साहित्य में नैतिकता की समस्या

साहित्य में नैतिकता की समस्या

हितेन साहितं, सहितं सहितस्य भावं साहित्यं, इस विग्रह से स्पष्ट है कि साहित्य वही है जो ‘हित’ की भावना से सन्निहित हो। यद्यपि मनुष्य और पशु-पक्षी भी हित-चिंतन करते हैं तथापि उनका हित-चिंतन संकुचित एवं ‘स्व’ पर आधारित होता है, जबकि साहित्य का हित-चिंतन विश्वात्मक और विश्व-कल्याण की भावना पर आधारित होता है। एक व्यक्तिगत हित-चिंतन है और दूसरा समष्टिगत हित-चिंतन। अतः जिस ग्रंथ में समष्टिगत हित-चिंतन प्राप्त होता है वही साहित्य है। ‘साहित्य’ के एक ही शब्द में वह गरिमा निहित है जिसमें कविता, नाटक, उपन्यास, गद्य, काव्य, निबंध, आलोचना आदि सभी का अस्तित्व सम्मिलित है। साहित्य के अंतर्गत वैज्ञानिक साहित्य भी सम्मिलित है और नैतिकता का बल पाकर ही वह समाज का कल्याण करने में सफल हो सकता है। समष्टिगत हित-चिंतन की भावना से मंडित ज्ञान राशि के अंतस्थल में नैतिकता का प्रबल समर्थन होना स्वाभाविक है। हित का नैतिकता से गहरा संबंध है और हित साहित्य का मूल बिंदु है। अतः यदि साहित्य हित की भावना पर निहित है तो उसे अवश्य नैतिकता का सहारा लेना होगा तभी वह विशुद्ध साहित्य कहलाने का श्रेय प्राप्त कर सकता है। स्पष्ट है साहित्य का उपदेश (जो कान्ता सम्मति होता है) और उसका उद्देश्य (जो समाज कल्याण और शिव से विभूषित होता है) अवश्य नैतिकता से समन्वित होगा। यदि नहीं तो प्रश्न उठता है कि ऐसा अनैतिक साहित्य कैसे समाज का हित कर सकता है? कैसे समाज में न्याय, सत्य, धर्म की प्रतिष्ठा स्थापित कर सकता है? समाज को नीति के मार्ग पर चलने की सम्मति कैसे प्रदान कर सकता है? कैसे व्यक्ति विशेष की अनेकानेक समस्याओं का समाधान कर उसे स‌द्मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा दे सकता है? संदेह नहीं साहित्य में नैतिकता का अपना एक विशिष्ट स्थान है। नैतिकता सामाजिक मूल्य है और साहित्य सामाजिक मूल्यों की अभिव्यक्ति। साहित्य अब जीवन से पृथक् कोई वस्तु नहीं। जन-जीवन पर स्थायी प्रभाव स्थापित करने के लिए साहित्य में नीति का समन्वय आवश्यक है। यह ठीक है कि साहित्य हमारे हारे-थके मन के लिए मनोरंजन का साधन भी बनता है परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं कि साहित्य केवल मनोरंजन की वस्तु रह जाती है। यदि ऐसा हो तो बंदरिया के नाच एवं ताश के खेल और साहित्य पढ़ने में अंतर ही क्या रह जाता है? साहित्य का मुख्य लक्ष्य मानव को आनंदित एवं मंगलमय बनाना है। मात्र मनोरंजन से मन को कुछ क्षणों के लिए भुलाया जा सकता है पर शाश्वत प्रभाव नहीं डाला जा सकता और साहित्य का कर्तव्य है मानव-मन पर शाश्वत प्रभाव डालना। मर्यादित साहित्य शाश्वत की शक्ति से विभूषित होता है। यहाँ हमें जान लेना होगा कि नैतिकता से तात्पर्य है जो नीति में विभूषित हो और आदर्श की ओर संकेत करता है।

साहित्य में नैतिकता की समस्या हमारे समक्ष अनेक प्रश्नों को उत्पन्न कर देती है। जैसे साहित्य नीति को किस रूप में ग्रहण करता है? नीति के प्रति साहित्यकार का कैसा दृष्टिकोण होता है? नैतिकता की आधार रेखा में साहित्य ने स्वयं को किन-किन रूपों में अभिव्यक्त किया है? साहित्य की विशिष्टता किसमें है? इत्यादि।

