दलित चिंतन की स्वतंत्रता

दलित चिंतन की स्वतंत्रता

व्याख्यान

शुरुआत यह कह कर की जाए कि दूसरों से संबंधित होकर दलित चिंतन कभी व्यक्तिवादी नहीं हो सकता। हर दलित एक व्यक्ति होता है, उसे मृत्यु के विषय से संसार के हर अन्य मनुष्य की तरह जूझना होता है, पर उसके जीने की समस्या सामूहिक है। यदि वह किसी के लिए अछूत है तो उसकी पूरी जाति अछूत है और यदि वह अपमानित हो रहा है तो उसकी बिरादरी के सारे लोग अपमानित हो रहे हैं। इसलिए, यदि दलित चिंतन में सामूहिकता नहीं है तो वह दलित चिंतन नहीं है। उसे इस अभिशाप का सामना इस रूप में करना है कि वह बहुतों के लिए काम कर रहा है। परोपकारी मनुष्यों के लिए यह सुखद स्थिति है। दुनिया में कोई आदमी अकेला नहीं है। दलितों पर जो हमले होते हैं वे हमेशा सामूहिक किस्म के होते हैं। जो डर बैठता है, वह अकेले के बजाय विरोधी समूह की ताकत का होता है। उस ताकत में बेपहचान की भीड़ ही नहीं होती बल्कि राज्य के पुलिस और प्रशासन और अन्य राजकीय संस्थाएँ भी हो सकती हैं।
हिंदू धर्म क्या है? यह एक अपरिभाषित शब्द है। तब क्या यह कानून का विषय होना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों ने इस पर अपना दिमाग लगाया है। उन्हें क्या करना चाहिए था? मामले को संसद के पास भेज देते कि वे इसे परिभाषित करें। कई ऐसे दूसरे मामलों में न्यायाधीश ऐसा ही करते हैं। किसी भी हालत में उन्हें इसे अपनी तरफ से ‘जीवन शैली’ नहीं कहना चाहिए था। जिस आदमी को धर्म की आवश्यकता है, वह क्या करे? जीवन शैली से कुछ भी नहीं सधता है। यह बेनियम और बेपकड़ चीज है। सच यह है कि यह ब्राह्मण धर्म है और ब्राह्मण धर्म का मतलब है कि वह जो चाहे सो करे- धर्म के दस लक्ष्य गिना दे, जरूरत पड़े तो आपद्धर्म कह दे और जब चाहे दिखावे के लिए प्रायश्चित कर लें।
खैर, मैं सुप्रीम कोर्ट की जीवन शैली की अपरिभाषित भाषा में नहीं बोलूँगा और इसे सीधे, परिभाषित रूप में ‘ब्राह्मण धर्म’ कहूँगा। इसके क्या लक्षण हैं? कुछ गिनाए जा सकते हैं ? (क) कुछ वेद-पुराण को मानना (ख) वर्णाश्रम की व्यवस्था में रहना और (ग) पुनर्जन्म में विश्वास करना।
अब मैं अपने बारे में कहूँ। मैं वेद-पुराण को अपने लिए प्रमाण नहीं मानता। वर्ण-व्यवस्था का मुझे पता नहीं कि वह क्या है। आश्रमों की गिनतियाँ भी मुझे याद नहीं हैं। अगली बात, मैं मानता ही नहीं हूँ कि पुनर्जन्म होता है। तब मैं कैसे हिंदू हुआ और कैसे ब्राह्मण धर्म का अनुयायी? यह मेरे दलित चिंतन की पहली स्वतंत्रता है कि न मैं ‘जीवन शैली’ के नाम का अपरिभाषित हिंदू हूँ और न परिभाषित ‘ब्राह्मण धर्म’ का अनुयायी। हिंदुओं की इस अपरिभाषित जीवन शैली का खुलासा और प्रभाव क्या है? दलित पर यह कहर बन कर पड़ती है। इनमें से एक-एक के बारे में थोड़ा-थोड़ा करके बताया जा सकता है कि दलित के लिए ‘जीवन शैली’ नहीं बल्कि यह ‘मरण शैली’ है।
हिंदू समाज को देखो तो यह ऊँच-नीच के श्रेणी विभाजन पर आधारित है। कोई व्यक्ति ऐसा नहीं जो हिंदू हो कर छोटा या बड़ा न हो। असमानताएँ दुनिया में होती हैं, पर वे विशिष्टताएँ मानी जाती हैं, लेकिन एक-दूसरे से परिचय में हिंदू यही देखते हैं कि उनमें से कौन ऊँचा है और कौन नीचा। ऊँच-नीच का सबसे विकराल रूप कुछ जातियों के प्रति छुआछूत बरतने में प्रकट होता है। कहा जाए, यहाँ मनुष्य के मन में छुपी घृणा को खुल कर खेलने का पूरा अवसर मिलता है। दलित बन कर हिंदू धर्म को देखो तो यह अंधविश्वास और कर्मकांड का माँ-बाप दीखने लगता है। मनुष्य को आकाश में योजनाओं भरी उड़ान की पौराणिक कथाओं में विश्वास करना पड़ता है और कर्मकांड में दान एवं दक्षिणा का माहात्म्य भरा पड़ा है। पुरोहितों और पुजारियों को हर संस्कार, पर्व और तिथि के अवसर पर धन दिए जाओ–इसी में इनकी धर्म भावना पूरी होती है। प्रकृति पर कब्जा कर तीर्थों की शोभा बिगाड़ रखी है, पेड़ों को लोहे की कीलों से गोद लाल गूदड़ों से ढक रखा है। नदियों को गंदी और पहाड़ों को लूट का केंद्र बना दिया है। यज्ञ, योग और तंत्र-सब एक दिशा में जा रहे हैं कि मनुष्य को कमा कर नहीं खाना और प्राणायाम करना है–‘आर्ट ऑफ अर्निंग’ के बजाय ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ सीखनी है।
