शरण संस्कृति की प्रासंगिकता

शरण संस्कृति की प्रासंगिकता

लोक जीवन के आचार, विचार चारित्र्य का संगम ‘संस्कृति’ कहलाता है। संस्कृति की दो धाराएँ हैं। एक लोक विमुख विराग द्वारा पारमार्थिक साधना की संस्कृति हो तो, दूसरी है लोक द्वारा परमार्थ साधना की समन्वय संस्कृति।

भारत में धर्म चिंतन ने अनादि काल से आज तक हमारे जीवन को आध्यात्मिक शक्ति से पल्लवित किया है। लोक जीवन में इस चिंतन ने मनुष्य को सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम, सदाचार, त्याग, सेवा, परोपकार की ओर उन्मुख होने प्रेरित किया है। साथ ही धर्म में कर्मकार प्रधान होने से, पूजापाठ, विधि विधान को महत्त्व देने से और चातुर्वर्ण्य के कारण वर्ण-वर्ग में समाज के बट जाने के कारण सामान्य मनुष्य के शोषित होने की स्थिति को भी भारतीय इतिहास में देखा जाता है। इससे लोगों को मुक्त करने के लिए बुद्ध आदि सुधारकों को मानवीयता, विवेचन प्रधान और सर्वहित चिंतन प्रधान दर्शन को विकसित करना पड़ा। इसी धारा में विकसित दर्शन को 12वीं शती में कर्नाटक में बसवेश्वर के नेतृत्व में पाते हैं। इस लिंगायत दर्शन की विशेषता यह है कि उसमें साधारण से साधारण व्यक्ति भी साधना द्वारा शिवत्व पा सकता है। 12वीं शती में बसवेश्वर आदि शरणों ने इस दर्शन के द्वारा शोषित, दुःखी और दबे हुए लोगों के प्रति संवेदना दिखाते हुए उनमें अंतःप्रज्ञा जगाकर आत्मविश्वास भरने का कार्य किया। उन्होंने आत्मविमर्श द्वारा आत्मशुद्धि का मार्ग दिखाया। यह लिंगायत दर्शन शरणों द्वारा आचरित होने से यह ‘शरण संस्कृति’ भी कहलाता है। बसवादि शरणों ने अपनी कथनी और करनी या आचरण की शुद्धता द्वारा परमानंद या शिवानंद की अनुभूति का अनुभव कराया। शरणों ने सत्य-साक्षात्कार के लिए अपने जीवन को ही प्रयोगशाला बनाया। यहाँ कुतूहल स्वाभाविक है कि शरण कौन है? बसवेश्वर ने साधारण व्यक्ति को शरण कैसे बनाया? सौराष्ट्र से कल्याण आए शरण आदय्या का वचन सुनिए–

‘तन में निर्मोह मन में निरहंकार
प्राण में निर्भय चित्त में निरपेक्ष
विषयासक्ति में उदासीन, भाव में दिगंबर
ज्ञान में परमानंद स्थिर होने पर
सौराष्ट्र सोमेश्वर लिंग कोई अन्य नहीं, देखिए।’

शरणों से विकसित होकर शरणों के जीवन में आचरित होने से इसे ‘शरण संस्कृति’ भी कहते हैं। यह शरणों का साधना मार्ग भी है। इसमें शरण अपनी सारी क्रियाएँ लिंगमुख होकर करता है। यह अपने अंग भोग को लिंग भोग में परिणत करता है। अतः ‘पदार्थ काय को प्रसाद काय बनाना ही ‘शरण मार्ग’ है। साधना मार्ग में ‘शरण स्थल’ एक स्थल भी है षड्स्थलों में। षड्स्थल हैं–भक्तिस्थल, महेशस्थल, प्रसादिस्थल, प्राणलिंगी स्थल और ऐक्य स्थल। ये स्थल साधना की सीढ़ियाँ हैं। भक्त का, शरणत्व पाकर शिवत्व में समा जाने की साधना है। यह शरण की आंतरिक साधना है। अपने तन मन की अल्पता को जीतते, आत्मनिर्भर जीवन बिताते, अपने अनुभव को साथी शरणों से बाँटकर लिंगसाधना में परिपक्व होकर, लिंग स्पर्श कर स्वयं ही लिंग हो जाता है। शरण की बाह्य साधना है–समाज की असमानता और अन्याय का खंडन करते हुए, दुःखी जीव को ज्ञान के द्वारा मूढ़ आचरण से मुक्त कर लिंग कक्षा में उन्हें ले लेना है। यह साधना अंतरंग और बहिरंग शुद्धि के बिना संभव ही नहीं।
शरण संस्कृति के लक्षण हैं–अभेद संस्कृति, ज्ञान-आचरण संस्कृति, दासोह कायक-संस्कृति और अनुभाव संस्कृति।

