रेणुु की कहानियों में लोकभाषा

रेणुु की कहानियों में लोकभाषा

फणीश्वरनाथ रेणु का कथा-साहित्य लोक-जीवन की भीत्ति पर निर्मित है। लोक-जीवन का विविध रूप इनकी कहानियों में अभिव्यक्त हुआ है। कहानियों के परिपार्श्व में लोक-परंपरा और लोक-संस्कृति की बहुविध छवियाँ हैं। रेणु की कहानियों का परिवेश जाना-पहचाना होते हुए भी जीवंतता के कारण आकर्षित करता है, जो नई कहानी के कथाकारों की कहानियों से अलग है। रेणु के पात्र काल्पनिक नहीं। उनके, पात्र सभी के साथ रहकर बोलने-बतियाने वाले हैं। ऐसे में रेणु की कहानियों की भाषा पर विचार करते हैं, तो उसकी विविधता और सहजता स्वयं प्रकट होती है। जिस तरह साधारण लोग अपने घर, खेत-खलिहान, हाट-बाजार, पंचायत दैनिक कार्यों में अपनी बोली, मुहावरे, कहावतें और गीतों का प्रयोग करते हैं, वही चलती-फिरती बोलती-बतियाती भाषा रेणु की कहानियों की है। हिंदी खड़ी बोली के साथ स्थानीय बोलियों को किस तरह पिरोया जा सकता है, उस नवीन कला का प्रयोग रेणु की कथा-भाषा में किया गया है। यह कथा-कौशल उनके समकालीन कथाकारों में नगण्य है। इनकी कहानियों की भाषा में हिंदी खड़ी बोली के अलावा भोजपुरी, मगही, उर्दू, अँग्रेजी, बंगला, नेपाली आदि बोलियाँ समाहित हैं। पात्र परिस्थिति के अनुसार अपनी बोली में संवाद करते हैं। नाम दिया गया है–आंचलिकता। रेणु की कहानियाँ आंचलिक जीवन की सरस राग-रंग की प्रस्तुति है, जिसमें रेणु का अपने क्षेत्र के जीवन और भाषा के प्रति प्यार प्रकट हुआ है।

रेणु की कहानियों में भाषा के विविध रूप हैं। उन्होंने अपने भावों-विचारों को संप्रेषित करने के लिए कबीर की तरह भाषा के साथ कहीं-कहीं जोर-जबरदस्ती की है। स्थानीय बोलियाँ जो लोक-जीवन में बोली जाती हैं उसमें विदेशज शब्द अजीबोगरीब रूप बदलकर प्रकट होते हैं। जैसे-‘पेट्रोमैक्स’ की जगह ‘पंचलाइट’। रेणु की कहानियों की भाषा में जो अनोखा स्वाद है वह उनके बचपन से आखिर तक गाँव के लोगों से हमेशा मिलते रहने और अपनी स्थानीय बोली में संवाद करते रहने के कारण है। लोक-जीवन के साथ उनके इस आत्मीय जुड़ाव ने उनके संपूर्ण कथा-साहित्य को एक नई ऊँचाई दी है। रेणु साहित्य के विशेषज्ञ भारत यायावर ने सही कहा है–‘फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने कथा-साहित्य की रचना लोक-जीवन को केंद्र में रखकर लोक-भाषा को परिनिष्ठित हिंदी में संयुक्त करके की है। दूसरे शब्दों में कहें, उनकी कथा-भाषा की नींव लोक-भाषा की भूमि पर विनिर्मित है। हिंदी कथा-परंपरा में यह सर्वथा नूतन प्रयोग था। ऐसी सर्जनात्मक भाषा का प्रयोग किसी दूसरे कथाकार ने नहीं किया था। इसका कारण है। रेणु लोक-जीवन से जुड़े कथाकार थे।’

