सांप्रदायिक समस्या और प्रेमचंद

सांप्रदायिक समस्या और प्रेमचंद

भारतवर्ष के लिए सांप्रदायिकता की समस्या कोई नई चीज नहीं है। भारतीय समाज में यह समस्या लंबे समय से मौजूद है। यह अवश्य है कि समय-समय पर इसका स्वरूप बदलता रहा है और यह नए-नए रूपों में प्रकट होती रही है। भारतीय समाज की बनावट और अपने बदलते हुए स्वरूप के कारण सांप्रदायिकता आज राष्ट्रीय समस्या के रूप में अपनी जड़ें जमाकर फूल-फल रही है। आज यह देश की एकता और अखंडता के लिए चुनौती ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय अस्तित्व के सम्मुख प्रश्नचिह्न के रूप में खड़ी है। आज ही नहीं पूर्व काल से ही समय-समय पर इस समस्या के समाधान के लिए अनेक स्तर पर प्रयास हुए हैं, पर परिणाम सामने है–मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की। कुछ समय पूर्व तक सांप्रदायिकता को राजनीतिक समस्या के रूप में ही देखा जा रहा था। यह माना जा रहा था कि भारतीय राजनीति के बनते-बिगड़ते स्वरूप के कारण ही यह विकसित हो रही है। इसीलिए इस समस्या के समाधान के मार्ग भी उसी आधार पर ढूँढ़े जा रहे थे। इस क्रम में हम भूल जाते थे कि राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता और स्वार्थ के कारण ही सांप्रदायिकता की विष-बेल फैली है। यहाँ की राजनीति ने प्रारंभ से ही विभिन्न धर्मों-समुदायों और जातियों के बीच उनकी जनसंख्या के आधार पर अलग-अलग पहचान बनाने का कार्य किया है। इस कार्य में भारतीय समाज की बनावट सहायक रही है। जिस तरह के प्रयास ने इस समस्या को जन्म दिया, हम उसी के इर्द-गिर्द इसका समाधान ढूँढ़ते रहे। समस्या का मार्ग तो मिला नहीं, टकराव और अधिक बढ़ा और यह नए-नए रूपों में सामने आती रही।

सांप्रदायिक समस्या के स्रोतों पर विचार करते समय अक्सर साम्राज्यवादी सरकार द्वारा पैदा की गई समस्या कहकर इसका सरलीकरण कर दिया जाता है। यह माना जाता है कि साम्राज्यवाद ने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाकर और यहाँ के हिंदुओं और मुसलमानों को लड़ाकर अपना उल्लू सीधा किया। आज की सांप्रदायिक समस्या उनकी उसी नीति का परिणाम है। कुछ अर्थों में इस तरह की व्याख्या स्वीकार्य हो सकती है, पर साथ ही अनेक प्रश्न भी उठ खड़े होते हैं। क्या यह समस्या केवल साम्राज्यवाद की देन है? अगर इसके मूल में साम्राज्यवाद की विभेदक नीति ही थी तो यह अब तक क्यों बनी हुई है? अँग्रेजों के समय तक सांप्रदायिकता के नाम पर केवल हिंदुओं और मुसलमानों की समस्या थी, पर वर्तमान में इसका स्वरूप व्यापक हो चुका है। इसकी परिधि में कई और समस्याएँ भी खिंच आई हैं। आज विभिन्न संप्रदाय तो आपस में टकरा ही रहे हैं, भाषा, प्रांत, अंचल और ऐतिहासिक स्थल भी अब इससे अछूते नहीं रह गए हैं। जाहिर है कि सांप्रदायिकता के कुछ और स्रोत हैं।

अनेक इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, विद्वानों राजनीतिज्ञों की यह धारणा थी कि भारत विभाजन के पश्चात सांप्रदायिक समस्याएँ समाप्त हो जाएँगी, पर धीरे-धीरे यह धारणा क्षीण होती गई। इतिहास के बदलते हुए घटना चक्र ने इस धारणा को गलत साबित किया। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक विकास के साथ-साथ जहाँ इस समस्या को समाप्त होना चाहिए था, पर यह बढ़ती गई, उग्र और हिंसक होती गई। आज सांप्रदायिक सद्भाव के लिए अनेक स्तर पर प्रयत्नशील रहते हुए भी हम सफल नहीं हो पा रहे हैं। कभी देश का एक हिस्सा जल रहा है तो कभी दूसरा। कभी मंदिर-मस्जिद का विवाद उठ रहा है तो कभी ऐतिहासिक स्थलों और धरोहरों का।

