रीतिकाव्य : स्त्री के दृष्टिकोण से

रीतिकाव्य : स्त्री के दृष्टिकोण से

जब एक संगोष्ठी का ‘मध्यकालीन हिंदी साहित्य का सामाजिक संदर्भ’ विषय देखा तो मेरे मन में रीतिकाव्य पर लेख लिखने की इच्छा हुई लेकिन मैं असमंजस्य की स्थिति में थी कि यह मैं कैसे कर पाऊँगी। यद्यपि मन ही मन इसकी रूपरेखा मैंने बना ली थी। लेकिन मेरी मुश्किल आसान तब हो गई जब एक बातचीत के क्रम में यह प्रश्न उठा कि यदि हमें रीतिकाव्य पढ़ाना हो तो बिना किसी झिझक के यह कैसे संभव हो? और खासकर एक स्त्री को? मेरी पहली प्रतिक्रिया थी–चूँकि प्रेम बहुत व्यापक विषय है जिसे न केवल रीतिकालीन कवियों ने उठाया है बल्कि आदिकाल से लेकर आज तक के कवि प्रेम कविताएँ लिखते रहे हैं। संभवतः शायद ही कोई ऐसा कवि होगा जिसने प्रेम कविताएँ न लिखी हों। क्योंकि इस संसार में तीन चीजें ही शाश्वत मानी गई हैं–जीवन, मृत्यु और प्रेम।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में संवत् 1700 से लेकर 1900 तक के काल को उत्तर मध्यकाल यानी रीतिकाल नाम दिया है। रीतिकाव्य का विरोध हिंदी में दो कारणों से किया गया। एक तो यह कि यह सामंतों की रुचि के अनुसार लिखा गया था और दूसरे यह कि यह घोर शृंगारिक है। पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार, ‘हिंदी की मध्यकालीन शृंगारिक रचना की पर्याप्त कुत्सा की गई है। उसे सबसे प्रथम तो सार्वजनिक रचना माना गया है। अवस्था, परिस्थिति आदि के कारण रचना में भेद होता है, इस नियम की भी छूट उसे नहीं दी गई है। काव्य परंपरा की भी छूट मिलती है। पर उसे किसी प्रकार की छूट नहीं दी गई और छूटकर उसकी निंदा की गई। हिंदी की समस्त रचना का यदि साहित्यिक दृष्टि से विचार किया जाए तो हिंदी का शृंगारकाल ही उसका अनारोपित काव्यकाल दिखता है। उसमें जितने अधिक उत्कृष्ट कवि हुए उतने किसी युग में नहीं। उस युग की रचना भी परिमाण में बहुत है। यदि उसका सारा वाड्मय प्रकाशित किया जाए तो युगों में प्रकाशित हो सकेगा। शृंगार की एक-से-एक उत्कृष्ट उक्तियाँ उसमें प्रभूत परिमाण में हैं, इतनी अधिक हैं कि संस्कृत साहित्य अत्यंत समृद्ध होने पर भी उनकी बराबरी नहीं कर सकता। इस युग की शृंगारी अभिव्यक्ति में अनवरत संस्कृत के अनुधावन पर नहीं है। उसमें मौलिक अभिव्यक्ति अधिक है। अभिव्यक्ति का आधार-विषय एक ही होने के कारण उक्तियाँ अवश्य मिलती-जुलती हो गई हैं। पर यह कहना ठीक नहीं है कि शृंगारकाल में केवल पिष्टपेषण ही हुआ है। उसने संस्कृत को भी प्रभावित किया है।’ तो प्रश्न यह उठता है कि शृंगारिक काव्य तो संस्कृत के कालिदास से लेकर जयदेव तक ने रचा है और हिंदी में विद्यापति से लेकर सूरदास तक से होता हुआ आज तक के तमाम कवियों ने, और इनकी कविताओं का तो कोई विरोध नहीं करता?

