओं में उनके जीवन के विभिन्न कालों की संवेदना तो अभिव्यक्त हुई ही है, रचनाकालीन जीवन यथार्थ भी अपने पूर्ण रूप में अभिव्यक्ति पा सका है। करीब तीन दशक तक फैले अपने रचना संसार में अज्ञेय ने तीन उपन्यास लिखे–‘शेखर : एक जीवनी’ (दो भाग) ‘नदी के द्वीप’ और ‘अपने-अपने अजनबी’।

‘शेखर : एक जीवनी’ सन् 1941 में प्रकाशित अज्ञेय का एक कालजयी उपन्यास है। इसकी भूमिका में लेखक लिखते हैं कि जेल के स्थगित जीवन में केवल एक रात में महसूस की गई घनीभूत वेदना का ही शब्दबद्ध विस्तार है ये उपन्यास। शेखर जन्मजात विद्रोही है, वह परिवार, समाज, व्यवस्था, तथाकथित मर्यादा सबके प्रति विद्रोह करता है। वह स्वतंत्रता का आग्रही है और वह व्यक्ति की स्वतंत्रता को उसके विकास के लिए बेहद जरूरी मानता है। डॉ. हरेन्द्र प्रसाद सिन्हा के अनुसार–‘शेखर प्रत्येक परंपरा और रुढ़ियों को नकारता है। उसका विद्रोह बहुमुखी है–सामाजिक स्तर पर भी, धार्मिक स्तर पर भी, राजनीतिक स्तर पर भी, साहित्यिक स्तर पर भी और यहाँ तक कि अपने निजी स्तर पर भी।’ शेखर समाज की परंपरागत मान्यताओं, अंधविश्वासों आदि कुरीतियों पर सीधा कुठाराघात करता है। वह परिवार, समाज, देश और ईश्वर के प्रति पूर्णतः उदासीन रहा है। ‘शेखर : एक जीवनी’ नीत्से के अनास्थामूलक अस्तित्ववाद से सर्वाधिक प्रभावित है। ईश्वर के प्रति घोर नकारात्मक दृष्टि, समाज से विद्रोह, अकेलेपन की घुटन, व्यक्ति-स्वातंत्र्य की खोज, क्षणजीविता और आत्म-साक्षात्कार जैसी अस्तित्ववादी प्रवृतियाँ इसमें दिखाई पड़ती है। इस उपन्यास में तीन दर्शनों का प्रभाव एवं उनकी अभिव्यक्ति मिलती है। वे हैं–अस्तित्ववाद, बौद्ध-दर्शन का दुखवाद तथा मनो विश्लेषणवाद या फ्रायड चिंतनधारा। नायक शेखर के व्यक्तित्व का विकास फ्रायडियन मनोविज्ञान के द्वारा हुआ है जिसका विश्लेषण अज्ञेय जी ने बड़े ही सूक्ष्म तरीके से किया है। मनोविज्ञान व्यक्ति की काम चेतना, उसकी स्वतंत्रता तथा अहम् भावना को ही अधिक महत्त्व देता है। काम के क्षेत्र में ही उसका विद्रोह प्रकाष्ठा पर है और वही लेखक का मुख्य लक्ष्य भी लगता है। प्रेमी-प्रेमिका के बीच स्वस्थ प्रेम के संबंध में कहता है–‘मूल समस्या सामंजस्य की है, प्यार एक आकर्षण है, एक शक्ति है, जिसमें जीवन की स्थितिशीलता विचलित हो जाती है।‘ शशि के प्रसंग में वह तमाम नैतिकताओं और आदर्शों को अस्वीकार कर देता है। शेखर एक जगह शशि से कहता है–‘कब से तुम्हें बहन कहता आया हूँ, लेकिन बहन जितनी पास होती है, उतनी पास तुम नहीं हो और जितनी दूर होती है, उतनी दूर भी नहीं हो।’ ये भारतीय उपन्यास में स्त्री-पुरुष संबंधों की एक नई अभिव्यक्ति है। भाई-बहन के संबंधों के बने-बनाए सामाजिक ढाँचे से काफी आगे निकलकर मानवीय संबंधों को एक नई परिभाषा दी है। यह भारतीय संस्कृति के विरुद्ध लगता है।

