रेणु और दिनकर

रेणु और दिनकर

फणीश्वरनाथ रेणु बहुत कम उम्र से ही बेनीपुरी के व्यक्तित्व से प्रभावित थे। वे स्कूली उम्र से ‘जनता साप्ताहिक’ के पाठक थे और बड़े होकर समाजवादी आंदोलन में शामिल होने के बाद ‘जनता’ में सबसे अधिक लिखते थे। बेनीपुरी जी का उन पर असर था। ‘मैला आँचल’ छपने के बाद तो जो भी उनसे मिलने आता, उससे ‘मैला आँचल’ पढ़ने का आग्रह किया करते।

शिवपूजन सहाय को पटना में सभी अजातशत्रु कहा करते थे। ‘मैला आँचल’ का विमोचन रेणु जी ने उन्हीं से करवाया था। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा उन्हें युवा लेखक पुरस्कार भी दिया गया था।

पटना के तीसरे साहित्यिक स्तंभ थे रामधारी सिंह दिनकर। सर्वाधिक लोकप्रिय कवि। वे रेणु की प्रतिभा के बड़े प्रशंसक थे। रेणु के ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ को विश्व स्तरीय उपन्यास मानते थे। जब वे मास्को गए थे, तब वहाँ के कई लोगों ने रेणु के बारे में पूछा था। रेणु को भी उनके साथ जाना था, किंतु दुर्भाग्य से गिर जाने के कारण उनका हाथ टूट गया था और वे नहीं जा पाए थे। जब वे लेनिनग्राद गए और 13, 14, 15 अक्टूबर, 1961 की डायरी में यह प्रसंग लिखा–‘पीटर द ग्रेट (1689-1725) ने पीटर्सबर्ग की कल्पना की अपनी दूसरी राजधानी के रूप में की थी और उसे खूब रच-रचकर बनवाया था।’

आगे दिनकर जी लिखते हैं, ‘लेनिनग्राद में एक दिन हम नाटक देखने गए। नाटक के बाद मैनेजर हमें अपने कमरे में ले गए और कॉफी पिलाई। इस रस्म में कई रूसी सज्जन शामिल हो गए, जिनमें से दो-एक व्यक्ति लेखक भी थे। उनमें से एक ने पूछा, ‘आपकी पार्टी में मिस्टर रेणु आए हैं या नहीं?’ मैंने पूछा, ‘आप रेणु को कैसे जानते हैं?’ वे बोले, ‘मैंने उनके उपन्यास का रूसी अनुवाद पढ़ा है?’

रेणु की रूस में लोकप्रियता देखकर दिनकर जी को बेहद प्रसन्नता हुई। उन्होंने रेणु को विश्व स्तरीय लेखक बताया था, वह सत्य हो गया था।

28 सितंबर, 1962 को पूर्णिया में रेणु का सम्मान-समारोह आयोजित किया गया। इस आयोजन के मुख्य अतिथि दिनकर जी थे। उन्होंने विस्तार से रेणु की महत्ता को सही रूप में उद्घाटित किया और रूसी लेखकों में बढ़ते रेणु के कथा-साहित्य के प्रति प्रेम को बताया। पटना आकर अपनी डायरी में लिखा, ‘रेणु ऊँचा आदमी और मनोरम साहित्यकार है। कथा के क्षेत्र में उसने बिहार का मुख उज्ज्वल किया है, भारत के सुयश में वृद्धि की है।’

दिनकर जी रेणु की प्रतिभा के कितने बड़े प्रशंसक थे, यह इस बात से पता चलता है, जब बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन में भाग लेने के लिए 21 अक्टूबर, 1962 को फारबिसगंज पहुँचे। इस आयोजन में रेणु को निमंत्रण नहीं दिया गया था। इससे वे बेहद दुखी थे। स्वागत समिति का अध्यक्ष काँग्रेस का विधायक रेणु का बाल सखा था, पर उसे लगता था कि ‘मैला आँचल’ में छोटन बाबू के रूप में उसी के ऊपर मजाक उड़ाया गया है। रेणु ने उस सम्मेलन में छोटन बाबू जिंदाबाद नामक एक पर्चा बँटवाया था। दिनकर जी ने मंच से रेणु को नहीं बुलाए जाने पर नाराजगी जताई और कहा कि जिस लेखक की महत्ता वैश्विक स्तर पर स्थापित है, जिसने अपने अंचल का गौरव बढ़ाया है, उसे उसके ही इलाके के लोग दरकिनार कर रहे हैं, यह शर्म की बात है।

