मृत्युबोध के बहुरंग की कहानियाँ

मृत्युबोध के बहुरंग की कहानियाँ

‘तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो क्या गम है जिसको छुपा रहे हो’। फिल्मी गीत की ये पंक्तियाँ तेजेंद्र शर्मा के आंतरिक मन और बाह्य व्यक्तित्व के विषय में सटीक बैठती हैं। जिंदादिली से लबरेज किंतु करुणा का सागर उड़ेलती आँखें। जिंदगी के हर चटख रंग बिखेरती उनकी कहानियों में एक रंग बहुत गहरा है–वह है मृत्यु का। मृत्यु न जाने कितने रंगों, कितने रूपों, कितनी छवियों, अंतर्दृष्टियों से इनकी कहानियों में झाँकती है। ऐसा लगता है तेजेंद्र शर्मा जीवन ही नहीं मृत्यु के भी शोधार्थी हैं। तेजेंद्र शर्मा के पाँच कहानी संग्रहों में लगभग दो दर्जन से अधिक कहानियों में मृत्यु किसी न किसी रूप में दर्ज है।

लेकिन यह सब जगह नियति प्रदत्त मृत्यु नहीं और इतनी सरल-सीधी भी नहीं कि व्यक्ति रो धोकर उसे स्वीकार करके शांत होकर बैठ जाए वरन् हर जगह मृत्यु का जस्टीफिकेशन है। वह है उसे वहाँ होना ही है, मृत्यु हर तर्क की काट है वहाँ। न जाने कितने अनगिनत सवालों को लेकर वह कभी आँख मिलाती हुई तो कभी ओझल होती हुई भी हमारे सामने प्रत्यक्ष रूप में हमें हमारा ही अक्ष दिखाने को तत्पर। ‘अपराध बोध का प्रेत’ हो अथवा ‘कैंसर’ तेजेंद्र की अधिकांश कहानियों में कैंसर मौजूद है। लगता है तेजेंद्र शर्मा की चहेती बीमारी किंतु सबसे क्रूर कैंसर ही है, जो अनेक कहानियों में दर्ज है। लेकिन कैंसर का कारण, उसका प्रभाव, उसकी पीड़ा, सर्वत्र एक समान नहीं हैं। कैंसर पकड़ में नहीं आता, लाइलाज है लेकिन (कैंसर) का संक्रमण केवल मरीज में ही नहीं दूसरों में (नरेन) में भी पाया जाता है। क्या पत्नी का कैंसर नरेन में नहीं व्याप गया? पत्नी के प्रति अत्यंत प्रेम एवं समर्पण रूपी कैंसर से क्या नरेन ग्रस्त नहीं हैं? इसी प्रकार ‘अपराध बोध का प्रेत’ में मृत्यु एक दर्पण है। जहाँ पूर्ण समर्पिता पत्नी की मृत्यु के पश्चात पति का स्वार्थी चेहरा दिखा जाती है मृत्यु। साथ ही रिश्तों पर पड़ी स्वार्थ की धूल भी झाड़ देती है मृत्यु। ‘मुझे माफ कर दो सुरभि मैं सोच रहा था तुम मर जाओगी तो तुम्हारी सारी कहानियाँ और कविताएँ अपने नाम से छपवाऊँगा’ इसी तरह ‘ढिबरी टाईट’ तथा ‘देह की कीमत’ में मृत्यु का कारण भले ही विदेशी वस्तुओं के प्रति आकर्षण एवं भौतिकवादी चमक हो किंतु दोनों कहानियों में मृत्यु अलग अलग अर्थ संदर्भों को लेकर चलती है। ‘ढिबरी टाईट’ में मृत्यु एक प्रतिशोध है। इराक द्वारा कुवैत पर विजय केवल विजय मात्र नहीं वरन गुरमीत के प्रतिशोध की विजय पूरे कुवैत से जुड़ जाती है। अर्थात मृत्यु का प्रतिशोध भी मृत्यु ही है। उसकी पत्नी और उसकी बच्ची की मृत्यु की पीड़ा पूरे कुवैत वासियों की मृत्यु पर हावी है।