इस उपन्यास में शेखर एक निहायत ईमानदार व्यक्ति है। अपनी अनुभूतियों और जिज्ञासाओं के प्रति बेहद ईमानदार है। जीवन की नई-नई परिस्थितियों में उसके मन में कई सवाल उठते हैं और वह अनुभव करता चलता है, सीखता चलता है। अपने आपको पहचानता है और इसके लिए भाषा का चयन करता है। अज्ञेय जी एक जगह भाषा और समाज के आंतरिक एवं बाह्य संबंधों पर सूक्ष्मता से विचार करते हुए कहते हैं–‘मेरी दृष्टि में भाषा मात्र मनुष्य होने की पहचान और शर्त है। भाषा के बिना मनुष्य नहीं होता, पशु से मनुष्य के विकास में भाषा ही वह सीढ़ी है जिसको पार करके वह मनुष्यत्त्व को प्राप्त करता है।’ वे और स्पष्ट करते हुए लिखते हैं–‘बिना इसके किसी समाज में अपनी अस्मिता की पहचान नहीं हो सकती। सबसे पहले भाषा अपने आप को पहचानने का साधन है।’ इसी पहचान के कारण वह अँग्रेजी की बजाय हिंदी में लेखन करना चाहता है क्योंकि अँग्रेजी से उसे दासता की अनुभूति होती है। यहाँ संस्कृति दृष्टिगोचर होती है। प्रेमचंद के ‘गोदान’ का पात्र ‘गोबर’ की संवेदना का ही स्वाभाविक विकास अज्ञेय का ‘शेखर’ है जो अपने अंतर्मन की आवाज सुनता है और वही करता है जिसकी गवाही उसका विवेक देता है। वह खुले तौर पर क्रांतिकारी है। नैतिक-अनैतिक की प्रवाह यहाँ बिल्कुल नहीं है। ऐसा क्रांतिकारी चरित्र तब के साहित्य में बहुत दुर्लभ था। कुल मिलाकर भारतीय सभ्यता और संस्कृति से लगाव इस उपन्यास में न के बराबर है, हर जगह उसकी परंपरागत अवधारणाओं को तोड़ने का ही प्रयास किया गया है, बस एक गुलाम देश और समाज के प्रति विद्रोह की भावना झलकती है जहाँ अपनी देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम दिखाई पड़ते हैं।

अज्ञेय संस्कृति का सबसे शक्तिशाली और समृद्ध उपकरण ‘भाषा’ को मानते हैं। उनके अनुसार भाषा की तीन शक्तियाँ हैं–अपनी अस्मिता की पहचान, मूल्यबोध की संभावना और यथार्थ की पहचान। इस संबंध में भाषा के सूत्र दृष्टव्य हैं–‘भाषा संस्कृति का सर्वाधिक शक्तिशाली और समृद्ध उपकरण है क्योंकि यह संगीत और संबंध के बोध का सबसे महत्त्वपूर्ण वाहक है। वस्तुतः हम जो भाषा बोलते हैं, उसके द्वार चुन लिए जाते हैं। एक निर्दिष्ट स्थान और धर्म पा लेते हैं और निबाहने को स्वतंत्र हो जाते हैं।’ इस तरह देखें तो ‘शेखर : एक जीवनी’ में संस्कृति की झलक मिलती है।

अज्ञेय का दूसरा उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ है। इसका प्रकाशन 1951 ई. में हुआ। यह भी एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास है जिसमें एक तरह से यौन-संबंधों को केंद्र बनाया गया है। भुवन, रेखा, गौरा और चंद्रमाधव इस उपन्यास के प्रमुख पात्र हैं। हेमेंद्र और रमेशचंद्र गौण पात्र हैं। रेखा एक शिक्षित परित्यक्ता स्त्री है, भुवन प्रोफेसर है। गौरा भुवन की छात्रा है। हेमेंद्र रेखा का पति है जो केवल उसे पाना चाहता है, जब वह पाकर भी हासिल नहीं कर पाता तो उसे छोड़ देता है। डॉ. रमेशचंद्र रेखा का नया पति है जो एक सुलझा हुआ इनसान है। इस उपन्यास में घटनाएँ बहुत कम है, कारण उपन्यास के पात्र बाहर बहुत कम जीते हैं। वे ज्यादातर आत्ममंथन या आत्मालाप कर रहे होते हैं। ये ऐसे संवेदनशील पात्र हैं कि बाहर की जिंदगी की हल्की सी छुअन इन्हें भीतर तक हिला देती है। उपन्यासकार ने इसी आंतरिक जिंदगी को विभिन्न बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से उभारने का प्रयास किया है।

भुवन रेखा और गौरा दोनों के करीब है। सभी पात्र मध्यवर्गीय संवेदना से पूर्ण आधुनिकता बोध वाले बुद्धिजीवी पात्र हैं। ये सभी भीतर ही भीतर अपनी भावनाओं को दबाए रहते हैं। उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाते। इस उपन्यास में व्यक्ति नदी के द्वीप की तरह है। चारों तरफ से नदी की धारा से घिरा, लेकिन फिर भी अकेला और अपनी सत्ता में स्वतंत्र। रेखा और भुवन एक दूसरे के प्रति आकृष्ट हैं। दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी है लेकिन रेखा भुवन को छोड़कर रमेशचंद से विवाह करती है। गौरा और भुवन के बीच भी आकर्षण है लेकिन वे उसे सही रूप में व्यक्त नहीं कर पाते।