नैतिकता की दृष्टि कोई शाश्वत दृष्टि नहीं। यह समाज, देश, परिस्थिति, काल के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। साहित्य नीतिशास्त्र या धर्मशास्त्र नहीं जो ‘ऐसा करो’ या ‘ऐसा नहीं करना चाहिए’ आदि पर प्रत्यक्ष व्याख्यान उपस्थित करे। वह तो अपने प्रभाव से व्यक्ति एवं समाज को इस ओर आकर्षित करता है, इंगित करता है। व्यक्ति-व्यक्ति में एक ऐसी नव-किरण की आभा उत्पन्न करता है कि वह स्वयं जान जाता है कि उसे अमुक कार्य करना है, करना चाहिए और अमुक कार्य नहीं। विशुद्ध साहित्य में नैतिकता की यही पृष्ठभूमि होती है। यह तो सर्वविदित है कि साहित्य में शुभाशुभ का विचार अपेक्षित ही नहीं वरन् अत्यावश्यक है। और जब हम शुभाशुभ के प्रश्न पर विचार करते हैं तब उत्तर सूझता है कि शुभ अथवा मूल्यवान वही हैं जो ऐसी अनुभूति प्रदान करे जिसके द्वारा हमें संतोष तथा शक्ति का पूर्ण आभास प्राप्त हो सके। इसी स्थान पर नैतिकता का जन्म होता है। इस दृष्टि से साहित्य का ध्येय ऐसी मूल्यवान अनुभूतियों का वरदान है जो अधिकाधिक विस्तार के साथ हमें प्रेरित करे और हमारी अन्य सहज अनुभूतियों को क्षति भी न पहुँचाए। यह ठीक है कि शुभाशुभ का विचार समय एवं परिस्थिति के अनुकूल या अनुसार परिवर्तित होता रहा है परंतु कुछ विचार एवं आदर्श ऐसे भी रहे हैं जिनकी मर्यादा उस समय तक बनी रही है जब तक समय जन-रुचि को परिवर्तित न कर दे। विशुद्ध साहित्य का कर्तव्य है कि यह समाज को जीवन-मूल्यों का स्मरण बराबर दिलाता रहे। इन मूल्यों का अवश्य नैतिकता से गहरा संबंध होगा। वास्तव में नैतिकता की नींव डालने वाले होते हैं हमारे साहित्यकार। वे ही हमारे अव्यवस्थित तथा विशृंखल मानस में ऐसी मधुर सुव्यवस्था बनाते रहते हैं कि जो भी प्रेरणा हमें मिलती है उनमें सफलता का सुमधुर प्रकाश अंतर्निहित रहता है। श्रेष्ठ अनुभूति की प्रेरणा में ही श्रेष्ठ जीवन का आधार स्थित है। ऐसी प्रेरणा में ही समाज का मंगल एवं उसका उचित पथ-प्रदर्शन संभावी है।

प्रतिभा अनुभूति को बिंबात्मक रूप में अभिव्यक्त करने की शक्ति और साहित्य हमारी अनुभूतियों का प्रतिबिंब है–ऐसा प्रतिबिंब जिसे हम दूसरों तक पहुँचा सकते हैं। अतः प्रत्येक साहित्यकार अपनी प्रतिभा एवं जीवन दर्शन के आधार पर ही नैतिकता को अभिव्यक्ति प्रदान करता आया है। इस दृष्टि से जब हम साहित्य के उद्देश्य या लक्ष्य पर विचार करते हैं तब हमें साहित्य में नैतिकता के प्रश्न पर दो प्रकार की प्रमुख विचारधाराएँ दृष्टिगोचर होती हैं :

(अ) ऐसे साहित्यकार जो साहित्य को जीवन के लिए मानकर साहित्य में नैतिकता का होना आवश्यक मानते हैं।

(ब) ऐसे साहित्यकार जो साहित्य को सौंदर्य एवं मनोरंजन का साधन मानकर उसको नैतिकता से पृथक् होना आवश्यक समझते हैं। इसके अतिरिक्त एक ऐसा वर्ग भी है जो साहित्य में समन्वय की दृष्टि को रखकर चलता है। वास्तव में यह सब साहित्य में नैतिकता का प्रयोगात्मक रूप है। संक्षेप में ‘कला जीवन के लिए’, ‘कला कला के लिए’ एवं ‘कला जीवन और कला दोनों के लिए’ प्रश्न साहित्य में रहे हैं। अपने ललित कला के रूप में साहित्य कला का विशिष्ट अंग है। इसलिए पाश्चात्य क्षेत्र में साहित्य को कला के नाम से ही संबोधित किया गया है।