भारत से प्रतिवर्ष दुनिया के विभिन्न देशों में वैध-अवैध न जाने कितने युवक-युवतियाँ विदेशी चमक के दीवाने होकर मृत्यु की ओर अग्रसर होते रहे हैं ‘हरदीप के दसों दोस्त भी तो अवैध थे लावारिस जिंदा लाशें’, ‘देह की कीमत’ मृत्यु एक वैश्विक सच्चाई को अनावृत्त करती हुई एक सबक बन जाती है तो मृत्यु की एक तीसरी अर्थध्वनि यह भी निकलती है कि जहाँ एक ओर हरदीप के जापानी दोस्त जो उसे बहुत कम समय से जानते थे उसकी मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा पत्नी की सहायता हेतु तीन लाख का चंदा करने का प्रबंध करते हैं। यहाँ यह प्रेमचंद  की कहानी ‘कफन’ की याद दिला जाती है। अंतर इतना है कि वहाँ ‘कफन’ का चंदा गाँव वालों ने दिया था और यहाँ जापान के दोस्तों ने, लेकिन एक बड़ा फर्क प्रेमचंद और तेजेंद्र शर्मा में समय का यह भी आया है कि वहाँ ‘कफन’ के पैसों को घीसू-माधव द्वारा उड़ाने का कारण भूख और गरीबी की पराकाष्ठा थी तो पराकाष्ठा यहाँ भी है किंतु यह भूख रोटी की नहीं दौलत की भूख है, जिसमें अपनी ममतामयी माँ और आदर्श भाइयों का मुखौटा उतारकर मृत्यु ही उन्हें बेनकाब करती है।

वस्तुतः प्रेमचंद्र और तेजेंद्र शर्मा के काल और परिवेश में बहुत बड़ा अंतर है कि तेजेंद्र के यहाँ मृत्यु शारीरिक तो है ही लेकिन यह उससे कहीं ज्यादा घातक रूप में आंतरिक है। जो मानव की मानवीयता को, उसकी कोमल भावनाओं को अपना शिकार बना रही है। मृत्यु तेजेंद्र के यहाँ इसीलिए अतार्किक है क्योंकि उसके बहुत से तर्क होने पर भी उसका कोई तर्क नहीं। क्या भौतिकवादी बाजारवादी स्वार्थी सोच का बढ़ता दायरा आज का एक खतरनाक कैंसर नहीं है, जो हमारी पीढ़ी को भीतर ही भीतर खोखला करके उसे मृत्यु की ओर धकेल रहा है? इसका प्रत्यक्ष उदाहरण दार जी का कथन है–‘दार जी अपने परिवार को देखकर हैरान थे, क्षुब्ध थे अपने ही पुत्र या भाई के कफन के पैसों की चाह इस परिवार को कहाँ तक गिराएगी, उन्हें समझ नहीं आ रहा था।’ वस्तुतः मृत्यु केवल हरदीप की नहीं, उन मूल्यों की भी हुई है। इसी नग्न यथार्थ को अनावृत्त करती है मृत्यु। अज्ञेय ने कहा था कि दुःख सबको माँजता है। कई बार पश्चाताप की भट्टी में तपकर मनुष्य कुंदन बन जाता है और उसे हैवान से इनसान बनाने में कई बार मृत्यु उसकी मदद करती है। ‘दूसरे श्रवण का शिकार’ में जहाँ पगली लाजो के लिए जीवन मृत्यु है और मृत्यु जीवन। ऐसे में दीवान साहब का अपने अवैध बेटे विजय के जीवित रहते हुए पत्थर बने रहना किंतु उसकी मृत्यु के पश्चात् पश्चाताप की अग्नि में इनसान बन जाना इसी सच्चाई को उद्घाटित करता है। इस संदर्भ में मृत्यु हैवानियत से इनसानियत की यात्रा भी है। कहानी में मृत्यु जीवन भी है, मृत्यु प्रतिशोध भी है और मृत्यु इनसानियत की ओर अग्रसर करने का अवसर भी है।

