हिंदी गजल की विकास यात्रा

हिंदी गजल की विकास यात्रा

हिंदी गजल के विकास अथवा हिंदी गजल के परिदृश्य पर जब हम गौर करते हैं तो एक सवाल हमारे जेहन में कौंधता है कि हिंदी गजल में इश्क से ज्यादा समाज की जरूरत क्यों हुई? और क्या कारण थे कि हिंदी गजल में न सिर्फ समाज बल्कि आर्थिक और राजनीतिक विषय भी सूक्ष्म (और स्थूल) रूप से अभिव्यक्त होते रहे हैं। इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है। यहाँ, कबीर, अमीर खुसरो, प्रसाद, निराला की गजलों का आकलन भी इसलिए गैरजरूरी है कि ‘गजल परंपरा’ में उनकी अक्सर चर्चा होती रही है। यहाँ बात उस धारा की है जो हिंदी गजल को उर्दू गजल से भिन्न स्वरूप प्रदान करती है।

वर्तमान गजल परिदृश्य में पूर्व हिंदी गजल के पास तीन गजलकार थे–भारतेंदु, शमशेर और दुष्यंत! यहाँ तीनों वरिष्ठ गजलकारों की शेरगोई की छवि को व्यक्त करते तीन शेर–

दिल मेरा ले गया दगा करके
बेवफा हो गया वफा करके

 –भारतेंदु हरिशचंद्र

फिर निगाहों ने तेरी दिल में कहीं चुटकी ली
फिर मेरे दर्द का पैमान वफा ने बाँधा

–शमशेर बाहदुर सिंह

कल नुमाइश में मिला था चीथड़े कपड़ों में वो
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है

–दुष्यंत

हिंदी गजल के इन तीन शेरों का अध्ययन करें। भारतेंदु और शमशेर बहादुर के शेरों में न सिर्फ इश्क विषय है बल्कि शब्द भी लगभग वही है जो उर्दू गजल में इस्तेमाल होते रहे हैं। ऐसा नहीं है कि ये वरिष्ठ गजलकार समाज निरपेक्ष थे। सामाजिकता इन गजलकारों के शेरों में भी व्यक्त होती है। भारतेंदु ने होली पर गजल लिखी तो शमशेर जिंदगी का फलसफा शेर में बयान करते हैं–

‘मैं कई बार मिट चुका हूँगा
वरना इस जिंदगी में इतनी धूम!’

लेकिन दुष्यंत जब गजल में प्रविष्ठ होते हैं तो जनसाधारण के दुखों, संघर्षों, यातनाओं के साथ प्रविष्ठ होते हैं। दुष्यंत की गजल में संसार एक नुमाइश है और नुमाइश में जो शख्स मिलता है–वो चीथड़े कपड़ों में है। भारतेंदु और शमशेर की गजलों में मिलन और विछोह केंद्रित शेर है तो दुष्यंत के शेरों में, साधारण मनुष्य का साधारणत्व है। कीचड़ सने पाँव हैं। फुटपाथ है। नुमाइश है। हर घर में चराग मय्यसर न होने की तड़प है। दुष्यंत की गजलों में जो तड़प है वो किसी प्रेम करनेवाले और स्त्रीपन पर जान लुटानेवाले पात्र की तड़प नहीं है। यह तड़प बेहद जीवंत, आत्मीय और आपसदारी का विश्वास पैदा करती तड़प है।

हिंदी गजलकार यदि भारतेंदु और शमशेर की गजलगोई से प्रभावित होकर गजलें लिखते तो जाहिर है, हिंदी गजल में इश्क अपनी प्रबल भावना के साथ मौजूद होता। लेकिन हिंदी गजल में प्रेम जैसे तत्त्व की उपस्थिति क्षीण है और समाज अपने समग्र रूप में विद्यमान है। हिंदी गजलकारों के पक्ष में यह बात तो जाती ही है कि उन्होंने दुष्यंत की ‘दृष्टि’ और ‘विजन’ को अपनाया और अपनी गजलों की भावभूमि तैयार की। बेशक, दुष्यंत की गजलों का चमत्कारी रूप था जिसने बाद की पीढ़ियों को अपनी ओर आकर्षित किया। दुष्यंत की गजलें, हिंदी गजल की पाठशाला सिद्ध हुई।

