परवशता के विरुद्ध जिजीविषा के स्वर

परवशता के विरुद्ध जिजीविषा के स्वर

शब्द साक्षी है

भोला पंडित ‘प्रणयी’ के जीवन और उनकी पुस्तकों को देखना उनके जीवन में उतरने जैसा है। उनके साहित्य की पृष्ठभूमि प्रायः उनके जीवन के समानांतर है। इसलिए उसकी सजीवता तो असंदिग्ध है ही, यदि वह अयथार्थ लगे, तब भी यथार्थ है। उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ, खंडकाव्य और अध्यात्म चिंतन में सृजनरत भोला पंडित ‘प्रणयी’ के लेखन की विशेषता निरंतरता है, यह भी उसी प्रकार है कि व्याघातों में उलझे मनुष्य ने अपने जीवन-अधिकार की कामना नहीं छोड़ी। बिहार में आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन का उदाहरण बने हुए कुम्हारों के पारंपरिक पेशे से जुड़े रहे पिता, स्वयं का बाल विवाह, पिता की असामयिक मृत्यु। पिता की अर्थी एक दिन सिर्फ इसलिए पड़ी रही कि वह उच्च जाति का गाँव था। एक परिश्रमी व्यक्ति के शव को लोग संकीर्ण-जीर्ण मानसिकता के कारण कंधा नहीं दे पाये, डर था कि वे मलिन न हो जाएँ। सामाजिक दंभ एवं मानसिक उपालंभ को भोगना उन दिनों भोला के लिए आत्मग्लानि-सा हो सकता था, पर वचन में विक्षोभ एवं विद्रोह के साथ आवेग उन्होंने झेले। पिता की अरथी तब दूसरे गाँवों से आए स्वजातीय रिश्तेदारों ने उठाई तो स्वाभाविक रूप से उस गाँव का हवा-पानी अजीर्ण हो गया। परिवार दूसरे गाँव जा बसा, पर यह बसना सिर्फ विस्थापन का दंश भर था। माँ का दुःख, बड़े भाई का ससुराल-प्रेम और बालक भोला की सगर्व जीवन जीने की प्रतिज्ञा। बहन-बहनोई ने इस प्रतिज्ञा को पूरा करने का वचन दिया और भोला को ले गए। पर उनकी भी आर्थिक स्थिति अच्छी न थी। किशोर भोला को सहपाठिन गंगा का सहयोग मिला, पर स्थानीय लोगों को इस प्रेम में कुछ और ही दिखा। बहन-बहनोई ने भी रूलाया। पर, भोला ने साहस न छोड़ा।

आगे की पढ़ाई में उनकी कला काम आई। गायन और नृत्य ने लोकप्रियता दिलाई और विद्यालय के शिक्षण एवं छात्रावास शुल्क से भी मुक्ति दिलाई। भोला विद्यालय के शिक्षक बने तो एक कुंठित परिवार की माँ को अपने वंश का भविष्यदीप मिला। एक जीवन के इतने सारे पक्षों को जिन विषयानुक्रम की स्वाभाविकता मिली थी, भोला के साहित्य में वह जीवित हैं। पर सर्वाधिक उल्लेखनीय है उस स्वाभाविक जीवन की परवशता के प्रति विद्रोह के विकठ स्वर, व्यग्रता और सफल होती प्रतिज्ञा। उनकी एक दर्जन प्रकाशित पुस्तकों में सबसे पहली प्रकाशित पुस्तक ‘वह इनसान था’ 1962 में प्रकाशित हुई। इस उपन्यास में एक मनुष्य के नहीं थकनेवाले स्वर का समर्थन था और एक विस्तृत पहचान भी। समाज में अतिचारों, वैमनस्यता एवं पुरातनपंथी, स्वार्थी मानसिकताओं से जूझते मनुष्य के स्वप्न का पक्ष भोला ने जितनी सादगी और सजीवता के साथ रखा उससे कादिचत अधिक उनके विचारों में अधिकाकामी चेतना अधिक शक्ति संपन्न दिखी।