अभेद संस्कृति : वैदिक संस्कृति जो भेद संस्कृति है उसके विरोध में पैदा हुई संस्कृति है शरणों की अभेद संस्कृति। वैदिक धर्म वर्ण, वर्ग, लिंग भेद व्यवस्था से समाज को तोड़ रहा था। इस असहज व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का कार्य बुद्ध के समय से 12वीं शती तक चल रहा था। लेकिन आज भी हम इससे मुक्त न हुए हैं। विप्र की कथनी और करनी में बड़ा अंतर है। बसवण्णा कहते हैं–‘विप्र जैसे बोलते हैं वैसे आचरण नहीं करते। अपने लिए एक मार्ग, शास्त्र के लिए अलग मार्ग।’ जाति व्यवस्था ने लोगों में भेद पैदा किया और ऊँच-नीच भाव आ गया। यह शोषण के लिए कारण बना। बसवेश्वर इस पर तीखा व्यंग्य करते कहते हैं–

‘लोहा गरमाकर लोहार कहलाया
कपड़ा धोकर धोबी कहलाया
कपड़ा बुनकर जुलाहा कहलाया
वेद पढ़कर ब्राह्मण कहलाया
कानों में क्या किसी का जन्म हुआ है जग में?’

शरणों ने सामाजिक समता के संकेत के रूप में ‘इष्टलिंग’ का प्रयोग किया। यह शिवयोग साधना का भी माध्यम बना। शरण जो लिंग-ज्ञान पाने जाता है, साधना करते स्वयं ही लिंग बनता है, जीव चैतन्य में ही विश्व चैतन्य है, ज्ञान स्वयं सिद्ध है। बाहरी ज्ञान सूचना मात्र है। अज्ञानवश हम अपने अंदर के ज्ञान को पहचान न पाते हैं। शरणों ने स्त्री को माया न माना। पुराणों में स्त्री को माया, साधना में बाधक कहा गया है। परंतु सिद्धरामेश्वर ने स्त्री को ‘प्रत्यक्ष कपिल सिद्ध मल्लिकार्जुन’ कहा तो अल्लम प्रभु ने मन के लोभ को माया कहा। यथा–

‘कहते हैं कनक माया है कनक माया नहीं
कहते हैं कामिनी माया है कामिनी माया नहीं
मन के आगे जो चाह है वही माया है, गुहेश्वर।’

बसवण्णा ने बाह्य पूजा जो सबके लिए संभव नहीं और उसमें दिखावा ही प्रधान है, उसके बदले ‘देह ही देवालय’ सिद्धांत द्वारा यह प्रतिपादित किया कि भगवान कहीं बाहर नहीं देह में ही है, साधना द्वारा उसका साक्षात्कार संभव है। यथा–

‘धनवान बनवाते हैं शिव मंदिर
मैं गरीब क्या कर सकता हूँ
मेरा पैर ही खंभा देह ही मंदिर है
सिर ही सुवर्ण कलश है
सुनो जी, स्थावर नाशवान, जंगम अविनाशी।’

ज्ञान-आचरण संस्कृति : शरण संस्कृति सबको अपनाने वाली है। शरणों ने अहं को मिटाकर परस्पर प्रेम से जीना सिखाया और अंतरंग और बहिरंग शुद्धि का मार्ग सुझाया। बसवण्णा ने कहा–