दुष्यंत की गजलों में आम आदमी की संघर्षगाथा, सपनों का टूटना-जुड़ना, निराशा, संशय, उम्मीदें और दुख की छायाएँ, नए सपनों के बनने और टूटने की अनुगूँज शामिल है। कुल मिलाकर देखें तो एक हिंदुस्तान-मुकम्मल हिंदुस्तान, दुष्यंत की गजलों में धड़कता हुआ महसूस होता है। वो हिंदुस्तान, अनायास दुष्यंत को मिलता है किसी नुमाइश में। और उसका लिबास? चीथड़े! बिलकुल वहीं, दुष्यंत, विडंबनाओं को, वेदना में उतारने का सामर्थ्य दिखाते हुए शेर कहते हैं। और वह शेर, भारतीय आत्मा के बीच से निकलकर, न खत्म हो जानेवाला शेर हो जाता है। शेर इतना चाक्षुष कि पूरा हिंदुस्तान, शेर के भीतर खड़ा दिखाई देता है–

‘कल नुमाइश में मिला था चीथड़े कपड़ों में वो
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।’

दुष्यंत की गजलों की यह बड़ी विशेषता है कि अश्आर एक पाठ में समाप्त नहीं होते। या यों कहें कि दुष्यंत की गजलों के शेर इतने शक्तिशाली और गहरा प्रभाव पैदा करनेवाले होते हैं कि वो कभी समाप्त नहीं होते। वो चेतना में उतर जाते हैं। आम आदमी को न सिर्फ सचेत करते हैं बल्कि उसकी साधारण अवस्था और कमजोर आवाज का अहसास भी कराते हैं–

‘मसलेहत आमेज होते हैं सियासत के कदम
तू नहीं समझेगा इसको, तू अभी इनसान है।’

यहाँ दुष्यंत, राजनीति की कुटिलता पर तंज-सा करते हैं। यह तंज किसी फिकरेबाजी में नहीं बदलता तो इसलिए कि विसंगति किसी घनीभूत छाया की तरह इस शेर में मौजूद है। ‘तू अभी इनसान है’ यहाँ जो मुहावरा बनता दिखाई देता है, इसमें व्यंजना है। इसमें दुख भी शामिल है। तंत्र का रवैया बेहद अमानवीय है, यही फिक्रजदा अहसास इस शेर की केंद्र में है। काफिया गौरतलब है ‘इनसान’। दुष्यंत की गजलों का गहराई से अध्ययन करें तो पता चलता है कि वो अपनी हर गजल में शब्दों के ‘बरताव’ के प्रति तो सतर्क रहते ही थे, काफिया को अधिक अर्थवान बनने की भी चिंता उनमें मौजूद रहती थी।

प्रत्येक बड़े शायर को पता होता है कि शेर की जड़ कहाँ है। जाहिर है, जड़ काफिये में होती है। रकीफ तो शेर को संगीतात्मक और लोच पैदा करने में मददगार होता है। लेकिन काफिया! काफिया शेर में साँस की तरह मौजूद रहता है। कुछ शेर–

‘कहाँ तो तय या चरागाँ हरेक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है
चलो, यहाँ से चलें और उम्रभर के लिए

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।’