विद्यालय के शिक्षक के रूप में अपने बचपन को अपने छात्रों में तलाशने का भी स्वाभाविक प्रयास हुआ। बिखरे हुए फूल और निखरी हुई धूप के बीच अपने अतीत के गवाक्ष में झाँकते हुए उन्होंने ‘धूप के फूल’ की कविताएँ लिखीं। इस पुस्तक ने विद्यालय में छात्रों की प्रसन्न उत्सवधर्मिता को कला का साहचर्य दिया। यद्यपि औपन्यासिक कृति ‘विरूप चेहरे’ को बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से पुरस्कत होने के कारण विशिष्ट माना जाता है, तथापि उनके उपन्यास ‘विदग्धा’ को मैं विलक्षण मानता हूँ। अपने जीवन में सहपाठिन गंगा के सहयोग, प्रोत्साहन और समाज के आरोपों को उन्होंने भोगा। कदाचित स्त्री होने के कारण गंगा ने उसे अधिक भोगा। उसका त्याग, तपस्या की तरह उसे तपा गया और उसका चरित्र एक असामान्य विद्रोह से परिचित करा गया। फिर भी उसकी संयमित वेदना विदग्ध और कारुणिक उन्मादों में व्यग्र दिखी। ‘विदग्धा’ की शैली के विषय में कथाकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने लिखा था–‘विदग्धा’ ने मुझे विमुग्ध किया है। अनूपलाल मंडल का मानना था कि लेखक की लेखनी ने जो चित्र आँका है, वह अपने-आप में बेजोड़ है। उसकी नायिका आभा में कुछ ऐसी आग है, जो सारे समाज में उथल-पुथल मचाकर खार-खार कर दे सकती है। वास्तव में उनकी यह कृति विद्रोही कलाकार का सशक्त हस्ताक्षर है। ‘विदग्धा’ गंगा ही है, जो आभा के रूप के रूप में उपन्यस्त हुई है। भोला पंडित ‘प्रणयी’ का यह अपना दुःख, अपनी वेदना और जीवन-सीमाएँ हैं, तो अपने और आभा अर्थात गंगा के प्रेम का अव्यक्त उद्यम भी, एक उसकी निस्सीमता भी। उनका चौथा उपन्यास ‘मुझे स्कूल जाने दो’ (1995) उनके जीवन के उस पथ का साक्षी है, जिसमें उन्होंने अपने जीवन को समाजिक परवशता से निकालने का उद्यम किया था। शिक्षा एवं परिश्रम के अतिरिक्त और किसी रास्ते पर विश्वास न कर उन्होंने एक सांस्कृतिक सत्य में अपने अनुभव जोड़े और उसे और भी विश्वस्त किया।

भोला पंडित ‘प्रणयी’ के जीवन पर जितना पंडित रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’ का आरंभ में प्रभाव रहा, बिनोवा भावे के भूदान आंदोलन और जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति ने भी उससे कम हस्तक्षेप नहीं किया। इनके विचारों ने उनके साहित्य को स्वाभाविक रूप से प्रभावित किया है। ‘मंथरा की विजय यात्रा’ (कहानी संग्रह, 1996) की कहानियाँ कई खंडों में विभाजित जीवन, जीवन के इर्द-गिर्द घूमनेवाले पात्रों और उनके योग-साधनों से परिचय कराती हैं। ‘गीत-गजल’ (2006) की कविताएँ उनके भावप्रवण कवित्व को सिद्ध करती हैं। गीतों-गजलों में समय और उसके लक्षणों का व्यापक उद्घोष हुआ है। भारतीय संस्कृति में अपसंस्कृति का हस्तक्षेप, विक्षिप्तता की स्थिति तक ले जाती व्यक्तिगत कुंठाओं, गरीबी, असंतोष, भ्रष्टाचार एवं विगलित वांछाओं को अत्यंत गंभीरता के साथ अभिव्यक्त करनेवाले काव्य संग्रह ‘अब तक गिने नहीं गए पेड़’ (1996) के संबंध में अमोघ नारायण झा का विचार है कि ग्राम्य परिवेश में पले हुए अध्यापक प्रणयी अपनी कलात्मक अभिरुचियों और विशिष्ट संस्कार के लिए आरंभ से ही एक अलग पहचान बनाए हुए साहित्यकार रहे हैं। संघर्षपूर्ण और स्वनिर्मित जीवन के इस कलाकार ने कभी भी विपरीत बयार को अपनी अनुभूतियों पर हावी नहीं होने दिया है। इस जनवादी कवि ने शोषितों और उपेक्षितों के स्वर को हमेशा मुखरित किया है। ‘अब तक गिने नहीं गए पेड़’ की कविताओं ने सुविधा वंचितों और हाशिये पर तिरस्कृत लोगों की चिंता की है। इस कविता ने वैसे लोगों के अपरिगणित रह जाने पर चिंता व्यक्त की है, जो समाज के कुछ असामाजिकों के शोषण-साध्य बनते हैं–‘पेड़ गिनने के मंसूबे/हर कोई कर सकता है। पर इस घने जंगल में अगर किसी ने हिम्मत कर गिना भी/केवल मोटे-मोटे छोटों को अंक में समेटनेवालों को ही।’ परंतु इन अगणित अनछुए पेड़ों से गिरते हुए पत्तों ने जो बयान दिये, वे समय के शिलालेख बने–‘आज इन गिरते हुए पत्तों का, बयान दर्ज होगा, इस न्यायालय के कठघरे पर, आखिरी पैगाम होगा।’

