प्रेमचंद का ‘मानसरोवर’ और ‘नया मानसरोवर’

प्रेमचंद का ‘मानसरोवर’ और ‘नया मानसरोवर’

प्रेमचंद-साहित्य के पाठकों को यह जिज्ञासा हो सकती है तथा होनी भी चाहिए कि प्रेमचंद के कहानी-संग्रह ‘मानसरोवर’ (आठ खंड) को क्यों ‘नया मानसरोवर’ (आठ खंड) के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है? इसका समुचित उत्तर देने से पूर्व पाठकों को ‘मानसरोवर’ का इतिहास जानना आवश्यक है, क्योंकि इस इतिहास में ही ‘मानसरोवर’ को नया रूप देने तथा नई उपलब्ध कहानियों को पाठकों तक पहुँचाने के संकल्प में ही ‘नया मानसरोवर’ के प्रकाशन का औचित्य छिपा है। हिंदी-साहित्य के पाठक जानते हैं कि अज्ञेय ने ‘प्रतीक’ को ‘नया प्रतीक’ तथा भारतीय ज्ञानपीठ ने ‘ज्ञानोदय’ को ‘नया ज्ञानोदय’ के शीर्षक से प्रकाशित किया और पुरानी पत्रिकाओं को नव्यता का रूप दिया। ‘नया मानसरोवर’ की इसी कड़ी का एक नया क़दम है तो पुराने ‘मानसरोवर’ को नए रूप में तथा पूर्व से अधिक सार्थक और उपयोगी बनने का प्रयास है। मैं कह सकता हूँ कि ‘मानसरोवर’ का यह कायाकल्प है, पुरानी त्रुटियों-दोषों का परिमार्जन है और नई सामग्री को समाविष्ट करके उसे अधिक-से-अधिक वैज्ञानिक, तर्कसंगत तथा उपयोगी बनाना है। ‘नया मानसरोवर’ के प्रकाशन से पुराने ‘मानसरोवर’ की स्मृति बनी रहेगी और अपने नए रूप में भावी पीढ़ियों के पाठकों को भी वह उपलब्ध रहेगी। भारतीय चिंतन एवं जीवन-प्रणाली में पुरातन को निरंतर नवीन और आधुनिक बनाने की लंबी परंपरा रही है, जिससे पुरातन की त्रुटियाँ दूर हो सकें और नवीनता के साथ बराबर उपयोगी और सार्थक बने रहें।

प्रेमचंद की 203 कहानियों को आठ खंडों में ‘मानसरोवर’ के नाम से प्रकाशित किया गया था। इसके आरंभिक दो खंड–खंड एक व दो, स्वयं प्रेमचंद ने संपादित-संकलित तथा प्रकाशित किए थे। प्रेमचंद के कहानीकार के साथ ‘मानसरोवर’ के ये दो खंड उनकी कहानी-यात्रा के अविस्मरणीय पड़ाव हैं और कहानीकार तथा ‘कहानी सम्राट’ बनाने एवं स्थापित करने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है, लेकिन इसका नए रूप में ‘नया मानसरोवर’ के रूप में प्रकाशन, इसके पुराने स्वरूप के ऐतिहासिक महत्त्व की रक्षा के साथ पाठकों को सर्वथा नए ‘नया मानसरोवर’ के प्रकाशन की आवश्यकता तथा उसकी उपयोगिता एवं सार्थकता को सिद्ध करने तथा पाठकों की अनुकूल प्रतिक्रिया के लिए ‘मानसरोवर’ (आठ खंड) के इतिहास का परिचय देना आवश्यक है। इस इतिहास को देने से पहले साहित्य-अध्ययन के इस सिद्धांत को स्पष्ट करना आवश्यक है कि किसी भी लेखक के रचना-संसार का प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक अध्ययन के लिए उसे कालक्रम में रखकर अध्ययन एवं मूल्यांकन करना आवश्यक है, अर्थात यही एक मात्र रास्ता है जिससे लेखक की विकासात्मक यात्रा का सर्वाधिक विश्वसनीय एवं तर्कसंगत परीक्षण हो सकता है तथा इससे प्रामाणिक सत्यों और तथ्यों तक पहुँचा जा सकता है। यह एक ऐसा सिद्धांत है जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती और जिसकी प्रेमचंद की कहानियों के मूल्यांकन में सबसे अधिक उपेक्षा हुई है तथा प्रगतिशील आलोचक मधुरेश ने तो इस कसौटी का मज़ाक तक उड़ाया है, क्योंकि वे तथा उनके प्रगतिशील साथी यह समझते हैं कि इस सिद्धांत से प्रेमचंद के संबंध में उनकी अधिकांश प्रगतिशील अवधारणाएँ धूल-धूसरित हो जाएँगी। प्रगतिशील आलोचकों के प्रेमचंद संबंधी मूल्यांकन तथा अवधारणाएँ कुछ चुनी हुई रचनाओं पर आधारित हैं और उनसे उन्होंने मनमाने निष्कर्ष निकाले हैं। प्रेमचंद के लेख ‘महाजनी सभ्यता’ को अंतिम रचना मानकर उसे प्रेमचंद का वसीयतनामा घोषित करते हैं, जबकि वे उसी मास (‘हंस’, सितंबर, 1936) प्रकाशित कहानी, ‘रहस्य’ को देखते भी नहीं हैं जिसमें प्रेमचंद मनुष्य को दिव्यता तक ले जाते हैं और एक श्रेष्ठ मनुष्य की, एक सामाजिक व्यक्ति का आदर्श रूप प्रस्तुत करते हैं। अतः प्रेमचंद की कहानियों को कालक्रम में रखकर ‘मानसरोवर’ को नया रूप देना आवश्यक था, जिससे पाठक और आलोचक उनकी कहानियों को कालक्रमानुसार पढ़ सकें और उनकी विकास-यात्रा की उपलब्धियों एवं दुर्बलताओं को रचनागत तथ्यों के संदर्भ में समझ और समझा सकें। ‘मानसरोवर’ को ‘नया मानसरोवर’ के रूप में कायाकल्प करने के मूल में यही दृष्टि रही है। 

‘मानसरोवर’ के इतिहास और इस संपादकीय दृष्टि के मूल मर्म को अब स्पष्ट करना उपयुक्त होगा। ‘मानसरोवर’ के खंड : एक तथा खंड : दो का संकल-प्रकाशन स्वयं प्रेमचंद ने किया था और शेष छह खंड श्रीपतराय ने संकलित-प्रकाशित किए थे। ‘मानसरोवर’ के आरंभिक दो खंडों का ऐतिहासिक महत्त्व है, क्योंकि वे स्वयं लेखक के द्वारा तैयार तथा प्रकाशित हुए थे और प्रेमचंद ने मुख्यत: वर्ष 1929 से 1936 तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित नई कहानियों को इन दो खंडों में प्रकाशित किया था। प्रेमचंद प्रथम उर्दू कहानी-संग्रह ‘सोज़ेवतन’ (जून, 1908) तथा प्रथम हिंदी कहानी-संग्रह ‘सप्त-सरोज’ (जून, 1917) के प्रकाशन से इस नीति पर चल रहे थे कि उनकी उर्दू या हिंदी कहानियाँ पहले पत्र-पत्रिकाओं में छपती थीं और आठ-दस एवं पंद्रह-बीस कहानियाँ छपने के बाद उन्हें किसी संग्रह में एकत्र करके पुनः संकलित रूप में प्रकाशित कर दी जाती थीं और कई बार एक कहानी कई कहानी-संग्रहों में स्थान पा जाती थीं और कुछ किसी कहानी-संग्रह में आने से वंचित भी रह जाती थीं। ‘मानसरोवर’ खंड : एक तथा खंड : दो में प्रमुखतः अधिकांश कहानियाँ आठ वर्ष (1929-36) के बीच की हैं, किंतु खंड : एक में एक कहानी वर्ष 1921 तथा 1925 की भी है और खंड : दो में वर्ष 1926 एवं 1928 की भी हैं। इन संग्रहों में–प्रथम खंड में 21 तथा दूसरे खंड में 22 कहानियाँ चौथे दशक (1931-36) में प्रकाशित हुई हैं, अर्थात अपनी परंपरानुसार प्रेमचंद ने विगत छह वर्षों में, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों को संकलित करके पाठकों तक पहुँचाया है, लेकिन निश्चय ही उन्होंने यह कल्पना नहीं की होगी कि उनके बाद उनके पुत्र-प्रकाशक ‘मानसरोवर’ शीर्षक का इस्तेमाल उनकी संपूर्ण कहानियों को संकलित-प्रकाशित करने के लिए करेंगे और हिंदी-संसार को यह मानने के लिए विवश करेंगे कि ‘मानसरोवर’ के आठ खंड कहानियों को कालक्रमानुसार आयोजित करके प्रस्तुत किए गए हैं। प्रेमचंद ‘मानसरोवर’ को दो खंडों में प्रकाशित करने से पहले उर्दू में ‘प्रेम पचीसी’ (दो खंड, अक्टूबर 1914), ‘प्रेम-बत्तीसी’ (दो खंड, अगस्त 1920) तथा ‘प्रेम-चालीसी’ (दो खंड, 1930) आदि के रूप में ऐसा प्रयोग कर चुके थे, लेकिन हिंदी में यह उनका पहला प्रयोग था कि उन्होंने अपनी नवीनतम कहानियों (कुछ अपवाद छोड़कर) को दो खंडों में प्रकाशित किया था। खेद है, उनके पुत्र-प्रकाशक श्रीपतराय ने उनकी इस प्रकाशन-दृष्टि एवं परंपरागत प्रकाशन-योजना का रूप बदल दिया और दो खंडों के ‘मानसरोवर’ को आठ खंडों में तब्दील कर दिया। इससे हिंदी संसार और प्रेमचंद के पाठकों-आलोचकों को यह भ्रम होना स्वाभाविक था कि ‘मानवरोवर’ के आठ खंड एक प्रकार से प्रेमचंद की कहानी-रचनावली है और कहानियाँ उनके प्रकाशन क्रम से रखकर खंडों में प्रकाशित की गई हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आलोचकों ने एक तो 203 कहानियों को जो आठ खंडों में संकलित हैं (खंड : एक = 27, खंड : दो = 26, खंड : तीन = 32, खंड : चार = 20, खंड : पाँच = 24, खंड : छह = 20, खंड : सात = 23, खंड : आठ = 31 कहानियाँ), उनका संपूर्ण कहानी-संसार मान लिया तथा दूसरे इन आलोचकों ने इन खंडों में कहानियों के संकलन पर कभी कोई शंका या प्रश्न नहीं उठाया और यह मानकर व्याख्याएँ कीं कि ‘मानसरोवर’ के आठ खंडों में कहानियों का संकलन प्रकाशन-क्रम से ही किया गया होगा, जबकि इस नियम का पूर्णतः पालन न तो प्रेमचंद ने किया था और न उनके पुत्र-प्रकाशक श्रीपतराय और अमृतराय ने ही किया। प्रेमचंद जैसे कालजयी रचनाकार के साहित्य (विशेषतः कहानियाँ) के संबंध में ऐसी स्थिति बनी रही और तब भी बनी रही जब 203 कहानियों के ‘मानसरोवर’ के बाद उनकी लगभग 98 और कहानियाँ मिल गई हों जो ‘मानसरोवर’ के आठ खंडों में आने से वंचित रह गई हों। इन 98 कहानियों में स्वयं अमृतराय ने 56 नई कहानियाँ जोड़ी थीं जो वर्ष 1962 में, ‘गुप्तधन’ (दो खंड) में प्रकाशित हुई थीं, किंतु उसके बाद भी अमृतराय की प्रकाशन संस्था ‘हंस प्रकाशन’, इलाहाबाद तथा श्रीपतराय की ‘सरस्वती प्रेस’, इलाहाबाद-दिल्ली से अपने मूल रूप में ‘मानसरोवर’ (आठ खंड) 203 कहानियों के साथ ही छपता रहा और पाठक भी इन 203 कहानियों को प्रेमचंद की संपूर्ण कहानियाँ समझ एवं मानकर पढ़ता और समझता रहा तथा आलोचक भी इसे ही सत्य मानकर इनका विवेचन करता रहा। प्रेमचंद की कहानियों को लेकर यह स्थिति उनकी समुचित मूल्यांकन एवं तर्कसंगत विवेचन को ही असंभव बनाती है और कहानीकार प्रेमचंद अपने अपूर्ण रूप में ही पूर्ण मान लिए जाने के असत्य में ही जीते चले जाते हैं। 