प्रत्येक शेर में एक कथ्य है जिसमें पूरे समाज और कालखंड की वेदना उभरकर आती है। तीनों अश्आर को देखें। यहाँ शब्दों को कितने सलीके से प्रयोग किया गया है। कोई शब्द व्यर्थ नहीं और हर शब्द की अपनी अहमियत है। एक और बात! यहाँ भाषा का मिजाज नया है। दुष्यंत हिंदी-उर्दू के मेल-मिलाप से गजल की नई भाषा का सृजन करते प्रतीत होते हैं–वह है हिंदुस्तानी जबान! वो जानते हैं, उनकी गजलें इसी भाषा में व्यक्त हो सकती हैं। वो जिस नए तेवर के साथ अपनी गजलें लिख रहे थे उसके लिए तिनतिनी, रूमानी भाषा के विपरीत, एक ऐसी कौंध पैदा करती और चकमक पत्थरों की टकराहट से गूँज पैदा करती भाषा की दरकार थी। दुष्यंत ने न केवल उस भाषा का सृजन किया बल्कि यह भी अहसास कराया कि अच्छी गजलों के लिए अच्छे शब्द और अच्छी भाषा की भी जरूरत रहती है।

हिंदी गजल के स्वरूप, मिजाज और अभिव्यक्ति के अंदाज के अतिरिक्त, राजनीतिक, आर्थिक और समाजिक चेतना भी दुष्यंत से प्रभावित है। क्या यह हैरान करनेवाली बात नहीं कि जिस हिंदी गजल ने उर्दू गजल से बहुत कुछ हासिल किया, उसी हिंदी गजल ने उर्दू गजल के तीन सौ वर्षों से व्यक्त होते ‘इश्क’ जैसे विषय को त्याग दिया और उस ‘समाज’ जैसे विषय को व्यक्त किया जो दुष्यंत की गजलों में तीक्ष्णता और करुणा के साथ अभिव्यक्त हुआ।

उर्दू हिंदी गजल में कुछ समानताएँ भी हैं। जबान के एतबार से देखें तो दोनों, साधारण और अवाम की जबान में शेरगोई की जमीन तैयार करती है। लेकिन अंतर, कथ्य को लेकर है। जो न सिर्फ महसूस होता है बल्कि दिखाई भी देता है। यहाँ कुछ शेरों के जरिये इस कथ्यगत और विचारगत फर्क को स्पष्ट किया है–

‘वस्त्र में भी रहती है भूलने की बीमारी
होंठ चूम आता हूँ गाल भूल आता हूँ।’

–तहजीब हाफी

ये हमारे समय के युवा शायर हैं। मुशायरे के शायर हैं। इनके इस शेर को पढ़कर महसूस होता है जैसे स्त्री के दुख-सुख तनाव, संघर्ष, अकेलापन और असुरक्षाभाव कुछ भी मायने नहीं रखते। पुरुष पात्र (या स्वयं शायर) के लिए वह स्त्री है। इतना ही काफी है। और उसकी (शायर की) तड़प इस बात में है कि वो होंठों को तो चूम आया है, लेकिन गाल चूमना भूल गया।

स्त्री एक संपूर्ण व्यक्तित्व है, वो देहमात्र नहीं है। यहाँ हिंदी गजल के दो शेर प्रस्तुत है–

‘वो सोचता है मुझे भूल जाएगा इक दिन
मैं जानता हूँ उसे ये हुनर नहीं आता।’

–ध्रुव गुप्त

‘इतनी सादा है कि तू मैंने कभी
तुझसे उम्मीद एक लफ्ज न की।’

–हरजीत

प्रेम की अनुभूति इन शेरों में भी है। लेकिन अनुभूति में प्रेम का अकथ रूप है। ऐसा नहीं कि उर्दू में प्रेम केंद्रित अच्छी शायरी नहीं हुई। हुई और उत्कृष्ट हुई। एक शेर–

‘दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है।’

यहाँ प्रेम है–अपनी प्रबल भावना के साथ है! तेज धूप में प्रेमिका के पाँव जल रहे हैं। उस जलन की पीड़ा में ही तो प्रेम का अकथ रूप निहित है।

एक और शेर है–

‘तुने कहा न या कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
आँखों को अब न ढाँप मुझे डूबता भी देख!’

