साहित्य और सिनेमा का अंतर्संबंध

साहित्य और सिनेमा का अंतर्संबंध

ब से सिनेमा का जन्म हुआ है तब से साहित्य के साथ सिनेमा का एक गहरा संबंध रहा है। वैसे तो साहित्य और सिनेमा दो स्वतंत्र विधाएँ हैं। बहुत से विद्वानों ने तो सिनेमा को एक विधा मानने से इनकार कर दिया। सिनेमा को कई विद्वानों ने कला का दर्जा दिया है। सिनेमा पढ़े-लिखे और अनपढ़ दोनों प्रकार के लोगों के मनोरंजन का साधन है। सिनेमा कई लोगों को उपन्यास की तरह मनोरंजन कराता है। अपने दुख-दर्द को भुलाकर वे आनंद प्राप्त करना चाहते हैं। कुछ समय के लिए वह अपने जीवन का सारा दुख और परेशानी को भुलाकर आनंदित होना चाहते हैं। सिनेमा में वह अपने सपनों को पूरा होते देखता है। जो खुशी उसे असल जीवन में नहीं मिलती है उसकी पूर्ति लोग सिनेमा देखकर करते हैं। सिनेमा बहुत सशक्त विधा है–जो स्वयं में संपूर्ण है। परंतु इसका सृजन साहित्य के समान स्वांतसुखाय या व्यक्तिगत संतुष्टि के लिए नहीं किया जा सकता। यह एक सामूहिक रचना है। यहाँ सिर्फ शब्द नहीं है बल्कि अभिनय, कथा, पटकथा, संवाद  ध्वनियाँ, खान-पान, वेशभूषा, परिवेश, गीत-संगीत और लोकेशन आदि सभी घटकों का बहुत सार्थक और रोचक संगुफन है और यह संगुफन करता है कैमरा। कैमरा ही वह खिड़की है जो इन घटकों में तालमेल करके हमारे सम्मुख एक सामूहिक कृति प्रस्तुत करता है। अतः कहा जा सकता है कि सिनेमा रंगमंच के गुणों से युक्त नृत्य, गीत-संगीत के तत्त्वों से भरपूर  आधुनिक तकनीक से परिपूर्ण जीवन के विविध पक्षों को बड़े कैनवास पर प्रस्तुत करने वाला एक प्रभावशाली माध्यम है।

साहित्य शब्द का अर्थ है–सबका हित करने वाला, सहित या साथ होने का भाव अर्थात जिसमें सबका हित निहित हो वह साहित्य कहलाता है। साहित्य सदा से मानव कल्याण के लिए लिखा गया है। साहित्य समाज को गलत रास्ते से निकालकर अच्छे रास्ते पर चलने की ओर प्रेरित करता है।

साहित्य में मानव जीवन की विविध भावनाओं तथा विचारों का प्रकटीकरण होता है। पहली बात तो हम सिनेमा से जो उम्मीद करते हैं वो, साहित्य से उम्मीद नहीं करते। साहित्य में परिवर्तन कामी होता है, उसमें एक ही माँग होती है, वो  चाहे व्यक्ति को बदलने की माँग हो या समाज को बदलने की माँग हो, चाहे देश को बदलने की माँग हो उसमें क्रांति की अवधारणाएँ होती है। भाषाएँ, आकांक्षाएँ और उम्मीद होती हैं और उसमें समाज ऐसा होना चाहिए ये अभिव्यक्त होता है। तात्पर्य यह है कि साहित्य और सिनेमा दोनों ही जनमानस की भावनाओं और विचारों को अभिव्यक्त करने के सशक्त माध्यम हैं। साहित्य में भले ही मनोरंजन मिलता है पर उसमें उचित उपदेश भी होना चाहिए। मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में–‘मनोरंजन न केवल कवि का कर्म होना चाहिए, उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।’ सिनेमा से हमें मनोरंजन की उम्मीद अधिक रहती है। साहित्य और सिनेमा में से सिनेमा में मनोरंजन की प्राथमिकता अधिक रहती है। सिनेमा में भी कोरा मनोरंजन ही नहीं होता, उसके साथ-साथ समाज में व्याप्त अनेक सामाजिक और राजनीतिक बुराइयों को उजागर करके उनका समाधान दिखाने का प्रयास भी किया जाता है। साहित्य और सिनेमा दोनों ही परिवर्तनकारी भूमिका निभाते हैं।