यह सही है कि रीतिकाल के कवियों ने एक निश्चित या विशिष्ट प्रणाली को दृष्टिगत रखते हुए काव्य रचना की, क्योंकि रीतिकाल में ‘रीति’ शब्द एक विशेष प्रकार की ‘पद रचना’ या परिपाटी का सूचक है। रीति वास्तव में एक प्रणाली या प्रस्तुति का ढंग है। इस युग के कवियों ने एक निश्चित या विशिष्ट प्रणाली को दृष्टिगत रखते हुए काव्य-रचना की। यह प्रणाली ऐसी थी जिसमें सर्वप्रथम कवि आचार्य धर्म का निर्वाह करते हुए काव्य-रचना की रीति या लक्षण प्रस्तुत करते थे और फिर उसके अनुरूप ही उदाहरणों की रचना। ये उदाहरण उनके अपने रचे हुए भी होते थे और कभी दूसरे कवियों के भी दे दिए जाते थे। अतः लक्षण बताकर उदाहरण देने की प्रवृत्ति इसी युग में एक परंपरा-सी बनती चली गई। इन उदाहरणों में अधिकांश शृंगारी होते थे। इसलिए अधिकांश कवियों ने अलंकार, रस, नायक-नायिका भेद, ध्वनि, गुण, दोष आदि के लक्षण-उदाहरण प्रस्तुत कर एक विशिष्ट रीति-सी डाल दी और इसी रीति का पालन 200 वर्षों तक किया जाता रहा। यही कारण है कि कवि शिक्षा देने या लाक्षणिक ग्रंथ लिखने के कारण इन कवियों को आचार्य या आचार्य-कवि भी कहा जाता है।

मध्यकालीन समाज सामंतवादी पद्धति का समाज था। उच्च वर्ग के राजाओं तथा सांमतों का जीवन वैभव का जीवन था। पुष्प, इ़़त्र, गंध, फब्बारे, उद्यान, रमणीय-विहार-स्थल राजाओं-सामंतों को तृप्ति प्रदान करते थे तो सुरा-सुराही और सुंदरी जैसी विलासी सामग्रियों के कारण वे नैतिक चेतना विमुख होते जा रहे थे। आचार्य शुक्ल लिखते हैं–‘शृंगार वर्णन को बहुत से कवियों ने अश्लीलता की सीमा तक पहुँचा दिया। इसका कारण जनता की रुचि नहीं, आश्रयदाताओं की रुचि थी, जिनके लिए वीरता और कर्मण्यता का जीवन बहुत कम रह गया था।’

रीतिकालीन मुगल बादशाह शाहजहाँ के राज्यकाल में कवि और कलाकारों को दरबारी आश्रय और प्रोत्साहन मिलता था। शाहजहाँ की अपनी रुचि भी स्थापत्य-कला, चित्रकला, संगीत तथा काव्यादि में विशिष्ट थी। आर्थिक मोह तथा कला-संरक्षण ने कवियों-कलाकारों को दरबारी बनाया तो कविता और कला भी दरबारी बनते चले गए। कवि और कलाकारों की तरह कविता और कला भी आश्रित और परमुखापेक्षी होती चली गई। आश्रयदाताओं का मनोविनोद तथा कवियों की अथप्राप्ति एक दूसरे के पूरक बनते चले गए। काव्य रचना अब राजाओं की रुचि एवं इच्छा के अनुरूप ही होने लगी। कवियों ने आश्रयदाताओं को तृप्त एवं प्रसन्न करने के लिए शृंगारी रचनाओं का सृजन जी भर के किया। राजाओं की वासना तृप्ति ने कविता का उद्देश्य तथा स्वरूप बदल डाला।

