भारतीय नवजागरण और भिखारी ठाकुर

भारतीय नवजागरण और भिखारी ठाकुर

अँग्रेजों के शासनकाल में भारतीय समाज का संपर्क आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से हुआ। यहाँ के सामाजिक जीवन में कई अमानवीय कृत्य, हास्यापद और अवैज्ञानिक परंपराओं को धार्मिक मान्यता प्राप्त थी और आज भी है। अँग्रेजों के शासन के फलस्वरूप ही सती-प्रथा पर प्रतिबंध लगा, विदेश यात्रा को स्वीकृति मिली, स्त्रियों और शूद्रों को शिक्षा मिलनी संभव हो सकी तथा समाजसुधार के ऐसे बहुत से कार्य हुए। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि ये सभी बदलाव सिर्फ कानून के बल पर नहीं हुए। इसके पीछे कई समाज-सुधारकों का महान योगदान भी रहा है।

बंगाल सबसे पहले अँग्रेजों के संपर्क में आया। कहा जाता है कि संपर्क से संस्कार बनता है या बिगड़ता है। अँग्रेजों के साथ-साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से भरा पश्चिमी विचार भी आया, जो बुद्धिवाद, तर्क प्रधान तथा सामाजिक समता के संदेश से भरा था। यही कारण है कि बंगाल में सबसे पहले नवजागरण संभव हो सका। देश के अन्य भागों में जैसे-जैसे पश्चिमी विचारों का प्रचार-प्रसार हुआ वैसे-वैसे ही समाज-सुधार की भावना का बीजांकुरण हुआ। सन् 1829 का वर्ष भारतीय नवजागरण के इतिहास में अविस्मरणीय है। इसी वर्ष वायसराय विलियम बेंटिक ने सती-प्रथा पर रोक लगाने के लिए कड़ा कानून बनाया। जनमानस को सती-प्रथा के विरोध में खड़ा करने में राजा राममोहन राय का सबसे बड़ा योगदान है।

हिंदी क्षेत्र के लेखक सामाजिक कुरीतियों से भरसक आँख चुराते हैं। आर्थिक गैर-बराबरी के खिलाफ तो वामपंथी लेखक लिखते-बोलते हैं, परंतु सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ राहुल सांकृत्यायन जैसे एकाध अपवादों को छोड़ दें तो कोई लिखता-बोलता नहीं है। कहते हैं कि यह सब समय के साथ अपने आप दूर हो जाएगा!

हिंदू समाज में मरने के बाद बड़े धूम-धाम से श्राद्ध करने का प्रचलन है। माता-पिता या बुजुर्ग को जीवन काल में अपनी संतति से उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है, परंतु उनके मरने के बाद उनके सुख के लिए तरह-तरह के उपक्रम होते हैं। ब्राह्मणों को सोने-चाँदी से लेकर सभी प्रकार की वस्तुएँ दान दी जाती हैं। इस मान्यता के सहारे कि यह सब मृत व्यक्ति को मिलेगा। ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों को तरह-तरह के व्यंजन खिलाए जाते हैं। इन सब विधि-विधानों के पीछे भारी खर्च होता है। इस विसंगति की तरफ भिखारी ठाकुर का ध्यान गया। उन्होंने इसकी पोल खोलते हुए लिखा–

‘जिउता में कुत्ती-कुत्ता, बनिके पतोहू-पूता, कटलन खूब ललकारी।
मुअला पर पिंडा-पानी, दान होई सोना-चानी, लोग खाई पूड़ी-तरकारी॥’

जीते जी माता-पिता की उपेक्षा होती है, परंतु मरने के बाद उन पर आदर उमड़ आता है। जिंदा रहने पर बेटा-बहू कुत्ते की तरह काटते हैं। कुत्ते काटते हैं, परंतु उन्हें ललकार दिया जाए तो और निर्ममता से काटते हैं।

दूसरी पंक्ति (मुअला पर पिण्डा-पानी…) में मरने के बाद होने वाले कर्मकांड और भोज के बारे में सीधे-सीधे कहा गया है। परंतु दोनों पंक्तियों को एक साथ पढ़ने पर मन गहरी करुणा से भर जाता है।

भिखारी ने कहीं कबीर की तरह आक्रमण नहीं किया, किसी को भला-बुरा नहीं कहा। सिर्फ दुख-दर्द को लोगों के सामने रख दिया। वह दुख-दर्द कमोबेश सबका था। कहने का ढंग इतना प्रभावशाली था कि लोग कुछ सोचने और करने को विवश हुए। यही उनकी बड़ी विशेषता है। बेची गई बेटी की करुण-कथा देखकर निर्दयी बाप के हृदय में अपराधबोध का भाव उमड़ा होगा। एक बार, दो बार नहीं, कई-कई बार लोग नाटक देखते। इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। आम आदमी समाज-सुधार की भावना से उनके नाटक देखने नहीं जाते थे, वे जाते थे मनोरंजन के लिए पर अचेतन में ही उन्हें बेटी-बेचवा प्रथा से घृणा होती जाती।