तेजेंद्र का अनुभव संसार इतना विशद और गहन है कि वहाँ जीवन तो है ही इंद्रघनुषी रंगों को समेटे हुए मृत्यु भी जीवन से प्रतिस्पर्धा करते हुए अपने विवध रंग-रूपों में उपस्थित है। दरअसल कहानीकार के मानस पटल का प्रभाव उसकी रचनात्मकता पर निश्चित रूप से पड़ता है। और क्योंकि नरेन का अंतर्मन निरंतर कसकता रहा है। जो रह रहकर रचनाओं के झरोखों से झाँकता रहता है। यदि देखा जाए तो जीवन-मृत्यु में कोई विशेष अंतर नहीं है–जिदंगी मधुर गीत संगीत है, अपनो की स्नेह-स्निग्ध छाया सिर पर है, वही जिंदगी और वहीं जिंदगी का स्वर्ग। जीवन में कई बार ऐसा भी समय आता है जब अपने ही मृत्यु की ओर धकेलते हैं तो पराये जिंदगी की ओर लाने का प्रयास करते हैं और कई बार इस प्रयास में वे अपनी जिंदगी को दाँव पर लगाकर मृत्यु का वरण तक करने से भी नहीं चुकते। मनीष का सीमा के प्रति भ्रातृत्व प्रेम एक अद्वितीय दृष्टांत है कहानी ‘मुट्ठी भरी रोशनी’ में। वह सीमा को मुट्ठी भर रोशनी देकर खुद अँधेरे में गुम हो जाता है। किंतु दूसरों के जीवन में उजाला भरने का भरपूर प्रयास। यहाँ मनीष की मृत्यु सीमा को जिंदगी देने का प्रयास करती है।

तेजेंद्र की कहानियों में केवल साँसों का बंद होना मृत्यु का पर्याय नहीं वरन् वहाँ कबीर की भाँति जीते जी मुक्ति है। लेखक का गहन चिंतन-अनुभव यह व्यावहारिक तथ्य निकालता है कि जिस परिवार हेतु, शिवनाथ बाबू ने अपनी जिंदगी दूसरों की सुख सुविधाओं के हवनकुंड में स्वाहा कर दी और वही परिवार उनसे विश्वासघात करता है तो एक सच्चा, ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति जीते जी मर चुका होता है। मृत्यु तो केवल एक बहाना है, वह तो शरीरांत है। मर तो वह उसी समय जाता है जब उसके विश्वास की हत्या होती है। विश्वास की मौत, रिश्तों की मौत जिंदगी की मौत से कहीं ज्यादा दर्दनाक होती है। लेखक ‘रिश्ते’ कहानी में इस यथार्थ को रेखांकित करता है। तेजेंद्र की कहानियों के कई पात्र जीते जी मृत्यु को अनेक स्तरों पर भोगते हैं यहाँ मृत्यु जिंदगी के साथ कदमताल करती चलती है। निश्चित रूप से व्यक्ति के कार्यों से उसकी मृत्यु को तौला जाता है। कर्म ही मापदंड है जीवन और मृत्यु के। कई बार जीवन की कड़ुवाहट और दूरियाँ मृत्यु के पश्चात् भी बनी रहती हैं और परिवार की टूटी कड़ियाँ मरणोपरांत वैसी नहीं जुड़तीं।

शत्रु से प्रतिशोध लेने के लिए अस्त्रों-शस्त्रों, दुश्चकों का सहारा लिया जाता है जिससे स्वयं सुरक्षित रहकर शत्रु का नाश किया जा सके तभी सफल प्रतिशोध माना जाता है। तेजेंद्र शर्मा की मृत्युदृष्टि इतनी विविधमुखी और यूनिक होगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ‘किराये का नरक’ कहानी मृत्यु के जिस संसार को रचती है वह अद्वितीय है। आज जिस तरह से मानव बमों का शत्रु विनाश के लिए प्रयोग किया जा रहा है। लेखक की इसी दृष्टि का रचनात्मक प्रमाण हमें इस कहानी में मिलता है। इस कहानी में मृत्यु का जीवन से कहीं कोई संबंध नहीं है। मृत्यु तो प्रतिपक्ष है। उस तिरस्कार का, उस उपेक्षा का, उस बेइज्जती का जो निरंतर नरेन को जिंदा मानव बनने के लिए उकसाता रहा है। अंततः अंधे प्रतिशोध की अग्नि में वह अपनी आत्मा को भस्म करके स्वेच्छा से एड्स रोगी बन ही जाता है। उसका केवल एक ही उद्देश्य है तृप्ति से बदला, उस अहंकार का मर्दन, उस अनादर का प्रतिशोध जो मृत्यु से कहीं बदतर हो। कहानी मृत्यु के दंश को बहुत पीछे छोड़ती हुई जिंदगी के दंश को अधिक जहरीला और अचूक अस्त्र बना देती है, जिससे मृत्यु से बदतर दर्द मिले उसे जिंदगी से। वस्तुतः इन कहानियों में मृत्यु के कितने संस्करण और प्रसंस्करण हैं इसका अनुमान लगाना कठिन है।

