कबीर और नागार्जुन की रचनाओं में व्यंग्य
- 1 August, 2016
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कबीर और नागार्जुन की रचनाओं में व्यंग्य
समय के बदलते तेवर के साथ कुछ विचारधाराएँ कभी धूमिल नहीं पड़ती बल्कि उनकी महत्ता समय के साथ सदैव बनी रहती है। मध्यकालीन कबीर और आधुनिककालीन नागार्जुन दोनों ने ही अपने समय में हो रही विद्रूपताओं पर व्यंग्य भरे स्वर में प्रहार किया है। कबीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ था जहाँ धार्मिक आडंबर, अंधविश्वास, जाति-पाति, सामाजिक पाखंड का बोलबाला था। ऐसे ही समय में कबीर ने जनता में मानवीय भावना भरकर भक्ति एवं मानवता के उच्चतर सोपान तक पहुँचाने का प्रयास किया। बहती हवा के रुख को बदल कर क्रांति की मशाल जलाना अपने आप में अत्यंत क्रांतिकारी कदम था जिसे कबीर ने हवा दी थी। कबीर के इसी क्रांतिकारी कदम को आगे बढ़ाने का प्रयास नागार्जुन की रचनाओं में भी दिखाई देता है। नागार्जुन ने अपनी रचनाओं में राजनीतिक समस्याओं, बेरोजगारी, आर्थिक शोषण को आधार बनाकर व्यंग्य भरे स्वर में जन मानस को सचेत करने का प्रयास किया है। कबीर और नागार्जुन के समय और रचनाकाल में अंतर होते हुए भी दोनों में समानता के अनेक बिंदु दिखलाई पड़ते हैं। कबीर के व्यक्तित्व और वैचारिक भावना के अंतर्गत बौद्ध दर्शन एवं सिद्ध और नाथों के हठयोग का प्रभाव देखा जा सकता है। वहीं बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व पर भी बौद्ध धर्म की छाप देखी जा सकती है। कबीर ने यायावरी वृत्ति को अपनाते हुए सधुक्कड़ी भाषा में समाज की विसंगतियों पर जबरदस्त प्रहार किया तो वहीं बाबा नागार्जुन ने भी देश-विदेश के भ्रमण के दौरान समकालीन विद्रूपताओं को अपनी रचना में स्थान देते हुए आर्थिक और राजनीतिक शोषण से पीड़ित जनता की कारुणिक स्थिति को उजागर किया है। कबीर और नागार्जुन के व्यक्तित्व में घुमक्कड़ी वृत्ति, भाषायी कौशल और समकालीन स्थितियों पर व्यंग्य जैसे समानता के सघन बिंदु के कारण ही एक दूसरे से निकट जान पड़ते हैं। इनकी यही निकटकता इन दोनों को एक दूसरे से जोड़ती है और कबीर-नागार्जुन के अध्ययन की व्यापक भावभूमि पर ले जाती है।
कबीर और नागार्जुन दोनों का जीवन संघर्षपूर्ण रहा। अपने इसी संघर्षपूर्ण जीवन से लड़ाई लड़ते हुए अपार साहस के साथ सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों पर व्यंग्यात्मक रूप से प्रहार किया है जो अत्यंत ही चुनौती भरा कार्य है। कबीर की इस पंक्ति को देखा जा सकता है–‘कबीर मेरी जाति कौ सब कोई हँसने हार/बलिहारी इस जाति की जिहि जपिये सिरजन हार/जाति जुलाहा मति को धीर/…/हम घर सूत तनहि नित ताना/…/तू ब्राह्मण मैं कासी का जुलाहा बूझहु मोर गिआना/…कोरी को काहू मरम न जाना/समु जगु आनि तनाइयो ताना।’ (कबीर अनुशीलन, प्रेमशंकर त्रिपाठी, पृ. संख्या-69) नागार्जुन ने भी बड़े ही बेबाक ढंग से अपने आर्थिक कष्टपूर्ण जीवन के माध्यम से अपने चुनौतीपूर्ण जीवन को चित्रित किया–‘पैदा हुआ था मैं–/दीन हीन अपठित किसी कृष्ण कुल में,/आ रहा हूँ पाता अभाव की आसव ठेठ बचपन से,/कवि! मैं रूपक हूँ दबी हुई दूब का।/जीवन गुजरता प्रति पल संघर्ष में।/मेरा क्षुद्र व्यक्तित्व–/रुद्ध है, सीमि है,/आटा, दाल, नमक लकड़ी के जुगाड़ में।/पत्नी और पुत्र में,/सेठ के हुकुम में।/कलम ही मेरा इल्म है, कुदाल है। बहुत बुरा हाल है।’
कबीर सामंती समाज के शोषण के रूप में भलीभाँति परिचित थे। कृषक और मजदूरों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुए कहते हैं–‘अब न बसूँ इहि गांइ गुसाईं/तेरे नेवगी खरे सयाँने हो राम/नगर एक तहाँ जीव धरम हता, बसै जु पंच किसाना/नैनूँ निकट श्रावनूँ रसनूँ, इंद्री कह्या न भानैं हो रॉम/गाइ कु ठाकुर खेत कु नेपै, काइथ खरच न पारे/जो कि जेवरी खेति पसारै सब मिलि मो कौं मारे हो रॉम/खेतौ महतौ बिकट बलाही सिर के सदम का पारै/बुरो दिवॉन दावि नहिं लागें इक बाँधै इक मोरे हो राम।’ तो नागार्जुन अपनी कविता ‘अन्न पचीसी के दोहे’ के माध्यम से अन्न और भूख से बेहाल जनता का मार्मिक चित्र खींचते हुए राजनीतिक नेताओं के भ्रष्टाचार का भी पर्दाफाश करते हैं–‘सीधे-सादे शब्द हैं, भाव बड़े ही गूढ़/अन्न-पचीसी घोख ले, अर्थ जान ले मूढ़/कबिरा खड़ा बाजार में, लिया लुकाठी हाथ/बंदा क्या घबराएगा, जनता देगी साथ/छीन सके तो छीन ले, लूट सके तो लूट/मिल सकती कैसे भला, अनचोर की छूट/आज गहन है भूख का, धुँधला है आकाश/कल अपनी सरकार का होगा पर्दाफाश/नागार्जुन मुख से कढ़े साखी के ये बोल/साकी को समझाइये रचना है अनमोल/अन्न-पचीसी मुख्तसर, लग करोड़-करोड़/सचमुच ही लग जाएगी आँख कान में होड़/अन्न ब्रह्म ही ब्रह्म है बाकी ब्रह्म पिशाच/औघड़ मैथिली नागजी अर्जुन चही उवाच।’
धार्मिक मान्यताओं और अंधविश्वासों के प्रति निषेध की भावना कबीर के अंतर्मन में सदैव व्याप्त थी। विद्वेषमूलक समाज की स्थापना पर बल देते हुए कबीर कहते हैं–‘कबीरा खड़ा बाजार में लिया लुकाठी हाथ, जो घर जारे आपना/सो चले हमारे साथ।’ समाज में व्याप्त अनाचार और कथनी करनी में असमानता पर व्यंग्य करते हुए कबीर कहते हैं–‘कथनी मीठी खाँड़ सी करनी विष की लोई/कथनी तजि करनी करै, विष से अमृत होई।’ इसके अलावा भी कबीर हिंदुओं और मुसलमानों के धर्माडंबरों की खिलाफत करते हुए कहते हैं–‘हिंदू मूये राम कहि, मुसलमान खुदाय/कहै कबीर सो जीवता, हुई में कदै न जाय।’ शायद कबीर को अपने समय में ही आने वाले समय का आभास हो चुका था कि आने वाले समय में देश और समाज एक भारी संकट और अंधता के गर्त में जा रहा है, इसलिए वे कहते हैं–‘कबीर कलियुग आइ करि, कीये बहु तज मीत/जिन दिल बंधी एक सूँ, ते सुख सोवै नचीत।’ (कबीर ग्रंथावली, श्यामसुंदर दास, पृ.सं.-63)