ऐसी स्थिति में, ‘मानसरोवर’ के प्रकाशित आठ खंडों का परित्याग करके उसका ‘नया मानसरोवर’ के रूप में कायाकल्प करना सर्वथा न्यायसंगत, उचित तथा एक प्रकार से अनिवार्य कार्य है। प्रेमचंद के जीवन, साहित्य एवं विचार के अध्ययन, अन्वेषण और आलोचना को जीवन की आधी शताब्दी देनेवाले मुझ जैसे प्रेमचंद शोधकर्मी के लिए तो यह प्रेमचंद-धर्म का ही अनुपालन है। प्रेमचंद के साहित्य को प्रामाणिक तथा पूर्ण रूप में प्रस्तुत करना मेरे जीवन का लक्ष्य रहा है और ‘नया मानसरोवर’ उसी लक्ष्य का एक सुपरिणाम है, परंतु यहाँ इस कार्य की स्थिति, स्वरूप और कायाकल्प का चित्र पाठकों के सम्मुख रखना उचित होगा जिससे पाठक यह जान सकें कि पुराने और नए ‘मानसरोवर’ में क्या अंतर है, और इस नएपन में ऐसा क्या है जो पुराने ‘मानसरोवर’ को अनुपयोगी, अपठनीय तथा निरर्थक बनाता है और ‘नया मानसरोवर’ किन कारणों से वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों के लिए सर्वथा उपयोगी, पठनीय एवं सार्थक बन जाता है। इसके लिए ‘मानसरोवर’ के दोनों रूपों का तुलनात्मक स्वरूप रखना आवश्यक है जो निम्नलिखित रूप में है :