सांप्रदायिक समस्याओं से टकराने के लिए ही संविधान में धर्मनिरपेक्षता (Secularism) शब्द लाकर ‘सेक्युलर स्टेट’ की व्यवस्था की गई। ध्यातव्य है कि यह शब्द संविधान में पहले से नहीं था। ‘भारत के संविधान में देश को एक प्रभुसत्तात्मक लोकतांत्रिक गणराज्य’ की संज्ञा दी गई है। इसमें धर्मनिरपेक्षता का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। भारतवासी पिछली लगभग तीन दशाब्दियों से धर्मनिरपेक्षता की बातें करते आ रहे हैं, फिर भी इसका कोई स्पष्ट और निश्चित अर्थ निर्धारित नहीं हुआ है। द ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी (1961) के अनुसार सेक्युलरिज्म शब्द का अर्थ है : ‘यह सिद्धांत कि वर्तमान जीवन में मनुष्य मात्र का कल्याण ही नैतिकता का एकमात्र आधार होना चाहिए, इसमें ईश्वर अथवा किसी भावी राज्य-सत्ता के प्रति आस्था से उत्पन्न किसी धारणा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।’ जाहिर है कि भारतीय परिप्रेक्ष में प्रारंभ में ही इस शब्द और इसकी धारणा पर प्रश्नचिह्न लग गए थे। धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा भारत के संविधान के अनुकूल नहीं है इसमें प्रत्येक नागरिक को आत्मा की स्वतंत्रता और धर्म पर आस्था रखने, उसका पालन और प्रचार करने की स्वतंत्रता दी गई है। भारतीय संविधान में जिस नाटकीय ढंग से धर्मनिरपेक्षता की व्यवस्था की गई और इसके माध्यम से जो कुछ किया गया, वह किसी से छिपा नहीं। सन् 1975 में आपातकाल की घोषणा के बाद संविधान के 44वें संशोधन के द्वारा स्टेट को सेक्युलर स्टेट घोषित किया गया। संविधान के प्रियेम्बल में इस शब्द का महत्त्व दिया गया परंतु आपातकाल में जो कुछ हुआ या आपातकाल के बाद जिस तेजी से शासक दल सांप्रदायिक हुआ, वैसा पहले कभी नहीं हुआ था।

इन तथ्यों से यह संकेत मिलता है कि सांप्रदायिक समस्याओं से टकराने के लिए हमने जिन हथियारों की खोज की वे कारगर साबित नहीं हुए। सोचा तो यह गया था कि इन प्रयासों से सांप्रदायिक समस्याओं का समाधान होगा, पर असफलता मिली। यह असफलता क्यों? एक ऐसा प्रश्न है जिसके उत्तर में इस समस्या का समाधान निहित है। इस प्रश्न पर सम्यक रूप से पुनर्विचार करने की आवश्यकता बनी हुई है। एक तरफ जहाँ इस समस्या के समाधान के लिए राजनैतिक स्तर पर प्रयास हो रहे हैं या हुए थे, वहीं दूसरी तरफ साहित्यकार भी इस समस्या के कारणों से टकराकर समाधान के मार्गों की तलाश करते रहे हैं। पहले भी कहा गया है कि सांप्रदायिक समस्याएँ विभिन्न कालखंडों में अलग-अलग रूपों में सामने आई हैं। इतिहासकारों ने इन समस्याओं, इनके फलस्वरूप घटित हुई घटनाओं और इनके परिणामों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रेखांकित किया है। यहाँ मैं जोर देकर कहना चाहूँगा कि यह रेखांकन केवल इतिहास की पुस्तकों में ही नहीं होता। साहित्यिक रचनाएँ भी अपने गर्भ में उस कालखंड को समेटे रहती हैं जिनमें उनकी रचना हुई है या जिस कालखंड की पृष्ठभूमि में वे लिखी गई हैं। अपने कालखंड का प्रतिनिधित्व करने के कारण रचनाओं में तत्कालीन स्थितियों-परिस्थितियों का चित्रण होना स्वाभाविक है।

युगीन समस्याओं से संपृक्त हिंदी कथा-साहित्य लेखन की व्यवस्थित शुरुआत प्रेमचंद से हुई है। उन्होंने अपने समय और समाज की सभी समस्याओं पर गंभीरता से विचार किया है। उनके ये विचार उनकी कथा रचनाओं, संपादकीय टिप्पणियों और लेखों में सुरक्षित हैं। प्रेमचंद ने पहली बार लक्ष्य किया कि सांप्रदायिकता किस तरह से संस्कृति का मुखौटा लगाकर सामने आती है। उसे अपने असली स्वरूप में सामने आने में शर्म लगती है इसलिए वह हमेशा संस्कृति की दुहाई देती है। प्रेमचंद का यह कथन आज भी प्रासंगिक है। आज भी इस परिप्रेक्ष्य में कहीं कोई बदलाव नहीं आया है।

