समीक्षकों के समीक्षक कुमार विमल
- 1 December, 2016
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- 1 December, 2016
समीक्षकों के समीक्षक कुमार विमल
वे दिन : वे लोग
वेद में एक पंक्ति आती है–
“देवा रूपाणि चक्रे वयं नामानि कियसि।”
सो इस पंक्ति के अनुरूप कुमार विमल के नाम से ही मैं पहले परिचित हुआ, प्रत्यक्षतः उनके रूप से बाद में। आज फिर कुमार विमल का नाम ही हमारे पास रह गया है। अपने अभिधेयार्थ और लक्ष्यार्थ–दोनों में! और रूप विधाता या निर्माता देव के पास पहुँच गया है।
जहाँ तक मैंने उन्हें जाना, वे अपने छात्र-जीवन से ही विद्या-व्यसनी थे। उनके लिए आचार्य नलिनविलोचन शर्मा द्वारा प्रयुक्त एक विशेषण पद का प्रयोग करूँ तो वह युवावस्था में ही ‘विद्या-वृद्ध’ हो गए थे। हाँ, जब कभी मैं कुमार विमल से उनकी और अपनी वृद्धता की बात दूरभाष पर करता था, तब वह प्रायः यह कहने लगते थे कि आप वृद्धता की बात क्यों करते हैं? हमलोग वृद्ध नहीं, ‘वरिष्ठ नागरिक’ हैं। यदि इस दृष्टि से सोचूँ, तो वह अपनी युवावस्था में ही वैदुष्यपूर्ण अकादमिक क्षेत्र के ‘वरिष्ठ नागरिक’ हो चुके थे। उन्होंने 2008 में अपने श्रेष्ठ आलोचन-कर्म को चुनकर उसका संकलन ‘चिंतन, मनन और विवेचन’ प्रकाशित किया, तो मुझे उसे डाक से भेजा और उसके अंदर पहले पृष्ठ पर अपने हाथ से लिखा–
‘अधीती और विद्या-विशिष्ट प्रो. पांडेय शशिभूषण ‘शीतांशु’ के योग्य’। फिर, फोन करके मुझसे पूछा कि वह पुस्तक मुझे मिली या नहीं। मैंने उन पर कुछ ही दिनों बाद एक आलेख लिखा और उन्हें भेज दिया। फिर उनका फोन आया। वह मेरे उस आलेख को पढ़कर बहुत प्रसन्न थे। इसी वर्ष भारत सरकार के स्व. इंदिरा जी के मंत्रिमंडल के पूर्व शिक्षा मंत्री प्रो. डी.पी. यादव ने मुझे दिल्ली में बताया कि पिछली यात्रा में जब वे पटना गए थे तब वे कुमार विमल से मिलने गए थे और विमल जी ने उनसे मेरी चर्चा की थी। वे मेरा सौहार्द-स्मरण कर रहे थे।
सन् 2009 के 28 नवंबर को दोपहर की डाक से ‘पूर्वग्रह’ (भोपाल) का अंक आया था। इसमें अज्ञेय जी पर मेरा आलेख छपा था, जो उनकी ‘असाध्य वीणा’ की साभिप्रारूता पर था। इसी अंक में उनका आलेख भी प्रकाशित हुआ, जो अज्ञेय की काल-चेतना पर था। मैंने उनके लेख को पढ़ने के तत्काल बाद उनसे बात करने के लिए उनके मोबाइल पर संपर्क किया और पूछा ‘क्या डॉ. कुमार विमल बोल रहे हैं?’ उत्तर आया–‘आप कौन बोल रहे हैं?’
मैं थोड़ा अचंभित हुआ। यह उनकी आवाज नहीं थी, फिर मैं बोला–
‘मैं डॉ. शीतांशु, अमृतसर से बोल रहा हूँ।’
तब उन्होंने कहा कि डॉ. साहिब अब नहीं रहे। हृदयगति रुकने से उनका निधन हो गया है। मैं उनका बड़ा दामाद बोल रहा हूँ। मैं स्तब्ध रह गया!
