समकालीन कविता में प्रतीक

समकालीन कविता में प्रतीक

प्रतीक का प्रयोग काव्य में निरंतर होता आया है और समय के अनुसार, युग अनुरूप वैज्ञानिक उन्नति, भूमंडलीकरण और बाजारवाद की विशाल छत्र-छाया में आज मानवता को हम एक कोने में पड़ी हुई वस्तु मान बैठे हैं। मुक्तिबोध, धूमिल, अज्ञेय इनकी  कविताओं में भी उस समय मानव के मन में बदलते रूपों को, हालातों को, आचरणों को, हम पाते हैं, जो मुक्तिबोध के ‘ब्रह्मराक्षस’, ‘रावण’, ‘ओराङ्ग-ओटाङ्ग’, धूमिल की ‘मोचीराम’, ‘रोटी और संसद’, ‘गाँव’ तथा अज्ञेय की साँप और आज के कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीप्रकाश मिश्र, बद्री नारायण, संजय पंकज, उमा शंकर चौधरी, मोहन कुमार डहोरिया आदि की समकालीन कविताओं में भी एक समानांतर बदलाव भाषा और प्रतीक के रूप दिखाई पड़ते हैं।

1) बद्री नारायण का काव्य ‘खुदाई में हिंसा’
2) संजय पंकज का काव्य ‘सोच सके हो’
3) उमाशंकर चौधरी का काव्य ‘तब शहंशाह सो रहे थे’
4) मोहन कुमार डहोरिया का काव्य ‘न लौटे फिर कोई इस तरह’

इन तमाम कवियों ने प्रतीक योजना में अपनी सुंदर पहचान दर्ज कराई है। इन कवियों के काव्य में दोनों प्रकार के प्रतीक-प्राचीन (परंपरागत) और नवीन मिलते हैं। नवीन प्रतीकों के व्यवहार में हम इन आधुनिक कवियों को मुक्तिबोध की काव्य-परंपरा में ही पाते हैं, पर मुक्तिबोध, धूमिल के साथ इन सारे कवियों ने भी पौराणिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, प्राकृतिक, सामाजिक वातावरण से उभरे दिखाई देते हैं, जबकि मुक्तिबोध की कविताओं में मिथकीय प्रतीकों की अधिकता अधिक है।

मुक्तिबोध के प्रतीक उनकी निजी दृष्टि से प्रेरित हैं। उनके प्रतीकों की यह विशेषता है कि कहीं पर भी उनमें जाटिल्य नहीं है। प्रतीक के समझ में नहीं आने पर भी उनकी कविता का मर्म समझने में कठिनाई नहीं आ पाती। उनकी कविताओं में प्रतीक आए हैं किंतु कहीं पर भी कविताएँ प्रतीक बनकर नहीं रह गई हैं। मुक्तिबोध ने कविता को अपने सार्थक और मौलिक प्रतीकों के द्वारा कलात्मक सौंदर्य, गहराई और सांकेतिकता प्रदान की है। मुक्तिबोध की कविताओं में वर्तमान के वैज्ञानिक एवं मौलिक तथा भूतकाल के पौराणिक प्रतीकों का भी प्रयोग पर्याप्त मात्रा में है। वस्तुतः उनके प्रतीक सुनियोजित सुव्यवस्थित सटीक होते हैं। वे अपने फैंटेसी को प्रतीकों के माध्यम से स्पष्ट करते हैं और प्रत्येक प्रतीक का मानवीकरण कर उन्हें सौष्ठव प्रदान करते हैं।

रावण के पौराणिक प्रतीक द्वारा वे यह स्पष्ट करते हैं कि हमारा मन भी जो काठ के रावण की तरह व्यक्तित्व की प्रतिमा बनकर रह गया है, जो परंपराओं को स्वीकार करता हुआ खोखला होकर रह गया है, उसे अब जला देना चाहिए ताकि उसे जलाकर हम अपनी रिक्तता को समाप्त तो कर सकें और वास्तव की पहचान कर मात्र दृष्टा न रहकर और भी कुछ बन सकें। काठ के रावण के प्रतीक द्वारा उन्होंने यह भी बताया है कि आज प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति कागज और बाँस के बने रावण के पुतले सरीखी ही हास्यास्पद है–