‘न करो चोरी, न करो हत्या, न बोलो झूठ, न करो क्रोध, औरों से घिन मत करो, खुद की प्रशंसा न करो, सामने की निंदा न करो, अंतरंग की शुद्धि यही है, बहिरंग की शुद्धि यही है, यही है रीत कूडल संगम देव को मानने की।’

शरण संस्कृति उपदेश की संस्कृति नहीं है। जैसे बोले वैसा चलने की, आचरण करने की संस्कृति है। इसीलिए चेन्नबसवण्णा कहते हैं, क्रियाहीन ज्ञान अज्ञान के समान है। वे आगे कहते हैं–

‘क्रिया ही ज्ञान, ज्ञान ही क्रिया है
ज्ञान का अर्थ जानना
क्रिया का अर्थ जानने के अनुसार करना
परस्त्री का भोग न करना चाहिए, यह ज्ञान है
उसके अनुसार आचरण करना क्रिया है
वैसा आचरण न करूँ तो वही अज्ञान है, कूडलचेन्न संगमदेव।’

ज्ञान आचरण और शिवानुभव का संगम ही अनुभव मंडप था, जहाँ शरण ज्ञान पाते थे, उसके अनुसार आचरण करते थे, कोई समस्या हो तो बिना भेद भाव के सभी बैठ कर चर्चा करते थे। शरण और शरणियाँ भी भाग लेती थीं।

कायक-दासोह संस्कृति : शरण संस्कृति प्रमुखतः श्रम संस्कृति है। कृषि संस्कृति है। सभी शरण-शरणियों कायक जीवी थे। शरणों के लिए कायक केवल श्रम या वृत्ति नहीं, उस कायक को सत्य, शुद्ध और प्रामाणिक होना चाहिए। उनके लिए कायक ही पूजा है। आयदक्कि (चावल बीनने के कायक वाला) मारय्या कहता है–

‘कायक में मग्न हो तो
गुरुदर्शन को भी भूलना चाहिए
जंगम सामने होने पर भी
उसके दाक्षिण्य में न पड़ना चाहिए
कायक ही कैलास होने के कारण
अमरेश्वर लिंग को भी कायक करना चाहिए।’

हर शरण, शरणियाँ अपने नाम के पीछे कायक या वृत्ति को गर्व से रखते थे। जैसे अंबिगर चौडय्या, मडिवाळ (धोबी) माचय्या, मादार (मोची) चेन्नय्या और वैसे ही शरणियाँ भी अपनी वृत्ति या कायक से पहचानी जाती थी। जैसे-आयदक्कि (चावल की बीतनेवाली) लक्कम्मा, दूपद (दूप-लगानेवाली) गोग्गव्वे कोट्टणद (धान कूटनेवाली) सोमव्वे, कदिरे (सूत कातनेवाली) रेम्मव्वे आदि।

कायक के साथ दासोह शब्द जुड़ा हुआ है। ‘दासोह’ शब्दार्थ है ‘दास अहं’–‘मैं दास हूँ।’ अहंकार रहित होकर अपने सत्य शुद्ध कायक से जो प्राप्त होता है उसे दीन, हीन दुःखी या भूखे को समर्पित करना ही दासोह है। ‘कायक-दासोह’ बहुत बड़ा आर्थिक सिद्धांत है जो आज भी प्रासंगिक हैं। बसवेश्वर कहते हैं–(कायक के कारण स्वानिर्भर होने से, माँगने को बुरा समझने से) ‘माँगनेवालों के न रहने के कारण मैं गरीब हो गया।’ शरण चाहते थे कि जगत् में देने की शक्ति हो, माँगने की दुर्बलता नहीं। शोषण से मुक्ति का 12वीं शती में एक बहुत बड़ा आंदोलन था जो आज भी अनुकरणीय है।

कायक जीवी के आत्मनिर्भर होने से उनमें स्वाभिमान जागृत हुआ। शरण कभी भी लोभी नहीं थे। वे अपरिग्रही थे, आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करते थे, बदले में आवश्यकता से अधिक का दासोह करते थे।