सिनेमा और साहित्य का अटूट संबंध है। सिनेमा साहित्य की उपेक्षा नहीं कर सकता, क्योंकि साहित्य उसका मेरुदंड है, जिस पर उसका सारा ढाँचा खड़ा है। सत्यजित रे उन फिल्मकारों में से एक हैं जिन्होंने साहित्य पर सबसे अधिक फिल्में बनाई हैं। फिल्में अपनी समाज के लिए सही भूमिका तभी निर्वाह कर सकेंगी जब वे साहित्य का साथ और साहित्य के संस्कार को लेकर चलेंगी। अतः सिनेमा का साहित्य से सीधा संबंध है। वहीं साहित्य एक ‘शुद्ध विधा’ है। इसलिए उसकी अनिवार्यता ‘भाषा’ है। साहित्य एक पूर्ण एवं आत्मनिर्भर विद्या है। सिनेमा जीवन के विविध पहलुओं को प्रस्तुत कर हमारे विचारों का विरेचन भी करता है। साहित्य सिनेमा को आधार प्रदान करता है तथा सिनेमा साहित्य को आम लोगों तक पहुँचाता है। ये दोनों अलग होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं और रहेंगे।

साहित्य समाज का दर्पण है। जहाँ पर सामाजिक व्यवस्था पूर्णतः प्रतिबिंबित होती है। भारतीय समाज बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुसंस्कृति और बहुमौसमी है, फिर भी इसमें एकता निहित है। ‘साहित्यस्य भावः इति साहित्य’ साहित्य में निहित  सहित का भाव उसे मानव कल्याण रूपी प्रमुख धारा से जोड़ता है। अतः समाज के हित के लिए ही साहित्य का सृजन होता रहा है। साहित्य और मीडिया एक दूसरे के प्रेरक हैं। मीडिया के प्रमुख दो रूप हैं–प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। प्रिंट मीडिया समाचार पत्र, पत्रिकाएँ और इलेक्ट्रानिक मीडिया–रेडियो, टी.वी., सिनेमा, इंटरनेट आदि। सभ्यता और तकनीकी के विकास के साथ-साथ साहित्य में भी नवीन विधाओं का आगमन होता रहा तथा साहित्यिक विधाओं से रचना विधान में अनेकानेक परिवर्तन होते रहे। सिनेमा का आरंभ और विकास इसी विकासोन्मुखी परिवर्तन का परिणाम है। साहित्य मनुष्य के विविध दस्तावेजों को विभिन्न विधाओं में रेखांकित करता है। सिनेमा, दृश्य-श्रव्य माध्यम होने के कारण समकालीन दौर की ऐसी विधा है जो अपने मंचन और प्रस्तुति में समाज के सबसे निकट है। इस संदर्भ में उमेश राठौर लिखते हैं–‘चलचित्र और साहित्य में गहरा अंतर्संबंध है। चलचित्र विधा के अध्ययन के बिना साहित्य के अध्ययन की बात उपहास सी लगती है। वास्तव में देखा जाए तो नाटक एवं समाज का परिवर्तित रूप ही चलचित्र है तथा चलचित्र विधा के अध्ययन के बिना साहित्य के अध्ययन की बात उपहासकारी लगती है। वास्तव में देखा जाए तो नाटक एवं रंगमंच का परिवर्तित रूप ही चलचित्र है तथा चलचित्र का कथानक उपन्यास से अत्यधिक प्रभावित रहा है। सिनेमा में आज जो फ्लैश बैक दिखाया जाता है, यह उपन्यास की ही देन है।’ सिनेमा का साहित्य से अटूट रिश्ता रहा है। दुनियाभर में सबसे लोकप्रिय फिल्मों में से लगभग फिल्में साहित्य पर आधारित होने के कारण ही लोकप्रिय हुई हैं। फिल्म भी अन्य सभी कलाओं की तरह एक कला है, जिसमें आधुनिक विज्ञान के उपागमों के उपयोग की सर्वाधिक संभावनाएँ हैं। केवल तकनीक ही किसी कलागत रचना को जीवित रखने में सक्षम नहीं हो सकती। वस्तुतः कला के मूल में दो उद्देश्य निहित रहते हैं–मनोरंजन और आदर्श। तकनीक इस आधार को प्रूफ करती है। इस प्रकार कहानी ही आधार है किसी फिल्म का, जो उसे अपने समाज और संस्कृति से जोड़ती है और उसे कालजयी बनाती है।