इन कहानियों में कहीं मृत्यु बाँटी जाती है तो कहीं माँगी जाती है। ‘मुझे मार डाल बेटा’ में बाऊजी अपनी बीमारी की दशा में अपने पुत्र से मौत माँगते हैं। जिंदगी जब बोझ बन जाती है तो मृत्यु मुक्ति का द्वार खोलती है। यही मनःस्थिति एवं द्वंद्व कहानी का मूल स्वर है। लेकिन मृत्यु और मुक्ति में भी अंतर है। पिता और स्वयं अपने नवजात पुत्रों की पीड़ा से मुक्ति के सवाल पर पुत्रों को मुक्ति दे दी जाती है। उन्हें मुक्ति देने में एक पिता पल भर की भी देरी नहीं करता तो दूसरी ओर पाँच साल से बीमार पिता को मुक्ति देने में निर्णय नहीं किया जा सकता। यहाँ सवाल चुनाव का है। दूसरा तथ्य यह भी स्पष्ट है कि आशा ही जीवन है। पौत्र का मुँह देखने के लिए मरणासन्न बाऊजी एकबार फिर जी उठते हैं और उसी पौत्र की मृत्यु के पश्चात मानो आशा ही मर गई,  बाऊजी भी तत्क्षण मृत्यु की गोद में सो जाते हैं। कहानी दोहरे स्तरों पर मृत्युबोध के अर्थों को रेखांकित करती है।

‘पासपोर्ट का रंग’ अत्यंत मार्मिक कहानी है। यह अपनी मिट्टी से लगाव की कहानी है जहाँ कोई बुजुर्ग अपने देश की नागरिकता हेतु तिल-तिल करके मृत्यु की गोद में चला जाता है। जहाँ (मृत्यु) की नागरिकता लेने के लिए अब उसे किसी पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं होगी। कैसी विडंबना है कि मृत्यु तो मिल सकती है किंतु नागरिकता नहीं। मृत्यु सरल है नागरिकता कठिन। मृत्यु के जितने भी वीभत्स रूप हो सकते हैं। वे सब ‘काला सागर’ कहानी में मिलते हैं। तेजेंद्र शर्मा ने एअरलाइन में नौकरी की थी इसलिए देश और दुनिया का अनुभव संसार उनकी कहानियों में गुंफित है। यह कहानी भी उनके अनुभव सागर से निःसृत मर्मांतक कहानी है, जहाँ आतंकवादियों द्वारा हवाई जहाज दुर्घटना में 329 लोगों की सामूहिक मृत्यु हुई थी। जी नहीं, यहाँ मृत्यु वाच्यार्थ नहीं, प्राणांत उसका अभिधेयार्थ नहीं, वरन् जिन लोगों की मृत्यु हुई है उनके अतिरिक्त भी बहुत कुछ मर रहा है। आज के भौतिकवादी पूँजीवाद की बाजारवादी संस्कृति में शरीर का अंत नहीं संवेदनाओं का अंत अधिक चिंतनीय है। एक ओर गरीब भिखारी ननकू और पीटर का यह कथन ‘यार यह विमान अगर गिरना ही था, तो साला समुद्र में क्यों गिरा? सोच कितनी बढ़िया-बढ़िया चीजें–वी.सी.आर., टीवी, सोना, साड़ियाँ सबके सब बेकार। यहीं कहीं अपने शहर के आसपास गिरता तो कुछ तो अपने हाथ भी लगता।’ वही घीसू-माधव सी मानसिकता। मरने वाले भले ही मर जाएँ पर उनके हाथ तो कुछ लगे। यहाँ भूख-गरीबी इनकी स्वार्थवृत्ति को वैधता प्रदान कर भी सकती है किंतु संवदेनशून्यता मृत्यु से ज्यादा घातक है। संवदेनहीन व्यक्ति जीवित नहीं कहा जा सकता ‘आपको याद होगा कि पिछले क्रैश में मेरी बेटी नीना की मौत हो गई थी। उस समय भी एअरलाइन और क्रू यूनियन ने मुआवजा मुझे ही दिया था। मैं चाहता हूँ अब भी मेरे बेटे और बहू की मृत्यु का मुआवजा मुझे ही मिले।’ इतना ही नहीं, परिजनों का लंदन में दाह संस्कार कर लौट रहे लोगों के संवाद मृत्यु के जितने भी क्रूर से क्रूर और विद्रूप हो सकते हैं, सब धराशायी हो जाते हैं। ‘क्यों ब्रदर, आपने कौन सा वी.सी.आर. लिया’? ‘मुझे तो एन.वी.-450 मिल गया।’