हिंदू दर्शन को देखो तो यह परमार्थ और व्यवहार के अंतर में दो फाड़ है। कहो कुछ और करो कुछ–इनकी दार्शनिक शब्दावली में इसी भेद को वैध ठहराया जाता है। इनकी धमक है कि दुनिया ऐसे ही चलेगी और जिसे इनकी यह ऐसी दुनिया पसंद नहीं है, वह घर-बार और राजपाट छोड़ कर, भिक्षु, मुनि या संन्यासी बन कर, मंदिरों या मठों में जाकर, निर्वाण, कैवल्य या मोक्ष की प्राप्ति में लग जाएँ। इन्होंने दर्शनशास्त्र को भगोड़ाशास्त्र बना रखा है। कोई दार्शनिक इनकी समाज रचना में, राजकाज की प्रणाली में, या पारिवारिक व्यवस्था में दखल नहीं कर सकता। धर्म-शीला लेकर वे भिक्षा और दान की मोहताजी पर पलते हैं। हिंदू शासन कैसा है? यह निरंकुशता और भ्रष्टाचार का पिटारा है। व्यवस्था इस कुटिल जंजाल की है कि लोकतंत्र के आने के बावजूद इसका मूल चरित्र नहीं बदला। यह या वह–जो शासन कर रहा है, जनता के लिए वह एक ही सिक्के का चित या पट पहलू है। तब, हिंदू कानून कैसा है? इसने कसम खा ली है कि अपराधी को कभी नहीं पकड़ा जाएगा। घर में उसे आराम से और समाज में इज्जत से रहने दिया जाता है। वर्ण-श्रेष्ठ होने पर या बड़े ओहदों के नाम पर उसे अदंडनीय घोषित किया जाता है। हिंदू बाजार में खुले में क्या होता है? वहाँ कर-चोरी का धंधा होता है। दो नंबर के साम्राज्य में सार्वजनिक संपत्ति नाम की कोई चीज नहीं छोड़ी जाती। ज्यादा से ज्यादा संपत्ति व्यक्तिगत और संयुक्त हिंदू परिवारों की होती है। राज्य चलाने की संस्थाएँ कर-चोरी की वजह से कमजोर और कंगाल बनी रहती हैं।
हिंदू परिवार में क्या हो रहा है? वहाँ सुलह और समझौते के नाम पर जारकर्म का अड्डा चल रहा है। पति या पत्नी कितना भी जारकर्म करें–कानून में तलाक न होने देने की पक्की गारंटी मिली हुई है। पत्नी किसी भी पर पुरुष से संबंध बनाकर जायज औलाद पैदा करें, बच्चे की पैतृकता जानने के लिए डीएनए आदि की वैज्ञानिक जाँच नहीं होती। पत्नी को खूब भरण-पोषण दो और दूसरे की औलाद को अपना नाम देकर पालो–यह इनकी पवित्रता और अटूट विवाह विधि की दबंगई है जो पतियों पर कहर ढा रही है।
हिंदू साहित्य को देखो तो यह किंवदंतियों और प्रक्षिप्तों से भरपूर है। समझ ही विकसित नहीं हुई कि साहित्य रचना बिना पुराण या झूठ की मदद के भी की जा सकती है। महापुरुषों को इतिहास पुरुष नहीं रहने दिया जाता, आदमी नहीं माना जाता, उन्हें पुराण पुरुष बनाकर दम लिया जाता है–उन्हें भी जो जीवन भर पुराणों के खिलाफ लड़े। साहित्यकार का वास्तविक संघर्ष गायब कर दिया जाता है और उसकी मौलिक रचनाएँ सामने नहीं आने दी जातीं। उसकी मनमाफिक जीवनी और मनचाहा साहित्य गढ़ा जाता है। उसकी जीवनी को अदल-बदल दिया जाता है ताकि कोई प्रेरणा न ले सके और उसके संदेश को नष्ट करने के लिए उसके नाम पर रची प्रक्षिप्त रचनाओं को उसकी बता दिया जाता है।
यह एक बात हुई कि इस जगह दलित चिंतन हिंदू धर्म-अर्थात ब्राह्मण धर्म से मुक्त हुआ। तब, 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में क्या हुआ था जब तीन-चार लाख अपने महान अनुयायियों के साथ बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था? क्या वह दलित चिंतन की स्वतंत्रता थी? इसे तनिक सँभल कर देखें ताकि उनके ऐतिहासिक कार्यों का मूल्यांकन भी हो जाए।
आजादी की बात करें तो अंबेडकर, गाँधी, जिन्ना और एम.एन. राय–इन चारों का उस दौर में होना भारत के इतिहास को एक निर्णायक मोड़ दे गया। ब्रिटेन द्वारा किए गए उस बँटवारे में कुछ घाटे में रहे, कुछ फायदे में रहे। समाजवाद और साम्यवाद को थोड़ी इज्जत मिली और पूँजीवाद को मौके मिले। हिंदू और मुसलमान साथ भी रहे और अलग भी हुए। ‘भारत भाग्य विधाता’ की कुछ पकड़ में रहा और कुछ पकड़ से बाहर रह गया। यहाँ डॉ. अंबेडकर के बारे में ही कहा जाए कि उन्होंने उस समय दलितों के पक्ष को लेकर अपनी ऐतिहासिक भूमिका बहुत अच्छी तरह निभाई थी। ऐसा नहीं है कि वे अंतिम थे, उन्होंने ऐसा दावा भी नहीं किया, लेकिन सामाजिक स्वतंत्रता के संघर्ष की उनकी तैयारी पूरी थी। तैयारी इस रूप में पूरी थी कि उन्होंने दलितों के जीवन में धर्म के महत्त्व को स्वीकारा।