रेणु की पहली कहानी ‘बट बाबा’ 1944 में कोलकाता से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘विश्वमित्र’ में छपी थी। इस पहली कहानी में ही रेणु की भाषिक चेतना और लोकभाषा से उनकी संपृक्ति उजागर होती है। इस कहानी के पात्र हिंदी के साथ भोजपुरी भी बोलते हैं। निरधन साहू कहता है–‘अब दुनिया ना रही।’, ‘आसमान से का गिरल रे लछमनिया?’ इसी तरह रेणु ने भाषा में ध्वनियों का इस्तेमाल कर वातावरण को यथार्थ रूप से प्रस्तुत किया है। सूखे ‘बट बाबा’ को जमींदार के मजदूर कुल्हाड़ी से काटते हैं तो उसके गिरने की आवाज का नमूना देखें–‘एक ही साथ पेड़ के सूखे तने पर साठ-साठ कुल्हाड़ों का वार हुआ–धड़-धड़ जड़-जड़-खड़-खड़ा…। गाय-बैल, घोड़े-बकरे चौंककर गाँव से भागे।’ रेणु की कहानियों एवं उपन्यासों की रचना-भूमि कोशी जनपद के लोग हैं। इस क्षेत्र में मैथिली, अंगिका, भोजपुरी, बंगला आदि बोलने वाले लोग रहते हैं। गाँव के लोग शब्दों के उच्चारण करने में शब्दों के मूल स्वभाव में बदलाव करते हैं। उनके उच्चारण को अशुद्ध कह सकते हैं, लेकिन इस अशुद्ध उच्चारण में भी लोगों की जो आत्मीयता का बोध होता है, वह सुशिक्षित लोगों की परिनिष्ठित भाषा में कहाँ मिलेगी। ‘तीसरी कसम’ कहानी में हिरामन हीराबाई को लोकगीत ‘विदेशिया नाच’ सुनाता है। लेकिन इसके पूर्व वह माँ सरस्वती की वंदना करता है। हीरामन के गीत की एक बानगी देखें–‘जै मैया सरोसती अरजी करत बानी, हमरा पर होखू सहाई हे मैया, हमरा पर होखू सहाई।’

जर्मन के हिंदी विद्वान डॉ. लोठार लुट्से ने रेणु से साक्षात्कार लेते वक्त उनके कथा-साहित्य के अलावा सामाजिक एवं राजनीतिक सवालों के साथ भाषा संबंधी प्रश्न भी पूछा था, क्योंकि उन्होंने रेणु की भाषा को पंचमेल भाषा कहा है। रेणु ने अपनी कहानियों की भाषा संबंधी जो बातें कही हैं वे इस प्रकार हैं–‘देखिए, यों जब साधारण जनता की बात कहनी हो, जब वे लोग बोलते हैं, तब तो जाहिर है कि अपने गाँव की बोली में बोलते हैं, अंगिका में बोलते हैं, मगही में बोलते हैं। मुझको लिखना पड़ रहा है उसको हिंदी में तो अगर उसको शु़द्ध व्याकरण-सम्मत और पंडिताऊ भाषा में लिखता हूँ, तो यह तो खुद कान में कैसा लगेगा कि यह एक गाँव का आदमी किससे बोलता है–इतना शुद्ध बोलता है! और बिलकुल वैसा या अशुद्ध लिखने से यह उपन्यास चल नहीं सकता तो बीच का कहीं एक रास्ता तैयार करना होगा। तो जो लोग वे बोलते हैं कचहरी-वचहरी में–‘कचराही-बोली’ कहते हैं उसे कचहरी की खिचड़ी भाषा में बोली जाने से ‘कचहरी-बोली’–मैंने इस्तेमाल किया है। वे लोग जो कचराही-बोली भी बोलते हैं तो उसमें एक खास बात यह होती है कि जेंडर का–पुल्लिंग-स्त्रीलिंग का ख्याल उसमें नहीं होता है। हिंदी में स्त्रीलिंग-पुलिंग तो बहुत हैं। वे अपने ढंग से बोलते हैं।’ हम देखते हैं कि रेणु की कहानियों के पात्र इंस्पेक्टर को ‘निस्पेट्टर’ कहते हैं। अब इस अँग्रेजी शब्द के बारे में उस ग्रामीण से कहा जाए कि वह तो अँग्रेजी बोलता है तो इसे नहीं समझेगा क्योंकि वह शब्द से अधिक उसके भावों को समझ रहा है। रेणु के शब्दों में उनका पूर्णिया जनपद ही उनकी कथा-भूमि है। इसी कथा-भूमि पर ‘मैला आँचल’, ‘परती : परिकथा’ जैसे उपन्यास एवं श्रेष्ठ कहानियों को रचा गया है।