‘तीसरी कसम’ कहानी की शुरुआत होती है–‘हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है…।’ कहानी का यह वाक्य हमारे अंदर एक मीठे भावयुक्त संभावनाओं को जन्म देता हुआ एक एकल मानसिक बिंब का निर्माण करता है। किंचित हास्य के साथ हमारे मन में एक प्रश्न पैदा होता है कि हिरामन को गुदगुदी क्यों होती है? बस यहीं से कहानी प्रारंभ होती है। भारतीय संदर्भ में किस्सा रचने-बसने की यह शैली साहित्य की शुरुआत से चली आ रही है, चाहे वह रामायण हो, महाभारत हो या वैदिक ग्रंथ। इसके साथ ही विभिन्न लोक साहित्य में भी यह शैली दिखती है। कहानी और फिल्म दोनों के  मध्य इस प्रकार का एक प्रसंग भी आता है–कहानी में, ‘जा रे जमाना!…नाम लगर ड्यौढ़ी का ज़माना। क्या था, और क्या-से-क्या हो गया। हिरामन गप रसाने का भेद जानता है।’ फिल्म में यह शैली इन दोनों को तकनीक स्तर पर एक दूसरे से जोड़ती है। वस्तुतः यह एक प्रचलित शैली है। आम आदमी को अपने कथन से जोड़ने का सायास प्रयास। अब इसी नियम को जब हम सिनेमा से जोड़कर देखते हैं तो वहाँ भी पटकथा का आधार यही है, किंतु इसका तरीका बदल जाता है। सस्पेंस वहाँ भी विद्यमान है, किंतु सरलीकृत रूप में क्रमवार है। फिल्म का नाम ‘तीसरी कसम’ से धीरे-धीरे जोड़ा जाता है। प्रथम दृश्य आता है हिरामन के चोरी के सामान की लदनी, उसके पकड़े जाने पर पहली कसम खाने से, फिर वह दूसरी कसम खाता है कि अब वह कभी बाँस की लदनी नहीं लादेगा। फिर तीसरी कसम की प्रस्तावना तैयार। यह वस्तुस्थिति कहानी और सिनेमा दोनों में समान है।

अब यहाँ महत्त्वपूर्ण विचार यह है कि कहानी और फिल्म की पटकथा में यह अंतर क्यों? तो संभवतया इसका कारण लक्ष्य है। कहानी का टारगेट पाठक है तो फिल्म का टारगेट दर्शक है। सामान्यतः फिल्म की अपेक्षा कहानी का टारगेट सीमित होता है और इसे पढ़ने वाले अधिक शिक्षित, सहृदय एवं परिष्कृत अभिरुचि के माने जाते हैं, जिसके कारण कहानी के रसास्वादन की प्रक्रिया, फिल्म से थोड़ी भिन्न होती है। फिल्म में इस प्रक्रिया को थोड़ा सरल रखना पड़ता है या रसास्वादन के लिए जुड़ने के आयाम अधिक होते हैं।

कहानी में वातावरण का चित्रण एक कठिन कार्य हो जाता है जबकि सिनेमा में कहानी की अपेक्षा यह अधिक बेहतर रूप में संपादित किया जा सकता है। कहानी की अपेक्षा फिल्म के वातावरण के साथ दर्शक अधिक साधारणीकृत होता है। उसे सहज रूप में अनुभव करता है जबकि कहानी में यह पाठक की कल्पना शक्ति के ऊपर अधिक निर्भर करती है। इसके साथ ही वातावरण के निर्माण में तकनीक का सार्थक उपयोग नजर आता है। वातावरण की यह सफलता फिल्म को कहानी से अलग करती है। जब कहानी और फिल्म दोनों के, हिरामन का हिराबाई को लेकर डरने वाले दृश्य की तुलना करते हैं तो हमें फिल्म इस दृष्टिकोण से अधिक सफल नजर आती है। फिल्म में झींगुर, उल्लू, सियार आदि की जो आवाज पार्श्व से आती है वह सिनेमा और कहानी के फर्क को स्पष्ट करती है।

कथा क्रम के इस परिवर्तन में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ है–‘तीसरी कसम’ कहानी का गीत–‘सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है।’ यह गीत कहानी में मध्यक्रम में आता है जबकि सिनेमा में पहले ही मिनट में आ जाता है। जब हिरामन चोरी का सामन लेकर जा रहा है उसी समय वह यही गीत गा रहा है। यह एक विरोधाभाषी दृश्य को उत्पन्न करता है और किंचित रूप में उसके सच्चेपन को भी बयान करता है। दर्शक उसके देहाती व्यक्तित्व के सादगी एवं गीत के साथ जुड़ जाता है। फिर उसके काफिला का पकड़ा जाना, उसका बैलों के साथ भागना फिर कसम खाना जैसे इस गीत के साथ उसके अंतर्मन के संबंध को स्पष्ट करता है। कहानी में यह गीत कहीं दब जाता है क्योंकि एक ही प्रोक्ति के बाद एक दूसरा गीत फिर सामने आ जाता है। जहाँ पर इस गीत की विशेष प्रभावशीलता स्पष्ट नहीं होती, किंतु सिनेमा में इस गीत की सार्थकता है।