उन्होंने अपने नाटक को हथियार बनाया। कोई भी नियम-कानून तभी लाभकारी हो सकता है जब उसका पालन हो। सिर्फ कानून बना देने से उसका पालन नहीं होता। राजा राममोहन राय सहित कई अन्य समाज सुधारकों ने सती-प्रथा के अमानवीय कृत्य की ओर ध्यान दिलाते हुए इसे बंद कराने की पृष्ठभूमि तैयार की। इसके बाद भी सती-प्रथा पर रोक लगाने के लिए कड़ा कानून बनाकर कठोरता से इसका पालन कराना पड़ा। इसकी तुलना में भिखारी ठाकुर ने बड़ी सहजता से बेटी बेचवा प्रथा का नाश कर दिया। यद्यपि इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि सती-प्रथा की तुलना में यह प्रथा छोटे क्षेत्र में प्रचलित थी तथा इसे धर्म का पूरा संरक्षण नहीं मिला था। भिखारी ने अपने नाटकों के माध्यम से जनता का हृदय परिवर्तन कर दिया। परंपरागत मूल्यों को, भले ही वे गलत क्यों नहीं हो, त्यागने के लिए व्यापक पैमाने पर लोगों को तैयार करना अपने आप में ऐतिहासिक कार्य है।

भिखारी के नाटकों के लोकप्रिय होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी है कि उसमें आम आदमी कहीं-न-कहीं अपना चेहरा देख लेता है, अपने परिवेश, परंपरा, विश्वास, संस्कार, खान-पान, पर्व-त्यौहार और मनःसंघर्ष का चित्रण पाता है। बेटी-वियोग में बारात ठीक उसी ढंग से लड़की वाले के दरवाजे पर लगती है जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में होता है। स्त्रियाँ परिछावन के लिए आती हैं और बूढ़े दुल्हा को देखकर उसका रूप बखानती हैं–

‘चलनी के चालल दुलहा, सूप के झटकारल हे
दिअका के लागल बर, दुअरे बाजा बाजल हे
आँवा के पाकल दुलहा, झाँवा के झारल हे
कलछुल के दागल, बकलोलपुर से भागल हे
आम लेखा पाकल दुल्हा, गाँव के निकालल हे
आइसन बकलोल बर, चटक देव के भावल हे।’

यह गीत भिखारी ने कथा-नाटक में कथानक के अनुसार वातावरण बनाने के लिए स्वयं बनाया है, परंतु इसकी लय और धुन एकदम वही है जो गाँवों में दरवाजे पर बारात लगने के समय गाए जाने वाले परंपरागत गीतों की होती है। लोक-जीवन से निकटता का ऐसा उदाहरण उनका पूरा साहित्य है।

उनका नाटक देखने के लिए खूब भीड़ उमड़ती थी। यह भीड़ स्वतःस्फूर्त होती थी। इस संबंध में राहुल सांकृत्यायन का विचार है–‘लोग के काहें नीमन लागेला भिखारी ठाकुर के नाटक। काहे दस-दस पनरह-पनरह हजार के भीड़ होला इ नाटक देखे खातिर। मालूम होत आ कि एही नाटक में पउलिक के रस आवेला। जवना चीज में रस आवे उहे कविताई। केहु के जो लमहर नाक होय अ ऊ खाली दोसे सूघत फिरे त ओकरा खातिर का कहल जाय। हम इ ना कहतानी जे भिखारी ठाकुर के नाटकन में दोष नइखे। दोष बा त ओकर कारन भिखारी ठाकुर नइखन, ओकर कारन हवे पढ़ुआ लोग। उहो लोग जो अपन बोली से नेह देखावत, भिखारी ठाकुर के नाटक देखत आ ओमें कवनो बात सुझावत इ कुलि दोष मित जाइत। भिखारी ठाकुर हमनी के एगो अनगढ़ हीरा हवे। उनकर में कुलि गुन बा, खाली एने ओने तनी तुनी छोटे के काम हवे।’