डॉ. अंबेडकर ने गाँधी को ‘दलितों का दुश्मन नंबर एक’ कहा था। उन्होंने गाँधी को भारतीय राजनीति में अंतरात्मा की आवाज पर अंधकार युग लाने वाला भी कहा था। यह उन दोनों की लड़ाई थी जो जबर्दस्त हुई थी, कहें कि खूब बजी थी। इसमें असली कुरुक्षेत्र दलित नेतृत्व को लेकर था। गाँधी की इससे बड़ी कोई शतरंजी चाल नहीं थी कि उन्होंने लंदन की गोलमेज सभा में यह दावा करके अंबेडकर के सीने पर कुठाराघात किया था कि डॉ. अंबेडकर दलितों का नेता नहीं है। गनीमत रह जाती यदि गाँधी किसी दूसरे दलित को दलितों का नेता बताते लेकिन वहाँ तो वे अंबेडकर के बजाय खुद को दलितों का असली नेता और प्रतिनिधि घोषित कर रहे थे। उन्होंने सच में डॉ. अंबेडकर को इसकी चुनौती दी थी। कहना यह है कि गाँधी इस सच्चाई को छुपा गए जिसे डॉ. अंबेडकर अच्छी तरह जानते थे कि संसार में वे ही कौमें आगे बढ़ती हैं जिनका नेतृत्व उनके अपने हाथों में होता है। सब कुछ छूट जाए, किसी कौम का नेतृत्व उसके हाथों से नहीं छूटना चाहिए–अन्यथा, अगला सारा रास्ता गुलामी और अपमान का होता है। फिर कोई दुनयावी या गैर-दुनियावी ऐसा कारण नहीं है कि दलित समाज के लोग अपना नेतृत्व आप न कर सकें और संसार में कोई उदाहरण ऐसा नहीं मिलेगा कि किसी कौम ने अपना नेतृत्व बेच कर आजादी और सम्मान हासिल किए हों।
यहाँ मुझे भगत सिंह याद आते हैं जो इस मामले में गाँधी से और तमाम आजादीवादियों से और आज तक के अन्य हिंदू उदारवादियों और प्रगतिशीलों से अपनी जुदा राय रखते हैं। उस दौर के लोगों में एक भगत सिंह ही इस विचार के मिलते हैं कि द्विजों को दलितों के नेतृत्व में दखल अन्दाजी नहीं करनी चाहिए। वह उनकी छोटी उम्र का बड़ा लेख था जो उन्होंने ‘अछूत का सवाल’ शीर्षक से ‘किरती’ नामक पत्र के 2 जून, 1918 के अंक में ‘विद्रोही’ नाम से छपवाया था। उसमें उन्होंने लिखा था : ‘लेकिन यह काम उतने समय तक नहीं हो सकता, जितने समय तक कि अछूत कौमें अपने आपको संगठित न कर लें। हम तो समझते हैं कि उनको स्वयं को अलग संगठनबद्ध करना या मुस्लिमों के बराबर गिनती में होने के कारण उनके बराबर अधिकारों की माँग करना, बहुत आशाजनक संकेत हैं। या तो सांप्रदायिक-भेद का झंझट ही खत्म करो, नहीं तो उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो। इसलिए हम मानते हैं कि उनके अपने जन-प्रतिनिधि हों। वे अपने लिए अधिक अधिकार माँगे। हम तो साफ कहते हैं कि उठो, अछूत कहलाने वाले असली जनसेवको तथा भाइयो! उठो, अपना इतिहास देखो! गुरु गोविंद सिंह की फौज की असली शक्ति तुम्हीं थे। शिवाजी तुम्हारे भरोसे ही सब कुछ कर सके, जिस कारण उनके नाम आज भी जिंदा है। तुम्हारी कुर्बानियाँ स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं। तुम जो नित्य-प्रति सेवा करके जनता के सुखों में बढ़ोतरी करके और जिंदगी संभव बनाकर यह बड़ा भारी अहसान कर रहे हो, उसे हमलोग नहीं समझते। तुम पर इतना जुल्म हो रहा कि मिस मेयो मनुष्यों से भी कहती है–उठो, अपनी शक्ति पहचानो। संगठनबद्ध हो जाओ। असल में स्वयं कोशिश किए बिना कुछ भी न मिल सकेगा। स्वतंत्रता के लिए स्वाधीनता चाहने वालों को यत्न करना चाहिए। इनसान की धीरे-धीरे कुछ ऐसी आदतें हो गई हैं कि वह अपने लिए तो अधिक अधिकार चाहता है लेकिन जो उनके मातहत हैं उन्हें वह अपनी जूती के नीचे ही दबाए रखना चाहता है। कहावत है–‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते।’ अर्थात संगठनबद्ध हो, अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो, तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इनकार करने की जुर्रत न कर सकेगा। तुम दूसरों की खुराक मत बनो। दूसरों के मुँह की ओर न ताको। तुम असली सर्वहारा हो…संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ भी हानि न होगी। बस गुलामी की जंजीरें कट जाएँगी। उठो, और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो! धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो, सोए हुए शेरो! उठो और बगावत खड़ी कर दो!’