दिनकर जी ज्यादातर दिल्ली में रहते थे। कभी-कभार पटना आते थे। जब भी पटना आते रेणु को बुलवा लेते। रेणु उनके पैर छूकर प्रणाम करते थे। वे नए-नए लेखकों से दिनकर जी को मिलवाते रहते थे। उस समय नक्सल प्रभावित कवियों में एक आलोक धन्वा नामक कवि को रेणु बहुत मानते थे। उनको साथ लेकर घूमते थे, पर साध नहीं पाए थे। वे कोमल गात के थे, पर विद्रोही मुद्रा में रहते थे। क्रांति का अँचार-पापड़ भी खाते थे और क्रांति का बिगुल बजाते थे। रेणु के प्रिय युवकों में एक तेजस्वी पत्रकार भी थे, जुगनू शारदेय। ये दोनों रेणु से गहरे रूप में जुड़े हुए थे। रेणु इन्हें बहुत मानते थे। लेकिन रेणु की मृत्यु के बाद आज तक उन पर एक संस्मरण भी नहीं लिखा।

3 अक्टूबर, 1971 की डायरी में दिनकर जी ने लिखा है, ‘रेणु शाम को कॉफी हाउस ले गए। वहाँ जितेन्द्र प्रसाद सिंह भी आए थे। एक कवि आलोक धन्वा हैं, उनसे भी भेंट हुई।’ इन उदीयमान कवि का विचार है कि बिहार में दिनकर-दग्ध लोग काफी हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो रेणु से दग्ध हैं।
फिर 6 अक्टूबर, 1971 को आलोक धन्वा को साथ लेकर रेणु दिनकर जी के घर गए। उन्होंने अपनी कविता ‘जनता का आदमी’ दिनकर जी को सुनाई, जिसकी पहली पंक्ति थी–

‘मैं कत्ल नहीं कर सकता
तो कविता भी नहीं कर सकता!’

इस पंक्ति पर दिनकर जी चौंक उठे। उन्होंने इस पंक्ति को अपनी डायरी में लिखा। लेकिन निराला के शब्दों में ‘सुनकर, गुनकर चुपचाप रहा, कुछ भी न कहा, न अहो, अहा!’ लेकिन आलोक धन्वा ने बाद में इस पंक्ति को अपनी कविता से निकाल कर दूसरी पंक्ति लिखी–‘आदमी काटने की मशीन से बर्फ काटने की मशीन तक।’ 1997 में उनका इकलौता कविता-संग्रह छपा।

रेणु जी के लिए ये एक चरित्र थे। वे तो उनकी कविता सुनकर मंद-मंद मुस्कुराते रहते थे। उन्होंने उसी समय मैथिली भाषा में आलोक धन्वा और जुगनू शारदेय की कुछ बातों को पकड़ कर एक यूनिक कहानी लिखकर छापने के लिए ‘सोनामाटि’ नामक मैथिली पत्रिका के संपादक महेश नारायण ‘भारती-भक्त’ को दी थी, लेकिन जब आर्थिक अभाव में वे उसे नहीं प्रकाशित कर पाए, तब बाद में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में ‘अगिनखोर’ नाम से वह कहानी छपी।
आलोक धन्वा शब्द दिनकर जी का बनाया हुआ शब्द है, जिसे धारण करने के बाद भी असल में तब आलोक धन्वा अगिनखोर थे। बिल्कुल अति वामपंथी, किंतु बाद में उनके बारे में अफवाह फैली कि वे कामपंथी भी हैं।