(हिंदी अनुवाद) ‘लोगों को क्यों अच्छा लगता है भिखारी का नाटक। क्यों दस-दस पंद्रह-पंद्रह हजार की भीड़ होती है इन नाटकों को देखने के लिए। मालूम होता है कि इन्हीं नाटकों में पब्लिक को रस मिलता है। जिस चीज में रस मिले वही कविताई है। किसी की अगर लंबी नाक हो और यह सिर्फ दोष ही सूँघते फिरे तो उसके लिए क्या कहा जाए। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि भिखारी ठाकुर के नाटकों में दोष नहीं है। दोष है तो उसका कारण भिखारी ठाकुर नहीं हैं, उसका कारण पढ़े-लिखे लोग हैं। वे लोग अपनी बोली से स्नेह दिखाते, भिखारी ठाकुर के नाटकों को देखते और उसमें कोई बात सुझाते तो यह सब दोष मिट जाता। भिखारी ठाकुर हम लोगों के अनगढ़ हीरा हैं। उनमें सब गुण है, सिर्फ इधर-उधर थोड़ा तराशने की जरूरत है।’

भीड़ जमा करके उसे अपने मनोनुकूल मोड़ देने की कला उन्हें मालूम थी। उनके नाटकों में परंपरा और परिवर्तन का समन्वय सर्वत्र दिखाई देता है। उनके नाटकों में एक तरफ देवी-देवता की स्तुति, चमत्कार और लोक-जीवन में प्रचलित मान्यता, विश्वास मिलता है तो दूसरी तरफ बेटी बेचवा-प्रथा, विधवा-दुर्दशा, बेमेल विवाह, नशापान जैसी कुरीतियों से होने वाली हानियों से लोगों को अवगत कराया। लोग प्रचलित परंपराओं की आलोचना सुनना, करना नहीं चाहते। भिखारी ने बिना लोक-जीवन के आस्था-विश्वास पर चोट किए कई परंपराओं से उन्हें विमुख कर दिया।

हिंदू समाज में पहले विधवाओं को बड़ी कष्टमय जिंदगी होती थी। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार स्त्री द्वारा पूर्वजन्म में किए गए पाप के कारण पति मर जाता है और वह विधवा हो जाती है। भिखारी की नजर विधवा समस्या पर भी गई। ‘विधवा-विलाप’ नाटक में उन्होंने इस समस्या की ओर लोगों का ध्यान खींचा।

पहले विधवा हो जाने पर स्त्री के दुख का ओर-छोर नहीं था। सिर मुंडा के रहना, एक समय खाना, खास रंग का कपड़ा पहनना, किसी मंगलकार्य में भाग नहीं लेना, घर के किसी कोने में उपेक्षित होकर पड़े रहना जैसे अनगिनत अमानवीय बंधन थे। सनातन धर्म की व्यवस्था में विधवा हो जाने पर स्त्री का पति की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं था। इसी कारण विधवा हो जाने पर स्त्री का जीवन कष्टमय हो जाता था। पति के मरते ही स्त्री की न तो मायके में मान-मर्यादा होती, न ससुराल में। इसी सच को भिखारी ने अपने ‘विधवा-विलाप’ नाटक में चित्रित किया। इसमें पति के नहीं रहने पर औरत को पति का भतीजा तरह-तरह के कष्ट पहुँचाता है।

भिखारीयुगीन विधवा-समस्या काफी हद तक बेमेल विवाह से जुड़ी थी। पिता की उम्र के मर्द से शादी, फिर विधवा और उसके बाद पूरी जिंदगी उपेक्षा, अपमान और घृणा के बीच काटने की विवशता! इन तमाम स्थितियों से गुजरते हुए नारी का असली रूप उनके नाटकों में दिखता है।

आजकल ‘गबरघिंचोर’ उनका सबसे अधिक मंचित होने वाला नाटक है। इसमें यह स्थापित किया गया है कि संतान पर सबसे अधिक अधिकार माँ का होता है। पुरुष प्रधान समाज में यह स्थापना क्रांतिकारी है।

उनके अधिकांश नाटकों में नारी समस्या को उजागर किया गया है। नारी मनोविज्ञान के चित्रण में उन्हें काफी हद तक सफलता मिली है। आज जब विश्वव्यापी नारी मुक्ति का संघर्ष चल रहा है, तब उनकी याद स्वाभाविक है।

नशापान भी एक सामाजिक कुरीति ही है। इसे भी धर्म से जोड़ दिया गया है। गाँजा, भाँग शंकर का प्रिय आहार माना जाता है। आज भी गाँवों में ओझा-गुनी भूत भगाने के लिए देवी-देवताओं को शराब चढ़ाते हैं। भिखारी ने अपने ‘कलयुग प्रेम’ नाटक में नशा के सेवन करने से होने वाली हानियों को घटनाओं के माध्यम से चित्रित किया है। नशा की लत लगने से व्यक्ति किस तरह अपना कर्त्तव्य, लोक-लाज सब भूल जाता है, परिवार छिन्न-भिन्न हो जाता है–इस सब का यथार्थ चित्रण इस नाटक में मिलता है।

भिखारी ठाकुर की भाषा भोजपुरी है। उनके साहित्य का अधिकांश हिस्सा आज उपलब्ध नहीं है।