इसी संदर्भ में मुझे कहना है कि आप दलित की एक बात भी मत मानो, वह हमें सहन है, पर उसे अपनी बात खुद कहने दो। कहा इसलिए जा रहा है क्योंकि साहित्य में यह अन्याय और वाक स्वातंत्र्य पर अत्याचार हो रहा है कि गैर-दलित लेखक दलित साहित्यकारों के साहित्य का खंडन करके खुद दलित साहित्य लिखेंगे। एक वितंडा खड़ा कर दिया है कि दलित लेखक जो लिख रहे हैं, वह दलित साहित्य नहीं है, उसे नकारा जा रहा है, और गैर-दलित लेखक दलितों के बारे में जो लिखेंगे, उसे साहित्य अकादमियों के पुरस्कार मिलेंगे और वही साहित्य विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाएगा। साहित्य में दलितों का नेतृत्व और प्रतिनिधित्व छीनने का यह गाँधीवाद आज प्रगतिशीलों और उदारवादियों द्वारा खूब चलाया जा रहा है। 1932 का राजनीतिक संस्करण 2015 में साहित्यिक संस्करण बना कर बाजार में उतारा जा रहा है–इसे लेट लतीफी कहा जाए या अति जागरूकता वाली चातुरी का नमूना? यही भारत की सामासिक संस्कृति के बजाय ब्राह्मणों का बहुवचन है कि दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, स्त्रियों और अल्पसंख्यकों की तरफ से भी ब्राह्मण लिखेंगे और बोलेंगे–और मान्य करेंगे।
यह बात सच है कि कुछ मामलों में डॉ. अंबेडकर अपने निर्णय लेने में स्वतंत्र नहीं थे और कुछ मामलों में वे पूर्णतः स्वतंत्र थे। जहाँ वे स्वतंत्र नहीं थे, वे दो बड़े मामले इस प्रकार गिने जा सकते हैं : पहला, पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करना और दूसरा, हिंदू कोड बिल का फेल होना।
यहाँ पूना पैक्ट के बारे में एक संक्षिप्त जिक्र किया जा सकता है कि उस पर हस्ताक्षर करने के लिए उन पर हिंदुओं का भारी दबाव था। गाँधी ने अपने जीवन का एकमात्र आमरण अनशन कर रखा था। क्या माहौल था–उसके बारे में मेरे पास कुछ व्यक्तिगत स्तर की जानकारी है। मेरठ में मेरे ‘मेरठ कॉलेज’ के बगल में उर्मिला रोड पर डॉ. धर्मेंद्रनाथ शास्त्री की कोठी थी। उनसे मेरा परिचय इस रूप में था कि मैं उनके निर्देशन में बौद्ध दर्शन के शून्यवाद पर पी-एच.डी. करना चाह रहा था। उस समय अपने बुढ़ापे में वे डॉ. अंबेडकर के बौद्ध धर्म के प्रशंसक और अनुयायी थे। उन्होंने मुझे बताया था कि पूना पैक्ट के समय में वे युवक थे और डॉ. अंबेडकर के घोर विरोधी थे। उन्होंने मेरे सामने रो-रो कर कहा था कि उनकी सोच उस समय कितनी घातक थी कि गाँधी के सामने डॉ. अंबेडकर को अपना दुश्मन मान लिया था। उन्होंने अपने दूसरे नौजवान साथियों से मिलकर डॉ. अंबेडकर को मारने की ठान ली थी। वे पश्चाताप में डूब रहे थे कि उन्होंने भारत के सच्चे सपूत और क्रांतिकारी विचारक के बारे में कितना गलत सोच लिया था।
हिंदू कोड बिल के बारे में संक्षेप में इतना ही कहा जाए कि डॉ. अंबेडकर की वह अभिलाषा और यात्रा आज तक पूरी नहीं हुई। अब तो हिंदू कानून डॉ. अंबेडकर की विचारधारा के बिल्कुल विपरीत दिशा में चल रहा है जब ‘फैमिली कोर्ट एक्ट, 1984’ अस्तित्व में आ गया है। इस अधिनियम में ‘हिंदू विवाह अधिनियम, 1955’ के थोड़े कुछ अच्छे किए-कराए पर भी पूरी तरह पानी फेर दिया गया है। पारिवारिक जीवन में जारकर्म पर कोई रोक नहीं है। कोई भी पुरुष किसी स्त्री को गर्भिणी कर सकता है क्योंकि पैतृकता जानने के लिए डीएनए की वैज्ञानिक जाँच का आज तक संसद से कानून नहीं बना है। विवाह को फिर से पवित्र और अटूट बना दिया गया है। न्यायालय भारी-भरकम भरण-पोषण बाँधने के दफ्तरों में तब्दील हो गए हैं। यह सब ब्राह्म विवाह का साजो-सामान है।
डॉ. अंबेडकर के निजी जीवन के दूसरे महत्त्वपूर्ण फैसले वे हैं जिन्हें लेने में वे पूर्णतया स्वतंत्र थे। यहाँ ऐसे दो मामले बताए जा सकते हैं जिनमें उन पर कोई दबाव नहीं था। पहला, ब्राह्मण स्त्री डॉ. सविता से उनका शादी करना और दूसरा, उनके द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण करना।
इन पर क्या कहा जाए–क्या प्रतिक्रिया दी जाए? इतना ही कहा जाए कि दलितों की तरफ से अब यह सोचा जा रहा है कि क्या डॉ. सविता से उनकी शादी खुद उनके लिए भी फलदायी रही। कहा यह जाता है कि जब डॉ. अंबेडकर ने डॉ. सविता से शादी की थी तो इससे परिणाम यह निकलता है कि उनके पास दलितों के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति की कोई व्यावहारिक रणनीति नहीं थी। इस शादी की बावत कहा यह भी जाए कि वे मनुस्मृति की पकड़ में नहीं आए लेकिन कौटिल्य के अर्थशास्त्र के बुरी तरह शिकार हुए।
बुद्ध की शरण में जाने का निश्चित रूप से उनका अपना निजी चुनाव था। इस बारे में उन्होंने किसी दलित व्यक्ति से, दलित चिंतक से, या दलित संस्था से जिक्र तक नहीं किया था, मंत्रणा और मदद लेने की बात तो बहुत दूर की है। पर क्या बौद्ध धर्म दलितों के दुखों की औषधि है? बौद्ध धर्म के पास देने को क्या है? बौद्ध धर्म के पास ऐसा क्या विशेष है कि दलित उसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दें? बौद्ध धर्म के पास ले-दे कर देने को एक चीज निर्वाण है पर इसकी दलितों को जरूरत नहीं है। बुद्ध राजपाट त्याग रहे हैं पर दलित लोग राजपाट पाने के लिए लड़ रहे हैं। बुद्ध ने अपनी पत्नी, अपना नवजात पुत्र और घरबार छोड़ा है जबकि दलित अपने घरों को खुशहाल रखने के लिए संधर्षरत हैं। बुद्ध ने अपने हाथ में भिक्षापात्र उठा रखा है लेकिन दलित लोग ऐसी भिक्षावृत्ति और मोहताजी पर जीवन चलाने को हेय मानते हैं। हाथ-पाँव चले, हर दलित कमा कर खाता है।
बात ब्राह्मण पर आकर टिक जाती है। अच्छा होता, दलित चिंतन में ब्राह्मण बहस का मुद्दा न बनता। लेकिन ऐसा अनेक कारणों से संभव नहीं है। तब जाना जाए कि भारत में ब्राह्मण क्या है। यूँ समझा जाए कि भारत में ब्राह्मणों और क्षत्रियों का लंबा युद्ध चला है। ज्ञान के क्षेत्र में राजा जनक की उपस्थिति इनके बीच चले इसी युद्ध को दर्शाती है और पुराणों में विश्वामित्र की लड़ाई मिलती है। लेकिन यहाँ उपनिषदों और पुराणों की कथाओं को छोड़ कर सीधे इतिहास पुरुषों पर आया जाए। क्षत्रियों में से इन में दो, और केवल दो, नाम मिलते हैं–बुद्ध और महावीर। बुद्ध ने बौद्ध धर्म चलाया और महावीर ने जैन धर्म की नींव डाली। पर क्या ब्राह्मणों के संबंध में इन बातों को ऐसा ही पढ़ लिया जाए?