पूछा–‘यह अघटनीय कब घटा?’
उन्होंने कहा–‘26 नवंबर, 2009 की रात में।’
मैंने अपनी शोक-संवेदना व्यक्त की और मोबाइल बंद कर उनके चले जाने से हिंदी आलोचना को हुई अपूरणीय क्षति और डॉ. कुमार विमल के आकस्मिक निधन के बारे में सोचने लगा–‘निर्मोह काल के काले पट पर/कुछ अस्फुट रेखा/सब लिखी पड़ी रह जाती/सुख-दुःखमय जीवन रेखा।’
कुमार विमल का व्यक्तित्व बहुत ही सौम्य और आकर्षक था। मैंने पहली बार उन्हें अपने गुरुवर आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा के पटना के आवस पर देखा था। 1965 में बिहार लोकसेवा आयोग से भागलपुर विश्वविद्यालय सेवा में हिंदी के स्थायी प्राध्यापक पद पर मेरी नियुक्ति हुई थी। गुरुवर शर्मा जी चयन-समिति में एक विशेषज्ञ थे। पटना से लौटने के पहले मैं उस संध्या उनके आवास पर उनके दर्शनार्थ और उनका आशीर्वाद लेने पहुँचा था। वह अपने ड्राईंग रूम में किसी से बातचीत कर रहे थे। मुझे माता जी (श्रीमती शर्मा) ने बताया था कि वह डॉ. कुमार विमल से बात कर रहे थे और वह उन्हें मेरे आने की सूचना देने चली गई थीं। मैं स्वयं उनसे मिलने के लिए माता जी के पीछे-पीछे गया था। पर मेरे आने की सूचना मिलते ही शर्मा जी अपने ड्राईंग रूम से स्वयं बाहर आ गए थे। उस समय मैंने अंदर बैठे विमल जी को देखा था। बड़ी-बड़ी आँखें, घुँघराले बाल, तीखे नैन-नक्श, सौम्य, आकर्षक व्यक्तित्व और अपने द्वारा उनके देखे हुए चित्रों के आधार पर सहज ही मान लिया था कि ये ही डॉ. कुमार विमल हैं।
यह भी क्या संयोग था कि जुलाई 1964 में भागलपुर विश्वविद्यालय में मेरी नियुक्ति उसी वर्ष विश्वविद्यालय की अंगीभूत इकाई बने आर.डी. एंड डी.जे. कॉलेज, मुंगेर के लिए हुई थी। कुलपति रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने तदर्थ नियुक्ति के लिये मेरा चयन किया था और मुझे बुलाकर कहा था–‘यही आपके प्राचार्य हैं कपिल जी, इन्हीं के कॉलेज में आपको पदभार ग्रहण करना है।’
बाद में जिस दिन मैं अपना कार्यभार ग्रहण करने मुंगेर पहुँचा था और प्राचार्य से मिलने गया था, तो प्राचार्य ने बधाई देकर मुझसे पहला प्रश्न यही किया था कि ‘आप जिस पद पर यहाँ आए हैं, उस पर आपसे पूर्व कभी कुमार विमल रहे थे। वे हमारे छात्र भी रह चुके थे। उसके बाद शैलेंद्र अग्रवाल आए थे। पर वे दोनों यहाँ रुके नहीं। कॉलेज छोड़ कर चले गए। आप भी अवसर मिलते ही हमें छोड़कर चले तो नहीं जाएँगे?’ तब मैंने उन्हें कहा था कि ‘मैं कम-से-कम पाँच वर्ष आपके यहाँ अवश्य रहूँग। मैं आपको यह विश्वास दिलाता हूँ।’ उस दिन पहली बार कुमार विमल के नाम से मेरा नाता उसी पद पर कार्यभार ग्रहण करने के कारण बना था। उनकी एक पुस्तक ‘मूल्य और मीमांसा’ पहले ही देखी-पढ़ी थी। फिर कॉलेज में पढ़ाने के दिनों में मैंने उनकी ‘महादेवी वर्मा : एक मूल्यांकन’ पुस्तक पढ़ी और उससे बहुत प्रभावित भी हुआ। मैं उनसे हाल तक की बातचीत में यह कहा करता था कि ‘महादेवी पर अब तक लिखी आलोचनात्मक पुस्तकों में आपकी पुस्तक सर्वश्रेष्ठ है।’ बाद में उन्होंने महादेवी पर एक और पुस्तक लिखी। मैं इस नई सदी में भी उनसे आग्रह करता रहा कि आप उसकी एक प्रति मुझे भेज दीजिए। मैं उस संदर्भ में आप पर अपने ढंग से कुछ लिखना चाहता हूँ। पर उन्होंने मुझे कहा कि उसकी एक प्रति भी मेरे पास अब उपलब्ध नहीं है, अन्यथा आपको उसकी छाया-प्रति अवश्य भेज देता। पर आश्वस्त भी किया कि मैं सिन्हा लाइब्रेरी से पुस्तक मँगवाकर उसकी एक छाया-प्रति आपको अवश्य भेजूँगा। पर कालचक्र में यह संभव नहीं हो पाया।
क्या संयोग है कि डॉ. कुमार विमल से आमने-सामने मेरी कभी बात नहीं हो पाई। जब भी बात हुई तो पत्र के द्वारा या दूरभाष के द्वारा। संभवतः 1984 का वर्ष रहा होगा। मैंने दिल्ली के पुस्तक मेले में वाणी प्रकाशन के स्टॉल पर विद्यानिवास मिश्र और कुमार विमल को एक साथ देखा था। मिश्र जी से तो कुछ देर तक मेरी बातें होती रहीं, पर इस दौरान विमल जी पुस्तक देखने में तन्मय हो चुके थे। और इधर मैं मिश्र जी से बातें कर दूसरे स्टॉल पर चला गया था। 1985 में मैंने डॉ. कुमार विमल को अपने निर्देशन के शोध-छात्र एवं सहयोगी डॉ. ओम् अवस्थी के शोध-प्रबंध का परीक्षक बनवाया था, पर ठीक मौखिकी के संभावित दिनों में वह विदेश-यात्रा पर चले गए। अतः मौखिकी के बहाने चाहकर भी मैं उन्हें अमृतसर नहीं बुलवा पाया, जिसका खेद मुझे वर्षों तक बना रहा।
डॉ. कुमार विमल कवि और आलोचक दोनों थे। उनमें कारयित्री और भावयित्री दोनों प्रतिभा थी। बहुत अच्छी कविताएँ लिखने के बावजूद वह जितना डिजर्व करते थे उतनी ख्याति कवि रूप में नहीं प्राप्त कर सके। उनकी आलोचना ने ही उन्हें अधिक यशस्वी बनाया। अपने आलोचन-कर्म में उन्होंने सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार की आलोचना लिखी। उन्हें अपनी परंपरा का, भारतीय काव्यशास्त्रीय चिंतन का जितना ज्ञान और मान था, उतना ही बोध और ध्यान पश्चिमी साहित्य-चिंतन के प्रति भी था।
मैंने उनसे एक बार कहा था कि ‘आपके आलोचन-कर्म की एक बड़ी विशेषता उसका अनुसंधानात्मक होना है। आप हिंदी के अनुसंधानात्मक आलोचक हैं, क्योंकि आप जिस विषय पर भी लिखते हैं उसकी पूरी व्यापकता में उसे समेटते हैं। उस विषय में उसके पूर्व और समानांतर जितना कुछ लिखा जा चुका है, उन सबका जब आप तथ्यपूर्ण नोटिस लेते हैं तब आप ‘मैक्रो क्रिटिक’ (Macro Critic) हो जाते हैं। विषय चाहे जो भी हो, आप नए-नए अनुषंग खोजकर उस पर विचार करते हैं। आपकी आलोचना की यही मौलिकता और सार्थकता है। व्यापकता और तलस्पर्शिता ये दो ऐसे तत्त्व हैं, जो आपकी आलोचना को अनुसंधानात्मक बना देते हैं। शुक्ल जी की तरह आप सर्वथा नए-नए बीज-वाक्य उपस्थापित करते चलते हैं।’
