नाट्यालोचक नरनारायण राय

नाट्यालोचक नरनारायण राय

नाट्यालोचन की विकासमान परंपरा में डाॅ. नरनारायण राय का नाम विशिष्ट है। ऐसा इसलिए है कि उन्होंने न केवल कविता और कहानियों की आलोचना के प्रतिमानों से इतर नाट्यालोचन से संबंधित सैद्धांतिक स्थापनाएँ दीं, वरन् अपनी इन्हीं आलोचना संबंधी प्रतिमानों के आधार पर व्यावहारिक समालोचनाएँ भी लिखीं। इतना ही नहीं नाट्यालोचन के उनके प्रतिमान कमोवेश वर्तमान नाट्यालोचकों द्वारा स्वीकृत भी किए जा रहे हैं।

डाॅ. राय की समीक्षाएँ और निबंध 1970 ई. के बाद से विभिन्न पत्रिकाओं में दिखाई पड़ने लगते हैं। वे गंभीर नाट्यालोचन को लेकर संवेदनशील थे। नाट्यालोचन की दिशाहीनता और उसकी बुनियादी शर्तों को लेकर उनकी चिंता उन्हें नाट्यालोचन को जीवन-संदर्भों से जोड़ते हुए नए प्रतिमानों के निर्धारण की ओर अग्रसर करती है।

अगले दस वर्षों में डाॅ. नरनारायण का नाम एक नाट्यचिंतक और समीक्षक दोनों ही रूपों में नाट्य-प्रेमियों एवं नाटककारों के लिए महत्त्वपूर्ण हो उठता है। इस बीच उनके संपादन में 1974 से 1978 के हिंदी नाटकों पर केंद्रित ‘हिंदी नाटक और नाट्य समीक्षा’ नामक पुस्तक के पाँच खंड प्रकाशित होते हैं, जिनमें उन्होंने अपनी सर्वेक्षणमूलक दृष्टि से केवल नाट्य-विकास को ही रेखांकित नहीं किया, बल्कि नाट्यालोचन की संभावनाओं पर भी विचार किया है।

एक नाट्यालोचक के रूप में डाॅ. राय मानते थे कि काव्यत्व और दृश्यत्व से समन्वित नाट्य-रचना-विधान वस्तुतः अपने आप में एक पूर्ण रचना है, विभाजित नहीं, केवल काव्य नहीं, केवल दृश्य नहीं–काव्य भी और दृश्य भी। और इसी कारण नाट्य समीक्षा के क्रम में वे केवल काव्यत्व या केवल दृश्यत्व पर विचार किए जाने के विरोधी थे। वे एक नाटक को उसकी संपूर्णता-काव्यत्व और दृश्यत्व में देखते हुए पढ़ने तथा पढ़ते हुए देखने का प्रयास करते थे।

डाॅ. राय के शब्दों में, वे प्रयत्न करते थे कि उनकी हर समीक्षा सही अर्थों में ‘दृश्यकाव्य’ की समीक्षा हो, समन्वित समीक्षा दृष्टि, जिसमें एक आँख तो नाटक के काव्यत्व की सीमाओं और उपलब्धियों को रेखांकित करे और दूसरी आँख नाटक के भीतर के रंगमंच के रूपाकर की पहचान करे और नाटक की दृश्य-संभावनाओं या सीमाओं की व्याख्या प्रस्तुत करे। परंतु इस क्रम में वे नाटक के दृश्यत्व को ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानते थे, क्योंकि यही वह तत्त्व है, जो नाटक को नाटक बनाता है। इसके बिना वह अन्य काव्य-रूपों की तरह केवल एक काव्य-रूप भर ही रह जाता है।

डाॅ. राय की आलोचकीय दृष्टि का सैद्धांतिक निरूपण करनेवाली पुस्तक ‘नाट्य रचना विधान और आलोचना के प्रतिमान’ लगभग इसी समय 1979 में प्रकाशित हुई, जिसमें वे नाट्य-रचना-विधान के सहज विधायी तत्त्वों के अन्वेषण की प्रक्रिया में नाट्यालोचन के अपने प्रतिमानों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। उनके द्वारा सृजित नाट्यालोचन के प्रतिमान हैं–कथा, काव्य, दृश्यत्व, संप्रेषण और रंग-विधान।