यह कहने में कोई वजन नहीं है कि बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापना की। सच यह है कि बौद्ध धर्म को ब्राह्मणों ने चलाया। एक बुद्ध क्षत्रिय हो गए पर बाकी सारे बौद्ध दार्शनिक ब्राह्मण थे। बुद्ध के धर्म सेनापति सारिपुत्र का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। बौद्ध धर्म के दूसरे बृहस्पति महा मौद्गल्यायन का जन्म भी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जिन अन्य बौद्ध दार्शनिकों और धर्मपुरुषों का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था उनके नाम गिनाए जा सकते हैं–महाकाश्यप, मोग्गलिपुत्र तिष्य, नागसेन, अश्वघोष, नागार्जुन, आर्यदेव, बुद्धयश, बुद्धघोष, असंग, वसुबंधु, दिङ्नाग, परमार्थ, धर्मकीर्ति, शांतिरक्षित। ये ब्राह्मण न हो गए, बौद्ध धर्म में ब्राह्मणों की फौज खड़ी हो गई जिन्होंने बौद्ध धर्म पर भीतर से कब्जा कर रखा है।
ऐसे ही महावीर एक क्षत्रिय होंगे, लेकिन और उनके बाकी सारे शिष्य कौन थे? उनके ग्यारह शिष्य थे। उन्हें गणधर कहा जाता है। आश्चर्य है कि वे सारे के सारे ब्राह्मण थे। उनके नाम इस प्रकार हैं–इंद्रभूति गौतम, अग्निभूति, वायुभूति, शुचिदत्त, सुधर्म, माण्डव्य, मौर्यपुत्र, अकंपन, अचल, मेदार्य, अंतिम प्रभास। एक क्षत्रिय और ग्यारह ब्राह्मणों का घेरा–कैसे निकला जाए? जो पूर्व और अंग के रूप में आगम साहित्य तैयार किया गया है, वह महावीर ने तैयार नहीं किया, बल्कि ब्राह्मणों ने किया।
वर्ण व्यवस्था पर चारों प्राचीन भारतीय धर्मों–ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और आजीवक धर्म का क्या कहना है? ब्राह्मण धर्म का कहना है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति उस पुरुष के मुख से, क्षत्रिय के भुजाओं से, वैश्य की उदर से और शूद्र की पैरों से हुई है। उच्चता और निम्नता के हिसाब से वर्णक्रम इस प्रकार है–ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। बौद्ध धर्म में इस वर्ण व्यवस्था में क्या फर्क पड़ा है? उसमें केवल ऊपर के दो वर्णों का क्रम बदला है, बाकी ज्यों का त्यों है। बौद्ध धर्म का वर्णक्रम इस प्रकार–क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र। जैन धर्म में इस वर्ण व्यवस्था के बारे में क्या कहता है? इसकी शुरुआत ऋषभ से होती है जो पहले तीर्थंकर थे। उन्होंने पहले क्षत्रिय बनाए, उसके बाद वैश्य बनाए और उसके बाद शुद्र बनाए। बस, उन्होंने ये तीन ही वर्ण बनाए। उन्होंने ब्राह्मण वर्ण नहीं बनाया। यह काम उनके बड़े बेटे भरत ने किया। उन्होंने तीनों वर्णों में से निकाल कर एक चौथा वर्ण ब्राह्मण बना दिया। यों, जैन वर्ण व्यवस्था का क्रम इस प्रकार है–क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण।
आजीवकों के पास इस वर्ण व्यवस्था की क्या स्थिति है? उन्होंने किसी वर्ण को स्वीकार नहीं किया। वे ‘अवण्णवादी’ हैं। वहाँ न कोई शूद्र है, न वैश्य है, न क्षत्रिय है न ब्राह्मण है। उनमें कोई विभाजन नहीं है, सारा समाज एक है और एकजुट है। हर मनुष्य समान है। उनमें कोई भेदभाव और ऊँच-नीच नहीं है। इस तरीके से आज का दलित चिंतन आजीवक धर्म के रूप में अपने मूल तक पहुँचता है कि वह न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है, न वैश्य है, न शूद्र है। उसके लिए ये चारों वर्ण अनजाने और विदेशी हैं। बाद के इतिहास में यह लंबी गफलत रही कि वह वर्ण-व्यवस्था में शूद्र है। इस गलत सोच ने उसे हारा हुआ बना रखा था। जो वह नहीं था, वह खुद को वही समझ बैठा था। अब जाकर वह चिंतन के स्तर पर मुक्त हुआ है कि उसके लिए चारों वर्ण विदेशी मूल के हैं।