कवियों से काव्य शिक्षा ग्रहण करना भी राजाओं-आश्रयदाताओं की रुचि में शामिल हो गया। परिणामतः संस्कृत लक्षणों को ध्यान में रखकर कवियों ने आचार्यत्व धर्म का मोह पाला और वे काव्य-शास्त्रीय ग्रंथों का निर्माण भी करने लगे। इसी युग में कुछ रीति इतर काव्य परंपराएँ भी मिलीं जो भक्तिकालीन परंपराओं का गौण विस्तार भी कही जा सकती हैं। ऐसी काव्य धाराओं में भक्तिपरक कृष्ण एवं राम संबंधी, ज्ञानमार्गी, प्रेममार्गी, नीतिपरक, वीरकाव्यपरक, प्रकृति, राजप्रशस्ति, वैद्यक एवं चिकित्सा संबंधी तथा ज्योतिष संबंधी काव्य-सृजन भी चलता रहा।

शृंगार की प्रवृत्ति इस युग में प्रमुख है और शृंगार संबंधी काव्य परिमाण में पर्याप्त है परंतु यह भी भुलाया नहीं जा सकता कि इस युग के बहुत से कवियों ने शृंगार को प्रमुखता नहीं दी। बहुत से कवियों ने लक्षण-ग्रंथ लिखकर भी शृंगार को कोई स्थान नहीं दिया। नीति, भक्ति, प्रवृत्ति के ऐसे कई ग्रंथ भी हैं जहाँ शृंगार उपलब्ध नहीं है।
लेकिन यह भी सच है कि प्रत्येक युग में एक ही तरह की कविता नहीं लिखी जाती। इसलिए हमें आज रीतिकालीन कविता को जानने और समझने के लिए सिर्फ नायक-नायिका भेद और अलंकारों के चक्कर में पड़कर उसका मूल्यांकन नहीं करना चाहिए बल्कि कविता के पास सहृदयता के साथ जाना चाहिए। मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर, घनानंद, ठाकुर, बोधा, गिरिधर आदि इस युग के कुछ ऐसे कवि हैं जिनके अनेक अनमोल छंद हिंदी कविता को समृद्ध करते हैं।

इस लेख में मैंने बिहारी और घनानंद के कुछ छंदों को उदाहरण स्वरूप चुना है ताकि बात और स्पष्ट हो सके। सुपरिचित आलोचक नंदकिशोर नवल अपनी पुस्तक ‘रीतिकाव्य’ के ‘बिहारी सतसई : सौंदर्य और प्रेम का काव्य’ नामक लेख में लिखते हैं, ‘बिहारी सतसई को शृंगार का काव्य माना जाता है, जबकि मूलतः वह सौंदर्य का काव्य है और उसमें प्रेम के भी उत्कृष्ट दोहे मिलते हैं। आचार्य शुक्ल ने बिहारी को रीतिकाल के ‘प्रतिनिधि’ कवियों में रखा है और रीतिकाल रस की दृष्टि से उनके लिए शृंगार-काल था। उनका यह सुदृढ़ मत था कि ‘जो हृदय के अंतस्तल पर मार्मिक प्रभाव चाहते हैं, किसी भाव की स्वच्छ निर्मल धारा में कुछ देर अपना मन मग्न रखना चाहते हैं, उनका संतोष बिहारी से नहीं हो सकता।’ अंत में उन्होंने यह दो टूक फैसला दिया है : ‘भावों का बहुत उत्कृष्ट और उदात्त स्वरूप बिहारी में नहीं मिलता। कविता उनकी शृंगारी है, पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं पहुँचती, नीचे ही रह जाती है।’ हिंदी में देव और बिहारी की श्रेष्ठता को लेकर लंबा विवाद चला है। आचार्य शुक्ल ने उसमें हिस्सा नहीं लिया था, लेकिन उनके इस कथन पर ध्यान देते हैं तो उनका विचार अप्रकट नहीं रह जाता : ‘मार्मिक प्रभाव का विचार करें तो देव और पद्माकर के कवित्त-सवैयों का गूँजने वाला प्रभाव बिहारी के दोहों का नहीं पड़ता।’ स्पष्ट है कि देव और बिहारी के विवाद में बिहारी की कविता का अपने ढंग से महत्त्व स्वीकार करते हुए भी वे देव के साथ थे। इस परंपरा को हिंदी के दूसरे रसवादी आलोचक डॉ. नगेंद्र ने देव की कविता पर पूरा ग्रंथ प्रस्तुत करके आगे बढ़ाया।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी बिहारी को रीतिकाल का ‘प्रतिनिधि’ कवि न मान ‘लोकप्रिय’ कवि मानते हैं और साफ शब्दों में कहते हैं कि ‘बिहारी की सतसई किसी रीति? मनोवृत्ति की उपज नहीं है। यह एक विशाल परंपरा के लगभग अंतिम छोर पर पड़ती है और अपनी परंपरा को संभवतः अंतिम बिंदु तक ले जाती है।’
मेरा आग्रह है कि बिहारी सतसई में केवल काव्य-सौंदर्य ही न देखा जाए अपितु उनकी कविता में शृंगार के साथ प्रेम और सौंदर्य को भी देखा जाना चाहिए। बिहारी प्रेम और शृंगार की कविता लिखकर भी अपने उत्तरदायित्व को कुशलता पूर्वक कैसे निबाहते हैं इसके लिए उनका यह दोहा देखिए–