वे दृश्यत्व को एकदम नए स्वरूप में व्याख्यायित करते हुए नाटक के आंतरिक धर्म की बात करते हैं। उनके अनुसार, ‘हर नाटक अपना रंगमंच स्वयं जन्मता है और रंगमंच बीज-रूप में, भाव-रूप में नाटक में ही विद्यमान रहा करता है–प्रदर्शनों में जिसकी बाह्य और दृश्य अभिव्यक्ति हुआ करती है।’ यहाँ ‘रंगमंच’ से उनका तात्पर्य ‘स्टेज, दृश्यबंध अथवा रंगशाला’ से न होकर उस स्थल विशेष से है, जहाँ दृश्यकाव्य (नाटक) का संप्रेषण दर्शक के मस्तिष्क को विचार के धरातल पर, दृश्य को भाव के धरातल पर और आत्मा को अनुभूति के धरातल पर स्पर्श करता है।

डाॅ. राय सजह संप्रेष्य दृश्यत्वमुक्त नाट्यानुभूति की बात भी करते हैं, जिसका साक्षात्कार, उनके अनुसार ‘सबसे पहले नाटककार करता है–फिर निर्देशक, फिर दर्शक और अंत में समीक्षक।’ नाटककार की नाट्यानुभूति से तात्पर्य उसकी उन अनुभूतियों के मौलिक अनुप्रयोग से है, जिसके तहत वह विविध जीवन-संदर्भों को अपने ‘दृश्यकाव्य’ में स्थान देता है तथा जिनका अनुभव प्रस्तुति के दौरान नाट्य निर्देशक और प्रस्तुति के आद दर्शक करते हैं। नाट्यानुभूति के इन विभिन्न स्तरों से गुज़रने की स्थितियाँ ही नाट्यालोचन की प्रक्रिया है।

नाटकों की समीक्षा करते हुए डाॅ. राय अपनी इसी सैद्धांतिक नीति का पालन करते हैं और नाटक में नाटककार की नाट्यानुभूति को उसकी गहराई में जाकर–कथा, कथ्य, दृश्यत्व, संप्रेषण और रंगविधान–के अपने नाट्यालोचकीय प्रतिमानों के आधार पर विश्लेषित करने का प्रयास करते हैं। उनके समग्र नाट्योलचन में उनकी यही शैली दृष्टिगोचर होती है। स्वयं द्वारा निरूपित सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप से गंभीरतापूर्वक प्रस्तुत कर, वे न केवल अपने सिद्धांतों को तर्कसंगत एवं उपादेय सिद्ध करते हैं, वरन् अपनी कथनी और करनी में एकरूपता भी दिखाते हैं।

यही नहीं डाॅ. राय तथ्यों के विवेचन के क्रम में उससे संबंधित अन्य समीक्षकों को भी नहीं भूलते। परंतु बिना किसी पूर्वाग्रह के, तटस्थ रूप में, गंभीरतापूर्वक, निर्भीक भाव से सूत्रबद्ध निष्कर्ष देने से वे नहीं हिचकते। वस्तुतः समीक्षा-प्रक्रिया में उनके सामने केवल और केवल नाट्यकृति होती थी और उनके निष्कर्षों से नाटककार भी प्रभावित होते थे।

लक्ष्मीनारायण मिश्र, जगदीशचन्द्र माथुर, लक्ष्मीनारायण लाल और मोहन राकेश–ये प्रसादोत्तरकालीन हिंदी नाट्य साहित्य में मील के चार पत्थर हैं। डाॅ. राय ने इन चारों के समग्र नाट्य साहित्य पर अलग-अलग पुस्तकें लिखीं और इनकी नाट्य-साधना पर अपनी सैद्धांतिकता में व्यावहारिक रूप से विचार किया।

डाॅ. राय ने ‘नाटककार लक्ष्मीनारायण मिश्र’ (1980) नामक अपनी पुस्तक में श्री मिश्र को यथार्थवादी धारा के प्रतिनिधि नाटककार के रूप में प्रस्तुत करते हुए उनकी नाट्य रचनाओं का गंभीर मूल्यांकन किया है। 