शकेब जलाली का यह शेर, बिंब को रचता हुआ। प्रेमी-प्रेमिका के बीच प्रेम की प्रबल भावना है तो आत्मसम्मान भी हददर्ज का है। प्रेमी को कश्ती (जीवन) में बोझ होना गँवारा नहीं हुआ और उसने दरिया में छलाँग लगा दी। इन शेरों के सम्मुख नए समय के युवा शायर तहजीब हाफी का शेर कितना सतही प्रतीत होता है।

ऐसा नहीं कि उर्दू गजल में प्रेम का स्थूल रूप व्यक्त हो रहा है। हिंदी गजल के मंचीय गजलकारों ने भी प्रेम केंद्रित गजलों में खूब उत्पात मचाया। कुँवर बेचैन की गजल के शेरों को देखें। उन्हें, किसी स्त्री की कभी बेड़ियाँ अच्छी लगी तो कभी चूड़ियाँ अच्छी लगीं। गजल और कुछ नहीं, फिक्र की आँच है। वो फिक्र की आँच जो अनुभवों के आतिशदान से, किसी तड़प की तरह बाहर आती है।

यह देखने का नजरिया होता है जो शेर में विचार के रूप में व्यक्त होता है, उसका महत्त्व होता है। कुछ शेर देखें–

‘अपने घर तो है शनीचर की सवारी बहना
कुछ, जजो तूने ही पकाया हो तो ला दी, बहना।’

–नार्वी

यहाँ, शेर में, दो स्त्रियों का वार्तालाप है। एक बहानापन है। साथीपन है। यहाँ निर्धनता है। फाकाकशी है। गजलकार नार्वी ने बड़ी सादगी के साथ, दो स्त्रियों के जरिये न सिर्फ उनके ‘दुख’ को साझा किया है, बल्कि लोकजीवन की छवि को भी अपनी अदा में अभिव्यक्ति दी है–

इसी ‘दुख’ की अभिव्यक्ति अदम गोंडवी के शेर में भी है–

‘वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है।’

यह हिंदी गजल का ठाठ है कि यहाँ स्त्री अपने संपूर्ण व्यक्तित्व और निजता और अपने दुख-सुख के साथ व्यक्त होती है। भावना का यह शेर–

‘मेरे घर में पीड़ा भी पटरानी है
तेरे घर में सुख भी नौकर हो तो हो।’

प्रश्न केवल स्त्री संपूर्णता का नहीं। हिंदी गजल में ‘दुख’ भी अपनी संपूर्णता में व्यक्त होता है। जीवन की असुरक्षा के पशेमंजर, दुख की छायाएँ महसूस की जा सकती है। अनिरुद्ध सिन्हा का यह शेर–

‘उस शिकारी की नजरों में छुपकर अभी
वो परिंदा जो बैठा है, खतरे में है।’

सुशील ठाकुर का ये शेर–

‘आपसी रंजिशों के मेले में
हम तबाही खरीद कर लौटे।’

प्रत्येक चेतना संपन्न गजलकार अपने अनुभवों की पुनर्रचना करते हुए, संपूर्ण एकाग्रता के साथ शेर कहने का प्रयास करता है कि शेर अपने आप में बोलता हुआ दिखाई दे। दिखाई दे–यानी, वो गहराई तक महसूस हो। यानी, शेर के शब्दों की लय, अर्थ की तान में बदल जाए। शेर दिखाई दे, यानी, वो दृश्यात्मकता की रचना करे। शेर में विश्व का रचाव, एक कलात्मक हुनरमंदी है। हिंदी के गजलकारों ने समय के साथ-साथ, इस दृश्यात्मकता के गुण को हासिल किया है। कुछ शेर–

‘है शोर इतना खामोशियों का है बोझ इतना अकेलेपन का
हरेक घर का यही है मंजर, जो कुछ इधर है, वही उधर है।’

–अनिरुद्ध सिन्हा

‘कैसी आवारा सियासत है जो हर शाम ढले
झोपड़ी छोड़ के महलों में चली आती है।’

–डॉ. चंद्र मिखा

‘सुबह से शाम तक जलते हुए खंडहर दिखाता है
ये कैसा शहर है जो खौफ के मंजर दिखाता है।’