प्रस्तुत उपन्यास पर पाश्चात्य जीवन का प्रभाव पड़ा है जो हमारी संस्कृति से मेल नहीं खाती। इसमें भोगवादी संस्कृति और वासनात्मक प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है। नैतिकता और आदर्श प्रेम को ठोकर मारकर व्यक्ति स्वातंत्र्य की ओर अग्रसर जान पड़ता है। इसके सभी पात्र अपने मन की दशा का सौंदर्य निहारते हैं। यहाँ आचार्य रामचंद्र शुक्ल की युक्ति चरितार्थ होती है–‘मन की दर्शनवृत्ति की रागात्मिक दशा ही सौंदर्य की अनुभूति कहलाती है।’ इस तरह मन की स्थिति बस आत्म-मंथन और आत्मालाप वाली है। नैतिकता के तकाजे यहाँ बहुत ही कम हैं। यहाँ हर एक का एकांत अपना एकांत है। हर एक पात्र ‘नदी का द्वीप’ है।

सन् 1961 में प्रकाशित अज्ञेय का तीसरा उपन्यास ‘अपने-अपने अजनबी’ है। इस उपन्यास में एकांत और गहराता नजर आता है। यहाँ नैतिक-अनैतिक का सवाल थम जाता है और दार्शनिकता गहरी हो जाती है। हाइडेगर के पश्चिमी अस्तित्ववादी दर्शन पर आधारित इस उपन्यास में सेल्मा और योके दो प्रमुख पात्र हैं। सेल्मा मृत्यु के निकट कैंसर से पीड़ित एक वृद्ध महिला है और योके एक नवयुवती। दोनों को बर्फ से ढके एक घर में साथ रहने पर मजबूर होना पड़ता है, जहाँ जीवन पूरी तरह स्थगित है। इस उपन्यास में दो इनसानों की बातचीत के जरिये यह समझाने की कोशिश की गई है कि व्यक्ति के पास वरण की स्वतंत्रता नहीं होती। न तो वह अपने मुताबिक जीवन चुन सकता है और न ही मृत्यु। सेल्मा मृत्यु के करीब है, लेकिन फिर भी जीवन से भरी हुई है। जबकि योके युवती है, जीवन में उसे बहुत कुछ देखना बाकी है, लेकिन मृत्यु के भय से वह इतना अक्रांत है कि जीते जी भी उसका आचरण मृत के समान है। वह घोर निराशा के अँधेरे में डूब जाती है। योके बार-बार सेल्मा से कहती है–व्यक्ति चुनने के लिए स्वतंत्र होता है। इस उपन्यास में जब वृद्ध सेल्मा की मृत्यु हो जाती है तो युवती योके बर्फ के ढके घर से किसी तरह बाहर निकल जाती है। आखिर में वह व्यक्ति चुनने की स्वतंत्रता की खोज करते हुए जहर खाकर आत्महत्या कर लेती है। उसने जो चाहा वो चुन लिया। बहुत ही छोटे कथानक के माध्यम से अज्ञेय ने इस उपन्यास में अस्तित्ववाद की पश्चिमी निराशावादी व्याख्या में भारतीय आस्थावादी व्याख्या को जोड़ने का प्रयास किया है।

अज्ञेय ने अपने इन तीनों ही उपन्यासों में भारतीय औपन्यासिक विकास को एक नई ऊँचाई दी है। ‘शेखर : एक जीवनी’ जहाँ व्यक्ति स्वतंत्रता की अनुभूति और अभिव्यक्ति की एक मार्मिक यथार्थवादी अभिव्यक्ति है, वहीं ‘नदी के द्वीप’ प्रतीकात्मक शैली में की गई रचना, जबकि ‘अपने-अपने अजनबी’ मृत्यु के आतंक के बीच जीवन जीने की कला का यथार्थवादी दस्तावेज है, जिसे हिंदी अस्तित्ववादी प्रवृत्ति की संज्ञा दी गई है। इन उपन्यासों में अज्ञेय ने भाषा की श्रेष्ठता और उसमें नए-नए प्रयोग करके भाषा को एक नया संस्कार दिया है। अंततः अज्ञेय ने अपने तीनों उपन्यासों के द्वारा भारतीय संस्कृति को नए रूप में विकसित किया है।


Image: Kalighat Painting
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