‘सब तरफ अकेला
शिखर पर खड़ा हूँ।
लक्ष मुख दानव-सा, लक्ष हस्त देवा-सा
परंतु यह क्या
आत्म प्रतीति ही धोखा दे रही!
स्वयं को ही लगता हूँ पट्ठों के
बाँस का कागज के बने हुए
महाकाल रावण-सा हास्यप्रद भयंकर।’

(लकड़ी का रावण, पृ.-172)

(मुक्तिबोध की प्रतिनिधि कविताएँ : संपादक-अशोक वाजपेयी) इसी प्रकार ‘ब्रह्मराक्षस’ भी एक पौराणिक प्रतीक है जो अतृप्त और अचेतन मन के प्रतीक रूप में प्रयुक्त हुआ है। हमारे समाज के वर्तमान बुद्धिजीवी भी ब्रह्मराक्षस की तरह अहम का शिकार है जो विश्व की प्रत्येक अच्छी या बुरी घटित घटना को स्वयं के लिए ही घटित घटना मानने की भूल करता है। आज के भ्रमित बौद्धिक मानव के थोथे एवं झूठे अहंकार का सुंदर चित्रण तथा उसकी भ्रमपूर्ण स्थिति का आकलन मुक्तिबोध ने किया है–

‘पथ भूलकर जब चाँदनी
की किरण टकराये
कहीं दीवार पर–
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
चंदना की चाँदनी ने
ज्ञान गुरु माना उसे।’

(ब्रह्मराक्षस, पृ.-121)

‘औराँग-उटाँग’ कविता में मनुष्य की अविकसित एवं भयानक प्रवृत्तियों का प्रतीक बनकर मुक्तिबोध की कविता में आया है। आज का मनुष्य कहने को तो सभ्य एवं सुसंस्कृत है किंतु वास्तव में उसने मुखौटे-दर-मुखौटे चढ़ा रखे हैं जो उसकी असलियत को प्रकट नहीं होने देते। वास्तव में आज मानव वही असभ्य और जंगली आदतों वाला है जैसा कि औराँग-उटाँग के बड़े-बड़े नाखून आज के मनुष्य के हीन, नीच एवं जघन्य कार्य तथा मानवता का नास करने वाले खौफनाक अस्त्र-शस्त्र के ही प्रतिरूप हैं और शोषण दमन के सहारे अपने अहं की तुष्टि करने की आदत ही उसकी पूँछ है। वास्तव में यह मानव की बर्बरता, नीचता, दमनकारी आदतों एवं झूठे कार्यों का ही प्रतीक है–

‘दीखती है सहसा
अपनी ही गुच्छेदार पूँछ
जो कि बनती है कविता
अपने ही बड़े-बड़े दाँत
जो कि बनते हैं तर्क।’

मुक्तिबोध की सबसे लंबी कविता ‘अँधेरे में’ आज के मानव के संघर्ष की प्रतीक है। इस कविता में उनके जीवन का कच्चा-चिट्ठा है। इतिहास, समाज और स्वयं से लड़ी हुई लड़ाइयों का लेखा-जोखा है। खोखले या बेहूदे प्रतीक मुक्तिबोध की कविताओं में नहीं है।

अज्ञेय के काव्य में प्रतीक :– प्रतीक लंबे-चौड़े अप्रस्तुत विषय को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने के सशक्त साधन हैं। अज्ञेय की रचनाओं का नामकरण ही प्रतीकात्मक है, उदाहरणार्थ ‘बावरा अहेरी’, ‘इंद्रधनुष रौंदे हुए ये’, ‘सौंदर्य छवि का,’ ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’, ‘हृदय के करुण रूप छन का’, ‘आँगन के पार द्वार’, ‘यायावरी मन का’, ‘कितनी नावों में कितनी बार’, ‘सागर मुद्रा’, ‘जीवन का रूप’, ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ’, मौन में अन्वेषण का प्रतीक है।