ब्राह्मण धर्म में ब्राह्मणों की भरमार होने से ब्राह्मण की स्थिति समझ में आती है। वहाँ वह वर्चस्ववान, पूजनीय, भूदेव और अदंडनीय है। लेकिन पता चलता है कि त्रिपिटक और आगम साहित्य पर भी उसी का कब्जा जमा हुआ है। यहाँ ब्राह्मणों की गीता, बौद्धों की धम्मपद और जैनियों की उत्तराध्ययन सूत्र की तुलना की जा सकती है। ब्राह्मण प्रशंसनीय और वंदनीय है। पता चलता है कि धम्मपद की आखिरी 26वाँ बग्ग बाम्मणवग्गो है जबकि आखिरी वग्ग ‘भक्खुबग्गो’ या ‘बुद्धवग्गो’ होना चाहिए था। इतना ही नहीं, ‘बाम्मणवग्गो’ सबसे बड़ा वग्ग भी है। धम्मपद के कुल 423 पदों में से बाम्मणवग्गो में 41 पद हैं जबकि भिक्खुवग्गो में कुल 23 पद हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में ब्राह्मण वंदनीय, पूजनीय और सर्वोपरि बना हुआ है। बात यह भी है कि ब्राह्मण को बुद्ध और महावीर के क्षत्रिय होने से आपत्ति नहीं है क्योंकि अपने धर्म में भी उसने राम और कृष्ण नाम के दो क्षत्रिय होने से आपत्ति नहीं कर पेश कर रखा है। दो के बजाय चार क्षत्रिय हो जाएँ, कुछ ज्यादा नुकसान नहीं है–राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर। दो को भीतर से और दो बाहर से–अर्थात इन चारों क्षत्रियों को उसने अपने कब्जे में कर रखा है। यों समझो कि भारत के पोप और किंग के बीच हुई लड़ाई इस रूप में समझौते पर आई कि ब्राह्मणों ने चार क्षत्रियों को भगवान बना कर अपने वश में किया है। बुद्ध को लेकर त्रिपिटक ब्राह्मणों ने लिखा, महावीर को लेकर आगम ग्रंथ ब्राह्मणों ने लिखे, राम को लेकर रामायण ब्राह्मणों ने लिखी और कृष्ण को लेकर महाभारत ब्राह्मणों ने लिखी। इन चारों लिखतों में स्वयं क्षत्रियों का कोई योगदान नहीं है।
बात पुनर्जन्म के झूठ की उठाई जाए और वह केवल एक धर्म से संबंधित हो कर न रह जाए। ब्राह्मण धर्म, बौद्ध और जैन धर्म–ये तीनों धर्म पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं। कारण क्या रहा कि ये तीनों अलग-अलग होकर भी इस मामले में एक हैं? बौद्ध धर्म, जो आत्मा को नहीं मानता, पुनर्जन्म में वह भी विश्वास रखता है। चूँकि इन तीनों धर्मों की वर्ण-व्यवस्थाओं में या तो ब्राह्मण ऊपर है या क्षत्रिय ऊपर है, और इन तीनों धर्मों के धर्मग्रंथों के लेखक अनिवार्य रूप से ब्राह्मण रहे हैं, इसलिए पुनर्जन्म में विश्वास रखना इनके लिए सुभीते की बात है। खुद को पुण्य योनि का घोषित करके जिस को चाहे पाप योनि का कह दो। इसलिए ब्राह्मणों और क्षत्रियों से मुझे कुछ नहीं कहना है, यह उनके फायदे में है कि वे पुनर्जन्म के झूठ का प्रचार करें, हमें अपने बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर से पूछना है कि वे बुद्ध के चक्कर में आकर पुनर्जन्म में विश्वास क्यों कर गए। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द बुद्धा एंड हिज धम्मा’ में स्वयं पूछा है और स्वयं उत्तर दिया है :
Did the Buddha believe in rebirth?