‘बड़ी अच्छी किस्मत है आपकी। मैंने तो कई जगह ढूँढ़ा आखिर में जो भी मिला ले लिया।’ यहाँ भौतिक वस्तुओं को पाकर किस्मत बनती है और अपनो को खोकर…निरंतर मृत्यु प्रश्न करती है, एक बहस करती है और आज की परिस्थितियों में वह जहाँ, जैसी जिस रूप में है वह पूर्णतः अडिग और नैतिक। यहाँ मृत्यु की पीड़ा, उसका अहसास पूर्णतः सूखकर उसका प्रवाह भौतिक वस्तुओं की ओर हो गया है ‘जिस काम के लिए आए थे वह तो हो गया। जरा बताएँगे कि शॉपिंग वगैरह करनी हो तो कहाँ सस्ती रहेगी? नए हैं न…।’

यहाँ मृत्यु विदेश भ्रमण और सैर सपाटे का केवल अवसर मात्र है तो दूसरी तरफ मृत्यु एक सौदा भी है ‘महाजन साहब, हमारी बेटी ने तो एअरलाइन के लिए जान दे दी। उसके बदले में आप हमें क्या देंगे, यहाँ मृत्यु के शोक मनाने और रोने धोने से क्या मिलेगा? तेजेंद्र शर्मा अपनी कहानियों में गहन अनुभव चिंतन और मानवीय संवेदनाओं की सूक्ष्म परतों को एक-एक करके खोलते चलते हैं। आज के भौतिकवादी उपयोगितावाद का प्रभाव सर्वत्र व्याप्त है। समाज, परिवार तथा रिश्तों सभी पर लालच और स्वार्थ का ‘दंश’ व्याप चुका है। मृत्यु तेजेंद्र की कहानियों में कुछ न कहते भी बहुत कुछ कह जाती है।

‘दंश’ कहानी में एक ओर मृत्यु यदि एक दर्पण है परिवार के लोगों के आचरण और व्यवहार का, तो दूसरी ओर वह पिता के अंत के साथ पुत्र के संबंधों की शुरुआत भी है। एक जीवन का अंत और दूसरी ओर संवाद तथा संवेदनाओं की शुरुआत। कहानी में संवाद जिंदगी नहीं करती किंतु मृत्यु संवाद करती है। ‘सदा की तरह आँखें आपस में अपनी सारी कथा कह गई, यहाँ मृत्यु संबंधों को तोड़ती नहीं वरन् जोड़ते हुए एक सेतु का कार्य करती है। वस्तुतः तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में जीवनबोध और मृत्युबोध आपस में गुँथ से गए हैं। तेजेंद्र शर्मा जिंदगी  के इंद्रधनुषी रंगों में से मृत्यु के कुछ रंग निरंतर खोज निकालते रहे हैं। उनकी कहानियाँ कहीं भी मृत्यु की उपस्थिति से निराश-हताश मन की कहानियाँ नहीं। यहाँ मृत्यु अपने पूरे वैभव के साजो सामान के साथ उपस्थित रहती हुई खुद को प्रमाणित करती सर्वत्र विद्यमान है। ‘कब्र का मुनाफा’ में मृत्यु की कई लेयर साथ-साथ चलती हुई मृत्यु की संस्तुति करती है। खलील और नजम द्वारा जिंदगी भर यदि स्टेटस का ध्यान रखा गया है तो मरने के बाद भी तो रखना पड़ेगा। सबसे पहले तो मरने के बाद भी गैर-मुस्लिम लोगों के पास उनकी (खलील और नजम की) कब्रें नहीं होनी चाहिए। शिया लोगों के लिए कब्रिस्तान एक्सक्लूसिव हो। यहाँ मजहबी कट्टरता और सांप्रदायिकता जिंदगी तक सीमित नहीं वरन् मृत्यु पर भी पूर्णतः हावी है, तभी तो शिया-सुन्नी तथा अन्य मजहब के लोगों से उनकी कब्रें अलग होनी चाहिए अर्थात् सांप्रदायिक मानसिकता की पकड़-जकड़ जिंदगी के साथ भी और जिंदगी के बाद भी।