अज्ञेय ने नव्यत्म प्रतीक जैसे गधा, भैंस, ऊँट, कुत्ता आदि द्वारा आक्रोश को व्यंजनात्मक रूप में प्रकट किया है। द्रोणाचार्य, एकलव्य, बादल, दर्पण, चित्र, स्वप्न, नदी, द्वीप द्वारा नवीन संदर्भों की व्यंजना की है। धूमकेतु, पुच्छलतारा, टूटा-पहिया, नागफनी द्वारा आधुनिक मानसिकता को उजागर किया है। सागर, मछली, सेतु द्वारा नई भाव-भूमियों का साक्षात्कार कराया है। कुछ प्रतीकों के उदाहरण देखें–

(1)

यह कली
झुटपुट अँधेरे में
पत्नी थी देहात की गली
भोली भाली
नगर के राजपथ
दिपते प्रकाश में गई छली

(अरी ओ करुणा प्रभामय, पृ.-94)

(2)

साँप तुम सभ्य तो हुए नहीं।
पौराणिक प्रतीक :– अभिनव द्रोण किंतु कहता है–
‘वतछीर
धरो चाप
साधो तीर
धरती को विद्ध करो
अमृत सा कूपजल यहीं फूट निकले
और फिर चुपके से एकलव्य के नए कुएँ में भाँग डाल देना।’

(इंद्रधनुष रौंदे हुए ये)

मिथकीय प्रतीक :– असुर संहार के लिए अस्थि समर्पित करने वाले दधीचि का मिथकीय प्रतीक आधुनिक परिवेश में द्रष्टव्य है–

‘हथौड़ा अभी रहने दो
आओ हमारे साथ वह आग जलाओ
जिसमें से हम फिर अपनी अस्थियाँ बीनकर लाएँगे
तभी हम वह अस्त्र बना पाएँगे
जिसके सहारे
हम अपना स्वत्व बल्कि अपने को पाएँगे।’

यौन प्रतीकों में यौन-भावना के लिए गुलाब की लाल पंखुड़ियों का प्रतीकार्थ देखने योग्य है–

‘दो पंखुड़ियाँ झरी’
लाल गुलाब की तकती पियासी
पिया से ऊपर झुके उस फूल को ओठ ज्यों ओठों तले।’

यहाँ पंखुड़ियों का फूल को दृष्टिपात करना लालसा का प्रतीक है। प्राकृतिक प्रतीकों में सागर तट की सीपियाँ कुंठाओं का, केकड़ा तटस्थ मन का, सागर जीवन का, नदी समष्टि का, द्वीप व्यक्ति का, निर्झर करुणा का प्रतीक है। जिस प्रकार कविता का फलक व्यापक है, उसी प्रकार अज्ञेय की प्रतीक योजना भी विस्तृत है।

धूमिल का संपूर्ण लेखन समकालीनता को समर्पित है। समकालीन होना लेखक के लिए जरूरी है। धूमिल दूसरे प्रजातंत्र की तलाश करते दिखाई देते हैं। गाँव की यथार्थता को प्रतीक के रूप में दिखाते हुए कहते हैं–

‘वहाँ न जंगल है
न जनतंत्र
भाषा और गूँगेपन के बीच
कोई दूरी नहीं है
सोच में डूबे हुए चेहरों और
वहाँ की दरकी हुई जमीन में
कोई फर्क नहीं है।’

प्रजातंत्र की जनता की दुरवस्था और उसकी विडंबना दर्दनाक यथार्थ को प्रस्तुत करती है–

‘और यह मेरे देश की जनता है
जनता क्या है
एक शब्द
सिर्फ एक शब्द कुहरा
कीचड़ और काँच
से बना हुआ।’

(पटकथा, पेज-104)