आज न दिनकर जैसे आलोकधर्मा कवि हैं और न रेणु जैसा जमीन से जुड़ा कथाकार। बचे हुए हैं आलोक धन्वा और जुगनू शारदेय, जिन्होंने न कोई क्रांति की और न कोई महत्त्वपूर्ण सृजन।

दिनकर जी को डायबिटिज था। ब्लडप्रेशर बहुत अधिक बढ़ा रहता था। लेकिन जीवन भर वे सृजनरत रहे। 24 अप्रैल, 1974 को उनका दक्षिण भारत में देहावसान हो गया। जब पटना के बाँस घाट में उनका शव प्रचंड अग्नि में जल रहा था, सभी लोग एक-एक कर लौट चुके थे, ‘नई धारा’ के संपादक उदयराज सिंह के साथ बैठकर रेणु उस प्रज्ज्वलित लपट को देख रहे थे। अँधेरा घिरा हुआ था और बिजली चली गई थी। उस ज्वाला की लपटों से उनके मुखड़े दपदपा रहे थे। उन्हें स्नेह देने वाले शिवपूजन सहाय चले गए, बेनीपुरी चले गए और अब दिनकर जा रहे हैं। दिनकर की जलती चिता को मौन होकर बस देखते रहे। उनके अंतर्मन में एक आवाज मुखरित हुई–‘अपनी ज्वाला से आप ज्वलित जो जीवन!’ लेकिन रेणु का भी तो ऐसा ही ज्वलित जीवन था।

घर लौटकर उन्होंने इसी पंक्ति को शीर्षक बनाकर लंबी कविता लिखी और ‘दिनमान’ में भेज दी। महाकवि दिनकर को एक कथाकार द्वारा कविता लिखकर श्रद्धांजलि देना अपने-आप में अनोखी बात थी।

इस कविता में रेणु की आत्मा समाई हुई है। उनके हृदय से निकली वाणी में दिनकर के व्यक्तित्व का उद्घाटन है–

‘हमें अग्निस्नान कराकर पापमुक्त
खरा बनाया।
पल-विपुल हम अवरुद्ध जले
धारा ने रोकी राह
हम विरुद्ध चले
हमें झकझोर कर तुमने जगाया था।’

इस लंबी कविता के अंत में वे कहते हैं–

‘हमें क्षमा करना, कविवर विराट!
हम तुम्हारी आत्मा की शांति के बदले
उसको अपनी काया के एकांत और पवित्र कोने में
प्रतिष्ठित करने की कामना करते हैं
ताकि जहाँ भी अन्याय हो,
उसे रोक सकें
जो करे पाप शशि-सूर्य भी
उन्हें टोक सकें
हमारे भीतर जो नया अंगार भर रहा है
बस, एक यही आधार है हमारा!’

सटायर इज सटायर

फणीश्वरनाथ रेणु की जीवनी लिखने में लगा हुआ हूँ और उनके जीवन के कई अनछुए पहलुओं तथा प्रसंगों को याद करता रहता हूँ।वे बहुत कम उम्र से ही नाटक, अभिनय, गायन, वादन से जुड़े हुए थे। कहीं भी ऐसा अवसर आए तो उसका उपयोग करने में नहीं चूकते थे। लेकिन जगह-जगह जहाँ भी सीख मिलती, उसे अपने मन की गाँठ में बाँध लेते थे। उनका मन कक्षा के बँधे-बँधाए पठन-पाठन में नहीं रमता था। वे जीवन के विभिन्न अवसरों को अपने अनुभव में बदलते रहते थे। हास्य का रूपक रचने में उन्हें महारत हासिल थी।