अनुभव संस्कृति : ज्ञान आचरण परिणत हुआ तो वह अनुभव अनुभाव कहलाता है। अनुभाव का माने शिवानुभव है। जब अहं ज्ञानाग्नि में नष्ट हो जाता है, तब अंग भाव नष्ट होकर लिंगभाव में परिणत हो जाता है।

अंग की लिंग होने की प्रक्रिया ही अनुभाव या अनभै है। यहाँ द्वंद्व के लिए स्थान नहीं, शरणों को ज्ञान ही गुरु है, मन का घन होकर असीम सुख का अनुभव करना ही अनुभाव है।

बसवण्णा ने इस अनुभाव का सुख साधारण से साधारण को भी कराया। अक्क महादेवी, मुक्तायक्का, मोळिगे महादेवी, नीलम्मा (बसवण्णा की पत्नी) ही नहीं हडपद लिंगम्मा, आयदक्की लक्कम्मा, सत्यक्का जैसी निम्न स्तर से निकली शरणियों में भी आनुभाविक सुख को अभिव्यक्त करने की शक्ति देखी जाती है।
बसवण्णा ने अनुभवमंडप की स्थापना की थी जिसके अध्यक्ष थे अल्लमप्रभु, जो महान अनुभावी थे। मंडप की गोष्ठि में लोकानुभव की चर्चा करते हुए, उसके माध्यम से ही शरणों को शिवानुभव की ओर ले जाते थे। साधारण व्यक्ति का साधना के पथ पर शरणत्व से षड्स्थल द्वारा शिवत्व पाना ही अनुभाव है, ज्ञान और आचरण का संगम ही अनुभाव है। ‘शरण संस्कृति’ को अनुभाव संस्कृति इसलिए कहते हैं कि शरण साधना द्वारा लोक के अन्याय के विरुद्ध लड़ता है। अनुभावी का लक्ष्य लोक कल्याण है। वह अंतरंग और बहिरंग शुद्धि द्वारा जगत के प्रदूषण को मिटाने का प्रयास करता है।

शरण संस्कृति की विशिष्टता : शरण मूलतः भक्त होने पर भी उनकी भक्ति मूढ़ भक्ति नहीं थी। उनके लिए भक्ति शिवत्व-साधना की सीढ़ी थी। यह भक्ति का साधना मार्ग सब के लिए खुला था। उच्च कुल का हो या अंत्यज हो, स्त्री हो या पुरुष, विधवा या सधवा कोई भी हो साधना कर सकते थे। और अपना कायक करते हुए, आत्मनिर्भर होकर जीव का सत्य से युक्त होकर सती-पति साथ साथ साधना, अंतरंग और बहिरंग शुद्धि द्वारा कर सकते थे। यह व्यक्ति या व्यक्तित्व विकास का मार्ग था। सेवा और सुधार द्वारा समाज में परिवर्तन लाना शरणों का उद्देश्य था। बसवेश्वर व्यावहारिक जीवन में राजा बिज्जल के यहाँ प्रधानमंत्री होकर समाज की सेवा करते थे। साथ ही अनुभवमंडप के माध्यम से शरणों को सामाजिक-आर्थिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में सुधार के लिए, वैचारिकता, आत्मनिर्भर होकर जीवन बिताने का मार्ग दिखाने के लिए बसवेश्वर ने एक बहुत बड़ा आंदोलन किया, जिसका प्रभाव आज पहले से अधिक पड़ रहा है।

शरण संस्कृति इसीलिए प्रासंगिक है कि वह सबको साथ लेकर चलने की शक्ति रखती है, ऐसे समाज के लिए नींव डालती है जहाँ सब समान हो, स्वातंत्र्य हो, शोषण रहित हो, आत्मनिर्भर हो और शुद्ध जीवनाचरण द्वारा सुखी समाज के निर्माण में सहायक हो। इसीलिए यह चाहना स्वाभाविक है कि शरण संस्कृति का विकास हो और विश्व कल्याण के लिए, विश्व शांति की स्थापना के लिए वह सहायक हो।


Image : Buddhist Prayer Machine
Image Source : WikiArt
Artist : Vasily Vereshchagin
Image in Public Domain