विमल जी ने कहा था–‘आप इसे लिख डालिये।’
पर मैं उनके जीते-जी इसे लिख तो नहीं सका, हाँ, डॉ. सपना शर्मा के द्वारा अपने लिये गए साक्षात्कार में इसका उल्लेख अवश्य किया। पर यह कैसा कुयोग रहा कि ‘आलोचना के आर-पार’ नामक वह पुस्तक वह देख नहीं पाए। कुमार विमल का कोई आलेख ऐसा नहीं है जिसमें पाद-टिप्पणी नहीं लगी हो। वह संदर्भ-ग्रंथों की पूरी सूचना दिया करते थे। मैंने एक बार उन्हें कहा भी था कि मैंने तो अब अपने आलेखों में पाद-टिप्पणी या संदर्भ-सूचना देना बंद कर दिया है, क्योंकि हिंदी में सीधे पाद-टिप्पणी को उठाकर लोग लेखक की कही गई बातों को अपनी बनाकर कहने लगते हैं। आजकल इसका खतरा शत-प्रतिशत हो गया है। पर कुमार विमल ने इसकी कभी चिंता नहीं की और वह अपने लेखन-धर्म के इस तकाजे को सदैव पूरा करते रहे।
मैं कुमार विमल को ‘समीक्षकों का समीक्षक’ मानता हूँ। पुस्तकें कैसे समीक्षित की जाती हैं, समीक्षकों को इसे कुमार विमल से सीखना चाहिए। इधर ‘चिंतन-सृजन’ के संपादक डॉ. बी.बी. कुमार ने उनसे मेरी पुस्तक ‘उत्तर-आधुनिकता : बहुआयामी संदर्भ’ की समीक्षा लिखने का आग्रह किया था। उन्होंने यह दायित्व स्वीकार कर लिया था, पर दुर्योगवश वह समीक्षा पूरी नहीं हो पाई।
साहित्य में जब-जब पश्चिमी आंदोलन उभरा, तो उन्होंने न केवल उसका नोटिस लिया, बल्कि गहनता में जाकर उसका स्वरूपगत, अभिलाक्षणिक निरूपण तक किया, साथ ही उसकी मीमांसा भी की। चाहे आधुनिकता या अत्याधुनिकता के वादों का संदर्भ हो या दूसरे नव्य आंदोलन का, रचना-प्रक्रिया या सौंदर्य-शास्त्र की अभिग्रहणशीलता का संदर्भ हो, उन्होंने इन सब पर डूब कर लिखा। सौंदर्यशास्त्र के क्षेत्र में ‘सौंदर्यशास्त्र के तत्त्व’ नामक उनकी सैद्धांतिक पुस्तक और छायावाद के संदर्भ में उसका अनुप्रयोग उनका ‘छायावाद का सौंदर्य शास्त्रीय अध्ययन’ हैं। ये दोनों उनकी ‘मास्टर पीस’ कृतियाँ हैं। दूरभाष के माध्यम से सौंदर्यशास्त्र के संदर्भ में बात करते हुए मैंने 2009 में उन्हें कहा था कि आपका यह कार्य अत्यंत सुचिंतित, श्रम-साध्य और मानक कार्य है, जो इस विषय पर आपकी विश्लेषण-क्षमता का प्रादर्श उपस्थित करता है। पर आपने सौंदर्य-शास्त्र के जो घटक-तत्त्व माने हैं, उनमें कल्पना, सौंदर्य, बिंब और प्रतीक को लिया है। पर मुझे लगता है कि कल्पना तो सारे कलागत सौंदर्य की जननी है और ‘सौंदर्य’ घटक-तत्त्वों द्वारा, उसकी संघटना द्वारा पड़ने वाला प्रभाव। मैं आपके इन