बात 1938 के आसपास की है।

अररिया सबडिविजन के एस.डी.ओ. एक अँग्रेज थे। वे बोलचाल की हिंदी जानते थे। लेकिन उनकी हिंदी में अँग्रेजीपन की छौंक थी। वे सांस्कृतिक कार्यक्रम करवाने के शौकीन थे। बेहद ज्ञानवान व्यक्ति! आलोचनात्मक प्रतिभा से लैस! अररिया हाई स्कूल में सरस्वती पूजा के अवसर पर एक नाटक प्रतियोगिता करवाई गई। तब रेणु ज्यादातर समय विराटनगर में कोइराला परिवार में ही बिताते थे। लेकिन फारबिसगंज, अररिया और अपने गाँव में आवागमन लगा रहता था। अररिया हाई स्कूल में पढ़ते समय ही उनके रंगकर्मी मित्रों की टोली बनी हुई थी। उनके मित्रों ने उन्हें खबर दी। रेणु अररिया हाई स्कूल पहुँचे। समय कम था। ऐसे में कोई नया नाटक लिखना और मंच के लिए तैयार करना मुश्किल था। तब रेणु ने ‘संथाली नाच’ नामक एक प्रहसन तैयार किया।

प्रहसन हास्यरस प्रधान एक रूपक होता है, जिसमें हँसी-दिल्लगी से भरा परिहास रहता है। इसे देखकर जोरों की हँसी आती है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ‘अन्धेर नगरी’ ऐसा ही एक प्रहसन है।

नाट्य समारोह शुरू हुआ। जब रेणु का बनाया हुआ ‘संथाली नाच’ शुरू हुआ तो मंच पर रेणु के मित्रगण संथाली वेशभूषा में प्रकट हुए। किसी के गले में माँदल, किसी के हाथों में झाल और बाँसुरी। सभी नाचते-बजाते और गाते हुए! रेणु का बनाया गाना गाते हुए–हेरे हेरे-हेरे-हेरे! गाने की हर पंक्ति के बाद ‘हे रे हेरे-हेरे-हेरे’ की आवृत्ति!

माँदल की थाप, झाल-मंजीरे और बाँसुरी की धुन में संथाली नाच और रेणु का बनाया गाना बेहद जमा। दर्शकों में समा बँध गया। लोगों के होंठों पर मुस्कान। सभी भाव-विभोर!

प्रतियोगिता के समापन के बाद ‘संथाली नाच’ के लेखक और निर्देशक फणीश्वरनाथ रेणु को प्रथम पुरस्कार के लिए चुना गया। मंच से घोषणा की गई कि रेणु को प्रथम पुरस्कार दिया जाता है और वे इसे मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित एस.डी.ओ.साहब से, जो प्रधानाध्यापक के कार्यालय में बैठे हुए हैं, जाकर इसे ग्रहण करें!
रेणु को बधाई देने वाले मित्रों का ताँता लग गया। शिक्षकों ने कहा–‘जाओ रेणु! तुम्हारी तो किस्मत ही खुल गई! एस.डी.ओ. तुमसे बहुत प्रभावित हुआ है, तुम्हें वजीफा भी दे सकता है।’ किसी ने कहा कि तुम्हारा परफॉर्मेंस देखकर अँग्रेज हाकिम बहुत खुश हुआ है, इसलिए तुम्हें अपने ऑफिस में बुलाया है। तुम्हारी तो लॉटरी लग गई!
लेकिन रेणु डर रहे थे। उन्हें लग रहा था कि कहीं किसी ने उनके क्रांतिकारी दल में होने की सूचना तो नहीं दे दी! फिर उन्होंने अपने मन को समझाया कि जब नाच देखकर वह खुश हुआ है तो जरूर शाबासी देगा और पीठ ठोकेगा।

डरते-डरते रेणु प्रधानाध्यापक के कार्यालय के दरवाजे पर पहुँचे। परदे को हटाकर कमरे में झाँकते हुए निवेदन किया–‘मे आई कम इन सर!’

एस.डी.ओ. साहब ने कहा–‘ओ, श्योर कम इन!’

रेणु भीतर जाकर नमस्कार कर खड़े हो गए। साहब ने पूछा–‘टुम्हारा ही नाम रेणु हाय?’

रेणु ने कहा–‘यस सर!’

‘ये डांस टुमने कम्पोज किया हाय?’

‘यस सर!’