प्रेमचंद के कथा-साहित्य का एक बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक समस्याओं के चित्रण से संदर्भित है। सन् 1907 से 36 तक सांप्रदायिक समस्याओं के क्षेत्र में जितने उतार-चढ़ाव आए थे सबको प्रेमचंद के कथा-साहित्य में देखा जा सकता है। सेवासदन, कायाकल्प, प्रेमाश्रम, कर्मभूमि, रंगभूमि, गबन, गोदान आदि उपन्यासों तथा पंचपरमेश्वर, विचित्र होली, जुलूस, मुक्तिधन, क्षमा, डिक्री के रुपये, मंदिर मस्जिद, लैला, न्याय, दो कब्रें, ईदगाह, जिहाद, तगादा, दिल की रानी, बौड़म जैसी कहानियों में प्रेमचंद ने मुख्यतः सांप्रदायिक समस्याओं को ही उठाया है। इन रचनाओं के हिंदू और मुसलमान पात्र धर्म-संप्रदाय के संकुचित दायरे से मुक्त हैं या हो गए हैं। वे अपने-अपने धर्म पर पूर्ण आस्था रखते हुए, दूसरे धर्म और धर्मावलंबियों को आदर की दृष्टि से देखते हैं। उनका यथोचित सम्मान करते हैं। हिंदू और मुसलमान आपस में किस प्रकार से घुलमिलकर रहते हैं, एक दूसरे की सहायता करते हैं, इसे ‘पंचपरमेश्वर’ कहानी में देखा जा सकता है। इस कहानी में हिंदू की पंचायत मुसलमान करता है और मुसलमान की पंचायत हिंदू। न्याय के पद पर बैठते ही दोनों व्यक्तिगत संबंधों को भूलकर निष्पक्ष निर्णय देते हैं। इसी तरह दूसरी कहानियों में भी प्रेमचंद ने जिस समाज की रचना की है, वहाँ सांप्रदायिक विद्वेष का नामोनिशान नहीं है। ‘बौड़म’ कहानी का मुख्य पात्र मोहम्मद खलील उर्फ बौड़म सांप्रदायिकता से कोसों दूर है। वह अपने घर होने वाली कुरबानी का विरोध करता है और सफल न होने पर प्रायश्चित स्वरूप गाय खरीद कर हिंदुओं में बाँटता है। ‘मुक्तिधन’ कहानी का रहमान नुकसान उठाकर भी गाय दाऊदयाल को दे देता है, कसाइयों को नहीं बेचता। ‘मंदिर और मस्जिद’ कहानी के चौधरी इतरत अली तो सांप्रदायिक सद्भाव की प्रतिमूर्ति हैं–यद्यपि चौधरी साहब पक्के मुसलमान हैं, फिर भी हिंदू धर्म उनके लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना इस्लाम। वे अपने घर को गाय के गोबर से लिपवाते हैं, गंगाजल का छिड़काव कराते हैं और गंगाजल पीते हैं। एक पंडित उनके बगीचे में नित्य दुर्गा का पाठ भी करता है।