प्राचीन साहित्यकारों की नीति के प्रति आशावादी दृष्टि रही है। उन्होंने अपने ग्रंथों में नैतिकता की स्वर्णिम आभा बिखेरी है। यद्यपि उन्होंने यह कदापि प्रकट नहीं किया है कि व्यक्ति को ऐसा करना होगा; या वह ऐसा करे तथापि अपने विवरण में ऐसी झाँकियाँ प्रस्तुत की हैं कि पाठक के मन में स्वयं ‘ऐसा करना चाहिए’, ‘ऐसा नहीं करना चाहिए’ की शुभाशुभ भावना अंकित हो जाती है और वास्तव में साहित्य में नैतिकता का यही स्वरूप स्वीकार्य भी है। भारतीय प्राचीन काव्यों एवं ग्रंथों में चाहे वे संस्कृत के हों चाहे हिंदी के हों, नैतिकता का पुट अवश्य लक्षित होता है। महाकाव्यों में सदाचार एवं औचित्य की पीयूष धारा प्रवाहित हो उठी है। नैतिकता का महत्त्व इसी से स्पष्ट है कि भारतीय मनीषी काव्य की आत्मा रस मानते हैं और औचित्य की परिधि से काव्य-वृक्ष की शाखाओं के बाहर चले जाने पर वे रसाभास को संज्ञा दे देते हैं। क्या वाल्मीकि, क्या कालिदास, क्या वैदिक मनीषी, सभी ने नैतिकता का आदर किया है। तुलसी जैसे महाकवि ने अपनी अमर वाणी में स्पष्ट घोषणा की है :

‘कीरति भनिति भूति भलि सोई
सुरसरि सम सब कह हित होई।’

ऐसा लगता है कि मानो महाकवि ने सब ‘कंह हित होई’ में ही अपना नैतिक दृष्टिकोण व्यक्त कर दिया है। आधुनिक विद्वानों में शुक्ल जी साहित्य का जीवनोपयोगी होना आवश्यक मानते थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रगतिवादी एवं नीतिवादी साहित्यकारों एवं कवियों ने भी नैतिकता का महत्त्व स्वीकार किया है। प्रसाद, प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त आदि के नाम इस दृष्टि से शीर्षस्थ हैं। आदर्शवादी साहित्यकारों ने हमेशा पाप पर पुण्य की विजय दिखाकर शुभाशुभ की प्रेरणा व्यक्ति एवं समाज को समय-समय पर प्रदान की है। लेकिन इतना होने पर भी आधुनिक साहित्य का अधिकांश भाग (जो कि जनता में विशेष रूप से प्रचलित है) ऐसा है जिसमें नैतिकता के प्रति दूषित दृष्टिकोण अपनाया गया है। पाश्चात्य क्षेत्र में होमर का मस्तिष्क जिस गौरव गरिमा से (इलियड में) मंडित है वह नैतिक आदर्शों पर ही आधारित है। प्लेटो सत्यं एवं शिवं को महत्त्व प्रदान करता है। वस्तु शिक्षा अथवा नैतिक उद्देश्य अथवा आनन्द को काव्य का प्रयोजन घोषित करता है। परंतु अरस्तु के पश्चात साहित्य के उद्देश्य को लेकर दो वर्ग बन गए। एक ‘कला कला के लिए’ और दूसरा, ‘कला जीवन के लिए’। प्रथम वर्ग के अंतर्गत विक्टर ह्यगो, स्प्निगर्न, क्रोशे, पीटर ह्विसलर, ऑस्कर वाइल्ड, ब्रेडले आदि का विश्वास है कि कला (साहित्य) का अपना उद्देश्य अपने आप ही है। इसके अतिरिक्त किसी नैतिक प्रयोजन की पूर्ति काव्य में अप्रासंगिक है। शिलर, कॉलरिज, शैले आदि कला का उद्देश्य आनन्द मानते हैं। वे साहित्यकार नीति विरोधी तो नहीं परंतु नीति निरपेक्ष अवश्य हैं। दूसरा वर्ग वह है जो अपनी पुरानी परंपरा का अनुसरण करते हुए कला का जीवनोपयोगी होना आवश्यक मानता है। इनमें प्राचीन समय में होरेस, सत्रहवीं शताब्दी में मिल्टन और उन्नीसवीं शताब्दी में रस्किन ने अत्यंत प्रबल विचारों के साथ काव्य में नैतिकता का समर्थन किया है। बीसवीं शताब्दी में मार्क्स के अनुयायी कॉडवेल आदि ने भी जनमंगल को ही काव्य का उद्देश्य माना है। इसके अतिरिक्त एक तीसरा वर्ग ऐसा भी है जो समन्वय को बल प्रदान करता है और काव्य में मनोरंजन एवं जीवन-मूल्यों की समान उ‌द्घोषणा करता है। इनके अंतर्गत रोमानी मनीषी सिसरो, यूनानी आचार्य लांजाइनस, अठारहवीं शताब्दी में ड्राइडन, गेटे आदि और आधुनिक समय में इलियट, मैथ्यु आर्नल्ड ने भी इसी को स्वीकार किया है।