‘रियली डांस अच्छा ठा! एकदम ओरिजिनल माफिक। मैं बहुत खुश हुआ।’

रेणु चुपचाप खड़े थे। फिर साहब ने पूछा–‘टुम संथाली जानटा है?’

रेणु ने कहा–‘नो सर!’

साहब ने फिर पूछा, ‘संथाली कल्चर, उनका खान-पान, रहन-सहन के बारे में जानटा हाय?’

रेणु ने इनकार में सिर हिलाया। वे वाकई संथालों के बारे में कुछ नहीं जानते थे। बस दूर से उन्हें देखकर यह नृत्य और गीत प्रस्तुत किया था।

एस.डी.ओ. ने तब रेणु को समझाया–‘जब टुम संथाली भाषा नहीं जानता हाय। उसका कल्चर, खान-पान, रहन-सहन कुछ नहीं जानटा हाय, फिर उसका ऊपर सटायर क्यों करटा हाय? बिना जाने-समझे टुम्हारा कल्चर, भाषा, पहनावा के बारे में ऐसा ही हम करेगा टो टुमको सटायर लगेगा कि नहीं?’
रेणु चुपचाप खड़े थे और ध्यान से सुन रहे थे।

एस.डी.ओ. साहब ने उन्हें आगे समझाया–‘माय सन, ड्रामा और पैरोडी को हम खराब नहीं कहटा। लेकिन वो सही माने में पब्लिक के वैलफेयर के वास्टे होना चाहिए। बिना जाने-समझे किसी कल्चर और सोसाइटी को ह्युमिलिएट करने के वास्टे नहीं।’

फिर रेणु को पुरस्कार देने के बाद उन्होंने आगे कहा–‘टुम जीनियस है माय बॉय! फ्यूचर में मेरी बात पर गौर करना। किसी रेस, कंट्री और कलर को समझकर उसमें मोडिफिकेशन लाने के वास्टे ड्रामा करना या पैरोडी करना मीनिंगफुल होता है। सटायर के लिए सटायर लिखने की जरूरट नहीं। सटायर इज सटायर!’
यह किसी नए लेखक के लिए बहुत बड़ी सीख थी। इसीलिए बाद में वे अपने देखे हुए को ही रचने की कोशिश करते रहे। इस सीख को वे जीवन भर एक थाती की तरह अपने मन में समाहित किए रहे और यदा-कदा नए रचनाकारों को बताते रहे।

फणीश्वरनाथ रेणु की विनम्रता

फणीश्वरनाथ रेणु के व्यक्तित्व में सहजता का छंद था। उन्हें आक्रोश और गुस्से में देखना दुर्लभ संयोग था। वे मुश्किलों में और संकटों से घिरे रहते थे। राजेन्द्र यादव को एक पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘अब परेशानियों से परेशान नहीं होती।’ उनमें गजब की सहनशीलता थी। किसी के प्रति कटुता का भाव नहीं।
उनके पटना में मित्र थे उदयराज सिंह। वे ‘नई धारा’ पत्रिका के संपादक थे। उनके पिता राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह हिंदी साहित्य के प्रारंभिक दौर के कथाकार थे। वे एक बार उदयराज सिंह से मिलने गए थे और उनसे गपशप कर रहे थे। उनके पिता राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह पास ही बैठे थे। उन्होंने दुखी होकर कहा, ‘अब हमलोग को कोई पूछता ही नहीं है!’

रेणु जी उनके पास गए और उनके चरणों पर मस्तक रख दिया। फिर बोले, ‘आप हैं, तब हमलोग हैं। आपकी पीढ़ी ने हिंदी कहानियों की परंपरा शुरू की, तभी उस पर चलकर हम कुछ लिख पा रहे हैं। आप हमारी पीढ़ी के पिता स्वरूप हैं।’