The answer is in the affirmative.
क्या भगवान बुद्ध पुनर्जन्म मानते थे? उत्तर ‘हाँ’ में है।
इसी जगह मैंने डॉ. अंबेडकर के दलित चिंतन को उनका ‘सुसाइड नोट’ कहा है। यह सोच उनकी आत्महत्या की कहानी है। मैंने जो उनकी इस पुस्तक का पोस्टमार्टम किया है, उससे यही सिद्ध हुआ है कि इस जगह एक दलित चिंतक के रूप में उन्होंने आत्महत्या की थी।
ब्राह्मणों, बौद्धों और जैनियों के पुनर्जन्म में विश्वास रखने वाले सिद्धांत के बाद अब मैं मक्खलि गोसाल के आजीवक चिंतन पर आऊँ। पुनर्जन्म पर उनके क्या विचार हैं? उनके विचार ये हैं कि पुनर्जन्म नहीं होता। उनका पहला सूत्र हैं–नो धम्मो ‘त्ति। उनका दूसरा सूत्र है–नो तवो त्ति। उनका तीसरा सूत्र है–नत्थि पुरिस्कारे। कोई ऐसा धर्म नहीं है जो तुम्हें मरने के बाद अमुक योनि में पैदा कर देगा। कोई ऐसा पुरस्कार नहीं है जो तुम्हें मरने के बाद पुनर्जन्म के रूप में मिलने वाला है। तभी पुनर्जन्म को हटा कर मक्खलि गोसाल ने ‘नियति’ का शब्द दिया है। गोसाल के इसी सिद्धांत को मध्य काल में हमारे रैदास और कबीर ने आगे बढ़ाया था।
बात पूरी नहीं होगी जब तक दलित चिंतन स्त्री के विषय पर न बोले। इस मामले में भी वह ब्राह्मण, बौद्ध और जैन चिंतन से अपनी पृथकता और स्वतंत्रता रखता है। सबको मालूम है कि ब्राह्मणों ने स्त्री को पाप योनि कहा है। उन्होंने स्त्री को शूद्र के साथ रखा है। वह पुरुष से समानता नहीं रखती। बुद्ध ने भी स्त्री को पुरुष की गुलामी में रखा है। वे संघ में स्त्रियों के प्रवेश की इजाजत नहीं दे रहे थे। इजाजत देनी पड़ गई तो स्त्रियों को पुरुष के समान सम्मान नहीं दिया। यही हाल महावीर का है। दिगम्बर जैन का सिद्धांत है कि स्त्री को स्त्रीयोनि में रहते हुए ‘केवल ज्ञान’ प्राप्त नहीं हो सकता, इसके लिए उसे पुरुषयोनि में जन्म ग्रहण करना जरूरी है। असल में, एक शब्द ‘अंजलि कम्म’ है जिससे गोसाल, महावीर और बुद्ध के विचारों का पता चलता है। गोसाल ने महावीर का साथ स्त्री के विषय को लेकर छोड़ा था। गोसाल ने हालाहला से विवाह किया था। इसी वजह से महावीर ने गोसाल को भ्रष्ट कहा था। महत्त्व अंजलि कम्म का है। महावीर और बुद्ध अंजलि कम्म के विरोधी थे। यह अंजलि कम्म क्या है? यह हाथ जोड़कर स्त्री को प्रणाम करना है। गोसाल ने हाथ जोड़कर स्त्री को प्रणाम किया था। अपने मरते समय भी उन्होंने अपनी पत्नी हालाहला को हाथ जोड़ कर प्रणाम किया था। जिसे ‘चरिमे अंजलि कम्मे’ कहा जाता है। इस परंपरा में मध्यकाल में रैदास और कबीर थे। वे बिना पत्नी के नहीं थे। यही फर्क है कि आजीवक चिंतन में संन्यासी, भिक्षु और मुनि के लिए कोई स्थान नहीं है।
दलित चिंतन की एक स्वतंत्रता यह है कि ब्राह्मणों के धर्म, दर्शन और कानून से उसका कोई संबंध नहीं है। यह अपने आप में एक प्राप्ति है कि दलित ऐसी सोच रखें। फिर भी, ब्राह्मण उसके जीवन में आता है और दखल करता हुआ आता है। उसके लिए क्या किया जाए? उससे कैसे निपटा जाए? उत्तर में उससे ऐसे ही निपटा जाए जैसे दुनिया की सारी कौमें दूसरों से निपटती हैं।
यह मानकर चला जा सकता है कि गैर ब्राह्मणों में से तीन हजार सालों के भारत के इतिहास में ब्राह्मणों को अब तक कुल सौ-दो-सौ आदमी ही समझ सके होंगे। कबीर उन ज्ञात लोगों की श्रेणी में सबसे सिरमौर ठहरते हैं। लेकिन हम शुरुआत रैदास से करें। दलितों की तरफ से ऐसा सूत्र साहित्य लिखा जा सकता है जिससे ब्राह्मणों से संबंध को समझने में मदद मिलेगी। रैदास ने एक सूत्र दिया है जो इस प्रकार है : (1) रैदास बाम्मण मत पूजियो।
कबीर के दिए हुए सूत्र इस प्रकार इकट्ठे किए जा सकते हैं :
(1) बाम्मण ही सब कीन्ही चोरी।
(2) बाम्मण कीन्ह कवन को काजा?