सारे विवेचन पर बहुत मुग्ध रहा हूँ। पिछले कुछ वर्षों में यह अनुभव कर रहा हूँ कि ‘बिंब’ और ‘प्रतीक’ के साथ ‘मिथक’ और ‘फंतासी’ का विवेचन भी किया जाना चाहिए। यदि आगामी नए संस्करण में संयोग बन पाए और आप इसे जोड़ सकें तो बहुत उत्तम होगा। तब उन्होंने मुझसे कहा था कि देखिए, अब लिखने और जोड़ने की कितनी संभावना सार्थक हो पाती है! यदि समय मिल पाया, तो अवश्य करूँगा। पिछले कुछ वर्षों में मैंने सौंदर्य-शास्त्र के नए-नए प्रकारों पर उनके दो-तीन आलेख पढ़े थे और इसके तत्काल बाद मैंने उनसे यह आग्रह किया था कि यदि आप सौंदर्य-शास्त्र के प्रकारों पर ऐसे कुछ और आलेख लिखकर एक स्वतंत्र पुस्तक दे सकें, तो हिंदी के प्रति आपका यह महत्त्वपूर्ण अवदान होगा। मेरे इस पत्र को पढ़कर भी उन्होंने यही कहा था कि यदि और कुछ आलेख लिख सका, तो ऐसा अवश्य करना चाहूँगा।
कुमार विमल प्रत्यालोचक (Meta-Critic) भी थे। पर उनकी प्रत्यालोचना सौम्य और संयत थी, उसमें रामविलास शर्मा की प्रखरता नहीं थी। उनकी जो सामान्य-से-सामान्य और विद्वान-से-विद्वान पाठकों से भी उनके पूर्ण अधीती व्यक्तित्व का लोहा मनवा लेती थी। पाठक को यह कहना ही पड़ता था कि इस आलोचक ने कितना पढ़ा है, कितना सोचा है और कितनी मौलिकता से लिखा है।
आज हिंदी आलोचना में मार्क्सवादी आलोचकों का राजतंत्र छाया हुआ है। वह साहित्य की केंद्रीय धारा में अपना प्रभुत्व बनाए हुए हैं। पर मैं विवेकपूर्ण रूप से यह कहना चाहूँगा कि संपूर्ण मार्क्सवादी शिविर में एक रामविलास शर्मा को छोड़कर कुमार विमल से बड़ा आलोचक कोई नहीं है। यह भी कहना चाहूँगा कि वह जितनी यशस्विता और लोकप्रियता के अधिकारी थे, इस शिविर ने उन्हें उतना यशस्वी और उतना लोकप्रिय नहीं होने दिया, न ही उन्हें इस शिविर ने पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजने के योग्य ही समझा। वह रामस्वरूप चतुर्वेदी और परमानंद श्रीवास्तव से काफी ऊँचे कद के आलोचक थे। कहते हैं, साहित्य की असली परख और पहचान काल देवता के हाथों होती है। मुझे पूरा विश्वास है कि दशाब्दियों बाद शताब्दियों तक उनका साहित्य अमरता की अमरबेलि बनकर छाएगा और काल-देवता उनके आलोचकत्व को शिखर पर स्थापित करेंगे। उन्होंने अपने सर्वोत्तम लेखन को संकलित करते हुए उसके ‘दो शब्द’ में यह लिखा भी है कि
‘विभिन्न संवैधानिक और सांविधिक पदों से जुड़ी हुई व्यस्तताओं के कारण मैं साहित्य-जगत के सम्मुख कोई विशद-विशाल त्रिपिटक प्रस्तुत नहीं कर सका, तो एक त्रिपटक ही सही, जिसका पहला पुटक आपके सुपुर्द है। आशा है, यह पुटक काल-देवता को भी अच्छा लगेगा।’