नहिं पराग, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
अली कली ही सों बंध्यो, आगे कौन हवाल॥

माना जाता है कि जयपुर के राजा जयसिंह अपनी नवविवाहिता रानी के प्रेम में इतने व्यस्त रहते थे कि राज-काज देखने के लिए भी महल से बाहर नहीं निकलते थे। जनता के सुख-दुख से उन्होंने अपनी आँखें मूँद ली थीं। उन्हें किसी की चिंता नहीं थी और न ही किसी में इतना साहस था कि उन्हें उचित सलाह दे सकें। कवि बिहारी ने राजा जयसिंह की आँख खोलने के लिए उक्त दोहा उन्हें भेज दिया। इस दोहे को पढ़कर राजा जयसिंह की मोह-निद्रा भंग हो गई और पुनः वे राजकाज में रुचि लेने लगे। आचार्य शुक्ल का मानना है कि इस पर महाराज बाहर निकले और तभी से बिहारी का मान बहुत बढ़ गया। महाराज ने बिहारी को इसी प्रकार के सरस दोहे बनाने की आज्ञा दी। बिहारी दोहे बनाकर सुनाने लगे और प्रति दोहे पर एक अशर्फी मिलने लगी। इस प्रकार 700 दोहे बने जो संगृहीत होकर ‘बिहारी सतसई’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसका एक-एक दोहा हिंदी साहित्य का एक-एक रत्न माना जाता है।

बिहारी के कुछ प्रेम संबंधी उत्कृष्ट दोहे देखिए–
1. उन हरकी हँसिकै इतै, इन सौंपी मुसकाय।
नैन मिलत मन मिलि गए, दोउ मिलवत गाय॥
2. लई सौंह-सी सुनन की, तजि मुरली धुनि आन।
किए रहति रति राति दिन, कानन लाए कान॥
3. कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात।
भरे भौन में करत हैं, नैननु हीं सब बात॥
4. जब जब वै सुधि कीजिए, तब तब सब सुधि जांहि।
आँखिनु आँखि लगी रहैं, आँखें लागति नांहि॥
5. स्याम-सुरति करि राधिका, तकति तरनिजा तीर।
अंसुवन करति तरौंस को, खनिक खरौहों नीर॥