कबीर के इसी साहस और विद्रोही तेवर के कारण आचार्य क्षितिज मोहन सेन ने लिखा है–‘कबीर रामानंद (1360-1470) के सबसे महान शिष्य थे। कबीर मध्यकालीन भारतीय धार्मिक इतिहास के केंद्रीय पुरुष थे। मध्ययुग में उत्तर भारत में आध्यात्मिक या बौद्धिक स्वतंत्रता के लिए एक भी ऐसा आंदोलन नहीं हुआ जिस पर कबीर प्रभाव की छाप न हो। उन्होंने यह भी कहा कि कबीर के हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के साथ मधुर संबंध थे। उन्होंने सभी धर्मों, सभी जातियों एवं स्त्रियों और पुरुषों को बिना भेद-भाव के उपदेश दिया। आचार्य सेन ने कबीर की इस उक्ति को भी उद्धृत किया है–‘संसकीरत है कूप जल, भासा बहता नीर।’ उनकी सीधी-सादी भाषा में असाधारण शक्ति थी।’ (कबीर अनुशीलन, पृ. सं.-287) बहती हवा की विपरीत दिशा में ऐसा ही कदम बढ़ाने का प्रभाव आधुनिक कालीन कवि नागार्जुन के यहाँ भी मिलता है। समकालीन विसंगतियों पर तीखी व्यंग्य की तीखी भंगिमा के कारण ही नागार्जुन संत कवि कबीर दास की परंपरा के अग्रसर करते हुए नजर आते हैं। चंद्रिका ठाकुर के अनुसार–‘व्यंग्य काव्य की दृष्टि से नागार्जुन आधुनिक हिंदी कविता के कबीर हैं।’ ‘खाली नहीं और खाली’, शीर्षक कविता में नागार्जुन ने भूख और गरीबी की मार से बेहाल जनता की तकलीफ का मार्मिक चित्रण करते हुए कहते हैं–‘खाली नहीं चेयर, खाली नहीं सीट/खाली नहीं फुटपाथ, खाली नहीं स्ट्रीट/…/खाली है हाथ, खाली है पेट/खाली है थाली, खाली है प्लेट।’
विकास की अंधी दौड़ में शामिल मनुष्य इतना संवेदनहीन होता जा रहा है कि एटम बम जैसी भयानक चीजों का आविष्कार कर जन सामान्य की क्षति पर भी उतारू हो गया है। मनुष्य की इसी विध्वंसकारी सोच के कारण नागार्जुन ‘एटम बम’ शीर्षक कविता में युद्ध की विभीषिका से ग्रस्त आम जनता का शोषित चित्र प्रस्तुत करते हुए कहते हैं–‘कहाँ गिरेंगे ऐटम या हाइड्रोजन बम?/नहीं फौज पर/नहीं पुलिस पर/नहीं लाभ पर/नहीं मुहिम पर/बसे बरसेंगे जनाकीर्ण आबादी पर ही/निरपराध निर्दोष निष्कुलष…/बाल-वृद्ध-वनिताओं की ही जान जाएगी/ताजा ताजा खून बहेगा/शांत निरीह नगर ग्रामों पर/खेतों-खानों-खलिहानों पर।’ पूँजीपतियों के शोषक रूप का व्यंग्यात्मक चित्रण करते हुए नागार्जुन कहते हैं–‘बताऊँ/कैसे लगते हैं/दरिद्र देश के धनिक/कोढ़ी-कुढ़ब तन पर मणिमय आभूषण।’ साम्राज्यवादी शक्ति किस तरह अपने शोषण का जाल फैलाकर आर्थिक संकट पैदा कर रही है इसी के तहत नव उपनिवेशवाद के खतेर को महसूस करते हुए नागार्जुन कहते हैं–‘बड़ी मछली झपाटे से छोटी मछली के करीब आई/‘गुफ्तगु’ वाली शैली में बोली–/तेरे अंदर मौजूद है,/परिवर्तन और विकास के तत्व।’