ऐतिहासिक, पौराणिक नाटकों की रूढ़ परंपरा को तोड़कर समकालीन जीवन-संदर्भों से जुड़कर सही मायनों में ‘दृश्यकाव्य’ गढ़ने का सार्थक प्रयास करनेवालों में जगदीशचन्द्र माथुर का नाम प्रथम है। ‘जगदीशचन्द्र माथुर की नाट्यसृष्टि’ (1988) में डाॅ. राय उन्हीं के संपूर्ण नाट्य साहित्य को वैचारिक पृष्ठभूमि में सामने रखते हैं। श्री माथुर का नाटक ‘कोणार्क’ हिंदी का प्रथम नया नाटक माना जाता है। डाॅ. राय ने इस पर अलग से ‘कोणार्क : रंग और संवेदना’ (1987) नामक पुस्तक लिखी है, जिसमें उन्होंने उक्त नाटक को अपने संपूर्ण प्रतिमानों के आधार पर मूल्यांकित करते हुए, उससे विकसित होनेवाली नई रंगमंचीय समझ का विश्लेषण किया है। उनके अनुसार, इस नाटक से न केवल हिंदी के ऐतिहासिक नाटकों की नई परंपरा शुरू होती है, बल्कि युगीन संवेदनाओं को उभारने की कोशिशें भी।

‘रंगशिल्पी मोहन राकेश’ (1991) में डाॅ. राय ने मोहन राकेश को उस प्रथम व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसने नाटककार के रंगमंच की स्थापना (अर्थात निर्देशकीय हस्तक्षेप का बहिष्कार) की तथा यह सिद्ध किया (भले ही शब्दों में नहीं) कि हर नाटक अपना रंगमंच स्वयं साथ लेकर जन्मता है। वे मोहन राकेश को इसलिए भी महत्त्वपूर्ण मानते हैं कि उन्होंने समकालीन जीवन-संदर्भों को उसकी संपूर्ण विसंगितियों के संदर्भ में उभारने की कोशिश अपने ‘आधे-अधूरे’ नाटक में गंभीरता से की।

‘नाटककार लक्ष्मीनारायण लाल की नाट्य साधना’ (1979) में डाॅ. राय उनके संपूर्ण नाट्य साहित्य पर गहनता से विचार करते हुए उन्हें इसलिए महत्त्वपूर्ण मानते हैं कि वे शैली, शिल्प और कथ्य की दृष्टि से सर्वाधिक प्रयोगशील और सक्रिय नाटककार हैं। उन्होंने अपनी इस पुस्तक में विश्लेषणात्मक रूप से भी लाल की संपूर्ण नाट्य-साधना को जीवन-मूल्यों के संदर्भ में व्याख्यायित किया है।

डाॅ. राय का व्यक्तित्व एक अध्येता का व्यक्तित्व था। इसी कारण किसी काल-विशेष की बात करते समय वे उस काल-विशेष में प्रकाशित तमाम नाट्य साहित्य का गहनतापूर्वक मूल्यांकन करते हुए, उससे संबंधित उपलब्ध संदर्भों से भी स्वयं को जोड़ते थे। उनके इसी व्यक्तित्व की छाप उनके संपूर्ण कृतित्व पर दिखाई पड़ती है।

1968 में हिंदी रंगमंच के विकास की शताब्दी पूर्ण होती है। इसके बाद के दशक को डाॅ. राय अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार हिंदी के निजी रंगमंच का निर्माण इसी दशक के नाटकों द्वारा पूरा होता है। अपनी पुस्तक ‘आधुनिक हिंदी नाटक एक यात्रा दशक’ (1979) में वे 1969 से 78 के बीच प्रकाशित नाटकों का सर्वेक्षण प्रस्तुत करते हुए काव्यत्व के माध्यम से उनके वैशिष्ट्य की तलाश करते हैं। 

‘हिंदी नाटक : संदर्भ और प्रकृति’ (1987) में वे जहाँ एक ओर नाट्य-साहित्य का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करते हैं, वहीं दूसरी ओर युग-प्रवर्तक प्रतिनिधि नाटकों का मूल्यांकन भी। इस पुस्तक में मूल्यांकित नाटकों के नाम हैं–‘नीलदेवी’ (भारतेन्दु), ‘ध्रुवस्वामिनी’ (जयशंकर प्रसाद), ‘रक्षाबंधन’ (हरिकृष्ण प्रेमी), ‘सिंदूर की होली’ (लक्ष्मीनारायण मिश्र), ‘कोणार्क’ (जगदीशचन्द्र माथुर), ‘सूखा सरोवर’ (लक्ष्मीनारायण लाल), ‘आधे-अधूरे’ (मोहन राकेश), ‘आठवाँ सर्ग’ (सुरेन्द्र वर्मा) और ‘बुलबुल सराय’ (मणि मधुकर) एवं अन्य नाटक।