–माधव कौशिक

‘इतनी जल्दी क्या है साहिब, ठहरो भी कुछ बात करो
तुमको जो घर जाना है तो हमको भी घर जाना है।’

–शिवनारायण

‘काजू भुने हैं प्लेट में व्हिस्की गिलास में
आया है रामराज विधायक निवास में।’

–अदम गोंडवी

‘मेरी गुड़िया के कदम से, हर तरफ थीं रौनकें
हाथ पीले कर दिए तो सूना आँगन हो गया।’

–कुमार प्रजापति

इन शेरों पर ध्यान दें। इनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक बिंब-सा बनता दिखाई देता है। शेर, शब्दों में ही व्यक्त नहीं होता, वो तस्वीर में भी व्यक्त होता है। शेर की कैफियत का इस रूप में व्यक्त होना, शेर को चमक प्रदान करता है।

निस्संदेह, गजल हैरान और परेशान करनेवाली विधा है। गजल आसान नजर आती है, लेकिन होती नहीं। एक शेर की दो पंक्तियों (दो मिसरों) में, शब्दों का प्रवाह और भावना का दरिया होता है। भावना के दरिया पर ही तो अनुभूतियों के चराग जलाए जाते हैं। जो रौशनी पैदा होती है, उसी को शेरीयत कहते हैं। गजल का हर शेर, अपने समय का प्रतिवाद होता है। गजल के शेरों में, विचार बेशक अनेक होते हैं, लेकिन उनमें होती है समय की गूँज। वो गूँज केवल वर्तमान की ही नहीं होती, गुजिशता की भी होती है। गजल, अगर वर्तमान का आतिशदान है तो उस आतिशदान में बुझे दिनों का ढेर होता है और वर्तमान से हो रही मुठभेड़ के अँगारे भी होते हैं।

चकित कर देनेवाली बात यह है कि साधारण शब्द, गजल में आकर असाधारण रूप धारण करते हैं। यह गजलकार की शेरगोई पर निर्भर करता है कि वो शब्दों के साथ कैसा सुलूक करता है। गजल में, शब्दों का बरतना, महत्त्वपूर्ण होता है। शब्दों का बरतना यदि शानदार हो तो शेर की तासीर नष्ट हो जाती है। यह बात हम पूरे यकीन से कह सकते हैं कि बहुत अच्छा गजलकार बहुत अच्छा संगतराश भी होता है, जो शब्दों को तराश कर, अपने शेरों में इस्तेमाल करता है। यानी, गजल के शेर, शब्दों की चमत्कार पैदा करनेवाली, बाजीगरी से छनकर आते हैं। कुछ शेर–

‘हवाओं को कभी छुट्टी दिया कर
हवा तू भी कभी पैदल चला कर।’

–देवेंद्र आर्य

‘आई चिड़िया तो मैंने ये जाना
मेरे कमरे में आसमान भी था।’

–हरजीत सिंह

हमारी रोटियों पर हक परिंदों का भी होता है
ख्याल आते ही हम थाली में लुकमा छोड़ देते हैं।

–सुनील ठाकुर

‘बेखबर सरकार है और चुप अखबार है।’

–शिवनारायण

जिंदगी कंघियों में ढाल हमें
तेरी जुल्फों का पेचोखम निकले।’

–सूर्यभानु गुप्त

‘कबीलों ने किए सरदार पैदा
कहीं नादिर कहीं पे जार पैदा।’

–महेश अश्क

इन शेरों के जरिये, शब्द प्रयोग और शब्दों के ‘बरताव’ को केंद्र में रखा गया है। गजलकारों ने किस सलीके अपने विचार व्यक्त किए हैं। यह सलीका शब्दों के जरिये ही तो व्यक्त हो पाया है। इन शेरों में एक और बात विशिष्ट है वो है लय पैदा करना। शब्द लय पैदा करते हैं। इतना ही नहीं, यथार्थ और कल्पना के मिश्रण से शेर मेयार हासिल करते हैं।