भोला पंडित ‘प्रणयी’ बाहर के प्रकाश और उसके दंभ, मनुष्य की निजता तथा परिवेश के अतिक्रमण को गंभीरता से देखते हैं। उनकी कविताओं में व्यक्त स्वर अज्ञात प्रतिहिंसा एवं हिंस्र चेष्टाओं का समाकलन करता है, जब प्रक्रति को पातक प्रवृतियों से अपवित्र करनेवालों की आमद भूमि पर बढ़ती जाती है। जब ऐसे शिथिल एवं अरण्यकायी समाज में कविताओं का उदय होता है, तो सिर्फ सिद्धांत और अनुनय उसकी पहचान नहीं होते, वह अस्त्रों की गतिशील तीक्ष्णता के रूप में होती है। ‘अँधेरों से मुठभेड़’ की गजलें लिखते वक्त भोला पंडित ‘प्रणयी’ जैसा शायर अपने विरुद्ध रचे जा रहे प्रपंचों को सार्वजनिक रूप से अहितकर मानता है। इस गजल संग्रह पर रामकुमार कृषक का मानना है कि वर्तमान पूँजीवादी विकास की मनुष्यहंता सभ्यता के चलते प्रणयी जी जो कुछ भी अपने चारों ओर घटते हुए देख रहे हैं उसे कहने में वे कोई कोताही नहीं बरतते। स्फुट कविताओं के अतिरिक्त महाभारत की अंतर्कथाओं पर उन्होंने ‘धृतराष्ट्र के आँसू’ और ‘अर्जुन का द्वंद्व’ नामक दो खंड काव्यों में अपनी कवि-प्रतिभा के साक्षात्कार कराये हैं। ‘चलिए पिय के देश’ में वय-वार्द्धक्य में परमसत्ता की ओर आकर्षित होने के संदेश हैं। इस संग्रह के आलेखों में प्रेम एवं अध्यात्म का सांस्कृतिक औदार्य लेखक की दर्शन एवं अध्यात्म चेतना के प्रति आश्वस्त करता है। ‘तत्वमसि’ के संपादक रहे भोला पंडित ‘प्रणयी’ इन दिनों ‘संवदिया’ साहित्यिक पत्रिका के संपादक हैं। लेखन के अतिरिक्त प्रकाशन का दायित्व सँभाल रखा है। संवदिया प्रकाशन दूसरे लेखकों के लिए भी लगातार सक्रिय है। अररिया में सांस्कृतिक उपस्थिति देने को तत्पर है–‘संवददि भवन’, जो बनकर तैयार है।