धूमिल की प्रतीक योजना में कोई खोखलापन नहीं है। जैसे–

‘लगातार बारिश में भीगते हुए
उसने मैं जाना
हर लड़की
तीसरे गर्भपात के बाद
धर्मशाला हो जाती है
और कविता हर तीसरे पाठ के बाद।’

इस प्रतीक के द्वारा धूमिल कविता के खोखलेपन को दिखा रहे हैं न कि हर औरत के खोखलेपन और अवशता को। जब हम धूमिल की तमाम कविताओं से गुजरते हैं तो देखते हैं कि धूमिल की भाषा प्रतीक के रूप में आदमी के उसके अनुभवों को अनुभावित करने में सक्षम है। धूमिल व्यवस्था विरोधी हैं। वे मनुष्य के अस्तित्व की लड़ाई लड़ना चाहते हैं, जिसे वे अपनी कविताओं में प्रतीक के माध्यम से व्यक्त करते हैं–

‘जिंदा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर
या रंडियों की दलाली करके
रोजी कमाने में कोई फर्क नहीं है।’

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के प्रतीक या तो प्राकृतिक क्षेत्र से गृहीत हैं या सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश से, जिनमें विकृतियाँ हैं। इन्होंने ज्यादातर उन प्रतीकों को अपनाया है जो भूख, गरीबी, स्वार्थपरता, शोषण, व्यभिचार, आक्रोश, क्रांति आदि को व्यक्त करते हैं। ये प्रतीक अर्थ संप्रेषण में समर्थ होने के साथ-साथ परिवेशव्यापी विसंगतियों और विडंबनाओं को व्यापक रूपों में प्रकाशित करते हैं। भेड़ियों को सत्ता का, साँप को जहर उगलते व्यक्ति का, तेंदुआ को वर्तमान चेतना की पशुता का, बाज, बकरी, चीता आदि को भूख और गरीबी से लड़ने वाला सुंदर और संघर्षशील प्राणी के रूप में चित्रित किया है। ‘कुआनो नदी’ में आया कौआ शोषण का प्रतीक है।

‘इमारतें बढ़ती जा रही हैं
और दिलों का आकार छोटा होता जा रहा है।’

ये इमारतें बौद्धिक समृद्धि और विलास का दिलों का छोटा आकार मानवीय मूल्यों के विघटन का प्रतीक है। सर्वेश्वर कुछ प्रतीकों के माध्यम से क्रांति भावना को प्रकट करते हैं–

‘भेड़िया गुर्राता है
तुम मशाल जलाओ
उसमें और तुममें
यही बुनियादी फर्क है
भेड़िया मशाल नहीं जला सकता।’

भेड़िया पूँजीपति या शासक का प्रतीक है जो जनता के आक्रोश को गुर्राकर बंद कर देना चाहता है, लेकिन क्रांति और विद्रोह की मशाल से वह डरता है। यही मौलिक अंतर है भेड़िये और तुम में। सर्वेश्वर की कविता में निजी जीवन की व्यथा को, व्यवस्था-जन्य टीस को प्रस्तुत करने वाले प्रतीक भी उपलब्ध होते हैं।

‘टूटे वायलिन-सा एक कोने में पड़ा
बजता साज सुनता रहा
अपने ही मन के अथाह सूनेपन में
मकड़ी सा जाल बुनता रहा।

(कुआनो नदी, पृ.-230)

यहाँ पर अकेलेपन और सूनेपन को उभारा गया है। कुआनो नदी का अर्थ कुँए से निकली नदी। यह असंभाव्य है। प्रतीक मात्र है। यह जहाँ से निकली है, वहीं समाप्त हो जाती है। यह ग्राम्य संस्कृति की चक्राकार की स्थिति की परिचायिका है। आजादी के बाद जिसकी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं आया है। कुआनो नदी एक ऐसा ही प्रतीक है। नदी संस्कृति का, कीचड़ विकृति का, पाट संस्कृति के स्वरूप का, कगार अपरिवर्तित चेतना का प्रतीकार्थ है। संजय पंकज का नारीवाद आधुनिक नारीवाद से कुछ भिन्न तरह के प्रतीक को स्थापित करता है। जैसे–