कुछ शेरों के जरिये, लफ्जों के बरतने पर बात की जा रही है। लफ्जों का बरताव न केवल शेरों को मानीरवेज और लयात्मक बनाता है बल्कि शब्दों की फिजूलखर्ची से भी बचाता है। हिंदी गजलकारों ने समय के साथ-साथ शब्दों के प्रयोग की सलाहियत हासिल की है।

हिंदी गजल लिखनेवालों ने एक बात शिद्दत के साथ महसूस की है कि स्थूल चित्रण अथवा स्थूल अभिव्यक्ति से बचा जाए। यह बात उन्होंने अपने अनुभवों तथा आधुनिक उर्दू गजल के अंदाजे-बयाँ से भी हासिल की है। इसलिए, हिंदी गजलकारों की एक धारा उन गजलकारों की है जो उर्दू भाषी गजलों के समीप चली जाती है। सुखद अनुभव और अध्ययन यह है कि हिंदी गजलकारों पर बेशक उर्दू गजल का प्रभाव है–शिल्प, भाषा और अंदाजे-बयाँ के स्तर पर! लेकिन अंतरवस्तु शेर की आंतरिकता, कंटैंट और प्रतीकात्मकता, हिंदी गजलकारों की नितांत अपनी है। यहीं से हिंदी गजल की अपनी पहचान बनती है और यहीं से उसका चेहरा भी स्पष्ट होने लगता है।

हम जब अपने समय की हिंदी गजल पर विचार करते हैं तो पाब्लो नेरूदा का कविता के विषय में व्यक्त किए गए विचार ध्यान आते हैं–‘कविता आदमी के भीतर से निकली एक गहरी पुकार है। उसी से उपासना पद्धतियाँ निकली’ भजन और धर्मों के तत्त्व भी। कवि ने प्रकृति की लीलाओं का सामना किया और प्रारंभिक युगों में, अपने व्यवसाय की सुरक्षा के लिए खुद को पुरोहित कहा। ठीक इसी तरह–आज का सामाजिक कवि भी पुरोहितों की प्राचीनतम व्यवस्था का सदस्य है। पुराने जमाने में उसने अंधकार से संधियाँ की थीं–अब उसे प्रकाश की व्याख्या करनी होगी।’

प्रकाश की व्याख्या? ऐसा प्रतीत होता है जैसे नेरूदा जीवन की व्याख्या की बात कर रहे हों। और हमारे समय की गजल…हिंदी और उर्दू भाषाओं की गजलें यही तो कर रही हैं। गजलकार जब रात की अथवा अंधकार की बात करता है तो बात वो हर हाल में उजाले की ही कर रहा होता है। थोड़ा गौर से अपने समय की गजल (गजल–यानी हिंदी-उर्दू गजल) का अध्ययन करें तो एक बात जरूर स्पष्ट होगी कि हर शेर सवाल पूछता प्रतीत होता है। सवाल जीवन से, संसार से, ईश्वर से…सत्ता से…अपने आप से भी!

हिंदी गजल की विकास यात्रा बहुत जटिल रही है। हिंदी गजल के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार, जगजाहिर है। हिंदी काव्य के केंद्र में कविता रही है। हमेशा, चर्चा कविता पर हुई है। हिंदी गजल चर्चाहीन! लेकिन चकित कर देनेवाली बात है कि यही उपेक्षित विधा–हिंदी गजल, ने एक सशक्त रूप धारण किया है। हिंदी गजल जो आज है, उसके पस-मंजर, दुष्यंत के बाद लिखेनेवालों की निष्ठा और योगदान रहा है। कुछ नाम, जिन्हें हम कभी नहीं भुला पाएँगे–शलभ श्रीराम सिंह, हरजीत सिंह, अदम गोंडवी, रामअवतार त्यागी, जहीर कुरैशी गजलकारों के अतिरिक्त, सुलतान अहमद, नूर मुहम्मद नूर, विज्ञान व्रत, डॉ. चंद्र त्रिखा, रोशनलाल रौशन, ध्रुव गुप्त, अनिरुद्ध सिन्हा, प्रेम किरण, एहतराम इस्लाम, शिवनारायण, माधव कौशिक, देवेंद्र आर्य, कमलेश भट्ट ‘कमल’, हरेराम समीप, योगेंद्र दत्त शर्मा, कमल किशोर श्रमिक, पराग चतुर्वेदी, हस्तीमल हस्ती इत्यादि।