6 जनवरी, 1936 को कवैया, अररिया (बिहार) में जन्में भोला पंडित ‘प्रणयी’ ने अकादमिक डिग्रियाँ भले ही कम अर्जित की हों, पर जीवन की पढ़ाई में जितना कुछ सीखा, देखा, उससे परवश मनुष्य के विद्रोह एवं उसकी जिजीविषा के लिए साहित्यिक स्वर जुटाते रहे। यह स्वर संकीर्ण परंपराओं के आतंक पर इन दिनों भारी है और कुछ अन्य रचने का साधन जुटा चुका है। कविता का कैनवास सिर्फ जीवन के भूमि-आकाश से तय नहीं होता, जीवनरोधी तत्त्वों का सीमांकन और उन अंकनों के परिवेश से जुड़े अग्नि-जल के अवयवों की पड़ताल ही उसके केंद्र में नहीं होती। मनुष्य एवं जीने के निरंतर सघर्षों, परंपराओं के मर्यादारक्षक व्यवहारों, संस्कृति के आचारों और समय की निरंतर आक्रामक होती उत्तेजनाओं का कविता के सृजनगर्भ में अन्यतम योगदान होता है। तभी, कवि अपनी सृजनधर्मिता के स्वभावों को निजी और सामाजिक समन्वयों के व्यापारों के अनंतर प्रस्तुत नहीं कर पाता। निरंतर समय का स्वभाव बदलता है, एक धारणा के जन्म लेते ही पिछली मान्यताएँ खारिज होती हैं। कवि इन धारणाओं-मान्यताओं के बीच यदि तर्क और समन्वय को सामाजिक प्रतिबद्धताओं के साथ जोड़ कर रेखांकित करता है, तो यह कवि को न सिर्फ सामान्य मनुष्य के व्यक्त-अव्यक्त विचारों का सहिष्णु चिंतक सिद्ध करता है, बल्कि जीवन-जगत की संपूर्णता में निस्सीमता करता है। कुल मिलाकर कवि जीवन का पक्षधर होता है।

‘वह इनसान था’ (1962), ‘मुझे स्कूल जाने दो’ (1967), ‘विदग्धा’ (1968), ‘विरूप चेहरे’ (1995), जैसे उपन्यासों के बाद उन्होंने ‘मंथरा की विजय यात्रा ’ (1996), जैसी कथापुस्तकें लिखी। जीवन की सूक्ष्म घटनाओं से गंभीरतापूर्वक संवेदित हुए और वर्षों तक डायरियाँ लिखीं। डायरियों में स्वयं के रहस्यों को खोला। यद्यपि उन डायरियों का प्रकाशन अब तक नहीं हुआ है। डायरियाँ अपने लेखक के व्यक्तित्व को संतुलित करने का सुगम स्व-उपचार होती हैं। लेखक जैसे समाज-संदर्शक व्यक्तित्व के निर्माण की प्रभावकारी घटनाओं और तत्त्वों की मीमांसा के लिए सामान्य पाठक भी उनके प्रति उत्सुकता दिखाता है। कई बार वैसी जैविक प्रवृतियाँ सार्वजनिक होकर किसी आदर्श के चरित्र को इस प्रकार सामने ले आती है कि समाजसम्मत और मान्य अवधारणाएँ दुष्प्रभावित हो जाती हैं। इस कारण डायरियों का लेखन और प्रकाशन–दोनों ही दशाएँ क्षतिकारी हो सकती हैं। भोला पंडित ‘प्रणयी’ ने डायरियाँ भले प्रकाशन के लिए नहीं लिखी हों, पर वे उन्हें प्रकाशित कराना चाहते हैं। अपने जीवन के कलुष और निष्कलुष प्रसंगों को वे अपने खुले व्यक्तित्व की तरह खोल देना चाहते हैं।

1985 में ‘धूप के फूल’ नाम से प्रकाशित पहली काव्य पुस्तक कविता के श्रमसौंदर्य की उपासना से आवृत्त धर्म का प्रतिरूप प्रदर्शित करती है। दिनभर धूप का पर्वत काटनेवाला श्रम को वह जीवन का पाथेय मानते हैं। उसकी सुगंध और प्रसन्न करनेवाले हैं। एक श्रमजीवी परिवार के भोगे हुए यथार्थ उनकी कविताओं में उनके जीवन की तरह ही समाहित हुए हैं। 1996 में प्रकाशित ‘अब तक गिने नहीं गए पेड़’ की कविताओं में कवि ने श्रम को न्यायसंगत और सर्वोत्कृष्ट तो बताया ही है, यह देखकर अपनी व्यथा-चिंता भी व्यक्त की है कि अपने दम पर सुखद संकल्पनाओं को खनिज-लवन से जीवित करनेवाले इतिहासपुरुषों को इतिहास लेखकों ने अनदेखा किया और शोषण के विरुद्ध अपने जीवन से जीवन के आकार गढ़नेवालों का अंततः अहित ही हुआ–‘अब तक नहीं लिखा गया उनको, जिनको इतिहास ने बनाया पिछड़ा–शोषित, भले ही अपने ध्रुव पर, उन्होंने गाड़ दिये हैं झंडे, छोटे-छोटे इतिहास रचकर।’