पहले दोहे में कृष्ण और राधा दोनों अपनी-अपनी गायें लेकर वृंदावन में चराने गए हैं। कृष्ण हँसकर राधा से कहते हैं कि मेरी गायों के झुंड में तुम अपनी गायें मत मिलाओ, लेकिन राधा मानती नहीं हैं और मुस्कुराकर उसमें अपनी गायें मिला देती हैं। कवि के अनुसार गायों के मिलाने में दोनों की आँखें मिलती हैं, तो दोनों के मन भी मिल जाते हैं। यह केवल रीतिकाव्य या शृंगार की कविता नहीं है, बल्कि यह प्रेम की विलक्षण कविता है, जो प्रेम की गहन अनुभूति रखनेवाले कवि के भीतर ही जन्म ले सकती है। दूसरे दोहे में गोपिका ने कसम खा ली है कि वह कृष्ण की मुरली-ध्वनि के अलावा कुछ और न सुनेगी। इसलिए वह रात-दिन वन की ओर ही अपने कान लगाए रहती है। इसमें प्रेम की स्वाभाविकता का वर्णन है। अगले दोहे में एकांत न मिलने के कारण प्रेमी-प्रेमिका भरे हुए भवन में सबके सामने भी बिना कुछ बोले आँखों ही आँखों में कैसे एक-दूसरे से प्रेम भरी बातें करते हैं। यह संभवतः आज के प्रेमी-प्रमिकाओं के लिए भी उदाहरण है। इसी कारण आचार्य शुक्ल मानते हैं कि जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समाहार शक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से वे दोहे जैसे छोटे छंद में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या हैं रस के छोटे-छोटे छींटें हैं। इसी से किसी ने कहा है–

सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखत में छोटे लगैं, बेधें सकल सरीर॥

अगले दोहे में विरहिणी नायिका को जब-जब अपने प्रिय की याद आती है तब-तब वह अपनी सारी सुध-बुध भूल जाती है। परिणामस्वरूप उसे नींद भी नहीं आती और उसका हृदय अपने प्रिय की ओर ही लगा रहता है। यह बिल्कुल सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया है। अंतिम दोहे में कृष्ण गोकुल से जा चुके हैं। एक दिन राधा यमुना के तट पर पहुँचती है, तो वहाँ कृष्ण के साथ बिताए गए अपने दिनों को याद कर एकटक उसे देखने लगती है। तट के नीचे यमुना का जल बह रहा है। उसी समय उसकी आँखों से आँसू की कुछ बूँदें टपकती हैं, तो क्षणभर के लिए वे उस जल को खारा बना देती हैं। निश्चय ही यह प्रेम है, शृंगार नहीं।
आज के भयावह समय में जहाँ हमारी जिंदगी से प्रेम का स्पेस कम हो गया है, ऐसी स्थितियों में बिहारी के प्रेम के महत्त्व को न केवल समझा जाना चाहिए बल्कि समझाना भी चाहिए।

इस लेख में मैंने अपने दूसरे पसंदीदा कवि घनानंद को चुना है। घनानंद के बारे में आचार्य शुक्ल का कहना है कि घनानंद दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के मीरमुंशी थे। कहते हैं कि एक दिन दरबार में कुछ कुचक्रियों ने बादशाह से कहा कि मीरमुंशी साहब गाते बहुत अच्छा हैं। बादशाह से इन्होंने बहुत टालमटोल किया। इस पर लोगों ने कहा कि ये इस तरह न गाएँगे यदि इनकी प्रेमिका सुजान नाम की वेश्या कहे तब गाएँगे। वेश्या बुलाई गई। इन्होंने उसकी ओर मुँह और बादशाह की ओर पीठ करके ऐसा गाना गाया कि सब लोग तन्मय हो गए। बादशाह इनके गाने पर जितना खुश हुआ उतना ही बेअदबी पर नाराज। उसने इन्हें शहर से निकाल दिया। जब ये चलने लगे तब सुजान से भी साथ चलने को कहा पर वह न गई। इस पर इन्हें विराग उत्पन्न हो गया और ये वृंदावन जाकर निम्बार्क संप्रदाय के वैष्णव हो गए और वहीं पूर्ण विरक्त भाव से रहने लगे।