खेद है कि आधुनिक युग में साहित्य और नैतिकता की भावना के मध्य उत्तरोत्तर विरोध बढ़ता जा रहा है। सत्यं, शिवं, सुंदरं के निर्माण में प्रायः यह समझा जा रहा है कि नैतिकता बाधा उपस्थित करती है और साहित्यकार की प्रतिभा को कुंठित करती है। इन निगाहों के अनुसार नैतिकता उन लोगों का क्षेत्र होना चाहिए जो हमारे धर्म के ठेकेदार हैं अथवा समाज सुधार करने वाले नेता हैं, इस प्रकार का दूषित दृष्टिकोण साहित्य की प्रगति में बाधक ही नहीं अहितकर भी होगा।

पाश्चात्य सभ्यता का कुत्सित प्रभाव आधुनिक समय में हमारे साहित्य पर भी पड़ा है। ‘कला कला के लिए’ का शुष्क नारा एवं यथार्थवादी दृष्टिकोण की परंपरा पाश्चात्य प्रभाव की विडंबनाएँ तो हैं। आज ‘कला कला के लिए’ का समर्थक साहित्यकार समाज के प्रेमी और प्रेमिकाओं का सर्वांग सुंदर नग्न चित्र उपस्थित करके शायद अपने को धन्य समझता है और नवयुवक मंडली उसे पढ़ने में अपना श्रेय समझ बैठी है। अति यथार्थवादी साहित्य द्वारा सामाजिक कुरीतियों के दिग्दर्शन से, दुश्चरित्रों के नग्न चित्रण से, उसके गर्हित, घृणित एवं निंदनीय स्वरूपों के स्पष्टीकरण से समाज पर अच्छा प्रभाव पड़ने की अपेक्षा बुरा प्रभाव पड़ सकता है। और ऐसा साहित्य दुश्चरित्रों को सीखने का एक माध्यम बन सकता है। जो इस प्रकार के दुष्प्रभावों से विलग हों, संभव है वे भी उसकी ओर उन्मुख हो सकते हैं। माना यदि ऐसा न भी हो तो प्रश्न है कि इस प्रकार के साहित्य के लाभ क्या? जो वैद्य केवल मरीज के मर्ज को सामने रखकर छोड़ दे उस वैद्य से क्या रोगी का कल्याण हो सकता है? ऐसे ही लक्षण इस साहित्य के भी हैं। अतः ऐसा साहित्य नैतिकता विरोधी ही सिद्ध होगा और ऐसा साहित्य जो समाज के अनैतिक चित्रों को प्रस्तुत करने वाला है, साहित्य नहीं कहा जा सकता। साहित्य से तो सत्यं, शिवं, सुंदरं की रक्षा होनी चाहिए। आज के इस साहित्य का यदि समुचित दर्शन करना हो तो उसके लिए रेलवे का ‘बुक स्टॉल’ सबसे उपयुक्त है। उसका अधिकांश साहित्य रोमांचक, रहस्यमय, जासूसी, ऐन्द्रिक और चलती-फिरती भावनाओं पर आधारित मिलेगा। कुछ इधर-उधर दबी-दबाई शिक्षापूर्ण पुस्तकें भी होंगी जिन पर नजर कहीं देर में पड़ेगी और शायद ऐसे पाठक कम ही देखने को मिलेंगे जो ऐसी पुस्तकों की खोज कर रहे हों। स्पष्ट है कि आज साहित्य गंभीरता तथा समस्त संयम खोता जा रहा है।