लोकभाषा के मर्मज्ञ रेणु अपनी कहानियों में भाषा की गरिमा का ख्याल रखते हैं। जैसा पहले ही इनकी कहानियों की भाषा की विशेषताओं के संबंध में उल्लेख किया गया है कि इनकी भाषा की विविध छवियाँ हैं। विविधता का रूप कहानियों में अपनी विषयवस्तु अपने साथ लेकर आई है। परिस्थिति एवं कथा-प्रसंग के अनुसार इनकी भाषा रूप बदलती है और पाठक एक ही कहानी में उसके विविध रूप पाकर प्रसन्न हो जाते हैं। दरअसल, रेणु शब्दों से दृश्य विधान करते हैं। भावों एवं विचारों को प्रस्तुत करने की उनकी यह कला अपने समकालीनों में बेजोड़ है, उनकी भाषा का एक नमूना देखें। ‘तीर्थोदक’ कहानी में लल्लू की माँ कहती है–‘रखिए अपना पुरूख वचन! खूब सुन चुकी हूँ पुरूख वचन। चालीस साल से और किसका वचन सुन रही हूँ?’ बूढ़ी की आँखों में आँसू आ गए। भरे गले से बोली, ‘कभी बात से बेबात या चाल से कुचाल नहीं चली। तिस पर तीन कोड़ी गालियाँ, सास-ससुर और इनकी…।’ रेणु पात्रों की मनःस्थितियों को इस लहजे में व्यक्त करते हैं कि कहने के लिए कुछ और नहीं रह जाता। रचना में संवेदनशीलता का गाढ़ापन उजागर हो जाता है। लल्लू की माँ तीर्थ जाने की तैयारी कर रही है। पति के मना करने पर वह बिफर पड़ती है। वर्षों का सारा गुस्सा लावा की तरह मानों फूट पड़ता है। उसके अंदर सहनशील नारी सत्य का दामन थाम कर अपने न्याय के लिए अपने ही परिवार में सत्याग्रह करती है। लल्लू की माँ की जुबान ऐसी चलने लगी कि अब वह अपना दाय मानो लेकर ही रहेगी। इस प्रसंग में एक आत्मीयता भरी करुणा है। तीर्थ करने की इच्छा उम्र ढलने में पुरुष और नारी दोनों में बलवती होती है। और यदि इसे परिवार के सदस्य बेटा, बहू या स्वयं अपना पति दबाना चाहे तो निश्चित रूप से उस इच्छा को पूरा करने के लिए प्रतिकार किया जाता है।