  1. ‘मानसरोवर’ का पुराना और नया रूप दोनों ही आठ खंडों में है। खंडों की संख्या में परिवर्तन नहीं किया गया है, क्योंकि इस रूप में इसके इतिहास की रक्षा आवश्यक थी।
  2. ‘मानसरोवर’ के पुराने आठ खंडों में कहानियों का संकलन-संयोजन कालक्रम से नहीं था। इसका ध्यान न तो प्रेमचंद ने रखा, न उनके प्रकाशक-पुत्रों ने और न कॉपीराइट ख़त्म होने के बाद विभिन्न प्रकाशकों ने जो आज तक उसी पुराने रूप में छाप करके बेच रहे हैं। अब ‘नया मानसरोवर’ में प्रेमचंद की संपूर्ण उपलब्ध कहानियों को कालक्रमानुसार संकलित किया गया है। इससे ‘मानसरोवर’ का पुराना रूप स्वतः निरर्थक एवं अपठनीय हो जाएगा। 
  3. ‘मानसरोवर’ खंड : एक में प्रेमचंद की भूमिका है। उसे ‘नया मानसरोवर’ में पूर्ववत् रूप में दी गई है।
  4. ‘मानसरोवर’, खंड : एक (मार्च 1936) में 27 कहानियाँ हैं। सूची है–(1) अलग्योझा : माधुरी, अक्टूबर, 1929 (2) ईदगाह : ‘चाँद’, अगस्त, 1933 (3) माँ : ‘माधुरी’, जुलाई, 1929 (4) बेटोंवाली विधवा : ‘चाँद’, नवंबर, 1932 (5) बड़े भाई साहब : ‘हंस’, नवंबर, 1934 (6) शांति : उर्दू ‘प्रेम पचीसी’, 1921 से पूर्व (7) नशा : ‘चाँद’ : फरवरी, 1934 (8) स्वामिनी : ‘शिल भारत’, सितंबर, 1931 (9) ठाकुर का कुआँ : ‘जागरण’, अगस्त, 1932 (10) घरजमाई : ‘माधुरी’, नवंबर, 1929 (11) पूस की रात : ‘माधुरी’, मई, 1930 (12) झाँकी : ‘जागरण’, अगस्त, 1932 (13) गुल्ली-डंडा : ‘हंस’ फ़रवरी, 1933 (14) ज्योति : ‘चाँद’, मई, 1933 (15) दिल की रानी : ‘चाँद’, नवंबर, 1933, (16) धिक्कार ‘चाँद’, फ़रवरी, 1925 (17) कायर : ‘विशाल भारत’, जनवरी, 1933; (18) शिकार : ‘हंस’, जुलाई-अगस्त, 1931 (19) सुभागी : ‘माधुरी’, मार्च, 1930 (20) अनुभव : ‘मानसरोवर’, खंड : एक, मार्च, 1936 (21) लांछन : ‘माधुरी’ फ़रवरी, 1931 (22) आखिरी हीला : ‘हंस’, अप्रैल, 1931 (23) तावान : ‘हंस’, सितंबर, 1931 (24) घासवाली : ‘माधुरी’, दिसंबर, 1929 (25) गिला : ‘हंस’, अप्रैल, 1932 (26) रसिक संपादक : ‘जागरण’, मार्च, 1933 (27) मनोवृत्ति : ‘हंस’, मार्च 1934। ‘नया मानसरोवर’ खंड : एक (2016) में 39 कहानियाँ हैं जो कालक्रमानुसार संकलित हैं। प्रेमचंद की पहली कहानी उर्दू में छपी थी जो ‘इश्के दुनिया व डुब्बे वतन’ (सांसारिक प्रेम और देश प्रेम) शीर्षक से ‘ज़माना’ उर्दू मासिक, अप्रैल, 1908 में प्रकाशित हुई थी। ये कहानियाँ वर्ष 1908 से 1913 में प्रकाशित हुई हैं, जिनमें से कुछ पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं, लेकिन ये सभी पहले उर्दू में प्रकाशित हुई हैं और बाद में ये हिंदी में आई हैं। ये सभी मूलतः उर्दू की कहानियाँ हैं जिनका बाद में लेखक के द्वारा हिंदीकरण हुआ है। ये 39 कहानियाँ निम्नलिखित हैं : सांसारिक प्रेम और देश प्रेम, शाप, रानी सारंधा, बड़े घर की बेटी, विक्रमादित्य का तेग़ा, करिश्मा-ए-इंतिकाम (अद्भुत प्रतिशोध), दोनों तरफ़ से, राजा हरदौल, आख़िरी मंजिल, ग़रीब की हाय, आल्हा, ममता, नसीहतों का दफ्तर, मनावत, राजहठ, त्रिया-चरित्र, अमृत, अमावस्या की रात्रि, धर्म-संकट, मिलाप, अँधेरे, सिर्फ़ एक आवाज़, बाँका ज़मींदार, दुनिया का सबसे अनमोल रतन, शेख़ मख़मूर, यही मेरी मातृभूमि है, शोक का पुरस्कार, पाप का अग्निकुंड, दारा शिकोह का दरबार, नेकी, बड़ी बहन, ख़ौफ़े रुसवाई (बदनामी का डर), कैफेरे कदरि (कर्म-दंड), धोखे की ट्ट्टी, सगे-लैला (लैला का कुत्ता), शंखनाद, आबेहयात (सुधा-रस), दारू-ए-तल्ख़ (कड़वी सच्चाई), नमक का दारोग़ा।
  5. ‘नया मानसरोवर’, खंड : एक की इस कहानी-सूची से स्पष्ट है कि यह प्रेमचंद का आरंभिक उर्दू कहानी-संसार है जिसमें से एक भी कहानी ‘मानसरोवर’, खंड : एक में नहीं है और इस प्रकार हिंदी कहानीकार प्रेमचंद के निर्माण में उनके उर्दू कहानीकार के योगदान को लुप्त कर दिया गया है। ‘मानसरोवर’ के आठ खंडों में कहीं भी और किसी में भी प्रेमचंद के उर्दू कहानीकार की चर्चा नहीं है और पाठकों को यह भी नहीं बताया गया कि प्रेमचंद की कौन-कौन सी कहानियाँ पहले उर्दू में छपी थीं तथा यह भी कि प्रेमचंद ने आरंभिक वर्षों में कहानियाँ केवल उर्दू में लिखी थीं। इस प्रकार ‘नया मानसरोवर’ खंड : एक उनके कहानीकार के साथ न्याय करता है और कहानी की बुनियाद उर्दू में रखने की वास्तविकता भी उजागर करता है और उनकी कहानी-यात्रा के परिदृश्य को कालक्रम में रखकर उसे वैज्ञानिक आधार भी देता है। इस प्रकार ‘मानसरोवर’, खंड : एक (मार्च, 1936) की सार्थकता एवं उपयोगिता तथा पठनीयता स्वतः ही समाप्त हो जाती है और ‘नया मानसरोवर’ का संपादन-प्रकाशन उसे नए रूप में सार्थकता, उपयोगिता एवं वैज्ञानिकता प्रदान करता है।
  6. ‘मानसरोवर’, खंड : दो की परीक्षा भी उपयोगी होगी, क्योंकि इसका संपादन-प्रकाशन भी स्वयं प्रेमचंद ने किया था। इसकी स्थिति भी वही है जो खंड : एक की है। इसमें मुख्यतः 1931 से 1935 की कहानियाँ हैं, किंतु 1926, 1927, 1928, 1929 की भी कहानियाँ हैं, जिससे स्पष्ट है कि कहानियों के चयन में कोई तर्कसंगत पद्धति नहीं है। इस कारण यह आवश्यक था कि खंड : दो को नया रूप दिया जाए और उसमें कहानियों का संचयन खंड : एक के कालक्रम में किया जाए। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘नया मानसरोवर’, खंड : दो में ‘मानसरोवर’, खंड : दो की एक भी कहानी नहीं आ सकी। ‘नया मानसरोवर’ खंड : एक में वर्ष 1908 से 1913 तक प्रकाशित कहानियाँ दी गई हैं और इस दूसरे खंड में वर्ष 1914 से 1919 की 40 कहानियाँ हैं। पहले ‘मानसरोवर’, खंड : 2 में 26 कहानियाँ थीं और अब ‘नया मानसरोवर’, खंड : दो में 40 कहानियाँ हैं। इसमें उनकी पहली हिंदी कहानी ‘परीक्षा’ भी है जो अक्टूबर, 1914 में प्रकाशित हुई थी तथा इसकी 40 कहानियों में 31 उर्दू में तथा 9 हिंदी में छपी थीं। इस प्रकार इस काल-खंड (1914-1919) में भी प्रेमचंद ने लगभग 75 प्रतिशत कहानियाँ उर्दू में लिखीं और बाद में उनका हिंदीकरण किया। प्रेमचंद की कहानी-यात्रा के अध्ययन-विवेचन में उर्दू-हिंदी के इस तथ्य को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए और इस पर भी ग़ौर करना चाहिए कि उर्दू भाषा में प्रेमचंद हिंदू समाज की कहानियाँ लिख रहे थे और उनके लिए उर्दू भाषा किसी मजहब की भाषा नहीं थी जबकि उर्दू का संबंध मुस्लिम समाज से जोड़ा जाता था। प्रेमचंद के कहानी-कौशल का यह सुपरिणाम है कि उनकी उर्दू कहानियाँ हिंदी में आकर ऐसी लगती हैं कि उन्हें मूलतः हिंदी में ही लिखा गया था। हिंदी और उर्दू भाषा में जैसी सिद्धस्तता प्रेमचंद में है, वैसी किसी अन्य भारतीय लेखक में दृष्टिगत नहीं होती।

इस प्रकार ‘नया मानसरोवर’, खंड : 2 पूर्णतः 40 नई कहानियों का खंड है, और ये कहानियाँ कालक्रम में रखी गई हैं। ये कहानियाँ निम्नलिखित हैं : अनाथ लड़की, खून सफ़ेद, शिकारी राजकुमार, अपनी करनी, पछतावा, विस्मृति, ग़ैरत की कटार, बेटी का धन, दो भाई, घमंड का पुतला, जुगनू की चमक, धोखा, अपने फ़न का उस्ताद, मर्यादा की वेदी, ज्वालामुखी, उपदेश, महातीर्थ, कप्तान साहब, विजय, सेवा-मार्ग, वफ़ा का खंजर : ‘ज़माना’ (क्रमश: जून, जुलाई, अगस्त, सितंबर-अक्टूबर, नवंबर-1914; जनवरी-फरवरी, जुलाई, नवंबर-1915; जनवरी, अगस्त, अक्टूबर, नवंबर, दिसंबर-1916; जनवरी, मार्च, मई, सितंबर, दिसंबर-1917; अप्रैल, जून, नवंबर-1918); प्ररीक्षा, वियोग का मिलाप, ‘प्रताप’ साप्ताहिक (क्रमश: अक्टूबर 1914, सितंबर 1917); कर्मों का फल, ‘ख़तीब’ 7 अगस्त 1915; सौत, सज्जनता का दंड, पंच-परमेश्वर, ईश्वरीय न्याय, दुर्गा का मंदिर, बलिदान, ‘सरस्वती’ (क्रमश: दिसंबर 1915, मार्च 1916, जून 1916, जुलाई 1917, दिसंबर 1917, मई 1918); दरवाज़ा, ‘अलनाज़िर’ जनवरी, 1917; शांति : ‘तहजीबे निसवां’, अप्रैल 1918; वासना की कड़ियाँ, बैंक का दिवाला, विमाता, अनिष्ट शंका, दफ्तरी : ‘कहकशाँ’ (क्रमश: सितंबर-अक्टूबर 1918, फरवरी-मार्च, जून, अगस्त, अक्टूबर-1919); बोध, सच्चाई का उपहार : ‘प्रेम-पूर्णिमा’ 1918; ख़ूने हुर्मत : ‘सुबहे उम्मीद’ सितंबर, 1919।