घनानंद स्वछंद काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। घनानंद की एक प्रसिद्ध उक्ति है, ‘लोग हैं लागि कबित्त बनावत/मोहिं तौ मेरे कबित्त बनावत।’ कहने का तात्पर्य यह है कि जहाँ अन्य कवि अपनी कविता का कारण स्वयं होते हैं, वहाँ घनानंद ऐसे कवि थे, जिनका निर्माण स्वयं उनकी कविता करती थी। घनानंद मूलतः विरहावस्था के कवि हैं। इसलिए उन्हें ‘प्रेम का पपीहा’ कहा गया है, जो स्वाती नक्षत्र का जल पीने के लिए रटता रहता है और उसके बदले अमृत भी मिले, तो उसका पान नहीं करता है। घनानंद के प्रेम की विशेषता एक यह भी है कि जहाँ और कवियों ने प्रेम के बारे में प्रायः परंपरा से प्राप्त ज्ञान के आधार पर लिखा है, वहाँ उनके लिए वह स्वानुभूत था।

नारी प्रेम, सौंदर्य, प्रेमानुभूति तथा व्यापक विरह वेदना का यह एकनिष्ठ तथा अंतर्मुखी कवि सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव को भी सफलता से रूपायित करता है। सरल, सहज तथा सीधे प्रेम मार्ग पर चलने वाला यह महाकवि सयानेपन तथा बाँकपन से कोसो दूर रहता है। एकनिष्ठता उसका आदर्श रही है। तभी तो वे कहते हैं–

अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
तहँ साँचै चलैं तजि आपनपौ, झिझकें कपटी यो निसांक नहीं॥
घन आनंद प्यारे सुजान सुनो, इहाँ एक ते दूसरों आँक नहीं।
तुम कौन-धौं पाटी पढ़े हो लला, मन लैहु पै दैहु छटाँक नहीं॥

अर्थात प्रेम का मार्ग इतना सीधा है कि उसमें किसी प्रकार के सयानेपन की वक्रता को कोई स्थान नहीं है। उस मार्ग पर वे सच्चे प्रेमी ही चल सकते हैं जिन्होंने अहंकार को पूरी तरह छोड़ दिया है। वह कहते हैं कि मेरे हृदय में एक के अतिरिक्त कोई दूसरी छाप नहीं है। कबीर के प्रेम का ढाई आखर घनानंद के यहाँ एक अंक में सिमट गया है। निश्चित रूप से प्रेम तभी सफल हो सकता है जब यहाँ कोई छल-कपट न हो जिसकी ओर घनानंद संकेत करते हैं। उन्होंने प्रेम मार्ग पर चलने वालों की निश्छलता पर बल दिया है।

एक और छंद में घनानंद ने प्रेमी और सुजान के प्रेम में चातक तथा मेघ की प्रेमासक्ति की छाया दिखाई है। कवि चातक की भाँति प्रेमी कृपा का आकांक्षी है–

प्रीतम सुजान मेरे हित के निधान कहो
कैसे रहैं प्रान जौ अनखि अरसाय हौ।

प्रेम के संबंध और उसकी महानता के बारे में घनानंद का कहना है–

प्रेम को महोदधि अपार हेरि कै, बिचार,
बापुरो हहरि वार हीतें फिरि आयो है।
ताहि एक रस है बिबस अवगाहैं दोउ,
नेही हरि राधा जिन्हैं देखे सरसायो है॥

अर्थात प्रेम के अपार महासागर को देखकर विचार बेचारा घबराकर अपनी ओर वाले तट से ही लौट आया है। तात्पर्य यह है कि प्रेम तत्व का अवगाहन तो क्या, उसका स्पर्श भी बुद्धि के वश की बात नहीं।