‘अब तक गिने नहीं गए पेड़’ के तीन खंडों में विभक्त–प्रकाशित कविताओं में कुल छियासठ कविताएँ सामने आई हैं। कविताओं में निरंतर उदास होते हृदय को नये आलोड़नों से अथक करने का परिश्रम है, तो लेखकों का दायित्वबोध संदर्श भी है। मनुष्य में आत्महितचिंता की प्रकृति है, तो वहीं से संभावनाओं के रास्ते भी हैं, जिनके कारण असीम ऊर्जा और परमात्मा होने की शक्ति संवलित होती रही है। ऐसे मनुष्य में स्वयं में उतरकर बुद्धत्व की शांति का समावेश भी है और आत्मद्वंद्व का महाभारत भी। मनुष्य बनने की यही शाश्वत संस्कृति रही है–‘वह शांति भी चाहता, और महाभारत भी, सच/ऐसा मनुष्य धार्मिक अवश्य होता, संकट में जीनेवाला, क्योंकि/ऐसी ऊर्जा मनुष्य में होती, उसमें परमात्म होने की संभावना जो है।’ इस संग्रह के गीतों में राजनीति के दुस्साह चरित्र और उससे शर्मसार होती मानवीयता के चित्र हैं, तो उन सबके निवारण के लिए आगे बढ़ने का उद्घोष भी। ये गीत मनुष्य के जीवन-संगीत की तरह प्रसन्नकारी और सद्भाव-समर्थक हैं–‘एक साजिश के तहत ये सियासतें, गर बंद तुम्हें करवाती हैं, गर तेरे खून से राजतिलक, गद्दी पर काविज़ होती है, तू कफस तोड़ आगे आओ, और भीम सरीखे गदा उठा।’

काव्यसंग्रह ‘गिरते हुए पत्तों का बयान’ में वर्जनाओं के तीव्र होते स्वर के जीवनरोधी स्वरूप के लिए विद्रोह और निरंतर क्षरित होते संबंधों, सांस्कृतिक संपदाओं को बचा लेने का सखर आह्वान है। सबकुछ को राजनीति अथवा, राजनीति को सबकुछ के लिए शत्रुंजय को आवश्यक सिद्ध करना कविता का एक मात्र लक्ष्य है–‘आप तो मर्यादा की सर्वोच्च कुर्सी पर आसीन हैं, इन गिर रहे पत्तों को बचाइए और बचाइए इन्हें गोधराई हवा से, मुल्क में बन रही ‘सेजों’ से, नंदीग्राम से और नव साम्राज्यवाद से।’ ‘अँधेरों से मुठभेड़’ की गजलों में भी जिंदगी का पक्ष है और समय को अपने लिए सहायक बनाने के तजुर्बे। ‘जिंदगी शापित नहीं खुद को बदलकर देखिए, वक्त के पैगाम पर कुछ गुजरकर देखिए।’

भोला पंडित ‘प्रणयी’ की कविताओं में प्रेम और प्यास का साहचर्य भी है। जीवन में प्रेम और संधेय का समन्वय कविताओं के निजी अर्थ में उपयुक्त दिखते हैं। उनके निजी-नैष्ठिक चरित्र प्रेम के अनवरत बदलते आधारों के साक्षी रहे हैं। अतः प्रेम संबंधी उनकी कविताएँ अधिक प्रभावी और प्रामाणिक दिखी हैं। वह निरंतर उठते परवशता के बंधनों में फँसते-क्षुब्ध होते जीवों में जीने का उद्यम करने और अनुकूलन जुटाने के आग्रही प्रतीत होते हैं। कविताओं के प्रभाव में उनकी भाषा, विषयसघनता का तो उत्कर्ष है ही, कवि अपने आसपास को लिखता है, आसपास से कदापि दूर नहीं है, इसलिए स्वाभाविक रूप से सबके सन्निकट होने का आधार संपुष्ट रखता है।


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Artist : Giovanni Segantini
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