‘मानसरोवर’, खंड : तीन (अप्रैल, 1938) प्रेमचंद के बड़े पुत्र श्रीपतराय ने संकलित एवं प्रकाशित किया और वर्ष 1920 से 1936 तक की 32 कहानियाँ को चुना और पूर्व के दो खंडों के समान कहानियों के चयन की कोई उचित एवं व्यवस्थित नीति नहीं अपनाई, जबकि पाठक और अध्येताओं को यह भ्रम बना रहा कि खंड : तीन का प्रकाशन कहानियों के कालक्रमानुसार हुआ है। अब ‘नया मानसरोवर’, खंड : तीन में 42 कहानियाँ हैं जो कालक्रमानुसार दी गई हैं और पूर्व के खंडों के कालक्रम में भी हैं। ‘नया मानसरोवर’, खंड : तीन में वर्ष 1920 से 1923 की 42 कहानियाँ हैं जिनमें 11 उर्दू में तथा 31 हिंदी में पहले प्रकाशित हुई हैं। इससे स्पष्ट है कि हिंदी ने उर्दू का स्थान ले लिया है और प्रेमचंद 75 प्रतिशत कहानियाँ मूलतः हिंदी में लिखते हैं, लेकिन इस पर भी वे उर्दू का साथ नहीं छोड़ते और उर्दू संसार से अपना संबंध बनाए रखते हैं। प्रेमचंद की कहानियों के इस द्विभाषी रूप के अध्ययन से अनेक नए तथ्य और निष्कर्ष सामने आ सकते हैं। ‘नया मानसरोवर’, खंड : तीन की 42 कहानियाँ निम्नलिखित हैं : आत्माराम, रूहे हयात, प्रारब्ध, लोकमत का सम्मान, ख़ूनी : ‘ज़माना’ (क्रमश: जनवरी 1920, जनवरी, अप्रैल-1921; अक्टूबर 1922, अक्टूबर 1923); बाँसुरी, पशु से मनुष्य, बूढ़ी काकी : ‘कहकशाँ’ (क्रमश: जनवरी 1920, जनवरी 1920, जुलाई 1920); मनुष्य का परम धर्म, विचित्र होली : ‘स्वदेश’ (क्रमश: 5 मार्च 1920, मार्च 1921); प्रतिज्ञा, आदर्श विरोध, गुप्तधन, गृह-दाह : ‘श्रीशारदा’ (क्रमश: 21 मार्च 1920, 6 जुलाई 1921, अगस्त 1922, जून 1923); ब्रह्म का स्वाँग, विषम समस्या, लाग-डाट, सुहाग की साड़ी, चकमा, बौड़म : ‘प्रभा’, (क्रमश: मई 1920, जनवरी 1921, जुलाई 1921, जनवरी 1922, नवंबर 1922, अप्रैल 1923); पुत्र-प्रेम, बैर का अंत : ‘सरस्वती’ (जून 1920, अप्रैल 1923); मृत्यु के पीछे : ‘सुबहे उम्मीद’, सितंबर 1920; मुबारक बीमारी : ‘प्रेम बत्तीसी’, खंड : एक, 1920; लाल फीता : ‘लाल फीता या मजिस्ट्रेट का इस्तीफ़ा’ अप्रैल 1921; दुस्साहस, विध्वंस : ‘आज’ (18 जून 1921, 25 जुलाई 1921); त्यागी का प्रेम, मूठ, हार की जीत : ‘मर्यादा’ (नवंबर 1921, जनवरी 1922, मई 1922); स्वत्व-रक्षा, अधिकार चिंता, पूर्व-संस्कार, राज-भक्त, आप-बीती, आभूषण, सत्याग्रह : ‘माधुरी’ (क्रमश: जुलाई, अगस्त, दिसंबर-1922; फरवरी, जुलाई, अगस्त, दिसंबर-1923); नाग-पूजा : ‘तहजीबे निसवाँ’ 5-22 अगस्त 1922; दुराशा : ‘हज़ार दास्ताँ’, अक्टूबर 1922; परीक्षा, नैराश्य लीला, कौशल : ‘चाँद’, (क्रमश: जनवरी, अप्रैल, नवंबर-1923)।

‘नया मानसरोवर’ के पाठकों को दो प्रकार का लाभ होगा–एक तो प्रत्येक खंड में अधिक कहानियाँ मिलेंगी और दूसरे कालक्रमानुसार मिलेंगी एवं उनके प्रथम प्रकाशन की तिथि तथा पत्रिका आदि का विवरण मिलेगा। ‘मानसरोवर’, खंड : चार में कुल 20 कहानियाँ हैं और इसका प्रकाशन वर्ष 1939 में हुआ था। इसमें भी वर्ष 1927 से 1936 की कहानियाँ ली गई हैं जो अधिकांशत: हिंदी पत्र-पत्रिकाओं से ली गई हैं। इसमें भी कहानियों के चयन की कोई नीति नहीं है और कालक्रम की पूर्णत: उपेक्षा है। ‘नया मानसरोवर’, खंड : चार में वर्ष 1924 से 1926 की 44 कहानियाँ हैं, अर्थात ‘मानसरोवर’, खंड : चार से 24 कहानियाँ अधिक हैं तथा कालक्रम में हैं एवं प्रथम प्रकाशन की तिथि के साथ हैं। इस काल-खंड (1924-1926) में हिंदी में 42 तथा उर्दू में 2 कहानियाँ छपी हैं। इससे स्पष्ट है कि अब प्रेमचंद हिंदी के लिए पूर्णत: समर्पित थे। ‘नया मानसरोवर’, खंड : चार की 44 कहानियाँ निम्नलिखित हैं : सैलानी बंदर, वज्रपात, मुक्ति-मार्ग, मुक्ति-धन, क्षमा, भूत, दीक्षा, शतरंज के खिलाड़ी, विनोद, डिक्री के रुपये, सभ्यता का रहस्य, मंदिर और मस्जिद, भाड़े का टट्टू, चोरी, मंत्र (लीलाधर), कजाकी, लांछन, रामलीला, हिंसा परमो धर्म: ‘माधुरी’ (क्रमश: फरवरी, मार्च, अप्रैल, मई, जून, अगस्त, सितंबर, अक्टूबर, नवंबर-1924; जनवरी, मार्च, अप्रैल, जुलाई, सितंबर-1925; फरवरी, अप्रैल, अगस्त, अक्टूबर, दिसंबर-1926); नबी का नीति निर्वाह, लैला, प्रेम-सूत्र, निमंत्रण : ‘सरस्वती’, (क्रमश: मार्च 1924, जनवरी, अप्रैल, नवंबर-1926); निर्वासन, नैराश्य, एक आँच की कसर, उद्धार, सवा सेर गेहूँ, तेंतर, धिक्कार, नरक का मार्ग, विश्वास, स्त्री और पुरुष, माता का हृदय, स्वर्ग की देवी, दंड, बहिष्कार : ‘चाँद’ (क्रमश: जून, जुलाई, अगस्त, सितंबर, नवंबर, दिसंबर-1924; फरवरी, मार्च, अप्रैल, मई-जून, जुलाई, सितंबर, अक्टूबर-1925; दिसंबर 1926); सौभाग्य के कीड़े : ‘प्रभा’ जून 1924; शूद्रा, ताँगेवाले की बड़ : ‘ज़माना’ (दिसंबर 1925, सितंबर 1926); आधार : ‘प्रेम-प्रमोद’, 1926; गुरु-मंत्र : ‘प्रेम-प्रतिभा’ 1926; शांति : ‘प्रेम-द्वादशी’ 1926; बाबाजी का भोग : ‘प्रेम-प्रतिमा’ 1926।

‘मानसरोवर’, खंड : पाँच में 24 कहानियाँ हैं जो अधिकांशतः वर्ष 1925 से 1929 के बीच की हैं। इस प्रकार इन कहानियों का पूर्व के खंडों में प्रकाशित कहानियों से कालक्रम का कोई संबंध नहीं है। इसका अर्थ है कि सरस्वती प्रेस, बनारस के मालिक श्रीपतराय की दृष्टि कहानियों को इकट्ठा करके प्रकाशित करने की थी, उन्हें रचनाक्रम में रखने की नहीं, जबकि उनके लिए यह कार्य आसान था और उनके पास कहानियों के मूल प्रकाशन-स्रोत उपलब्ध थे। ‘नया मानसरोवर’, खंड : पाँच में इन दोषों को दूर किया गया है। अब इस नए रूप में 30 कहानियाँ हैं जो वर्ष 1927 से 1928 के बीच अर्थात दो वर्ष में लिखी और प्रकाशित हुई हैं और इन्हें कालक्रम से रखा गया है। प्रेमचंद के जीवन का यह एक ऐसा समय है जब उन्होंने दो वर्ष में इतनी अधिक कहानियाँ लिखी हैं और भिन्न-भिन्न प्रसंगों एवं समस्याओं पर लिखी हैं। हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं की कहानियों की इतनी माँग थी कि वे उसे पूरा नहीं कर पा रहे थे। इस काल-खंड में वे एकमात्र कहानी-सम्राट थे। इस संबंध में यह भी सत्य है कि प्रेमचंद की कहानियों से हिंदी पत्रिकाएँ लोकप्रिय हो रही थीं और ये पत्रिकाएँ उन्हें निरंतर देश के साहित्य प्रेमियों तक पहुँचा रही थीं। इस दृष्टि से ‘मर्यादा’, ‘माधुरी’, ‘प्रभा’, ‘चाँद’, ‘सरस्वती’ आदि पत्रिकाओं का सर्वाधिक योगदान है। फिर भी 7 कहानियाँ उर्दू में छपी हैं, हिंदी में बाद में आई हैं। ‘नया मानसरोवर’, खंड : पाँच में निम्नलिखित 30 कहानियाँ (1927 से 1928 तक) संकलित हैं : बड़े बाबू : ‘बहारिस्तान’ उर्दू-मासिक, फरवरी 1927; शादी की वजह : ‘ज़माना’ मार्च, 1927; सती, कामना तरु, सुजान भगत, माँगे की घड़ी, आत्म-संगीत, ऐक्ट्रेस, मोटेराम जी शास्त्री, दो सखियाँ, पिसनहारी का कुआँ, सोहाग का शव, दारोग़ा जी, संपादक मोटेराम जी शास्त्री, अभिलाषा, अनुभव, विद्रोही, आगा-पीछा : ‘माधुरी’ (क्रमश: मार्च, अप्रैल, मई, जुलाई, अगस्त, अक्टूबर-1927; जनवरी, फरवरी-मई, जून, जुलाई, अगस्त, अगस्त-सितंबर, अक्टूबर, नवंबर, नवंबर, दिसंबर-1928); मंदिर : ‘चाँद’ मई 1927; अग्नि-समाधि, मंत्र (डॉ. चड्ढा) : ‘विशाल भारत’ (जनवरी 1928, मार्च 1928); मोटेराम जी शास्त्री का नैराश्य : ‘समालोचक’ मार्च-अप्रैल 1928; आँसुओं की होली : ‘मतवाला’ 6 मई, 1928; बोहनी : ‘भारत’, साप्ताहिक, 7 अक्टूबर 1928; इस्तीफ़ा : ‘भारतेन्दु’ दिसंबर, 1928; ख़ुदी, शुद्धि : ‘ख्वाबोख्याल’ 1928; प्रेरणा, नादान दोस्त, अलग्योझा : ‘ख़ाके परवाना’ 1928।