आधुनिक व्यवसायी भौतिक सभ्यता ने साहित्य के मूल्यों को दूषित कर दिया है। धन लिप्सा की भावना ने साहित्य को बाजारू रूप देकर उसे क्रय-विक्रय की वस्तु बना दिया है। धीरे-धीरे हमारा मस्तिष्क शिथिल होता जा रहा है। हम साहित्य के महत्त्व को न समझकर पथभ्रष्ट होते जा रहे हैं। सिनेमागृहों, रेडियो, संगीतालयों, क्लबों की प्रवृद्धि देखने से हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि किस शीघ्रता से हम मूल विषयक सही विचारों से दूर होते जा रहे हैं। हमारी मूल विषयक धारणाएँ परिवर्तित होती जा रही हैं। आज जिस प्रकार की पुस्तकें लोकप्रिय हैं अथवा जिस प्रकार की पाक्षिक अथवा मासिक पत्रिकाएँ प्रकाशित होकर समाज में रुचिकर होती जा रही हैं उनसे स्पष्ट है कि हमारे मानसिक जगत में उथल-पुथल मच गई है। पता नहीं इस रास्ते पर हमें कहाँ पर चलकर रुक जाना होगा। वह साहित्य का कैसा स्वरूप प्रदर्शित करेगा। आज के व्यावसायिक जीवन ने हमें इतना व्यस्त एवं बोझिल बना दिया है कि आज पाठक ऐसा साहित्य पढ़ने में आनन्द लेता है जिसे ग्रहण करने में उसे जरा-सा भी प्रयत्न न करना पड़े। यद्यपि आज भी बहुत कुछ जीवनोपयोगी एवं गंभीर साहित्य की रचना की जा रही है परंतु व्यावसायिक सभ्यता के समयाभाव एवं व्यस्त जीवन में लोगों को ऐसी गंभीर पुस्तकों को पढ़ने का समय कहाँ? आज अधिसंख्य पाठक वर्ग की गंभीर साहित्य पढ़ने की शक्ति मानो छिन सी गई है। आधुनिक साहित्य एवं पाठक वर्ग की इस दीन-हीन दशा को देखकर किंचित आश्चर्य एवं गहरा क्षोभ होता है।

हमें ध्यान रखना होगा कि इस प्रकार का प्रचारवादी साहित्य जो नैतिकता की सबल पृष्ठभूमि से विलग है हमारे जीवन को न प्रभावित कर सकता है और न सफलीभूत। ऐसा हल्का एवं उच्छृंखल साहित्य हँसी-मखौल की तरह अस्थायी होता है। यदि कुछ प्रभाव उसका येन-केन-प्रकारेण पड़ भी जाता है तो वह बिल्कुल नगण्य होता है। नैतिकता एवं औचित्य की गरिमा से मंडित साहित्य ही वह महत्त्व रखता है जो हमारी मानवीय अनुभूतियों को तरंगित करता है। हमारी भावनाओं में जो समय की काई लग गई है उसे खरोंच फेंकता है। हमारे अनुभव जगत को विस्तृत एवं महान बनाता है, प्रेरणा देता है, जागृति के बीज बोता है। साहित्य का कर्तव्य ‘हित’ है और उच्छृंखल प्रवृत्तियों को बल प्रदान करके साहित्य अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं कर सकता। जो कर्तव्य का निर्वाह नहीं कर सकता उसका क्या स्वत्व एवं क्या स्थायित्व, कोई भी सुरक्षित नहीं। साहित्यकार एवं पाठकों को ऐसे साहित्य की ओर आकर्षित होना है जो उन्हें ‘क्या है’ से, ‘क्या होना चाहिए’, की प्रेरणा ज्योति प्रदान कर सके। आज साहित्य मानव और उसकी जागरूकता को चेतावनी दे रहा है।