‘पत्थर होती स्त्री
तो गंगा नहीं बहती
फूल नहीं खिलते
प्रकृति नाचती नहीं
और फैला-फैला आसमान
ज्ञानगीता नहीं बाँचता।’

सूर्य और चंद्रमा की गति से होड़ करती औरत की कर्मठता को कवि ने बहुत ही प्रगतिशील प्रतीक के रूप में चित्रित किया है–

‘औरत भागती है
आँगन, बथान, खेत, खलिहान
कभी बच्चे, कभी बूढ़े, कभी जवान
नदी, ताल, उदय, अस्त, उत्सव
धरती और आकाश तक की
दूरी तय करती है औरत रोज-रोज।’

 संजय पंकज आज के नारीवाद से भिन्न नारी की शक्ति की तलाश करते हैं।

गत तीन दशकों में भूमंडलीकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया के तीव्र होने के बाद हमारी समाजिकता और संबंधों के रूपों में भी परिवर्तन आ रहा है। इसे हम उमाशंकर चौधरी की कविताओं में देख सकते हैं। ‘सुजाता’ शीर्षक कविता में वे महानगरीय युवतियों की आकाक्षांओं को नए प्रतीकों के माध्यम से उजागर करते हैं। आज प्रेम की दुनिया भी बदल रही है।

‘वह ऐसे पुरुष को नहीं चाहती जो यह कह सके
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ और
तुम्हें पाने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ
बल्कि वह ऐसे पुरुष को चाहती है जो यह कह सके कि
तुम्हारी प्रतिभा अद्भुत है
मैं तुम्हारे साथ जीवन निर्वाह करना चाहता हूँ।
लड़कियाँ अब प्यार नहीं चाहती
वह चाहती हैं अब एक ऐसा जीवन साथी जिसके साथ
वह कदम से कदम मिलाकर दौड़ सकें।’

कवि देख रहे हैं कि ‘अब लड़कियाँ प्रेम में संघर्ष’ चाहती हैं।

‘अतः मेरी प्रेमिका को फुरसत नहीं है
सफल होने के लिए
फुरसत नहीं होना बहुत जरूरी है
और प्रेम को सार्थक बनाने के लिए
सफल होना बहुत जरूरी है
मेरे पास फुरसतों की कमी नहीं है।
इसलिए मैं अपनी प्रेमिका से
कुछ कम सफल हूँ
जबकि यह मैं जानता हूँ कि
यह कुछ कम सफल होना ही कहीं
मेरा प्रेम में पिछड़ जाने का कारण न बन जाय।’

इन कविताओं में प्रतीकों के माध्यम से एक छोटी कहानी को प्रस्तुत करते हैं। प्रेम चित्रण के इतिहास में अन्य कवियों से हटकर कवि मोहन डहेरिया प्रेम को प्रतीकों एवं बिंब के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। डहेरिया यथार्थवादी कवि हैं, वे प्रेम पाने के लिए किसी मरीज की तरह जादुई शक्ति को आमंत्रित नहीं करते हैं। वे भगवान का भरोसा नहीं करते हैं। वह प्रतिरोध के साथ प्रेम पाना चाहते है। ‘शेरों से घिरी गाय की तरह की पुकार में नहीं है विश्वास/इस तरह तो ईश्वर की दया के कटोरे में जा गिरूँगा/कटता हुआ प्रतिरोध की अपनी जमीन से’ (न लौटे फिर कोई इस तरह, पृ.-80) अपने काव्य संग्रह की ‘वह स्त्री और वह पुरुष’ कविता में वास्तविक प्रेम को प्रतीक के रूप में प्रकट करते हैं–

‘समाजशास्त्री कृपया बताएँ
जघन्य रूप में प्रेम विहीन कई वर्ष गुजारने के बाद
बचती है क्या पति-पत्नी के जीवन में ऐसी
चले जिस पर जब वे
उसकी आँखें न खोएँ साधारण चीजों को देखने की अपनी एकाग्रता
न लगे उनके मुँह से निकले शब्दों को भ्रम के झटके।’