‘मानसरोवर’ खंड : छह में 20 कहानियाँ हैं और ‘नया मानसरोवर’, खंड : छह में 29 कहानियाँ हैं, जो कालक्रमानुसार दी गई हैं। इनमें 24 कहानियाँ हिंदी में तथा 5 कहानियाँ उर्दू में छपी हैं। उर्दू की कुछ कहानियों का हिंदीकरण अमृतराय ने किया और उनका हिंदी रूप ‘गुप्तधन’ (1962) में प्रकाशित किया। ‘मानसरोवर’, खंड : छह में 1908 से लेकर 1927 तक की कहानियाँ हैं, जिसके कारण लेखक की कहानी-यात्रा का कोई व्यवस्थित रूप निर्मित नहीं होता और पाठक/अध्येता दोनों ही कहानीकार प्रेमचंद के संबंध में सही निष्कर्षो तक नहीं पहुँच पाते। ‘नया मानसरोवर’, खंड : छह वर्ष 1929 तथा 1930 की 29 कहानियाँ हैं और प्रेमचंद कहानी-रचना की पूर्व गति को बनाए रखते हैं जबकि इस दौर में वे अपनी अतिरिक्त पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी निभाते चलते हैं। ‘नया मानसरोवर’, खंड : छह में निम्नलिखित 29 कहानियाँ हैं : प्रायश्चित : ‘सरस्वती’, जनवरी 1929; खुचड़, पर्वत-यात्रा, माँ, क़ानूनी कुमार, घरजमाई, घासवाली, धिक्कार, सुभागी, पत्नी से पति, पूस की रात : ‘माधुरी’ (क्रमश: फरवरी, अप्रैल, जुलाई, अगस्त, नवंबर, दिसंबर-1929, फरवरी, मार्च, अप्रैल, मई-1930); प्रेम की होली, ग़मी : ‘मतवाला’ (23 मार्च 1929, 31 अगस्त 1929); फ़ातिहा, कवच : ‘विशाल भारत’ (मार्च, दिसंबर-1929); प्रेम का उदय : ‘प्रकाश’ उर्दू साप्ताहिक 16-23 अगस्त 1929; जिहाद : ‘पाँच फूल’ 1929; दो कब्रें : ‘माया’ जनवरी 1930; जुलूस, समर-यात्रा, शराब की दुकान, मैकू, आहुति : ‘हंस’ (क्रमश: मार्च, अप्रैल, मई, जून, नवंबर-1930); स्वप्न : ‘वीणा’ जुलाई 1930; राष्ट्र को सेवक, तिरसूल, देवी, बंद दरवाज़ा : ‘प्रेम चालीसी’ (क्रमश: खंड : एक 1930 व खंड : दो 1930); सद्गति : ‘प्रेम-कुंज’ 1930।

‘नया मानसरोवर’, खंड : छह (1929-30) में मार्च, 1930 से प्रेमचंद ने अपनी पत्रिका ‘हंस’ का प्रकाशन शुरू किया था जिसे उन्होंने स्वराज्य आंदोलन का अंग बनाया। उन्होंने स्वराज्य आंदोलन से संबंधित कहानियाँ ‘हंस’ में प्रकाशित कीं और सामाजिक समस्याओं पर आधारित कहानियाँ अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजीं। अब ‘हंस’ के लिए उन्हें प्रत्येक महीने कहानी लिखनी होती थी और अन्य हिंदी पत्रिकाओं की माँग को भी पूरा करना होता था। हिंदी में ऐसा सक्रिय तथा इतनी व्यापक रचनाशीलता वाला कोई दूसरा कथाकार नहीं था। अपने उपन्यासों और कहानियों का हिंदी-उर्दू में आदान-प्रदान के साथ अन्य साहित्यिक एवं पारिवारिक कार्यों में भी उनकी घोर व्यस्तता रहती थी। इतनी व्यस्तता में इतने विपुल साहित्य की रचना करना असंभव-सा ही कार्य था।

‘मानसरोवर’ खंड : सात में 23 कहानियाँ हैं और इसका प्रकाशन सरस्वती प्रेस, बनारस से वर्ष 1947 में हुआ। इसमें दिसंबर, 1910 की कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ से लेकर अप्रैल, 1930 में प्रकाशित, ‘समर यात्रा’ तक की कहानियाँ हैं। ‘नया मानसरोवर’, खंड : सात में वर्ष 1931 से 1933 तक की 46 कहानियाँ हैं, अर्थात 23 कहानियाँ अधिक हैं और उनका प्रकाशन वर्ष भी केवल तीन वर्ष (1931-33) तक सीमित है। इन 46 कहानियों में 37 हिंदी में तथा 9 कहानियाँ उर्दू में प्रकाशित होने के प्रमाण मिलते हैं। यह संभव है कि इन 9 उर्दू कहानियों में कुछ कहानियाँ पहले हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में छपी हों और हमें उनका मूल प्रकाशन-स्रोत नहीं मिल पाया हो। ऐसी संभावना उनकी सभी ऐसी कहानियों के साथ हो सकती हैं, फिर भी इन आँकड़ों से यह तो स्पष्ट होता है कि प्रेमचंद 80 प्रतिशत अपना समय हिंदी को दे रहे थे। प्रेमचंद की ख्याति और स्वीकृति में हिंदी में प्रकाशित कहानियों का सर्वाधिक योगदान है। अब वे अपनी कहानियाँ ‘हंस’ में दे रहे थे, किंतु ‘चाँद’, ‘माधुरी’, ‘सरस्वती’ आदि पत्रिकाओं में भी उनकी कहानियाँ बराबर छप रही थीं। 

‘नया मानसरोवर’, खंड : सात की 46 कहानियाँ निम्नलिखित हैं : उन्माद, लाछंन, होली का उपहार, चमत्कार : ‘माधुरी’ (जनवरी, फरवरी, अप्रैल-1931, मार्च 1932); ढपोरसंख, जेल, शिकार, तावान, दो बैलों की कथा, लेखक, गिला, डामुल का क़ैदी, नेउर, गुल्ली डंडा, बालक, क़ैदी : ‘हंस’ (जनवरी-मार्च, फरवरी, जुलाई-अगस्त, सितंबर, अक्टूबर, नवंबर-1931, अप्रैल, नवंबर-1932, जनवरी, फरवरी, अप्रैल, जुलाई-1933); आख़िरी हीला, खेल, आख़िरी तोहफ़ा, दूसरी शादी : ‘चंदन’ (फरवरी, अप्रैल, अगस्त, सितंबर-1931); डिमांस्ट्रेशन : ‘प्रेमा’ और अप्रैल, 1931; स्वामिनी, सौत, कायर : ‘विशाल भारत’ (सितंबर, दिसंबर-1931, जनवरी 1933); मृतक-भोज : ‘मृतक-भोज’, कहानी-संग्रह, जनवरी, 1932; सती, तगादा : ‘प्रेरणा और अन्य कहानियाँ’ फरवरी 1932; नया विवाह : ‘सरस्वती’, मई 1932; कुत्सा, झाँकी, ठाकुर का कुआँ, रसिक संपादक : ‘जागरण’ (3 जुलाई, 22, 29 अगस्त-1932, साप्ताहिक, 15 मार्च 1933); बीमार बहन : ‘कुमार’ बाल पत्रिका, जुलाई, 1932; कुसुम, बेटोंवाली विधवा, वेश्या, ज्योति, ईदगाह, दिल की रानी : ‘चाँद’, अक्टूबर, नवंबर-1932, फरवरी, मई, अगस्त, नवंबर-1933); रोशनी : ‘अदबी दुनिया’, नवंबर 1932; स्मृति का पुजारी : ‘अस्मत’ उर्दू पत्रिका, 1932; रंगीले बाबू : ‘भारत’ अर्द्ध वार्षिक, 26 जनवरी 1933; वैराग्य : ‘स्वाधीनता’ 1933; क़ातिल, बारात, वफ़ा की देवी : ‘निजात’ उर्दू कहानी-संग्रह, 1933।

‘मानसरोवर’, खंड : आठ में 31 कहानियाँ हैं और इसका प्रकाशन श्रीपतराय ने वर्ष 1950 में सरस्वती प्रेस, बनारस से किया था। इसमें वर्ष 1911 से 1924 तक की कहानियाँ हैं और इस तरह जो बची-खुची कहानियाँ थीं उन्हें संकलित करके ‘मानसरोवर’, खंड : आठ में प्रकाशित किया गया है। यह ‘मानसरोवर’ का अंतिम खंड है, लेकिन इसमें अंतिम समय की नहीं बल्कि आरंभिक काल की कहानियाँ दी गई हैं। इस कारण से भी ‘मानसरोवर’ के बार-बार प्रकाशन की अर्थवत्ता समाप्त हो जाती है। ‘नया मानसरोवर’, खंड : आठ में वर्ष 1934 से 1936 की 29 कहानियाँ हैं। इनमें तीन अंतिम कहानियाँ ऐसी हैं जो प्रेमचंद के देहांत के बाद उनके पुत्रों ने प्रकाशित कराई थीं, लेकिन उन्हें प्रेमचंद के जीवन के अंतिम समय की कहानियाँ मानकर यथा-स्थान पर रखी गई हैं। इन 29 कहानियों में 23 हिंदी की तथा 6 कहानियाँ उर्दू से ली गई हैं। यहाँ तक कि ‘कफ़न’ कहानी पहले उर्दू में छपी थी और बाद में हिंदी में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद इस समय भी ‘हंस’ के साथ ‘चाँद’, ‘माधुरी’ आदि पत्रिकाओं को भी अपनी कहानियाँ दे रहे थे किंतु इधर उनकी संख्या कम हो रही थी।