किंतु आवश्यकता इस बात की है कि साहित्य में नैतिकता का समन्वय उतना ही किया जाय जितना कि साहित्य की औचित्य परिधि में उपयुक्त दृष्टिगोचर हो। उसका अतिरूप भी साहित्य की प्रभावाभिव्यंजकता एवं गंभीरता को विनष्ट कर देगा। ठीक भी है। ‘अति सर्वत्र वर्जयेत।’ अति नैतिकता में साहित्य शुष्क एवं अनाकर्षक बन जाएगा। वह साहित्य कम और नीतिशास्त्र अधिक कहलाने का श्रेय प्राप्त करेगा। अतएव साहित्य में नैतिकता का उचित समन्वय ही किया जाना चाहिए, बलात् अनुपयुक्त नैतिकता का बोझ लादना भी साहित्य की हत्या करना होगा। यहीं पर हमारा ध्यान साहित्य के समन्वयात्मक उद्देश्य की ओर केंद्रित होता है। इसमें संदेह नहीं साहित्य में नैतिकता एवं मनोरंजकता शिवं एवं सुंदरं का समुचित समन्वय ही साहित्य का विशिष्ट उद्देश्य होना चाहिए। इस रूप से साहित्य जितना आनन्दमय एवं सरस होगा उतना ही जीवनोपयोगी भी, जितना उच्छृंखल होगा उतना ही गंभीर भी, जितना यथार्थवादी होगा उतना ही आदर्शवादी भी, जितना सरल होगा उतना ही गूढ़ भी। और ऐसा साहित्य ही सच्चे अर्थों में समाज का प्रतिनिधित्व करेगा।

साहित्य का यह समन्वयात्मक रूप ही उसका विशिष्ट उद्देश्य परिलक्षित होगा। कोई भी साहित्य जो हमें यह आदेश दे कि हम सौंदर्य प्रेमी हैं तो हम सौंदर्य के क्षेत्र में जाएँ और नैतिकता प्रेमी हैं तो नैतिकता के क्षेत्र में जाएँ–वह हमारे व्यक्तित्व को दो टुकड़ों में विभाजित कर देगा। ऐसा साहित्य समाज के लिए कभी हितकर नहीं हो सकता। साहित्य को समन्वय का आश्रय लेना होगा, उसे सौंदर्योपयोगी एवं जीवनोपयोगी दोनों बनना पड़ेगा और सच्चे अर्थों में ऐसा समन्वय ही सोने में सुहागा का सम्मिश्रण होगा, मणि में कंचन का संयोजन होगा, जो साहित्य को द्विगुणित कर देगा। ऐसे साहित्य में ही समाज का पूर्ण कल्याण एवं हित निहित है, ऐसा साहित्य ही संपूर्ण जन-समाज का प्रतिनिधित्व कर सकने में समर्थ हो सकता है और ऐसा साहित्य ही देश, काल की परिधि से परे शाश्वत है; सत्यं, शिवं, सुंदरं की गरिमा से आलोकित है। हमारे लोक-साहित्य में भी नैतिक विचारों का पर्याप्त समावेश निहित है। प्रश्न इतना ही रह जाता है कि क्या समन्वय संभव है? समन्वय संभव ही नहीं, हो भी सकता है और इसके लिए कोरे सौंदर्य विलासियों को यह जान लेना होगा कि जो जीवन के लिए कल्याणकारी नहीं, वह आनन्द और सौंदर्य का विषय नहीं बन सकता। साहित्य का उद्देश्य नैतिक सौंदर्य की स्थापना है। सदाचार की साधना साहित्य में आनन्द के लिए ही तो की जाती है। दूसरी ओर नीतिवादियों को जान लेना होगा कि शुष्क नैतिकता का पुट साहित्य को नीतिशास्त्र की परिधि में धकेल देगा। अतः उन्हें मनोरंजकता एवं सौंदर्योपासना को अपनी नीति की आधारशिला पर सँजोए रखना होगा। स्पष्ट है यही समन्वयात्मक दृ‌ष्टिकोण साहित्य का विशिष्ट उद्देश्य है और इसी की प्राप्ति के लिए ही आधुनिक साहित्यकार एवं पाठक को अग्रसर होना पड़ेगा क्योंकि इसी गतिशीलता में व्यक्ति, समाज एवं साहित्य का कल्याण निहित है।


Image: the children’s story book
Image Source : WikiArt
Artist : Sophie Gengembre Anderson
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दयानन्द बटोही द्वारा भी