रेणु की कहानियाँ जब हिंदी के विशाल पाठक तक पहुँचने लगी तो उसकी कथावस्तु से मोहित होने के साथ उनकी भाषा के विलक्षण स्वरूप ने उन्हें अपना मुरीद बना लिया। पहली बार पाठकों का मन रेणु की भाषा के इस जादू से चमत्कृत हो उठा। अत्यंत आकर्षक एवं मिठास से भरी भाषा। संपूर्ण कथा-जगत में एकमात्र रेणु ही थे, जिन्होंने लोकरस में भीगी और लोकजीवन की गंध से सुवासित भाषा को अपनी कहानियों में प्रयोग किया था। इस उद्धरण में देखें कि रेणु ने फोटोग्राफी की दुनिया में आए बदलाव को समझाने के लिए अपने पात्र से किस तरह की भाषा का प्रयोग करवाया है। ‘भाईजान’, ‘कैमरे’, ‘रिटच’, ‘आलोछाया’, ‘लाइट’, ‘सैड’, ‘इंटरनेशनल’, ‘फोटोग्राफी’, ‘प्रदर्शनी’ जैसे शब्दों से भाषा जीवंत हो उठी है। इसके अलावा इस कहानी में ‘फिल्मों’, ‘प्लेटों, ‘मजलिस’, ‘चाय पैकेट’, ‘हैपी वैली’, ‘ब्रुकवाण्ड’, ‘होटल ब्लेण्ड’, ‘डस्ट’, ‘पाउंडवाली’, ‘व्हाइट आरटिस्ट’, ‘पॉलिटिकल सेट’, ‘साब’, ‘मेकअप’, ‘डम्मी’, ‘कॉलेज गर्ल’, ‘डिरक्टर’, ‘मिलिटरी पोशाक’ जैसे कई शब्द रेणु ने सरदार की भाषा को जीवंत बनाने और वह दूसरे शहर आया है, इसका अंतर दिखाने के लिए प्रयोग किया है। ये शब्द ऊपर से जड़े हुए-से नहीं लगते बल्कि कथा प्रसंग को अधिक प्रभावशाली और संप्रेषणीय बनाते हैं। भाषा की कला लेखक को अधिक यथार्थवादी और स्वाभाविक बनाती है। ऐसा संभव इसलिए हो सका है कि लेखक के हर प्रकार के लोगों के साथ संबंध रहे हैं। नहीं रहे हैं तो उन्होंने संबंध बनाने की कोशिश की है। आगे इनकी भाषा की संरचना के साथ इसके प्रयोग के ढेर सारे नमूने हैं। किस प्रदेश की कैसी भाषा होती है और वहाँ के लोगों के बोलने का अंदाज कैसा होता है इसकी समझ रेणु को खूब थी। लोकजीवन के बीच जीवन जीनेवाला व्यक्ति भला वहाँ की बोली-भाषा और सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों से कैसे अलग जी सकता है। रेणु ने इन्हीं साधारण लोगों के जीवन से भाषा सीखी और उसके बोलने के लहजे भी। इनकी एक कहानी है ‘रखवाला’। यह हिमालय के एक पहाड़ी गाँव में रहने वाले ‘गोरखा परिवार’ की जिंदगी से जुड़ी कहानी है। रेणु नेपाली भाषा जानते थे, क्योंकि नेपाल के कोइराला परिवार से उनका बचपन से रिश्ता था। कोइराला बंधुओं के साथ रहकर उन्होंने पढ़ाई की थी। गोरखा परिवार का सदस्य जब विवाह कर दुल्हिन घर लाता है। उसकी पत्नी तुरंत कमाने जाने देना नहीं चाहती। उसे रोकती है। लेकिन बहादुर अपनी पत्नी को कैसे समझाता है। रेणु उसकी भाषा में इस प्रकार बताते हैं–‘रनन्छ्स? दुत बावली! मच्यांडे यो डोको फरी रुपयाँ लियेर फरकयूँला, धीरज बहादुर को दुल्हिन लाय हेरन! तेस्को कान को झुमका, नाक को नथिया-जम्मे कलकत्ता को मै कमाई हो, कलकत्ता मा रुपयाँ तैयार हुंछ!’ (जिसका अर्थ है–रोती हो? दुत पगली! मैं जल्दी ही ‘डोको’ भर रुपया लेकर लौटूँगा। धीरज बहादुर की स्त्री को देखो न! उसके कान के झुमके, नाक की नथिया-सब कलकत्ता की कमाई ही तो है। कलकत्ते में रुपये बनते हैं।) यह है रेणु की बहुभाषी विद्वता! कौन-सा पात्र कब और कहाँ किस भाषा में बात करेगा, लेखक उनके अनुसार उन्हें वाणी देता है। और वे पात्र बड़े सहज रूप से अपने लगने लगते हैं।

