समकालीन हिंदी कहानियों में भूमंडलीकरण का प्रभाव
- 1 December, 2015
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समकालीन हिंदी कहानियों में भूमंडलीकरण का प्रभाव
भूमंडलीकरण शब्द आधुनिक युग की उपज है। यह शब्द लगभग सन् 1970 में प्रयुक्ति में आया है। विश्व के देशों को व्यापार और वाणिज्य की दृष्टि से निकट लाना ही इसकी संकल्पना है। हालाँकि, आधुनिक युग में हर देश किसी न किसी रूप में दूसरे देशों पर निर्भर होते हुए देखा जाता है, क्योंकि एक देश की उत्पादक आवश्यकताएँ पूर्णतः उस देश को परितृप्त करने की क्षमता नहीं रखती हैं। जिन वस्तुओं की कमी उस देश में पाई जाती है, उसकी पूर्ति के लिए उस देश को दूसरे देश पर निर्भर करना अनिवार्य होता है। इस प्रकार उत्पादकता और बाजारिकता की दृष्टि से विश्व के देशों को आपस में संबंध बनाए रखना आवश्यक होता है। देशों के आपसी संबंध उनके बीच के राजनीतिक संबंधों से जुड़े रहते हैं। अतः आर्थिक जरूरतों की पूर्ति हेतु विश्व के देशों के आपसी राजनीतिक संबंध अच्छे होने चाहिए। इसके द्वारा उत्पादन के करारों को सुनिश्चित कर पाएँगे। अतः यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि भूमंडलीकरण का संबंध प्रधानतया दो क्षेत्रों से हैं–वे हैं एक राजनीति क्षेत्र और दूसरा है आर्थिक क्षेत्र। इस आधार पर विश्व के देशों के बीच आपसी संबंध स्थापित होना ही नहीं, अपितु, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेशों का भी आपस में आदान-प्रदान होता है। एक तरह से भूमंडलीकरण उसे कहते हैं, जिसमें आर्थिक दृष्टि से विश्व के सभी देश आपस में जुड़ जाते हैं। लेकिन आपसी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विश्व के देशों को एक कुटुंब के रूप में जीने की परिकल्पना भारतीय संस्कृति में सदियों पूर्व ही दिखाई देती है। इसी को उस समय वसुधैव कुटुंबकम् कहा गया था। अतः विश्व के देशों के आपसी संबंधों की यह परिकल्पना नई नहीं है।
प्राचीनकाल में भारतीय संस्कृति में आर्थिक और राजनीतिक संबंधों से भी अधिक महत्त्व विश्व के देशों के आपसी मानवीय संबंधों को ही दिया गया था। आज के भूमंडलीकरण में मानवीय संबंध गौण और आर्थिक-राजनीतिक संबंध महत्त्वपूर्ण हो गए हैं। ‘भूमंडलीकरण को आज उपनिवेशवाद से जोड़कर देखा जा रहा है, जिसमें समस्त देश हिस्सेदार हैं। प्रभा खेतान के शब्दों में यदि कहना है तो भूमंडलीकरण वह प्रक्रिया है, जो वित्त पूँजी के निवेश उत्पादन और बाजार द्वारा राष्ट्रीय सीमा में ही वर्चस्वी नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सीमा से परे भूमंडलीय आधार पर निरंतर अपना प्रसार करना चाहती है। इसका निर्णय क्षेत्र सारी दुनिया है।’ (भूमंडलीकरण : धार्मिक समाज, पूँजीवादी समाज और राष्ट्र, पृ.-15)।
आधुनिक युग में भूमंडलीकरण का संबंध अर्थ और राजनीति से जुड़े रहने के बावजूद इसका प्रभाव हमारे देश के सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों पर पड़ रहा है। विभिन्न देशों के लोग आपस में मिलते जुलते रहने के कारण इनके सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विचारों पर आपसी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। यही कारण है कि आधुनिक युग में भूमंडलीकरण का प्रभाव व्यक्ति और समाज के सभी क्षेत्रों में