(3) पांडे न करसी वाद विवाद।
(4) पंडित बाद बदंते झूठा।
कबीर के बाद हम सीधे बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर के चिंतन पर आएँ कि उन्होंने ब्राह्मण को लेकर क्या सूत्र दिए हैं। वे यहाँ दिए जा सकते हैं :
(1) ब्राह्मण पैदा होता है। (A Brahmin is born)
(2) हर ब्राह्मण अपना कानून आप है। (A Brahmin is a law unto himself)
इन सूत्रों को समझ लिया जाए तो वह अपने आपमें पूर्ण ज्ञान है। फिर भी इनमें एक और सूत्र इस प्रकार जोड़ा जा सकता है :
(1) एक ब्राह्मण और दूसरे ब्राह्मण में कोई अंतर नहीं है।
दलित चिंतन की स्वतंत्रता को सबसे बड़ा खतरा हिंदुओं के इसी उदारवाद से है। यही दलित चिंतन का अस्तित्व और उसकी पहचान नहीं बनने देता। इसी वजह से बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर अपने चिंतन में अधभर में रह गए थे। उनकी पुस्तक ‘रिडल्स इन हिंदूज्म’ इस तथ्य की परिचायक है कि वे हिंदू चिंतन को पूरी तरह नहीं समझ सके। किसी बात को पहेली कहना उसे न समझना ही है।
यों जानिए कि कार्ल मार्क्स ने तीन शब्दों से मानव इतिहास को समझने की कुंजी बताई है। ये थीसिस, एन्टीथीसिस और सिन्थेसिस हैं। इन्हें हिंदी में वाद, प्रतिवाद और संवाद कहा जाता है। एक वाद खड़ा होता है, तत्काल उसका प्रतिवाद भी खड़ा हो जाता है। दोनों में संघर्ष होता है जिसके परिणामस्वरूप संवाद अस्तित्व में आता है। लेकिन भारत में इस सिद्धांत का क्या हुआ है? यहाँ वाद और प्रतिवाद के संघर्ष में कभी संवाद नहीं बना। संवाद की जगह यहाँ हिप्पोक्रेसी ने ली है जिसे बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर रिडल कह गए हैं। रैदास और कबीर ने इसे ज्यादा अच्छी तरह समझा था कि यह रिडल नहीं है बल्कि कथनी और करनी का अंतर है। वाद और प्रतिवाद के बीच जो रिश्ता है वह संवादहीनता का है। इसे मैंने ‘नो डॉयलाग थ्योरी’ का नाम दिया है। हिंदी में इसे ‘संवादहीनता का सिद्धांत’ कहा है। इसका यदि विस्तार किया जाए तो झूठ के सामने झूठ बोला जाना चाहिए।

तो, यह दलित चिंतन की लंबी यात्रा है जो उसने पूरी की है। पहले वह अभिशप्त चिंतन से बाहर निकला है। दूसरे उसे अपने सुसाइड नोट को फाड़ना पड़ा है। तीसरे अब जाकर उसे अपनी स्वतंत्रता प्राप्त हुई है। मैंने चालीस साल पहले एक कविता लिखी थी, वह इस अवसर पर याद आ रही है, इसकी चार पंक्तियाँ इस प्रकार हैं : ‘क्षण-क्षण घटता, जीवन बढ़ता, विस्तृत होता, होता गहरा;

इन छोटे-छोटे तर्कों का अब मुझे नहीं भाता पहरा’
मैं तोडूँगा, लो तोड़ चुका, संकुचित विश्वासों के पहरे,
देने हों, दो सिद्धांत मुझे, विस्तृत गहरे, विस्तृत गहरे।’

……
(दिल्ली विश्वविद्यालय के शहीद भगत सिंह कॉलेज के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में 9 फरवरी, 2015 को दिया गया व्याख्यान।)


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धर्मवीर द्वारा भी