इनमें से कुछेक गजलकारों ने ‘हिंदी गजल आलोचना’ के क्षेत्र में आकर, एक आँच-सी पैदा की। नचिकेता और डॉ. जीवन सिंह ने जो ‘गजल जगत’ के न होने के बावजूद, गजल आलोचना में विमर्श तलब काम किया।

हिंदी गजलकारों ने बिंबात्मक गजलें लिखीं। शब्दों को प्रतीकात्मकता प्रदान करते हुए, शीशे की तरह चमकते हुए शेर कहे–

‘साँस लेने की सब मशीने हैं
ढूँढ़ता हूँ मैं आदमी कोई।’

–नंदलाल पाठक

‘मेरी आँखों में सदियाँ जागती हैं
तेरे सीने में पत्थर सो रहा है।’

–इंदु श्रीवास्तव

‘अँधेरे सभी आशियानों में हैं
कि अब रौनकें बस दुकानों में हैं।’

–देवमणि पांडेय

‘अफसानों में जीनेवाले अब अफसाने लगते हैं
बीती बातों की महफिल में चंद फसाने लगते हैं।’

–शिवनारायण

पचास वर्षों की गजल यात्रा, किसी नंगेपाँव, पद्यात्री की ध्यान यात्रा की तरह रही है, जो धूप, बारिश, कंकर-पत्थर, सब झेलता हुआ आगे बढ़ता रहता है। ऐसे पद्यात्री की मंजिल नहीं होती, सिर्फ रास्ता होता है। हिंदी गजल के पास भी सिर्फ रास्ता है। यहाँ मंजिल की जुस्तजू है ही नहीं। विधाओं की कोई मंजिल होती ही नहीं। विधाओं का विकास क्रम होता है।

हिंदी गजल का जितना तिरस्कार हुआ है, हिंदी गजल उतनी अधिक ताकतवर हुई है। फिक्र के स्तर पर विविधता और सोच के स्तर पर विस्तार उतना ही अधिक हुआ है। हिंदी गजल की चिंताओं में पूरा समाज है। विडंबनाएँ हैं। सामाजिक मूल्य हिंदी गजल में हमेशा शामिल रहे हैं। कुछ शेर–

‘मैं निकला हूँ खरीद औरों की करने के लिए पर
कहीं यह तो नहीं मैं अपना सौदा कर रहा हूँ।’

–कमलेश भट्ट ‘कमल’

‘हर इक कदम पे तिजारत है जिंदगी अब तो
हर इक कदम पे जमाना है इश्तहार का पेड!’

–सूर्यभानु गुप्त

‘दगा फरेब कपट छल फितूर मक्कारी
वो एक साथ कई सरपरस्त रखता है।’

–एहतराम इस्लाम

‘जीने के कुछ मानी दे
ऐसी एक कहानी दे।’

–डॉ. चंद्र त्रिखा

‘वक्त के इस शार्पनर में जिंदगी छिलती रही
मैं बनाता ही रहा इस पेंसिल को नोकदार।’

–हरेराम समीप

‘सफर में दर्दभरी दास्तान रख दूँगा
मैं पत्थरों पे लहू के निशान रख दूँगा।’

–माधव कौशिक

‘बदमिजाजी सियासत की इतनी बढ़ी
आग अपने ही घर को लगाने लगी।’

–शिवनारायण

‘इस नये जमाने का क्या गजब करिश्मा है
डाकिए नहीं आते, चिट्ठियाँ नहीं मिलती।’

–अनिरुद्ध सिन्हा

‘मुश्किलों में थोड़ी-सी इसलिए है आसानी
नौकरी नहीं करते कारोबार करते हैं।’