रेणु की ‘न मिटने वाली भूख’ कहानी 1945 में प्रकाशित हुई थीं। यह कहानी उनकी भाषा के परिमार्जन दौर की कहानी है, क्योंकि इसके पूर्व ‘बट बाबा’, ‘प्राणों में घुले हुए रंग’, ‘पहलवान की ढोलक’ जैसी कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी थीं। इन कहानियों की भाषा लोक-जीवन से अभिसिंचित है। ‘न मिटनेवाली भूख’ कहानी में लेखक ने कहीं भोजपुरी तो कहीं बंगला भाषा का प्रयोग किया है। भोजपुरी वाक्य इस प्रकार कहानी में आए हैं–‘दीदी के का भेल है, अब ले पड़ल बाड़ी। आखिर।’ एक और संवाद देखें–‘बुधनी की माँ खिलकर बोली, एहे तो कल्ली! चल त रानी! देख तोहर दीदी के का भैल है!’ वहीं अँग्रेजी शब्द मिश्रित वाक्य का यह नमूना देखें–‘फ्लौरा रौल कॉल करके छुट्टी दे दो। कहती है दीदी पुनः ऑफिस में जा बैठी।’ इस वाक्य में ‘रौल कॉल’ और ‘ऑफिस’ शब्द का प्रयोग किया है। ये दोनों शब्द अँग्रेजी भाषा के हैं। लेकिन वाक्य में भावाभिव्यक्ति में कही परेशानी नहीं होती। कानों को ये शब्द खटकते नहीं। बोलने वाले पात्र बड़ी सहजता से बोलते हैं। रेणु की भाषा में यह कला सर्वत्र है।

‘धर्मक्षेत्रे-कुरूक्षेत्रे’ कहानी 1949 में छपी। यह कहानी 1942 की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है। इसमें गोरा सिपाही टॉम जो चंदन कुमार नाम के एक क्रांतिकारी को ढूँढ़ रहा है, रेणु ने उसकी भाषा की अद्भुत नकल की है। ‘कस्बे की लड़की’ हजारीबाग कस्बे के परिवेश पर लिखी गई रेणु की कहानी है। प्रियव्रत सरोज को लेकर शहर घूमने निकला है। हजारीबाग का विवेकानंद मिष्ठान भंडार ‘काला जामुन’ के लिए प्रसिद्ध है। इस शहर के निर्माण में बंगालियों का काफी योगदान रहा है। यहाँ की आबोहवा विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की अपनी पुत्री के स्वास्थ्य-लाभ के लिए खींच लाई थी। यहाँ बंगालियों के आ कर बसने के पीछे बिहार और बंगाल का मिला होना भी था। रेणु का बंगला-भाषा का ज्ञान एवं उसे कथा में प्रस्तुत करने का ढंग लाजवाब है। भाषा की यह मिसाल देखें–‘विवेकानंद मिष्ठान भंडार में कई मिनटों तक ‘कालोजाम’, ‘कालोजाम’ का गुंजन होता रहा! डी.वी.सी. के बंगाली कर्मचारियों के दल में काना-फूसी शुरू हुई, ‘कालाजामेर संगे चमचम!’ एक ने ढाका की बोली में कहा, ‘एबार दाशे (अर्थात देशे) एड्डा काईनी ब्यार हुदहे–नामडा काकहोंसिनी!… कामहंसिनी! कालोजाम!!’ ढाका की बंगला को साधारण पाठक भले ही नहीं जाने लेकिन रेणु ने जीवन में जहाँ से भी इस तरह की भिन्न-भिन्न तरह की भाषाएँ सीखी थीं, हिंदी कथा-साहित्य में उन्हें प्रयोग कर पाठकों को एक से अधिक भाषा सीखने एवं जानने के लिए प्रेरित किया।

रेणु का यह भाषा-वैविध्य उनकी कहानियों में ही नहीं बल्कि उपन्यासों एवं रिपोर्ताजों में भी मिलता है। उनका शब्दों का प्रयोग कथा के उद्देश्य से जुड़ा है। वह केवल भाषा में चमत्कार पैदा करने के लिए नहीं प्रयोग किए गए हैं। ग्राम जीवन से संबंद्ध कहानियों की भाषा का मिजाज भोजपुरी और मगही का है। ये कहानियाँ खड़ी बोली परिनिष्ठित हिंदी में न लिखी जाकर आंचलिक मिजाज में लिखी गई हैं। यहाँ व्याकरणिक वाक्य गठन महत्त्वपूर्ण नहीं है, भाषा का मिजाज महत्त्वपूर्ण है। वाक्य प्रक्रिया व्याकरण से न बनकर लोगों के व्यवहार से बनती है। इस तरह हम पाते हैं कि रेणु की कहानियों में लोकभाषा की विविधता, सरसता, सहजता और जीवंतता है।


Image: Mithila Painting. Original artwork
Image Courtesy: LOKATMA Folk Art Boutique
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ममता कुमारी द्वारा भी