मौत यहाँ मौत कहाँ हैं? वह तो अपने स्टेट्स और अपनी आर्थिक स्थिति को प्रदर्शित करने का साधन है। उनकी अपनी कब्रों के लिए कब्रिस्तान एकदम यूनिक होना चाहिए, कब्रिस्तान का लुक, उसकी लोकेशन उसका माहौल… ‘यह कब्रिस्तान जरा पॉश किस्म का है, कम-से-कम मरने के बाद अपने स्टेट्स के लोगों के साथ रहेंगे।’ यहाँ मृत्यु एक भोंड़े प्रदर्शन के अतिरिक्त एक जश्न भी तो है जैसे शादी-विवाह में सजना-सँवरना, सुंदर दिखना सब जश्न का हिस्सा है, उसी प्रकार ‘कब्र का मुनाफा’ में मृत्यु स्टेट्स सिंबल तो है ही वह एक जश्न, एक उत्सव भी है तभी तो कार्पेंडर्स पार्क वाले कब्रिस्तान की नई स्कीम खलील और नजम को पसंद आ जाती है ‘जिसके अनुसार यदि किसी एक्सीडेंट या हादसे का शिकार हो जाएँ, जैसे आग से जल मरें तो वो लाश का ऐसा मेकअप करेंगे कि लाश एकदम जवान और खूबसूरत दिखाई दें’।

यहाँ मृत्यु खूबसूरत है। जिंदगी भले ही बदसूरत हो। कहानी मृत्यु को सौदा, एक व्यावसाय के रूप में चित्रित करती है। इसमें सर्वोपरि है मुनाफा, चाहे जैसे भी हो, पर होना चाहिए। ‘सुनो उनकी कोई स्कीम नहीं हैं जैसे बॉय-वन-गेट-वन-फ्री या बॉय-टू-गेट-वन-फ्री? अगर ऐसा हो तो हम अपने-अपने बेटों को भी स्कीम में शामिल कर सकते हैं। अल्लाह ने हम दोनों को एक-एक ही तो बेटा दिया है।’ प्रश्न उठता है क्या कोई पिता अपने जवान बेटे की मृत्यु और उसकी कब्र के विषय में इतना एडवांस सोच सकता है? यहाँ मृत्यु पूँजीवाद का चोला पहनकर मानवता को पूर्णतः बाजारवाद की गिरफ्त में दे देती है। इसी प्रकार सात सौ पाउंड की कब्रों की कीमत जब एक साल में बढ़कर ग्यारह सौ पाउंड हो जाती है तो दोनों की आँखों में कब्रों के इस मुनाफे पर चमक आ जाती है, क्योंकि उन्हें अब भविष्य में कब्रों से मुनाफा कमाने का धंधा जो मिल गया। प्रो. नामवर सिंह ने इस कहानी के संदर्भ में कहा है ‘मुर्दाफरोश लोग  हर जमात में होते हैं। पूँजीवाद में तो ऐसे लोगों की इंतेहा है।’ वस्तुतः मृत्यु जब मुनाफे का सौदा बन जाती है तो मानवीय संवेदनाएँ छीजने लगती हैं। जिंदगी पर मृत्यु की विजय कहानी का केंद्रीय तत्त्व है। एक ओर घर कब्रिस्तान बनते जा रहे हैं तो दूसरी ओर कब्रिस्तान को घर की तरह सजाने सँवारने की योजनाएँ बन रही हैं। यहाँ जिंदगी की परवाह नहीं मृत्यु की चिंता है। लाश की चिंता है। मृत्यु का व्यापारीकरण ही ‘कब्र का मुनाफा’ का आधार सत्य है।