इसी तरह से प्रेमचंद के उपन्यास भी अपने-अपने समय की सांप्रदायिक समस्या को पूर्णता के साथ उठाते हैं। ‘कायाकल्प’ में सांप्रदायिक वैमनस्य को तिक्त भाव से अनावृत करते हुए प्रेमचंद ने लिखा है–‘जरा-जरा सी बात पर दोनों दलों के सिरफिरे जमा हो जाते हैं और दो-चार के अंग-भंग हो जाते हैं। कहीं बनिये ने डंडी मार दी और मुसलमानों ने उसकी दुकान पर धावा बोल दिया। कहीं किसी जुलाहे ने किसी हिंदू का घड़ा छू लिया और मोहल्ले में फौजदारी हो गई। एक मोहल्ले में मोहन ने करीम का कनकौआ लूट लिया और इसी बात पर मोहल्ले भर के हिंदुओं के घर लूट लिए गए। दूसरे मोहल्ले में दो कुत्तों की लड़ाई पर सैकड़ों आदमी घायल हुए क्योंकि एक सोहन का कुत्ता था, दूसरा सईद का। निज के रगड़े-झगड़े सांप्रदायिक संग्राम के क्षेत्र में खींच लिए जाते थे। दोनों ही मजहब के नशे में चूर थे। सुबह को ख्वाजा साहब हाकिम जिला को सलाम करने जाते, शाम को बाबू यशोदानंदन। दोनों के देवताओं के भाग जगे। जहाँ कुत्ते निद्रोपासना किया करते थे, वहाँ पुजारी जी की भँग घुटने लगी। मस्जिदों के दिन फिरे, मुसलमानों ने अवाबीलों को बेदखल कर दिया। जहाँ साँड़ जुगाली करता था, वहाँ पीर साहब की हड़िया चढ़ी। हिंदुओं ने महावीर दल बनाया, मुसलमानों ने अली गोल सजाया। ठाकुरद्वारे में ईश्वर कीर्तन की जगह नबियों की निंदा होती, मस्जिदों में नमाज की जगह देवताओं की दुर्गति। ख्वाजा साहब ने फतवा दिया–जो मुसलमान किसी हिंदू औरत को निकाल ले जाए, उसे एक हजार हजों का सवाब होगा। यशोदानंदन ने काशी के पंडितों की व्यवस्था मँगाई कि एक मुसलमान का वध एक लाख गोदानों से श्रेष्ठ है।’ (प्रेमचंद, कायाकल्प, पृ. 205-206)

यह उपन्यास उस समय लिखा गया था जब देश में सांप्रदायिकता का नग्न नृत्य हो रहा था। छोटी-छोटी बातों को लेकर आए दिन हिंसा और उपद्रव का बोलबाला था। मुल्ला, मौलवी और पंडित लोगों को आपस में लड़ा रहे थे। इन्हीं के बहकावे में ख्वाजा महमूद और यशोदानंदन जैसे व्यक्ति आ गए और सारे पुराने संबंध भूलकर सांप्रदायिक हिंसा पर उतारू हो गए। परिणाम आगरा में दंगा। दंगे में यशोदानंदन की मृत्यु से ख्वाजा की आँखें खुल गईं। वास्तविकता से भिज्ञ होने पर वे मानवता का मार्ग पकड़ते हैं। प्रेमचंद की मान्यता है कि जब तक हिंदू और मुसलमान एक दूसरे की भावनाओं का आदर करना नहीं सीखेंगे, तब तक एकता संभव नहीं है। इन्हीं गुणों से युक्त होने के कारण उपन्यास में चक्रधर एकता के प्रतीक के रूप में सामने आता है।

सांप्रदायिक समस्याओं से मुक्ति के लिए प्रेमचंद आपसी मेलजोल और एकता की स्थापना को सबसे महत्त्वपूर्ण मानते थे। ‘कायाकल्प’ में उन्होंने यशोदानंदन की पत्नी के माध्यम से अपने इन्हीं विचारों को स्वर प्रदान किया है–‘नित्य समझाती रही इन झगड़ों में न पड़ो। न मुसलमानों के लिए दुनिया में कोई दूसरा ठौर-ठिकाना है, न हिंदुओं के लिए। दोनों इसी देश में रहेंगे और इसी देश में मरेंगे। फिर आपस में क्यों लड़ते मरते हो–क्यों एक दूसरे को निगल जाने पर तुले हो। न तुम्हारे निगले वे निगले जाएँगे, न उनके निगले तुम निगले जाओगे, मिलजुल कर रहो।’ (वही, पृ. 190) इसी प्रकार से ‘प्रेमाश्रम’ उपन्यास में प्रेमचंद ने यह दिखलाया है कि दोनों धर्मावलंबी आम जनता की समस्या एक है। साम्राज्यवाद और उसके सहयोगियों से हिंदू-मुसलमान दोनों परेशान हैं। आपस में लड़ कर इन समस्याओं से मुक्ति पाना असंभव है। हिंदू मुसलमान एकजुट होकर ही इस शोषण को समाप्त कर सकते हैं। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के मूल कारणों पर विचार कर यह साबित किया है कि हिंदू और मुसलमानों के आपसी सहयोग से ही इस देश का उन्नयन संभव है। उनके इसी संदेश की अनुगूँज गबन, कर्मभूमि, गोदान उपन्यासों में भी सुनाई पड़ती है।