कबीर और नागार्जुन अपने समय के सामाजिक-सांस्कृतिक संकट को समझ रहे थे। जड़ता के गर्त में समा रहे समाज पर कबीर व्यंग्य करते हुए कहते हैं–‘साधो, देखो जग बौराना,/साँची कहौ तो मारण धावै, झूठे जग पतियाना/हिंदू कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमाना/आपस में दोउ लड़े मरतु है, मरम कोई नहिं जाना।’ नागार्जुन भी ‘सच न बोलना’ शीर्षक कविता में शोषण की चक्की में पिसती जनता और भ्रष्टाचार पर फब्तियाँ कसते हुए कहते हैं–‘सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे/भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुँचो, मेवा-मिसरी पाओगे।/माला मिलेगा रेत सको यदि गला मयूर किसानों का/हम मर मुक्खों से क्या होगा, चरण गहों श्रीमानों का।’ स्वतंत्रता के बाद बढ़ते पूँजीवाद के वर्चस्व और बाजारवाद के बढ़ते प्रसार के कारण धन कुबेरों पर कटाक्ष करते हुए नागार्जुन कहते हैं–‘चाँदी के बापू/गजदंत के तथागत/चंदन के विनोवा/ताबे के लेनिन/…/रसगुल्ले पर कैनेडी है, बर्फी पर क्व्रुशचेव/चाऊ पर है बरफ मलाई, नेहरू पर है सेब/चाट रहे हैं कुछ प्राणी बाहर जूठन के दाने/चहक रहे हैं अंदर ये लक्ष्मी के पुत्र सलोने/कला गुलाम हुई इनके, कविता पानी भरती है/सौं सौ की मेहनत इनकी मुस्कानों पर भरती है।’ कबीर और नागार्जुन के शैली पक्ष पर गौर करें तो कबीर की भाषा सधुक्कड़ी है, अनेक दोहे, साखियाँ एवं उलटवासियों में कबीर ने प्रतीकों का प्रयोग किया है। नागार्जुन की भाषा खड़ी बोली है पर कहीं-कहीं आंचलिक शब्दों का भी प्रयोग किया है। अपनी कविता में अत्यंत साधारण से शब्दों में बड़ी से बड़ी बात कह देने की अभिव्यक्ति क्षमता नागार्जुन में सहज दिखलाई पड़ती है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कबीर और नागार्जुन दोनों हिंदी के उन विरले कवियों में से हैं जिन्होंने अपने रचनाशीलता के विविध आयाम द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, शोषण पर जबरदस्त प्रहार किया है। समतामूलक समाज की स्थापना तथा व्यंग्य की तीखी मार जैसी समानता के गुणों के कारण ही कबीर और नागार्जुन के अध्ययन को एक साथ प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है। डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव के अनुसार–‘हिंदी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पहले आलोचक हैं, जिन्होंने कबीर के मर्म को ठीक-ठीक समझा और कबीर के भीतर से ही एक नये कबीर की खोज की। कहें कि उन्होंने कबीर का अपना एक नया पाठ निर्मित किया।’ कइयों को कबीर में एक आधुनिक कबीर जैसी छवि देखने की इच्छा हुई। पिछले दिनों आधुनिक जन-कवि नागार्जुन को कबीर का सच्चा उत्तराधिकार मानते हुए उन्हें भी ‘आधुनिक कबीर’ जैसी संज्ञा दी गई।’ कबीर सीधी भाषा में ऐसी चोट करते हैं कि चोट खाने वाला केवल धूल झाड़कर चल देने के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं पाता।’ सामाजिक प्रतिबद्धता और ‘तू कहना कागद लेखी/मैं कहता आँखिन देखी’ जैसी भावना को आत्मसात करने वाले कबीर और नागार्जुन का महत्त्व सदैव वरेण्य है।
Image : Buddha in His Youth
Image Source : WikiArt
Artist : Odilon Redon
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