यह एक दुखांत फिल्म एवं कहानी है। इस फिल्म में हिरामन जो फिल्म का नायक है, वह कीमती रत्न का प्रतीक भी  है, उसकी शराफत की हार को दर्शाया है। सिनेमा के अंतिम अंश में वहीदा रहमान को उसके कंपनी के सदस्य समझा रहे हैं–‘पेट ही सब कुछ नहीं होता तो प्यार भी सब कुछ नहीं होता है। तुम्हारे इस भोले-भाले गाड़ीवान के साथ प्यार का खेल पर्दे के पीछे है, जब यह पर्दा उठेगा तो तब क्या होगा? जिसके मन में तुम देवी हो, वहाँ बाई कैसे बस सकती है। बिना कुछ कहे मुँह मोड़ लो, बेवफा समझ कर माफ़ कर देगा। जमींदार का गुस्सा क्या रंग लेता है? मुझे तो उस गाड़ीवान की जान खतरे में नजर आती है।’ यहाँ हिराबाई पर हर तरह से दबाव बनाया जा रहा है। इसके उपरांत वह इस नौटंकी और हिरामन से दूर चले जाने का फैसला  लेती  है। यहाँ पर एक आम व्यक्ति के  प्रेम करने की स्वतंत्रता की सीमा बताई गई है।

इस निश्चय के बाद हिराबाई अपने सहेली से कहती है–‘उसके भोलेपन और सादगी की एक-एक बात मुझे याद आती है। रास्ते में किसी भी मुसाफिर के देखने पर पर्दा ऐसे गिरा देता था जैसे मुझे कोई देख लेगा तो मुझे नजर लग जाएगी। आठ आने की टिकट लेकर जिसका नाच कोई भी देख सकता है उसे वह सारी दुनिया से बचा कर ले आया। स्टेज पर चढ़कर दो घंटे का नाटक करना आसान है पर जिंदगीभर सावित्री का नाटक मुझसे नहीं होगा।’ जब सहेली उससे उसके भविष्य के बारे में पूछती है तो कहती है–‘लाखों की भीड़ में एक और हिराबाई कहीं खो जाएगी।’ फिर आगे समर्पण के संबंध में कहती है–‘कुर्बानी, मेरे पास है ही क्या उसके काबिल।’

फिल्म में हिराबाई का नौटंकी छोड़कर जाने का दृश्य, इसके कहानी से अलग गठन किया गया है। यह संपूर्ण दृश्य फिल्म में वर्गीय मजबूरी को स्पष्ट करती है। फिल्म हिराबाई के प्रेम को, उसके चरित्र को एक गरिमा प्रदान करती है। हिरामन और हिराबाई दोनों के ही मन में प्रेम भाव पनप चुका था पर समाज की मर्यादाओं का दबाव एवं बंधन उन्हें हमेशा के लिए एक दूसरे से दूर कर देता है। किसी फिल्म या रचना में किसी एक भाव की चरम स्थिति, जो हमें विरेचन की स्थिति तक पहुँचा देते हैं, इसे सामान्यतः हम उसे उस रचना का ‘अंगीरस’ कहते हैं। अब इस फिल्म में प्रेम शुरू से अंत तक आप्लावित है। किंतु फिल्म या कहानी के अंत होने पर एक करुणा का भाव उत्पन्न होता है।

वस्तुतः एक फिल्म की सफलता में दृश्य, समाज आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। फिल्म में एक जमींदार की भूमिका निर्मित की गई। कहानी में केवल गीत में जमींदार आता है जबकि फिल्म में जमींदार खलनायक के रूप में स्पष्ट दिखता है जो हिराबाई के साथ बलात्कार करने का प्रयास करता है। इस दृश्य के माध्यम से एक सामाजिक मान्यता के अनुरूप एवं कथानक के अनुरूप सामाजिक दबाव को स्पष्ट करती है। यह फिल्म की अपनी पूँजीवादी जरूरत या मजबूरी  है। इस तरह यह कहानी के दायरे को खोलने का भी कार्य करती है। दूसरी तरफ व्यावसायिकता के कारण रचना की अपेक्षा कुछ सस्तापन भी आने की संभावना हो जाती है।

कहानी एक व्यक्ति की नितांत निजी रचना होती है। इसके लिए वही उत्तरदायी होता है। बल्कि फिल्म सुसंगठित निर्माण-प्रक्रिया और एक तकनीक एवं कला दृष्टिकोण से विविधतापूर्ण दल की माँग करती है, तथा इसमें गहन परिश्रम  की आवश्यकता होती है। यह वस्तुगत अंतर ‘तीसरी कसम’ कहानी और फिल्म दोनों में दिखती है। इन दोनों कला के रूपों में बहुत बड़ा अंतर है जिसके कारण कहानी अंततः एक विशुद्ध गैर-पूँजी सांस्कृतिक उत्पादन है तो फिल्म एक पूँजीगत एवं पूँजीवादी सांस्कृतिक उत्पादन है, जिसके प्रभाव स्वरूप इन दोनों की सामाजिक स्थिति एवं पहुँच भिन्न-भिन्न होती है।


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अदिति झा द्वारा भी