(वही, पृ.-78)

‘न लौटे फिर कोई इस तरह’ काव्य संग्रह के कवि मोहन डहेरिया ने कविता में आवश्यकता तथा संदर्भानुसार प्रतीकों का प्रयोग कर भावों को पाठकों के लिए ग्राह्य बनाया है।

कवि बद्रीनारायण विस्थापन की पीड़ा से जुड़ी कविताओं में मानव के, पशु के, पक्षियों के दर्द को प्रतीक के माध्यम से व्यक्त करते हैं। अपनी ‘दो फॉक’ शीर्षक कविता में कवि आधे-अधूरेपन के दर्द को बड़ी ही मार्मिकता के साथ उजागर करता है, जो उसके गाँव या प्रदेश के प्रतीक को दिखाता है।

‘यह भोजपुर का क्षेत्र है श्रीमान्
बेकारी, नौकरी, प्रवास
यहाँ सब कुछ आधा है, सच में आधा
आधा कहीं छिपा पड़ा है
भाई का सीना आधा
माँ का कलेजा आधा
नोएडा, बॉम्बे, दिल्ली
या मॉरिशस, सूरीनाम।’

समाज की बढ़ती हुई हिंसा कवि को अंदर तक झकझोर कर रख देती है। वह चिंतित है कि

‘गाय के गोबर
और गंगाजल में
कब और कैसे पैठ गया है
हत्याओं का विचार
चिंतित है मेरी माँ।’

(‘माँ’ शीर्षक कविता से), संग्रह की कविता–‘खुदाई में हिंसा’ में कवि बार-बार सवाल करता है कि ‘ऐसी हिंसा कहाँ से आई–

भाषा में, वाणी में
मन में, भावों में और क्षीरसागर में एवं
ताल-तलैयों में
गाँवों में, नगर में एवं महानगर में
…सब जगह फैल गई है।

आज के साम्राज्यवादी समय पर कवि टिप्पणी करते हुए कहता है–

‘लाभ-लाभ हिंस्र लाभ
लाभ से हिंसा, हिंसा से बाजार
शुभ-लाभ के संचयन से हो बलि
बीच बाजार में ठोकता ताल
अकेले-दुकेले नहीं वह कइयों का समूह
बहुतों पर करता है राज
भूख, गरीबी, जलालत को विश्व बाजार में बेचता
बेचता रुलाई और उदासी को कला बाजार में।’

(गड़ेरिया कविता से)

श्रीप्रकाश मिश्र अपने ‘शब्द संभावनाएँ हैं’ नामक काव्य संग्रह की ‘सियार’ नामक कविता में सफल प्रतीक का प्रयोग करते दिखाई पड़ते हैं। यह एक प्रतीकात्मक कविता है। श्रीप्रकाश जी ने सियारों के आने की घोषणा मात्र से उत्पन्न दहशत भरे वातावरण का चित्रण किया है–

‘जब से घोषणा हुई है
सरकारी संचार माध्यमों पर
हँसी ने अपना भूमिका निभाना
बंद कर दिया है
सर्वत्र
हवा में उनकी गंध व्याप्त है।’

(शब्द संभावनाएँ है, पृ.–38-39, श्रीप्रकाश मिश्र युगीन को प्रतीक के द्वारा पेश करते हैं। अँधेर नगरी, अंधायुग, अँधेरे में, अँधेरे बंद कमरे आदि में अंधकार के सघन चित्र प्रतीक है। मुक्ति बोध ने अपने प्रसिद्ध कविता ‘अँधेरे में’ लिखा था–

‘अब तक क्या किया
जीवन बचा लिया।’

श्रीप्रकाश मिश्र लिखते हैं–

‘अब तक क्या किया है? और मेरा अंतस जबाव देता है, जिया है
सिर्फ जिया है।’

(वही, पृ.-59)।


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Artist : Henri Rousseau
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