‘नया मानसरोवर’, खंड : आठ की 29 कहानियाँ निम्नलिखित हैं : नशा, खुदाई फ़ौज़दार, देवी, गृह-नीति : ‘चाँद’ (क्रमश: फरवरी, नवंबर-1934, अप्रैल, अगस्त-1935); मनोवृत्ति, जादू, रियासत का दीवान, दूध का दाम, मुफ्त का यश, बासी भात में खुदा का साझा, बड़े भाई साहब, जीवन का शाप, तथ्य, लॉटरी, रहस्य, कश्मीरी सेव : ‘हंस’ (क्रमश: मार्च, अप्रैल-मई, मई, जुलाई, अगस्त, अक्टूबर, नवंबर-1934, जून, फरवरी, नवंबर-1935, सितंबर, अक्टूबर-1936); पंडित मोटेराम की डायरी : ‘जागरण’, जुलाई, 1934; स्वाँग, कफ़न : ‘जामिया’ (उर्दू मासिक-क्रमश: जनवरी, दिसंबर-1935); क़ातिल की माँ, कोई दु:ख न हो तो बकरी खरीद लो : ‘वारदात’ उर्दू कहानी-संग्रह, 1935; पैपुजी, दो बहनें : ‘माधुरी’ (अक्टूबर 1935, अगस्त 1936); मिस पद्मा, मोटर के छींटे : ‘मानसरोवर’ खंड : 2 मार्च 1936; होली की छुट्टी : ‘जादेराह’ (उर्दू कहानी-संग्रह, जून 1936); जुरमाना, यह भी नशा वह भी नशा : ‘कफ़न और शेष रचनाएँ’ मार्च 1937; क्रिकेट मैच : ‘ज़माना’ जुलाई 1937।

‘नया मानसरोवर’ के आठ खंडों के इस विवरण से पाठकों/अध्येताओं को स्पष्ट हो गया होगा कि पुराने ‘मानसरोवर’ को हटाकर उसे सर्वथा नए रूप में प्रकाशित करने का औचित्य क्या है? प्रेमचंद के नाम के साथ ‘मानसरोवर’ इतने अटूट रूप में जुड़ा है कि उसे जीवित रखना आवश्यक था और उसकी सार्थकता को नई उपलब्ध सामग्री के परिप्रेक्ष्य में बनाए रखना भी आवश्यक था। अत: उसका कायाकल्प एवं नवीनीकरण परमावश्यक था। ‘नया मानसरोवर’ के प्रकाशन से ‘मानसरोवर’, आठ खंड अब निरर्थक हो जाएँगे और ‘नया मानसरोवर’ ही कहानीकार प्रेमचंद को पढ़ने और समझने का केंद्र होगा। यहाँ प्रेमचंद के प्रबुद्ध पाठक यह प्रश्न कर सकते हैं कि ‘प्रेमचंद : कहानी रचनावली’, खंड छह के प्रकाशन के बाद मैंने क्यों ‘नया मानसरोवर’ का संपादन एवं उसका प्रकाशन कराया है। मुझे इसका उत्तर देना होगा। ‘प्रेमचंद : कहानी रचनावली’ मैंने ही संपादित की थी, परंतु प्रेमचंद के नाम के साथ ‘मानसरोवर’ जैसे जुड़ा है और वह जिस अपूर्ण एवं अशुद्ध में छप और बिक रहा है, उससे उसे मुक्त करके उसे शुद्ध और दोषमुक्त करना मुझे आवश्यक प्रतीत हुआ। इसी प्रकार ‘गो-दान’ उपन्यास का पाठ भी भ्रष्ट रूप में छप रहा है और उसे अनेक प्रकाशक प्रकाशित करके धन कमा रहे हैं, लेकिन मैंने ‘गो-दान’ का प्रथम संस्करण (मार्च, 1936) अभी प्रकाशित कराया है जिससे उसका शुद्ध पाठ, कुछ पांडुलिपि के पृष्ठों के साथ, पाठकों, छात्रों एवं अध्येताओं तक पहुँच सके। यह दुर्भाग्यपूर्ण सच है कि हिंदी आलोचक एवं शोधार्थी ने प्रेमचंद की कृतियों के पाठ को शुद्ध करने तथा उसे व्यवस्थित कालक्रम में रखने पर विचार ही नहीं किया। अतः मैंने ‘मानसरोवर’ को ‘नया मानसरोवर’ का रूप देना, उसे प्रामाणिक एवं पूर्ण बनाने के लिए अपना शोध-धर्म माना। इसके अतिरिक्त एक-दो और भी कारण रहे हैं। इस बीच प्रेमचंद की एक नई कहानी ‘दारा शिकोह का दरबार’ मुझे मिली जो ‘प्रेमचंद : कहानी रचनावली’ में नहीं जा सकी थी तथा ‘शिकार’ कहानी जो ‘हंस’, जुलाई, अगस्त, 1931 में छपी थी उसे मैंने ‘प्रेमचंद : कहानी रचनावली’, खंड : एक में वर्ष 1910 में प्रकाशित दिखाकर गलती की थी। मुझे इस गलती को भी ठीक करना था। अब यह कहानी ‘नया मानसरोवर’, खंड : सात में अपने कालक्रमानुसार संकलित है। यहाँ प्रदीप जैन के उस दावे की चर्चा भी जरूरी है जिसमें छह नई अज्ञात कहानियों को खोजने तथा प्रस्तुत करने का दावा किया है। ये कहानियाँ हैं–’दारा शिकोह का दरबार’ (‘आजाद’ उर्दू मासिक, सितंबर, 1908), ‘सौदा-ए-ख़ाम’ (‘तमद्दुन’ उर्दू मासिक, फ़रवरी, 1920), ‘इश्तिहारी शहीद’ (‘ज़माना’, अप्रैल-मई, 1915), ‘जंजाल’, ‘तहजीबे निस्वाँ,’ उर्दू साप्ताहिक, 3 अगस्त, 1918), ‘महरी’ (‘ज़माना’, नवंबर, 1926) तथा ‘वफा की देवी’ (‘निजात’ उर्दू कहानी-संग्रह, 1933)। ये सभी उर्दू में प्रकाशित कहानियाँ हैं और इनमें से दो कहानियाँ ‘दारा शिकोह का दरबार’ तो ‘वागर्थ’ (मार्च, 2011) में तथा ‘वफ़ा की देवी’ कहानी ‘प्रेमचंद : कहानी रचनावली’ में हिंदी में लिप्यंतर करके प्रकाशित करा चुका था। प्रदीप जैन ने इन सभी उर्दू कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया है, जिसे मैं अनधिकार चेष्टा मानता हूँ। प्रेमचंद की भाषा को बदलना सर्वथा अनुचित कर्म है, जबकि हिंदी में लिप्यंतर करके भी उर्दू कहानियाँ हिंदी में लाई जा सकती हैं। मैंने सभी उर्दू कहानियों के साथ ऐसा ही किया है। प्रदीप जैन ‘इश्तिहारी शहीद’ और ‘महरी’ को बंबूक नाम से छपी बताते हैं और प्रेमचंद की ही कहानियाँ मानते हैं जो विवादित एवं शंकापूर्ण है। अतः इन कहानियों को छोड़ दिया गया है। ‘सौदा-ए-ख़ाम’ तथा ‘जंजाल’ उर्दू कहानियों का मैंने भी उल्लेख किया है, परंतु उनके अनुवाद रूप को देना मुझे उचित प्रतीत नहीं हुआ। मुझे जब भी इनका मूल उर्दू पाठ मिलेगा, मैं इनका हिंदी में लिप्यंतर करके प्रकाशित करा दूँगा। यदि इन दो उर्दू कहानियों का मूल रूप मिल जाता तो ‘नया मानसरोवर’ में दो और कहानियों की वृद्धि हो जाती।

