साहित्य के सरोकार एवं साहित्कारों के दायित्व

साहित्य के सरोकार एवं साहित्कारों के दायित्व

व्याख्यान

र्वप्रथम तो मैं ‘नई धारा’ परिवार का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने मुझे ‘उदय राज सिंह स्मृति सम्मान’ के योग्य समझा। यह प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थान दशकों से साहित्य, संस्कृति एवं सृजन के प्रति जिस निष्ठा व प्रतिबद्धता के साथ समर्पित रहा है, वह अपने आप में किसी कीर्तिमान से कम नहीं है। वास्तव में भारतीय सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए पूरे देश में ‘नई धारा’ के समकक्ष शायद ही कोई और संस्था एवं संस्थान हो जो सभी पीढ़ियों तथा सभी विधाओं की रचनात्मक प्रतिभाओं को एक साथ मंच प्रदान करती हों।

साहित्य एवं साहित्यकारों की गरिमा व महिमा को हम सभी जानते हैं। संसार को यदि किसी ने सुंदर एवं समृद्ध किया है तो वह साहित्य ही है। मनुष्य की मनुष्यता को बचाए तथा बनाए रखने में, उसे ‘नर से नारायण’ तक ले जाने की शक्ति व सामर्थ्य प्रदान करने में साहित्य की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता। आज मानव-सभ्यता जिस ऊँचाई पर खड़ी है उसके मूल में जितने भी जीवन-मूल्य हैं, जितने सिद्धांत और सोपान हैं, जितने चरण और आचरण-शैलियाँ हैं, उन सभी का प्रतिपादन साहित्य ने ही किया है। स्वप्नदृष्टा रचनाकारों ने ही इस विश्व के बदरंग आँचल को बहुरंगी सितारों, गहन-गंभीर विचारों तथा मानवीय संस्कारों से इतना भर दिया है कि पूरा मानव-समाज साहित्यिक उपलब्धियों पर गर्वोन्नत तो है ही, उसकी रचनाधर्मिता के समक्ष पूरी श्रद्धा से नतमस्तक भी है।  

भारतीय सभ्यता व संस्कृति में तो वाङ्मय का स्थान, रचनाकारों का सम्मान सर्वाधिक उल्लेखनीय तथा प्रातःस्मरणीय रहा है। हमारे यहाँ तो कवि को मनीषी, स्वयंभू, परंभू का दर्जा दिया गया है। उसे प्रजापति के समकक्ष समझा गया है। क्योंकि साहित्यकार को ही समानांतर संसार रचने की शक्ति तथा सामर्थ्य किसी सत्ता व समाज ने नहीं, स्वयं प्रकृति ने दी है। यही वजह है कि साहित्य का प्रथम तथा अंतिम लक्ष्य मानव कल्याण ही है। लोक-रंजन तथा लोक-कल्याण का मार्ग जितना दिव्य है उतना ही कठिन भी। इसलिए इस मार्ग पर चलने वाले सदा-सर्वदा अल्प-संख्यक ही रहे हैं।

इस अवसर पर मुझे अपने पिताश्री की कही एक बात याद आ रही है। वे मानते थे कि हर व्यक्ति अपनी शैक्षणिक योग्यता, अपनी रुचि-अभिरुचि तथा अपने सामर्थ्य के हिसाब से कोई-न-कोई व्यवसाय, काम-धंधा चुन लेता है। दुनिया में साहित्य सृजन का कार्य ही ऐसा है जिसके लिए प्रकृति स्वयं व्यक्ति का चयन करती है। ऐसे प्रकृति द्वारा चयनित व्यक्ति ही बड़े रचनाकार व साहित्यकार बनने की क्षमता रखते हैं। उनके इस कथन को आपने भी स्वयंसिद्ध तथा साकार होते देखा व अनुभव किया होगा। इस सभागार में उपस्थित लगभग सभी सुधिजन इसी बौद्धिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह भी अटल सत्य है कि रचना-कर्म खांडे की धार पर चलने वाला कार्य है। एकांत-साधकों के भाग्य में ईश्वर ने सुविधाएँ कम तथा साधना अधिक लिखी है। वही वजह है कि संसार में वे सदा अभिनंदित रहे हैं।

साहित्य के समक्ष चुनौतियाँ तो हमेशा रही हैं। इतिहास के किसी भी काल-खंड में साहित्य एवं साहित्यकार के लिए सुविधाजनक स्थिति कभी नहीं रही। शब्द पर संकट के बादल हर समय, हर युग में रहे हैं। किंतु अग्नि-पथ पर चलने वाले इन शब्द-साधकों का जन्म ही झंझावातों को झेलने के लिए हुआ। प्रत्येक दुष्कर कार्य को आसानी से पूर्ण करने वाले सृजकों की जीवन-शक्ति, जिजीविषा तथा संघर्षशीलता ने ही समस्त विश्व की कालिमा तथा कलुष को समाप्त करने में महती भूमिका निभाई है।

आज हम इतिहास के सर्वाधिक संकटपूर्ण कालखंड से गुजर रहे हैं। स्थितियाँ पहले से हज़ार गुणा अधिक जटिल हो गई हैं। उदारीकरण, भूमंडलीकरण तथा उत्तर आधुनिकता के इस दौर में उपभोक्ता-संस्कृति अपने चरम पर है। मानव-मूल्यों का क्षरण तथा मानवीय संबंधों के दरकने की गति हम सभी को शोकाकुल करने लगी है। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद ने तो इस कोढ़ में खाज का काम किया। पूरा परिवेश कुंठा, जुगुप्सा तथा आक्रोश की अग्नि में जलता हुआ प्रतीत हो रहा है। सामान्य जन की विवशता, विकलता तथा निरीहता देख कर ईश्वर भी विचलित होने लगा होगा। पूरा विश्व महामारी से त्रस्त, युद्धों से ग्रस्त अमानवीयता के ऐसे मुहाने पर खड़ा है, जहाँ से वापस लौटना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।