सांप्रदायिक विवाद बढ़ाने के लिए अँग्रेजों ने जानबूझकर हिंदी-उर्दू का झगड़ा खड़ा किया। हिंदी हिंदुओं की भाषा है उर्दू मुसलमानों की यह कहकर वे भाषा को सांप्रदायिक रंग देना चाहते थे। इसका प्रभाव अनेक साहित्यकारों और जनता पर पड़ भी रहा था। अरबी-फारसी और संस्कृत के अधिकाधिक शब्दों का प्रयोग कर सांप्रदायिक मनोवृति के लोग भाषा को मजहबी रंग देकर अँग्रेजों का साथ दे रहे थे। प्रेमचंद ने इस प्रवृत्ति का खुलकर विरोध किया। मिस्टर नियाज के भाषा संबंधी प्रतिक्रियावादी तर्कों का उत्तर देते हुए प्रेमचंद ने 1930 के ‘जमाना’ में लिखा था–‘अगर मुसलमान उर्दू और फारसी के लफ्ज ठूँस-ठूँस कर उसे इस्लामी रंग देना चाहते हैं तो हिंदू भी उसमें हिंदी और संस्कृत के शब्द दाखिल कर उसे हिंदू रंग देने का इच्छुक हो सकता है। उर्दू न मुसलमान की बपौती है न ही हिंदू की। उसके लिखने और पढ़ने का हक दोनों को हासिल है। हिंदुओं का उस पर हक पहला है, क्योंकि वह हिंदी की एक शाखा है, हिंदी पानी और मिट्टी में उसकी रचना हुई है और कुछ थोड़े से अरबी और फारसी शब्दों के दाखिल कर देने से उसकी असलियत नहीं बदल सकती।’ (अमृत राय, प्रेमचंद : विविध प्रसंग, भाग-2, पृ. 361)

प्रेमचंद न तो अरबी-फारसी से बोझिल और न ही संस्कृतनिष्ठ हिंदी के पक्षधर थे। उनका विचार था कि भाषा का वही रूप सर्वश्रेष्ठ है जो आम जनता के व्यवहार में है। हिंदी और उर्दू के विवाद को समाप्त करने के लिए भाषा के इसी रूप को वे प्रतिष्ठित करना चाहते थे। प्रेमचंद ने उर्दू भाषा की वैज्ञानिकता की परख की थी और भाषिक संप्रदायवाद को समाप्त करने के लिए ही उन्होंने इस क्षेत्र में एक नया कदम उठाया था। इसका प्रमाण प्रेमचंद की भाषा है। प्रेमचंद भाषा के जिस रूप का विकास चाहते थे उसकी जानकारी इस टिप्पणी से मिल जाती है–‘जब उर्दू का एक अदीब अपनी कोई रचना ऐसे समाज के सामने पढ़ेगा, जिसमें हिंदी के लेखक शरीक हैं तो वह ऐसी भाषा लिखने की कोशिश करेगा, जो हिंदी वालों की समझ में आए। इसी तरह हिंदी का लेखक उर्दू के अदीबों की मंडली में अपनी भाषा को सुबोध रखने पर मजबूर होगा।’ प्रेमचंद पारस्परिक सहयोग से भाषा की मिलीजुली साहित्यिक शैली के विकास की आशा रखते थे और यही भाषिक विवाद को समाप्त करने का कारगर तरीका भी था।

प्रेमचंद हिंदी के पहले कथाकार हैं जिन्होंने सांप्रदायिक समस्या को युगीन परिप्रेक्ष्य में गहराई से समझा और अपनी रचनाओं द्वारा राष्ट्रीय जीवन के इस विष को नष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने अपने कथा-साहित्य के माध्यम से धर्म की अवहेलना नहीं अपितु धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्था प्रकट की है। उनका मत है कि प्रत्येक हिंदू अथवा मुसलमान अपने धार्मिक विश्वासों के अनुसार आचरण करते हुए दूसरे संप्रदाय के धार्मिक विश्वासों और मान्यताओं में हस्तक्षेप न करे। दोनों एक दूसरे के धार्मिक विश्वासों और मान्यताओं का आदर करें। प्रेमचंद ने हिंदू-मुसलिम संबंधों को मानवीय आधार पर प्रतिष्ठित करने का आग्रह किया है। इस आग्रह की अनुगूँज उनकी रचनाओं में साफ-साफ सुनाई देती है। प्रेमचंद के कथा-साहित्य का एक बड़ा भाग हमें यह सीख देता है कि दोनों संप्रदायों का कल्याण तभी संभव है जब दोनों एक दूसरे को भातृत्व के नजरिये से देखें और वैसा ही व्यवहार करें।


ओमप्रकाश सिंह द्वारा भी