प्रेमचंद की आरंभिक कहानियों में उर्दू कहानी-संग्रह ‘सोज़ेवतन’ (जून, 1908) का विशेष महत्त्व है। प्रेमचंद ने अपना लेखकीय जीवन लेखों, जीवनियों और समीक्षाओं से शुरू किया। ‘सोज़ेवतन’ के प्रकाशन से पहले लगभग डेढ़ दर्जन लेख और दो दर्जन समीक्षाएँ एवं चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे। इन सभी में प्रायः राष्ट्रीय चेतना, देशभक्ति एवं संस्कृति रक्षा का भाव था। अपने पहले लेख ‘ओलीवर क्रामवेल’ (1903) में वे देश प्रेम एवं हमदर्दी की तारीफ़ करते हैं, ‘आइने कैसरी’ (1905) में राजभक्ति की कटु आलोचना करते हैं, ‘देशी अशिया को क्योंकर फ़रोग हो सकता है’ (1905) में देशी जागरण और व्यापार का समर्थन करते हैं तथा ‘स्वदेशी तहरीक’ (नवंबर, 1905) में विदेशी वस्तुओं के उपयोग पर सभ्य समाज की आलोचना करते हैं। उनकी राजा टोडरमल, राजा मानसिंह, गोखले, राणा प्रताप, गैरी बाल्डी, स्वामी विवेकानंद आदि पर लिखी जीवनियाँ भी उनके विचार-संसार से परिचय कराती हैं। प्रेमचंद का यह विचार पक्ष सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उनकी चेतना स्वदेशी आंदोलन, बंगभंग, तिलक आदि से निर्मित होती है जिसमें हिंदू चेतना का गहरा असर है। ‘सोज़ेवतन’ के कालखंड में प्रेमचंद का राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का श्रेष्ठ रूप मिला-जुला है ‘राणा प्रताप’ (नवंबर, 1906) लेख में राणा प्रताप मरने से पहले अपने सरदारों से संकल्प कराते हुए कहता है, ‘मेरी आत्मा को तब चैन होगा जब तुमलोग अपनी-अपनी तलवारें हाथ में लेकर क़सम खाओ कि हमारा यह देश तुर्कों के क़ब्ज़े में न आएगा। तुम्हारी रगों में जब तक एक बूँद भी रक्त रहेगा, तुम उसे तुर्कों से बचाते रहोगे।’ ‘सोज़ेवतन’ की कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ का सबसे अनमोल रतन वही है जो राणा प्रताप व्यक्त करता है। कहानी का अंत इस वाक्य से होता है–‘ख़ून का वह आखिरी कतरा जो वतन की हिफ़ाज़त में गिरे दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ है।’ कहानी में एक राजपूत योद्धा देश की रक्षा करते हुए मरनेवाला है। वह कथा नायक दिलफिग़ार को कहता है कि हमने हमलावर दुश्मन को बता दिया कि राजपूत अपने देश के लिए कैसी बहादुरी से जान देते हैं। यह राजपूत योद्धा ‘भारत माता की जय’ कहकर प्राण त्याग देता है। आज हम जानते हैं कि देश में ‘भारत माता की जय’ बोलने पर कैसा वितंडावाद खड़ा हो गया है, किंतु इसके आलोचकों को देखना चाहिए कि प्रेमचंद वर्ष 1908 में देश प्रेम से भरपूर इस नारे का उपयोग देश की रक्षा में प्राण न्योछावर करनेवाले एक राजपूत योद्धा से करवाते हैं। वह भारत माता की रक्षा में ही अपना बलिदान करता है।

प्रेमचंद की कहानियों का रचना-काल औपनिवेशिक दासता का समय था और अँग्रेजों का शोषण, अत्याचार, अपमान और उनकी सभ्यता का आक्रमण निरंतर भारतीय समाज पर आघात कर रहा था। सन् 1857 के राष्ट्रीय विद्रोह को अँग्रेजों ने कुचल दिया था और उनकी सत्ता और सभ्यता ने भारतीयों के मन में अस्तित्व के प्रश्न के साथ आत्म-बोध की ज्वाला धधकनी आरंभ हो गई थी। देश में ‘आनंद मठ’, ‘सत्यार्थप्रकाश’, स्वामी विवेकानंद, बंग-भंग, ‘वंदेमातरम्’, ‘हिंद स्वराज’ आदि ने देश में जागरण एवं आत्मालोचन की चेतना उत्पन्न कर दी। प्रेमचंद इसी परिवेश में जन्मे थे और इसी में उनके मन में भारतीय समाज को जाग्रत करने, उसे अपनी परीक्षा करने और अपनी संस्कृति के श्रेष्ठ तत्वों की रक्षा करने का स्वप्न जन्म ले रहा था। यह एक आधुनिक राष्ट्र-बोध था जो भारत का कायाकल्प करना चाहता था तथा जो स्वदेशी, स्वराज्य, स्वहित, स्वसंस्कृति, स्वभाषा तथा भारत राष्ट्र का एक सर्वथा आधुनिक बिंव निर्मित करना चाहता था। यही कारण है कि प्रेमचंद ने कहा था कि वे स्वराज्य और भारतीय आत्मा की रक्षा के उद्देश्य से साहित्य में आए हैं। ये दोनों ही तत्त्व उनकी भारतीयता के मूलभूत तत्त्व हैं और इसमें पश्चिम की स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के साथ हिंदू संस्कृति के श्रेष्ठतम मूल्य समाहित हैं। वे इसी कारण पश्चिम हो या हिंदू धर्म-संस्कृति, उसके अमानवीय व्यवहारों दुष्प्रवृत्तियों और पतनशील दिशाओं का डटकर विरोध करते हैं। प्रेमचंद जिस व्यापकता एवं सूक्ष्मता से हिंदू समाज की दुष्प्रवृत्तियों, प्रथाओं और अंधविश्वासों की आलोचना करते हैं, उसी दृष्टि और शक्ति से वे मुस्लिम एवं ईसाई समाज को नहीं देखते। वे दो-चार स्थानों पर इन समाजों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखते-परखते हैं, पर वे अपने रचनात्मक विवेक से उन पर वैसी रोशनी नहीं डालते, जैसी वे हिंदू समाज पर डालते हैं। वे इस हिंदू समाज को ही भारतीय समाज के रूप में देखते-परखते हैं। भारत की धर्म-संस्कृति की नीति है–मंगल की स्थापना और अमंगल का हरण और यही उनकी कहानियों की आधार भूमि है और यही उनका आदर्श है। प्रेमचंद भारतीय समाज के सही मान-चित्र की खोज करते हैं, उसे सुप्तावस्था से जाग्रत करते हैं, उसमें आत्मचेतना और आत्मबोध उत्पन्न करते हैं और जीवन के श्रेष्ठतम स्वरूप की ओर विकसित करते हैं। यह उनके विधि-निषेध का प्रतिफल है और यही उनका ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ है और यही वास्तविक प्रेमचंद हैं। उन्हें किसी भी विचारधारा अथवा विषय तक सीमित करना उनकी भारतीयता को सीमित करना है, चाहे उन्हें ‘लमही के प्रेमचंद’ तथा ‘मार्क्सवादी भारतीयता’ में बाँधने का प्रयत्न क्यों न हो। उनकी कहानियों में सैकड़ों पात्रों का व्यापक संसार है, वे विभिन्न धर्मों, वर्णों, वर्गों तथा जातियों में तथा उच्च-मध्य-निम्न स्थिति में हमारे सामने आते हैं, उनका परिवेश एवं भूगोल देश-विदेश तक फैला है, शहर और गाँव दोनों स्थानों पर इनका जन्म हुआ है तथा इनके सरोकारों, संघर्षों तथा चिंताओं में भी काफ़ी वैभिन्य है। इनमें पशु-पक्षी तक पात्र के रूप में अपना किरदार पेश करते हैं और मनुष्य भाव की रक्षा एवं प्रस्तुति में योगदान करते हैं। प्रेमचंद की कहानियाँ मनुष्य भाव की रक्षा करती हैं और साधारण मनुष्य को श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में बदल देती हैं। उनका राष्ट्र-भाव एक ऐसा वटवृक्ष है जिसका तन स्वराज्य प्राप्ति है और उसकी शाखाएँ जीवन के विविध रूपों को प्रस्तुत करती हैं। उनकी एक समग्र विचारधारा है, जिसमें राष्ट्रवाद, गाँधीवाद, समाजवाद, हिंदू चेतना तथा सभी वर्ण, धर्म, वर्ग, जाति आदि समाये हैं जो भारतीय आत्मा, भारतीय विवेक और जीवनादर्शों की रक्षा के लिए संकल्पशील हैं। उनकी यह भारतीय आत्मा मनुष्य को देवत्व तक पहुँचाती है और इन्हीं कारणों से प्रेमचंद भारतीय ‘आत्मा के शिल्पी’ हैं।