ऐसे माहौल में साहित्य तथा साहित्यकार का दायित्व कई गुणा बढ़ जाता है। केवल शब्द ही है जो हिंसा का प्रतिकार कर सकता है। शब्द की सत्ता ही निरकुंश सत्ताओं को दृष्टि-संपन्न कर उन्हें मानवीयता के सही मार्ग पर ला सकती है।

अपने आसपास के परिवेश पर जरा-सी दृष्टि डालेंगे तो ये अंतर्विरोध स्पष्ट दिखाई देंगे। समाज में संवेदनशीलता का स्तर अपने निचले बिंदू को छू रहा है तो अनास्था व उद्दंडता खतरे के निशान को पार कर चुकी है। सामाजिक विसंगतियाँ तथा विद्रूपताएँ नई-नई शक्लों में, नये आवरणों तथा नवीनतम रूप में ढल रोज हमारे समक्ष हमारी अस्मिता को ललकारती हैं। ऐसे में प्रत्येक साहित्यकार का दायित्व है कि समाज में संवेदनशीलता की लुप्त हुई सरस्वती को पुन: जीवित करे। संकीर्णता के स्थान पर उदार तथा मानवीय मूल्यों को संवर्द्धित करने का प्रयास करे।

साहित्यकार तो आमजन का वास्तविक प्रवक्ता होता है। वही आम आदमी के सुख-दुख, आशा-निराशा, उसके स्वप्न तथा उसकी आकाक्षाओं का राजदूत समझा जाता है। उसी के कान गूँगों की चीख सुनते हैं तो उसकी आँख रौशनी के मूल में तैरते तमस का दर्शन करती है। वही है जो आज के युग के छल-छद्म को निरावृत कर सच्चाई को सामने ला सकता है। इसलिए सभी रचनाकारों, साहित्यकारों की भूमिका पहले से अधिक जोखिम भरी होने के बावजूद ऐतिहासिक भी है। आखिर शब्द में परिवर्तनकारी मंत्र भरने की शक्ति एक साहित्यकार में ही तो होती है। आज का समय शंखनाद कर रहा है कि तमाम जटिलताओं से मुक्ति पाने के लिए लेखक शब्दों का सार्थक सदुपयोग करे। शब्द यदि ब्रह्म है तो नई सृष्टि की रचना के लिए उसका आवाहन किया जाना चाहिए। विशृंखल समाज की एकता और दृढ़ता के लिए उसका समय आ गया है। कहा जाता है कि समय और समाज जितना जटिल और विद्रूप होता है, शब्द का दायित्व उतना ही बढ़ जाता है। लेखकों को राष्ट्रहित में रचनात्मक शब्दों के व्यवहार का उपयोग करना चाहिए, उसका समय आ गया है। 

इस अवसर पर मैं अपने सभी अग्रज साहित्यकारों, रचनाकारों तथा कवियों का भी हार्दिक आभारी हूँ, जिनको पढ़-पढ़ कर ही कुछ सीखने और समझने का मौका मिला। यह मेरा सौभाग्य रहा कि मेरा पेशन तथा प्रोफेशन पठन-पाठन से संबंधित संस्थानों से रहा। देश की विभिन्न साहित्य अकादमियों से संबद्ध रहने की वजह से मुझे बड़े गुणीजनों का सानिध्य एवं मार्ग-दर्शन सहजता से प्राप्त होता रहा। पूरे भारत की सभी भाषाओं के साहित्य को समझने, उन्हें बड़े करीब से परखने का ईश्वर-प्रदत्त अवसर मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलिब्ध रही है। देश का हर रचनाकार, चाहे वह किसी भी भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त करता हो, देश के किसी भी भू-भाग में रहता हो, किसी भी विधा में लिखता हो, उसका मन-मस्तिष्क एक ही तरह से उद्वेलित होता है, जहाँ भी अन्याय, अनास्था तथा अत्याचार देखता है, पूरी शिद्दत से उसका प्रतिरोध करता है। अपने समय तथा समाज के यथार्थ को अपनी रचनाओं के माध्यम से सामने लाने का भरपूर प्रयास करता है। पूरी ईमानदारी तथा रचनात्मक निष्ठा के साथ समाज में गुणात्मक परिवर्तन लाने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। उसकी कलम आज भी मशाल की तरह समाज के हर अँधेरे-कोने की खाना-तलाशी लेती है और लेती रहेगी।

आज इस अवसर पर मैं ‘नई धारा’ परिवार का पुनः आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने मुझ जैसे सामान्य रचनाकार को सम्मानित किया। साहित्य व सृजन में केवल और केवल ‘नई धारा’ जैसी संस्थाएँ ही सारी जड़ता तथा संकीर्णता को अपने साथ बहा ले जाने की क्षमता रखती हैं। 

एक बार फिर आप सभी का हार्दिक धन्यवाद। आभार!

(5 नवंबर, 2023 को नई दिल्ली में दिया गया उन्नीसवाँ उदय राज सिंह स्मारक व्याख्यान)


माधव कौशिक द्वारा भी