डाॅ. राय के शब्दों में उनकी कृति ‘नाटकनामा’ (1993) साठोत्तर हिंदी नाटक के चरित्र, रूपबंध, सीमा और उपलब्धियों का एक ख़ाका है, जिसका अभीष्ट विगत तीन दशकों में आए बदलावों और मोड़ों को स्पष्टतया रेखायित करना भी है। इसमें उन्होंने 1960 से 1990 तक के महत्त्वपूर्ण नाटकों की विशद् व्याख्या करते हुए नाट्य-साहित्य की प्रवाहमान धारा की स्थितियों का आकलन किया है।

अपनी अध्ययन-प्रक्रिया में डाॅ. राय का साक्षात्कार विविध नाट्य-रूपों से होता है। अपनी पुस्तक ‘नटरंग विवेक’ (1981) में वे इसी को अपना विषय बनाते हैं। यह उनके समय-समय पर प्रकाशित निबंधों का संग्रह है, जिनमें स्वातंत्र्योत्तर हिंदी रंगमंच पर प्रचलित नाट्य-रूपों का सूचनामूलक, शोधपरक एवं विश्लेषणात्मक परिचय प्रस्तुत किया गया है।

‘नाट्य विमर्श’ (1984) भी डाॅ. राय का एक महत्त्वपूर्ण निबंध-संग्रह है। इसके नाट्यालोचन विषयक मूल्यांकनपरक निबंधों का अध्ययन करने पर हमें उनकी आलोचकीय दृष्टि के विविध आयामों से परिचय मिलता है।

किसी साहित्यकार का रचनात्मक मूल्यांकन करते हुए हम उसके संपादन में प्रकाशित पुस्तकों को भी नहीं भूल सकते। एक समालोचक की संपादकीय दृष्टि बहुत ही प्रखर होती है। उसके द्वारा संपादित पुस्तकों में एक विशिष्ट चेतना का प्रवाह होता है। डाॅ. राय द्वारा संपादित पुस्तकें भी इस मायने में विशिष्ट छाप छोड़ती हैं। उनके द्वारा संपादित ‘आधुनिक हिंदी नाट्यालोचन : नई भूमिका’ (1979) उनकी संपादित कृतियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें आधुनिक हिंदी नाट्यालोचकों के नाट्यालोचन की भूमिका संबंधी विविध निबंध हैं। कुल मिलाकार अधुनातन नाट्यालोचन विषयक प्रस्तुति एवं उसका महत्त्व प्रतिपादित करने में डाॅ. राय सफल रहे हैं। ‘असंगत नाटक और रंगमंच’ (1981) एक और महत्त्वपूर्ण संपादन हैं। इसमें द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के परिवेश से उपजी प्रतिक्रिया के परिप्रेक्ष्य में वे एब्सर्ड नाटक के रंगमंचीय महत्त्व का प्रतिपादन करते हैं। डाॅ. राय भुवनेश्वर की ‘ताँबे के कीड़े’ (1946) नाटक से विश्व साहित्य में एब्सर्ड नाटक का आरंभ मानते हैं। ‘वैज्ञानिक एकांकी’ (1980) में विज्ञान की अवधारणाओं से संबद्ध विविध एकांकियाँ संकलित हैं–जो अपने आप में महत्त्वपूर्ण है।

यों तो भारतीय साहित्य में नाट्यालोचन की परंपरा भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में शुरू होती है, परंतु कालांतर में वह काव्यालोचन में पर्यवसित हो गई और नाट्यालोचन की प्रक्रिया लंबे समय तक अवरुद्ध रही। आधुनिक युग में यह परंपरा के नवीन संदर्भों में पुनर्स्थापित हुई है और यदि यह कहा जाए कि इसकी पुनर्स्थापना में डाॅ. नरनारायण राय का योगदान भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।