उनकी मान्यता थी कि ‘मतवादी आग्रहों से मुक्त और महानगरों से बाहर या दूर रहकर भी जनहितकारी, दीर्घजीवी तथा विवेकशील साहित्य लिखा जा सकता है–ऐसा मेरा विश्वास है।’ अपने इस कथन में संकेत से उन्होंने मतवादी शिविर और महानगरों की साहित्यिक राजनीति के विषय में सब-कुछ कह दिया है। पर इन सबसे सुविदित रहते हुए भी उन्हें इन सबकी कोई वेदना नहीं थी। वे साधक साहित्यकार थे और साहित्य को किसी आत्मीयवत् आजीवन जीते रहे। कहते हैं, वे अपने अंतिम दिनों में अस्पताल जाने के समय तक लिखते रहे थे। पुस्तकों से उनके अति विशिष्ट प्रेम का प्रमाण उनका निजी पुस्तकालय है, जिसमें आठ हजार के लगभग उनकी पुस्तकें सुरक्षित हैं।
अपनी श्रेष्ठ संकलनात्मक पुस्तक में उन्होंने अपनी गहन गवेषणात्मक क्षमता का प्रभाव छोड़ा है। इसमें ‘राम की शक्ति-पूजा’, ‘लोकायतन’, ‘कामायनी’, ‘कनुप्रिया’ आदि कृतियों पर उनकी व्यावहारिक आलोचना भी हैं।
डॉ. कुमार विमल आचार्य नलिनविलोचन शर्मा के निकाय के योग्यतम आलोचक सिद्ध हुए। नलिन जी की तरह ही उन्होंने साहित्य के अद्यतन अनुशीलन को कलाओं से जोड़ा और उसे पूरी निष्ठा से विकसित किया। उन्होंने सौंदर्य-शास्त्र के मूल को भारतीय परंपरा में रेखांकित-उद्घाटित किया। उन्होंने अपने लेखन में एक ओर पाठात्मक और पाठकीय आलोचना का विवेचन किया, तो दूसरी ओर अस्तित्ववादी सौंदर्यशास्त्र और अभिग्रहणशील (Receptive) सौंदर्यशास्त्रा का विवेचन कर सौंदर्यशास्त्र के चिंतन को और व्यापकता तथा गहनता प्रदान की।
देरिदा ने अपनी विसंरचना (Deconstruction) में युग्म पदों में पहले पद की महत्त्वपूर्णता की गरिमामय स्थिति को उलट दिया है। उस दृष्टिकोण से पुरुष और स्त्री में स्त्री और प्रकृति और संस्कृति में संस्कृति अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसी तरह सर्जक और आलोचक में आलोचक अधिक महत्त्वपूर्ण है। देरिदा कहता है, मैं इस प्रतीपता का तभी तक पक्षधर हूँ जब तक दोनों को समानता के धरातल पर मानना आरंभ न हो जाए। इस समानता के अनुरूप कुमार विमल किसी महान सर्जक के समकक्ष ही स्थान रखने वाले आलोचक थे। जैसे प्रसाद और निराला के समकक्ष रामचंद्र शुक्ल हैं, उसी तरह महत्त्वपूर्ण सर्जकों के समकक्ष डॉ. कुमार विमल को भी यह श्रेय प्राप्त होगा।
उनकी सैद्धांतिक और सर्जनात्मक दोनों प्रकार की आलोचना से न केवल आलोचना के क्षेत्र में आनेवाले प्रशिक्षुओं, बल्कि वर्षों से आलोचना के क्षेत्र में संलग्न रहने वाले आलोचक भी बहुत-कुछ सीख सकते हैं और इनकी सरणि पर चलकर अपने आप को और भी ऋद्ध-समृद्ध कर सकते हैं। आज हिंदी साहित्य के ऐसे सपूत के अवसान और उनके अवदान को सोचते हुए मेरी आँखें भर-भर आती हैं। वह चले गए हैं, पर उनका आलोचनात्मक लेखन उन्हें अमर कर गया है–‘झरना/झरता पत्ता/हरी डाल से अटक गया।’