प्रेमचंद की कहानी-यात्रा के संबंध में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख आवश्यक है। प्रेमचंद कहानी के क्षेत्र में प्रवेश ‘सोज़ेवतन’ (जून, 1908) से करते हैं। इस समय वे एक नौसिखिए कथाकार नहीं हैं। उनके चार उपन्यास, कुछ लेख एवं समीक्षाएँ छप चुकी थीं। अतः उन्होंने गद्य-लेखन में कुशलता हासिल कर ली थी। यही कारण है कि ‘सोज़ेवतन’ की कहानियों की रचनात्मकता में योरप की कहानी-कला का प्रभाव है और वे अच्छी कहानियाँ हैं। उनकी कहानी-यात्रा को विकासात्मक रूप में दिखाया जाता रहा है और आलोचकों ने लिखा है कि ‘पूस की रात’, ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘सद्गति’, ‘कफ़न’ आदि से उनकी कहानी-कला में गुणात्मक परिवर्तन होता है, परंतु सत्य यह है कि प्रेमचंद साधारण एवं श्रेष्ठ कहानी प्रायः साथ-साथ लिखते रहे हैं। ‘कफ़न’ कहानी के प्रकाशन के बाद उनकी नौ कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं, किंतु इनमें से कोई भी कहानी ‘कफ़न’ कहानी की रचनात्मकता और कलात्मकता तक नहीं पहुँच पाई है। ‘कफ़न’ कहानी का गुणात्मक विकास भावी कहानियों को प्रभावित नहीं करता और प्रेमचंद अपने आदर्शवादी मार्ग पर लौट आते हैं। अतः प्रेमचंद की कहानी-कला के गुणात्मक विकास की स्थापना एवं मान्यता तो स्वीकार करना संभव नहीं है। ये चार-पाँच कहानियाँ, जो अपने यथार्थवाद के कारण श्रेष्ठ मानी जाती हैं तथा जिनमें गुणात्मक विकास देखने की चेष्टा है, एक क्षणिक तीव्र अनुभूति ही मानी जा सकती हैं जो अपनी अभिव्यक्ति के बाद निष्प्रभावी हो जाती हैं और अपनी निरंतरता को क़ायम नहीं रख पाती हैं। अतः तीन-तेरह कहानियों के आधार पर निकाला गया निष्कर्ष आत्म-छलना एवं साहित्य-छलना के अलावा और क्या है? वैसे भी, प्रेमचंद की तीन सौ कहानियों के संसार के मूल्यांकन की कसौटी चार-पाँच कहानियों की संवेदना एवं कहानी-कला तक सीमित नहीं की जा सकती है। उनका साहित्य-सिद्धांत ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ जीवन का समग्र दर्शन है और उनके सैकड़ों पात्रों के जीवन और संघर्ष को इसी समग्र दर्शन से देखा-परखा जा सकता है। प्रेमचंद ‘गल्प’ को कहानी की प्रतिष्ठा देते हैं और ‘कहानी सम्राट’ बन जाते हैं। वे वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, कबीर, तुलसी आदि की परंपरा में स्वयं को स्थापित करते हैं और हिंदी कहानी के सिंहासन पर सदैव के लिए विराजमान हो जाते हैं। भारतीयता और भारतीय आत्मा को वाणी देने वाला साहित्यकार ही भारत का हृदय-सम्राट हो सकता है।

‘नया मानसरोवर’, खंड : एक में वर्ष 1908-1910 में ग्यारह कहानियाँ हैं और 1911-1913 में 28 कहानियाँ हैं। ‘सोज़ेवतन’ (जून, 1908) की कहानियों में राष्ट्र-प्रेम एवं मातृभूमि-प्रेम तथा भारत माता की जय की भाव-भूमि की चर्चा हो चुकी है। इसकी कहानी ‘शोक का पुरस्कार’ में पति-पत्नी के अटूट संबंध का चित्रण है। इस प्रकार प्रेमचंद सामाजिक चेतना को भी साथ लेकर चलते हैं। ‘पाप का अग्निकुंड’ (मार्च, 1910) में गाय और उसकी हत्या केंद्र में है। राजपूती जीवन में गाय अवध्य है और उसकी हत्या महापाप है। कहानी में तथा ‘गो-दान’ में भी गो-हत्या का दंड भोगना पड़ता है, परंतु ‘पाप का अग्निकुंड’ में सती प्रथा की प्रशंसा लेखक पर मध्ययुगीनता का प्रभाव दिखाता है। ‘रूठी-रानी’ (1906) में भी प्रेमचंद सती का गुणगान कर चुके थे। ‘शाप’ (अप्रैल-जुलाई, 1910) में शाप, वरदान तथा पतिव्रता स्त्री की अद्भुत शक्ति की मिथकीय धारणा की सत्यता दिखाता है। आधुनिक समय में मनुष्य का शेर बनना और शेर से मनुष्य बनना और यह एक स्त्री के शाप और वरदान से होना–सभी कुछ अविश्वसनीय एवं असंभव है। यह कहानी हिंदू जीवन, धर्म, संस्कृति, आचार-व्यवहार तथा पुराकथाओं पर आधारित है तथा प्रेमचंद पर हिंदू जीवन के प्रभाव को स्पष्ट करती है। ‘नेकी’ (सितंबर, 1910) कहानी में सामाजिक चेतना का विस्तार होता है। इसका पात्र तख्तसिंह नेकी का उदाहरण है और वह परोपकार का प्रतिदान नहीं चाहता। प्रेमचंद कहानी में अमानवीय तथा मानवीय भाव दोनों का चित्रण करते हैं। इसमें ज़मींदार का अहंकार है और सामाजिक कार्य का भी उल्लेख है तथा नैतिक एवं मानवीय मूल्यों की भी स्थापना करते हैं। ‘रानी सारंधा’ (अगस्त-सितंबर, 1910) कहानी राजपूती शौर्य, वीरता, बलिदान तथा राष्ट्र-प्रेम की कहानी है। लेखक इतिहास से हिंदू वीरांगना की शौर्य-गाथा कहता है, क्योंकि जनता को देशोद्धार के लिए तैयार करने में बलिदानी-क़िस्से ही मदद कर सकते थे। यह हिंदू पुनरुत्थानवादी कहानी न होकर राष्ट्र के पुनरुत्थान की कहानी है। ‘बड़े घर की बेटी’ (दिसंबर, 1910) प्रेमचंद की सर्वाधिक लोकप्रिय कहानियों में से है। यह उल्लेखनीय है कि लेखक पाँच महीने में दो उच्चकोटि की कहानियाँ पाठकों को देता है, अन्यथा एक बड़ी रचना के तुरंत बाद वैसी ही दूसरी रचना देना आसान नहीं होता। ‘बड़े घर की बेटी’ परिवार की कहानी है, परिवार के सदस्यों के परस्पर संबंधों की कहानी है तथा संयुक्त परिवार को बचाकर भारतीय जीवन-प्रणाली की रक्षा की कहानी है। प्रेमचंद सामाजिक यथार्थ को पकड़ते हैं और मानव-मन के मनोविज्ञान से उसे जीवन के श्रेष्ठ रूप में बदल देते हैं। इस प्रकार इन ग्यारह कहानियों के द्वारा उनकी कहानी-कला की बुनियाद निर्मित होती है और भावी दिशा का स्वरूप भी आकार लेता है। ‘सोज़ेवतन’ की कहानियों में फ़ारसी शैली का प्रभाव है और वैसा ही क़िस्सागोई का अंदाज़ है, परंतु कहानी के फ़ारसी ढाँचे में जो विषय-वस्तु है, वह एकदम आधुनिक और नई है। ‘सोज़ेवतन’ पहली बार ज्वलंत सांस्कृतिक-राष्ट्रीय एवं जातीय प्रश्नों को केंद्र में रखता है और जो भी आदर्शवाद एवं हृदय-परिवर्तन है, वह युग के जागरण का अंग है।

‘नया मानसरोवर’, खंड : एक में वर्ष 1911 से 1913 तक 28 कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं। इन कहानियों में देश, समाज, इतिहास आदि का विस्तार है और लेखक नए-नए विषयों पर कहानियों की रचना करता है। इतिहास से ‘विक्रमादित्य का तेंग़ा’ (जनवरी, 1911), ‘राजा हरदौल’ (अप्रैल, 1911) तथा ‘आल्हा’ (जनवरी, 1912) जैसी प्रसिद्ध कहानियाँ लिखी गईं, ‘दोनों तरफ से’ (मार्च, 1911) के द्वारा पहली बार अछूतोद्धार को कहानी का विषय बनाया गया, ‘मनावन’ (जुलाई, 1912) में पति-पत्नी के संबंधों एवं तनावों का उद्घाटन हुआ, ‘त्रिया-चरित्र’ (जनवरी, 1913) में स्त्री के छल-कपट का चित्रण हुआ, ‘अमृत’ (मार्च, 1913) में एक मुस्लिम पात्र नायक बनता है, ‘अमावस्या की रात्रि’ (अप्रैल 1913) में धर्म एवं कर्त्तव्य केंद्र में हैं, ‘धर्म-संकट’ (मई, 1913) में शिक्षित समाज का अंकन है तथा भारतीय स्त्री की लज्जा की रक्षा है, ‘बाँका ज़मींदार’ (अक्टूबर, 1913) में संगठित शक्ति की विजय है और ‘नमक का दरोगा’ (अक्टूबर, 1913) में धर्म और धन का द्वंद्व है और ईमानदारी एवं कर्त्तव्यपरायणता की जीत है। इस प्रकार यह पहले खंड की कहानियाँ कहानीकार प्रेमचंद की आरंभिक कहानियाँ होने पर भी विषय-वस्तु की विविधता है और देश, समाज तथा व्यक्ति के पारस्परिक संबंधों के वास्तविक संसार का उद्घाटन करती हैं। कुछ कहानियाँ अवश्य ही आरंभिक दुर्बलताओं से युक्त हैं, परंतु उनकी कहानी-कला के प्रमुख तत्त्व एवं प्रवृत्तियों का जन्म हो चुका है। उनकी कई कहानियाँ उनकी श्रेष्ठ कहानियों की गणना में शामिल की जाती हैं और वे हमारी स्मृति का अंग बन गई हैं। प्रेमचंद का साहित्य-सिद्धांत ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ इन कहानियों में जन्म लेता दिखाई देता है, क्योंकि उनमें मनुष्य के उत्कर्ष का भाव स्पष्टतः विद्यमान है। प्रेमचंद उर्दू के साथ हिंदी कहानी के भी जनक हैं और ये उर्दू कहानियाँ हिंदी कहानीकार प्रेमचंद की आधारशिला बनती हैं। हिंदी में आकर वे हिंदी की हो गई हैं और प्रेमचंद भी हिंदी कहानीकार के रूप में स्थापित एवं मान्य हो गए हैं।


Image : Lake in the Swiss mountains
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Artist : Aleksey Savrasov
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