दूसरी ओर घनानंद अपना संदेश तो प्रिय के पास भेजना चाहते हैं लेकिन वह उसको परेशान नहीं करना चाहते। वह पवन को दूत बनाकर प्रियतम के पास भेजना तो चाहते हैं लेकिन उनका पवन से अनुरोध है कि पवन उसके प्रियतम के चरण रज लाकर उसे दे दे जिसे आँखों में लगाकर वह वियोग पीड़ा से छुटकारा पा सकें।

एरे बीर पौन! तेरो सबै ओर गौन, बीरी
ते सो और कौन, मनै ढरकोहीं बानि दै।

कुछ ऐसा ही हरिऔध ने भी कहा है–जो तू ला देगी चरण रज तो तू बड़ा पुण्य लेगी। वियोगावस्था में प्रकृति के उद्दीपन दृश्य कष्टकारी होते हैं जिसकी ओर घनानंद ने इशारा किया है–

कारी कूर कोकिला! कहाँ क बैर काढ़ति री,
कूकि-कूकि अब ही करेजो किन कोरि लै।

प्रेम में किसी भी तरह के विश्वासघात को कोई भी सहन नहीं करता। घनानंद ने भी इस पर अपनी अँगुली रखी है और अपने प्रिय को इसके लिए वह उलाहना देने से भी नहीं चूकते।

दूसरी ओर प्रिय के रूप पर रीझने में मन की क्या दशा होती है, इस पर यह सवैया देखिए–

रावरे, रूप की रीति अनूप नयौ नयौ लागत ज्यौ ज्यौ निहारियै।
त्यौं इन आँखिन बानि अनौखी, अघानि कछु नहिं आन तिहारियै॥

इसी प्रकार वियोग-व्यथा की सैंकड़ों अंतर्दशाओं के मार्मिक चित्र कवि ने खींचे हैं, जो हृदय को सीधे छूते हैं। विरह की अंतिम अवस्था का अर्थात मृत्यु से ठीक पहले की स्थिति का घनानंद ने बहुत मार्मिक चित्रण किया है। विरही के प्राण मरते समय प्रिय के संदेश या एक झलक के लिए अटके रह गए हैं। देखिए यह उदाहरण–

बहुत दिनान के अवधि आस-पास परे,
खरे अरबनि भरे हैं उठि जान को।

आचार्य शुक्ल के अनुसार मरते समय घनानंद ने अपने रक्त से यह कवित्त लिखा था। हृदयगत पीड़ा एवं कसक को उभारने में, अलंकारों की बुनावट तथा नक्काशी में और प्रभावी रंग-वैभव की छटा बिखेरने में घनानंद का कोई सानी नहीं। इसलिए आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है कि ‘अपनी भावनाओं के अनूठे रूप-रंग की व्यंजना के लिए भाषा का ऐसा बेधड़क प्रयोग करने वाला पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ।’

अंततः कहा जा सकता है कि रीतिकाव्य शृंगार का ही नहीं, प्रेम का भी काव्य है। यह जरूर है कि यह प्रेम अतींद्रिय नहीं, वह चाहे घनानंद का प्रेम ही क्यों न हो। प्रेम यदि मात्र भावात्मक हुआ, तो उसमें मानवीय उष्मा नहीं होगी। जैसा कि बाबा नागार्जुन ने कहा है–

फलित नहीं, पुष्पित मात्र होकर रह गया प्रेम हाय शरीरसंपर्कहीन!!

व्यक्तित्व के बोझ से दब रही देह दीन
परम प्रिय है चाय, कभी-कभी ओवल्टीन
सुनते हैं हम-आप, बजती है हृदयबीन
चारों ओर जल ही जल फिर भी पिपासित मीन
सेक्स, तेरा बुरा हो
काट लूँ गला गर हाथ में छुरा हो।


Image: India, Mughal, 18th century – A princess reclining on a terrace with attendants Cleveland Museum of Art
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