परिलक्षित हो रहा है। इसके प्रभाव के कारण सामाजिक जीवन के तौर तरीके बदलते हुए दिखाई देते हैं। आज के भूमंडलीकरण के दौर में परंपरागत संयुक्त पारिवारिक व्यवस्था विघटित हो कर व्यष्टि परिवार में बदली गई। आज व्यक्ति विदेशों में अपने पैर पसार रहा है। आर्थिक समुन्नता पाने के लिए वह अपना घर परिवार छोड़कर अकेले जीने के लिए मजबूर होता जा रहा है। लंबे समय के लिए परिवार से दूर रहने के कारण परिवार के सदस्यों के आत्मीय संबंध भी बिखरते जा रहे हैं। अकेले रहने वाले व्यक्ति में समष्टि भावना समाप्त होकर आत्मकेंद्रित मानसिकता घर कर रही है। परिणामस्वरूप व्यक्ति विवाह जैसे बंधनों से अपने आपको दूर रख रहा है।
भारतीय समाज में वैवाहिक संबंध को एक पवित्र एवं सात जन्मों का बंधन होने का विश्वास है। विवाह विच्छेद जैसी भावनाओं के लिए भारतीय वैवाहिक व्यवस्था में स्थान नहीं था। लेकिन हाल में भूमंडलीकरण के परिणाम स्वरूप आर्थिक व्यवस्था में जो बदलाव आए हैं, उनका प्रभाव वैवाहिक व्यवस्था पर भी दिखाई दे रहा है। विवाह व्यवस्था की ये प्राचीन मान्यताएँ धीरे-धीरे समाप्त सी हो रही हैं। पाश्चात्य देशों की तरह आज विवाह को मात्र समझौता मानने की मानसिकता विकसित हो रही है। परिणाम स्वरूप विवाह विच्छेद, कॉन्ट्रैक्ट मैरेज, लिव इन रिलेशनशिप जैसी जीवन शैलियों को अपनाकर चलने में ही आज की युवापीढ़ी अपनी सुविधा देख रही है। उनमें परिवार तथा पारिवारिक मूल्यों की परवाह भी नहीं रह गया है। व्यक्ति के जीवन के सभी कार्यों में खुलेपन आने के कारण अश्लीलता एवं बद् व्यवहार का वातावरण फैलता जा रहा है। फलतः मूल्यों के प्रति व्यक्ति की आस्था समाप्त सी हो रही है। स्त्री पुरुष संबंधों को आज सिर्फ भौतिक संबंधों तक सीमित रखने की मानसिकता युवा में बढ़ती जा रही है। युवा पर भूमंडलीकरण के प्रभाव से उत्पन्न सुख-भोगी मानसिकता के कारण उनको विवाह जैसे पवित्र बंधन पर विश्वास नहीं रह गया है। वे प्यार तो करते हैं, लेकिन वैवाहिक जीवन में बंधने के लिए तैयार नहीं होते। इस प्रकार के विचार रखनेवाली युवा नारी की मानसिकता का चित्रण चेतना भाटी ने ‘नए समीकरण’ की पल्लवी द्वारा किया है। वह विवाह किए वगैर प्रेमी के साथ जीना चाहती है। माँ जब विवाह, पारस्परिक विश्वास, निष्ठा, प्रेम एवं पवित्रता आदि के बारे में उसे समझाती है, तो वह माँ से इस प्रकार कहती है कि–‘आप भी क्या दकियानूसी बातें लेकर बैठ गईं। हमें जिंदगी मिली है, जीने के लिए, मज़े करने के लिए न कि घुट घुटकर मरने के लिए’ इस प्रकार का वातावरण अधिकांशतः नगरों में और महानगरों की युवा पीढ़ी में दिखाई दे रही है।
सूचना प्रौद्योगिकी, बाजारी व्यवस्था आदि के कारण आज स्त्री और पुरुष बराबरी के साथ काम कर रहे हैं। ऐसे संदर्भों में इन दोनों के बीच में विवाहेतर भौतिक संबंध जोड़ने की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है। चाहे, वह विवाहिता हो या अविवाहित या विवाहित संतानहीन। वैवाहिक व्यवस्था में इस प्रकार सामाजिक नियमों से मुक्त होकर जीवन बितानेवालों का चित्रण नीलम कुलश्रेष्ठ की कहानी ‘सौगंधनामा’ में किया गया है। अपनी माँ के द्वारा विवाहिता और संतानवान व्यक्ति के साथ मैत्रीकरार संबंधों को जोड़ने का विरोध किए जाने पर रक्षिता का यह कथन विवाह के प्रति भूमंडलीकरण के प्रभाव की बाढ़ में बहती जा रही युवा पीढ़ी की ओर इशारा करता है–‘तुम मुझे बेवकूफ समझती हो, हमारी दोस्ती पर कानूनी मुहर लग गई है। तुम क्या जानों नये जमाने की बात है हजारों लड़कियाँ मैत्री करार कर रही है।’ इसी प्रकार विवाह को स्वतंत्र जीवन में बाधा माननेवाले युवक का चित्रण संतोष श्रीवास्तव ने ‘न मुहब्बत हो हमारी रूसवा’ नामक कहानी में किया है। इस कहानी के गौतम का विवाह के प्रति दृष्टिकोण इस प्रकार है–‘शादी एक तरह का धार्मिक बंधन है जिसमें केवल एक दूसरे से अपेक्षाएँ रहती हैं जो बाद में आपसी ऊब का कारण बनती है।’ यह भूमंडलीकरण से उत्पन्न उपभोक्तावादी मानसिकता ही है।
आज व्यक्ति को धन के प्रति अत्यधिक लगाव है। उसमें सुख-सुविधा भोगने की मानसिकता बढ़ती जा रही है। उनके मन में प्यार, आत्मीयता जैसी कोमल भावनाएँ नहीं रह गई। केवल अपनी जरूरतों को ही वह महत्त्व देता है दूसरों की उम्मीदों एवं अपेक्षाओं की परवाह उसे नहीं है। मात्र अपने कैरियर को महत्त्व देते हुए आत्मीयता रहित व्यवहार करने की मानसिकता आधुनिक युवावर्ग में पनप रही है। ‘कोई वर्जना नहीं’ नामक कहानी की निकिता द्वारा लेखिका स्वाति तिवारी ने पैसे को महत्त्व देनेवाली युवानारी का चित्रण किया है। निकिता का पार्टनर उससे शादी करना चाहता है, लेकिन वह उसके लिए तैयार नहीं होती। जब उसका पार्टनर उससे शादी का प्रस्ताव रखता है, तब वह उससे कहती है–‘मॉडलिंग की दुनिया में अभी तो मेरी दूसरी एड फिल्म बननेवाली है। शादी करके मैं अपना कैरियर…उसने मुझे पाँच फिल्मों में साइन किया है। जानते हो नए फ्लैट देनेवाले हैं! यह सब छोड़कर शादी?’
भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी परंपरागत तथा आदर्शपरक जीवन मूल्य है। यही संस्कृति भारत को अन्य देशों से अलग करती है। लेकिन भूमंडलीकरण के फलस्वरूप आर्थिक क्षेत्र के साथ-साथ सांस्कृतिक क्षेत्र में भी बदलाव आए हैं। परंपरागत मूल्यों से हटकर लोग अपनी जिंदगी जीने लगे हैं। पाश्चात्य संस्कृति का डेटिंग भारतीय संस्कृति पर हावी हो गया है। आज की पीढ़ी पारिवारिक संबंधों को कोई महत्त्व नहीं देती। परिवार के सदस्यों से झूठ बोलकर मन मर्जी से जीना चाहती है। स्वाति तिवारी की ‘आजकल’ नामक कहानी की नायिका प्रतिमा भी इसी प्रकार के विचार रखनेवाली है, वह घर से अलग होकर जीवनसाथी के साथ रहती है तथा मन में इस प्रकार अपनी प्रवृत्ति को याद करती है कि–‘माँ से झूठ बोलकर वह प्रणव के साथ सिंगापुर गई थी एनसीसी के बहाने। दिन और रात की डेटिंग थी वह।’ इस प्रकार आधुनिक पीढ़ी विवाह, परिवार, दांपत्य जैसे परंपरागत मान्यताओं को महत्त्वपूर्ण नहीं मान रही है। व्यक्तिवादी चिंतन का प्रभाव दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। धन कमाने तथा लाइफ को इंज्वाय करने को ही जीवन का अंतिम लक्ष्य समझा जा रहा है। इस प्रकार के विचार रखनेवाली युवानारी का चित्रण पूनम अहम ने ‘हाय बेचारी’ नामक कहानी में किया है। इस कहानी की नायिका रंजना अपने पति से वैयक्तिक समस्या के कारण अलग रहती है तथा पैसा कमाने के लिए अन्य पुरुषों के साथ प्रेम संबंध स्थापित करती है। समाज के लोग इसकी स्थिति देखकर उसे बेचारी कहते हैं, तो वह मन ही सोचती है–‘वह और बेचारी? बिल्कुल नहीं, वह तो लाइफ इंज्वाय कर रही है। कहाँ जरूरत है उसे पति नामक प्राणी की?’