तेजेंद्र शर्मा की अभी हाल में आई कुछ कहानियों में मृत्यु को अलग कैनवास पर उतारा गया है। ‘हथेलियों में कंपन’ में तो लगता है तेजेंद्र शर्मा ने मृत्यु पर पूरी रिसर्च ही कर डाली है। यहाँ मृत्यु ही नहीं, वरन् मृत्यु चक्र है, मृत्यु भँवर हैं जो कभी सीधा चलता है तो कभी उलट भी जाता है। यहाँ मृत्यु के देवता शिव और नरेन एक धरातल पर आकर मिल जाते हैं। तेजेंद्र शर्मा स्वयं मृत्यु पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि ‘मृत्यु क्या केवल एक शारीरिक स्थिति है?’ निश्चित रूप से मृत्यु केवल शारीरिक क्रियाओं का अंत ही नहीं वरन् वह कुछ और भी है। वह धार्मिक व्यवसाय भी है। ‘मृत्यु सीधी और सरल क्यों नहीं हो सकती? क्यों कुछ लोग मृत्यु में भी ऑनर्स और पी-एच.डी. कर लेते हैं।’ तेजेंद्र यहाँ मृत्यु के धार्मिक व्यवसायीकरण पर व्यंग्य करते हुए इस यथार्थ को उजागर करते हैं कि हर मजहब का इनसान मौत के सामने बेचारा हो जाता है। धार्मिक ढोंग और पाखंड की आड़ में अंधविश्वास के बल पर मृत्यु का बिजनेस खूब फलफूल रहा है। लेखक इस सच्चाई को उजागर करते हुए स्वयं कहते हैं कि धर्म श्रद्धा पर निर्भर रहता है। मगर यहाँ तो धर्म का पूरा व्यवसायीकरण हो चुका है।’ अपने बाऊजी की अस्थिविसर्जन के अवसर पर पंडों की ठगी देखकर ऐसा लगता है कि ’आत्माओं को भी ठगा जा रहा है, मृत्यु के बाजार पर लेखक क्षुब्ध होते हुए उसकी तुलना आलू बैंगन खरीदने से करता है जहाँ बड़ी बेशरमी से मोलभाव हो रहा है–मृत्यु का और बाजार में आस्थाएँ बिक रही हैं। प्रस्तुत कहानी में मृत्यु दो रूपों में पुरजोर तरह से उपस्थित है मुझे लगता है तेजेंद्र शर्मा की अन्य सभी कहानियों की तुलना में मृत्यु पर जितना विस्तृत चिंतन लेखक ने ‘हथेलियों में कंपन’ में किया है अन्यत्र दुर्लभ है। मृत्यु का दूसरा सिरा मौसा नरेन के जवान बेटे अमर की मृत्यु से जुड़ा है। लेखक ने पूरी कहानी में व्यंग्यात्मक शैली में मृत्यु को अनेक संदर्भों में व्याख्यायित किया है। मृत्यु यदि एक बाजार है, उसकी मंडी भी लगती है, वह एक व्यवसाय है, तो मृत्यु एक हस्ताक्षर भी है। कभी-कभी अपने प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करके अपने क्रम को उलटने वाला हस्ताक्षर भी मृत्यु ही है। इस तरह मृत्यु अंत नहीं आरंभ है जीवन का।