–कुमार प्रजापति

‘इस तरह निश्चिंत दफ्तर को गए बेटा-बहू
घर में माँ ताले की सूरत और बच्चे चाबियाँ।’

–वशिष्ठ अनूप

‘सच्चाई की कोई सूरत नहीं देखी तो क्या देखा
झलकती बच्चे के चेहरे पे जो मासूमियत क्या है।’

–योगेंद्र दत्त शर्मा

हिंदी गजल के इन (कुछेक) शेरों को देखिए। कितना विषयगत विस्तार है। सबका अपना मुहावरा है। शेर कहने का सलीका और शेर में ‘बात’ पैदा करने की बेचैनी महसूस होती है। यही बेचैनी हिंदी गजल की अंतर्धारा है। भावना की प्रबलता है, जिसमें सामाजिक सरोकार हैं। जिसमें बेहतर समाज बनने की जिज्ञासा है। जिसमें विडंबनाओं पर तबसरा है। हिंदी गजल का यह विषयगत अनुभव आश्वस्त करता है।

हिंदी गजल में समाज है तो प्रतिरोध की भी आवाजें हैं। दुष्यंत के प्रतिरोध की भी आवाजें हैं। दुष्यंत के प्रतिरोध में करुणा का स्वर भी शामिल था। हिंदी गजलकारों में करुणा का स्वर कम है। तीक्ष्णता अधिक है। कुछेक गजलकार प्रतिरोध के नाम पर, शिकायती रजिस्टर खोलकर बैठ जाते हैं। वही एकरेखीय रचनात्मकता, हिंदी गजल के एक पक्ष को न केवल इकहरा बल्कि स्थूल भी बनाती है।

लेकिन प्रतिरोध के स्वर में जब, दुख, अभाव, संघर्ष पूरी ईमानदारी के साथ गूँजते हैं तो वो प्रतिरोध रचनात्मक हो उठता है। जैसे कि ये दो शेर–पूरी गजल जो नार्वी की है। यहाँ दो शेर–

‘छा गई उफ, किस कदर बेचारगी बीड़ी जला
याद अपनी असलियत फिर आ गई बीड़ी जला

सरफरोशी के इरादे कल भी यूँ ही थे जवाँ
कल भी बस बीड़ी जली थी आज भी बीड़ी जला।’

–नार्वी

‘बीड़ी जला’ जैसा रदीफ हिंदी गजल में दुर्लभ है। इस ‘बीड़ी जला’ में प्रतिवाद है। इसमें बतकही का अंदाज है। इस ‘बीड़ी जला’ रदीफ में निर्धनता का आख्यान है। इसमें साथीपन है। इसमें फक्कड़पन है। ऐसा प्रयोग जो हिंदी गजल में हुआ है, उर्दू गजल में शायद कभी न हुआ हो। प्रतिरोध जब किसी एजेंडे के तहत, गजलों में व्यक्त होता है तो वो अपना तेज और धार खो बैठता है।

हिंदी गजल की विकास यात्रा का एक सुखद पहलू यह भी है कि पहले पूछा जाता था कि हिंदी गजल का भविष्य क्या है? इस प्रश्न को अब कोई नहीं उठाता। हिंदी गजल का विराट परिसर और व्यापकता इस प्रश्न का उत्तर है। उत्तर यह भी है कि इधर जो युवा रचनाकार हिंदी गजल को अपनी नई सोच, नई दृष्टि और प्रयोगधर्मिता से समृद्ध कर रहे हैं, उनका खैरमकदम जरुरी है।

हिंदी गजल में आलोचना का क्षेत्र बेशक कुछ दुर्बल है लेकिन हम इस बात से आश्वस्त हैं कि युवा गजलकार, सोच, शऊर, संचेतना, एकाग्रता से गजलें लिख रहे हैं। नए विषयों की खोज और बेहतर कहने की बेचैनी उनके रचनात्मक सरोकारों में शामिल है।


Image: Southern India, Deccan Group Portrait of Rajas Surrounded
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Artist: the Courtly Retinue – 1996.296 – Cleveland Museum of Art
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