आज नारी में भी आर्थिक रूप से स्वतंत्र रहने की इच्छा प्रबल हो गई है तथा इस कारण वे भी नौकरी करने लगी। वे घर, परिवार तक सीमित न रहकर जीवन के हर एक क्षेत्र में आगे बढ़ गई हैं। इस प्रकार वे स्वतंत्र रूप से सोचने लगी तथा घर परिवार से भी ज्यादा महत्त्व अपने कैरियर को देने लगी। आज उसका भारतीय परंपरागत जीवन मूल्यों के प्रति कोई आर्कषण नहीं रह गया। वह अपनी जिंदगी स्वतंत्र रूप से जीना चाहती हैं। वह अपने सौंदर्य को बढ़ाने में बाजार द्वारा उपलब्ध सभी चीजों का इस्तेमाल करती है। कंपनियाँ भी अपनी चीजों को बेचने के लिए नारी का उपयोग करती हैं। समाज में बदलती युवानारी की इस मानसिकता से उत्पन्न होनेवाले परिणामों से युवानारी को अवगत कराना साहित्यकारों का भी फर्ज बनता है। इसी फर्ज के तहत उर्मिला शिरीष ने ‘उसका अपना रास्ता’ कहानी में इस प्रकार के संबंधों के भावी परिणामों को प्रस्तुत किया है। इस कहानी की वृंद अपने सौंदर्य पर घमंड करते हुए अपने जीवन को खुद सँवारने का विचार रखती है, उसकी यही मानसिकता उसे गलत रास्ते पर ले जाती है। वह माँ-बाप को छोड़कर दिल्ली जाकर दोस्त के साथ रहने लगती है और उस कारण गर्भवती बन जाती है। लेकिन वह लड़का उसके साथ रहने से इनकार कर उसे छोड़कर चला जाता है, तो उसके जीवन में सिवाय पाश्चताप के कुछ शेष नहीं रह जाता है। लेखिका ने उसकी मानसिक स्थिति को प्रस्तुत करते हुए आधुनिक भूमंडलीकरण से उत्पन्न परिस्थितियों का प्रभाव तथा परिणामों को इस प्रकार दर्शाया है कि–‘मैं कहाँ जाने के लिए निकली थी और कहाँ आ गई! सोचती हूँ क्यों मैंने उस पर भरोसा किया, तो स्वयं पर शर्म आती है। मैं अपनी बुद्धि से, अपने सौंदर्य से सब कुछ पा लेना चाहती थी मगर क्या मिला?’
आधुनिक युवानारी किसी भी प्रकार के बंधनों में बंधना नहीं चाहती। इसी कारण वे माता पिता की भी बातों की उपेक्षा कर स्वच्छंद रूप से जीना पसंद करती हैं। वही बाद में विवाह जैसे बंधनों को भी तोड़ने की मानसिकता बनाकर जीवन को अशांतमय बना देती है। ऐसे ही युवानारी का चित्रण रजनी गुप्त ने ‘आवाजें’ नामक कहानी में प्रस्तुत किया है। इस कहानी की लड़की कोमल बचपन से माँ बाप की बातों को नज़र अंदाज करते हुए उच्छृंखल रूप से जीने की आदी होती है, इसी उच्छृंखलता वश किसी लड़के के साथ रहने लगती है। लेकिन जब वह अन्य लड़कियों के साथ उस लड़के के संबंध जोड़ने की बात सुनती है, तो वह इस तरह पीड़ाग्रस्त हो जाती है कि–‘दरअसल उसने किसी और लड़की के साथ भी सालों से अफेयर चला रखा था जिससे अगले महीने वो शादी करनेवाला था। एक साथ दो-दो जगह मुँह मारनेवाला कैसा बंदा था ये? ओफ जीवन का कितना दर्दनाक, कितना बदसूरत हादसा घटा था ये मेरे साथ जिससे खूब जाँच परखकर शादी करने को सोचा था।’
इस प्रकार भूमंडलीकरण का प्रभाव युवा पर अधिक हावी होते हुए पाया जाता है। आर्थिक दृष्टि से तो भूमंडलीकरण से लाभ हैं। लेकिन इसके अनेक दुष्ट परिणाम हैं जैसे–परंपरागत पारिवारिक, वैवाहिक व्यवस्थाओं का टूटन, सांस्कृतिक मूल्यों में गिरावट, मानवीयता का हनन आदि। इस प्रकार आज की युवा पीढ़ी में जीवन की परिभाषा बदल गई है और साथ-साथ स्त्री पुरुष संबंधों का अर्थ भी बदल गया है। भौतिक सुख की दौड़ में आज की आधुनिक पीढ़ी ने विवाह को एक आड़ा मान लिया है। भूमंडलीकरण के प्रभाव में आई भारतीय सामाजिक व्यवस्था के भविष्य के प्रति संदेह पैदा हो रहा है। इस संदर्भ में अमित कुमार सिंह का यह कथन स्वीकार योग्य है कि–‘वैश्वीकरण ने प्राचीन एवं परंपरागत भारतीय समाज की बुनियादी आस्था को हिलाकर रख दिया है। भारत में व्यक्ति, परिवार, समाज और संस्कृति के समक्ष पुनर्परिभाषा का संकट उत्पन्न हो गया है। भूमंडलीकरण ने भारत में समाज व संस्कृति के प्रत्येक पहलू को प्रभावित किया है। इन परिवर्तनों में कभी भविष्य के खतरे की आहट सुनाई देती है तो कभी इसमें एक नए भविष्य गढ़ने का सुखद अहसास परिलक्षित होता है।’
Image : Raja ravivarma painting 50 historic meeting
Image Source : Wikimedia Commons
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