इसी क्रम में ‘पाप की सजा’ कहानी में मृत्यु आत्महत्या की यदि संभावना बनी रहती है तो हत्या का अबूझा सच भी। लेकिन है वह विद्यमान दोनों जगह। एक जगह मृत्यु का डर है तो दूसरी जगह नफरत और क्रोध का रूप। साथ ही मृत्यु एक सवाल बनकर कहानी में उठती रही है और अंत में मृत्यु केवल इनसान की नहीं होती वरन् विश्वास की भी होती है। इन सब रूपों के अतिरिक्त तेजेंद्र मृत्यु के गुंफित रूपों में एक रूप यह भी दर्शाने में सफल रहे हैं कि मौत किसी के प्रति प्रेम के चरम की परिणति भी हो सकती है? यही अत्यधिक प्रेम मृत्यु को सजा और माफी दोनों में तब्दील कर देता है। सच कहा जाए तो तेजेंद्र शर्मा ने मृत्यु के जितने विविधार्थी और विपरीतार्थी अर्थ खोज निकाले हैं कि मृत्यु पर एक अच्छा खासा एनसाइक्लोपीडिया तैयार हो जाए। मृत्यु स्वप्न जरूर है किंतु मृत्यु के बाद सपने मरते नहीं वे निरंतर बने रहते हैं। जिस तरह मृत्यु के बाद जीवन चक्र शाश्वत है ‘सपने मरते नहीं’ कहानी सपनों की अनश्वरता की ओर संकेत करती है।

‘जिंदगी और मौत के बीच की चुप्पी’ कहानी में लेखक ने मृत्यु के सफेद रंगों में कई रंगों को मिला दिया है। एक ओर मृत्यु एक गहरा अहसास है। लेखक की संवेदनाएँ एक अजनबी व्यक्ति केविन के हार्ट अटैक होने पर उससे जुड़ जाती है। वह प्रत्यक्षतः मृत्यु का कुछ पलों में ही साक्षात्कार कर लेता है जिसका गहरा असर उसकी सोच और उसके शरीर पर भी पड़ता है। वह मृत्यु को इस समय जी रहा है वह समझ नहीं पाता कि मृत्यु जीवन का अंत है या सोच की शुरुआत? एक ओर केविन की आकस्मिक मौत का सदमा तो दूसरी ओर यादव शर्मा की पत्नी की लंबी बीमारी गैंग्रीन से हुई मृत्यु दोनों में पर्याप्त अंतर है। किंतु दोनों मौतों का प्रभाव बिलकुल अलग-अलग है। तभी तो पत्नी की मौत से दुखी होने के बजाय यादव शर्मा मित्र को डबल पार्टी खिलाकर मृत्यु का उत्सव मना रहा है। कहानी एक ओर दीर्घपीड़ा से होने वाली मृत्यु को मुक्ति के रूप में लेते हुए उसे उत्सव बना देती है तो दूसरी ओर एक युवा व्यक्ति की हार्ट अटैक से हुई आकस्मिक मृत्यु सदमा बनकर गहरा असर छोड़ती है। एक ओर किसी अजनबी की मृत्यु लेखक को झकझोर कर रख देती है तो दूसरी ओर मुक्ति की संतुष्टि भी है।

निःसंदेह तेजेंद्र कैंसर के लेखक हैं और यह कैंसर उनकी न जाने कितनी रचनाओं में मृत्यु प्रदाता के रूप में उपस्थित है जिसकी परिणति है मृत्यु। तेजेंद्र मृत्यु को नजदीक से देखते भी हैं, महसूसते भी हैं और जितने भी रंग, रूप, आकार और अर्थछायाएँ हो सकती हैं मृत्यु की, वे सभी इन कहानियों में अपने पूरे वैभव के साथ विद्यमान है। जीवन के साथ-साथ प्रत्येक मोड़ पर, प्रत्येक स्तर पर मृत्यु से टकराहट इनकी कहानियों में सर्वत्र देखी जा सकती है। अंत में मनोज श्रीवास्तव के शब्दों में ‘मृत्यु तेजेंद्र के यहाँ एक तरह की अतार्किकता है वह रीजन का ध्वांत है। वह मृत्यु का मेटाफिजिक्स नहीं है बस वह है वहाँ। तर्क के विरुद्ध करती हुई। एक प्वाइंट की तरह नहीं। खिंची हुई। त्रिशंकु की तरह टँगी हुई बार-बार सामने आते सवाल की तरह। एक ‘ट्रांजीशन’ की तरह नहीं एक ‘इंफेक्शन’ की तरह व्याप्ति हुई। मृत्यु, जिसका कोई मापदंड नहीं है, क्राइटेरिया नहीं है।’


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Artist : Magnus Enckell
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कमलेश कुमारी द्वारा भी