राजा साहब की आँखों से नीर टपकने लगा। ऐसी बात उनसे अभी तक किसी ने नहीं कही थी। उपेक्षित राजा साहब के निष्प्राण शरीर में प्राण फूँक देने वाले फणीश्वरनाथ रेणु पहले व्यक्ति थे। उदयराज सिंह को सभी शिवाजी कहते थे। इस प्रकरण को जब वे मुझे बता रहे थे तब वे भी भावप्रवण थे।
यह रेणु की विनम्रता थी जो सहज स्वाभाविक थी। कहीं से ओढ़ी हुई नहीं थी। वे अपने पूर्ववर्ती लेखकों का बेहद सम्मान करते थे। उग्र, यशपाल, जैनेन्द्र, अज्ञेय, अश्क, त्रिलोचन पर तो लिखकर उन्होंने सम्मान प्रकट किया ही है। नागार्जुन को तो वे सदैव बड़े भाई का आदर देते थे। साथ ही साथ साधारण मनुष्यों के प्रति लगाव तो उनका जग जाहिर था। इस प्रसंग में शिवाजी का बताया हुआ यह प्रसंग मुझे बेहद उद्वेलित करता रहा है।

‘नई धारा’ में उनके सहयोगी थे विजयमोहन सिंह। वे कथाकार और आलोचक दोनों थे। 1966 ई. में आरा में कथाकारों का एक बड़ा सम्मेलन विजय मोहन सिंह ने करवाया था। उसमें कमलेश्वर भी आए थे। शिवाजी और विजय मोहन सिंह ने कमलेश्वर से आग्रह किया कि ‘नई धारा’ के कहानी-विशेषांक का संपादन वे करें। कमलेश्वर ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहानीकारों की एक सूची बनाई, जिसमें रेणु का भी नाम था। विजयमोहन सिंह राजेन्द्र नगर रेणु जी से मिलने प्रायः जाया करते थे। वे उनके पास गए और कमलेश्वर का लिखित एक पत्र ‘नई धारा’ की ओर से उन्हें दिया और एक महीने में कहानी देने को कहा। रेणु ने अपनी स्वीकृति भी दे दी।

सभी कहानीकारों की कहानियाँ आ गईं, पर रेणु की कहानी नहीं मिल पाई। कमलेश्वर ने कहा कि रेणु की कहानी इस विशेषांक में रहना आवश्यक है। विजयमोहन सिंह जब रेणु के घर गए तब लतिका जी से मालूम हुआ कि रेणु जी तो गाँव चले गए हैं। उन्होंने शिवाजी को जब बताया तो वे भी चिंतित हुए। उन्होंने अपने प्रकाशन अशोक प्रेस के एक कम्पोजिटर को रेणु के नाम एक पत्र लिखकर उनके गाँव भेज दिया।

वह बेचारा बहुत मुश्किल से भटकता हुआ रेणु के गाँव औराही-हिंगना पहुँचा तो उसका दम फूल चुका था। रेणु ने कहा, ‘कहानी तो मैं आधी लिख चुका हूँ। लेकिन पूरा करने में कम-से-कम तीन दिन और लगेंगे। आपको तब तक रुकना पड़ेगा।’

रेणु उसे अपने साथ बैठकर खाना खिलाते। साथ ही सुलाते। उस साधारण आदमी का इतना मान-सम्मान पहली बार हो रहा था। रेणु ने कहानी लिखकर उसे दी और टप्परगाड़ी पर अपने साथ बिठाकर स्टेशन तक छोड़ने गए।

पटना लौटकर उसने शिवाजी को पूरा विवरण दिया और जिंदगी भर लोगों को बताता रहा कि उसने रेणु के जैसा बढ़िया आदमी नहीं देखा। वह कई-कई लेखकों से मिल चुका था और अपना अनुभव बताता कि लेखक बहुत हैं, लेकिन रेणु जी जैसा आदमी मिलना मुश्किल है।

‘नई धारा’ का कमलेश्वर के संपादन में कहानी-विशेषांक छपा और वह ऐतिहासिक महत्त्व का साबित हुआ। उसमें रेणु की ‘विघटन के क्षण’ नामक कहानी पहली बार छपी और साहित्यिक जगत के सभी प्रमुख साहित्यकारों ने माना कि यह इस अंक की सर्वश्रेष्ठ कहानी है।