शान्ति सुमन के नवगीत
- 1 June, 2024
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शान्ति सुमन के नवगीत
रचना सृष्टि का विधान है और उसका सौंदर्य प्रकृति का आवरण : कविता इसी आवरण का गीत है जिसके शब्द में अनुभूति के रूप, सुर में मनोलय का सरगम, रंग में भावना का शृंगार, रस में जीवन के सुकुमार पल तथा स्पर्श में संवेदना का वृहत् संसार जहाँ मन छलकता है और गीत विश्व के प्रकार में आकार लेता है। मेरा मानना है, इसी प्रकार के आयाम में डॉ. शान्ति सुमन का नवगीत ध्वनि की तरह निरंतर निखरता, सँवरता और बिखरता रहा है। यथा,
‘उगा विरवा फोड़कर दीवार
एक सपना में रचा घर-बार
पाँव धरती पर टिकाए
ऊपर मुँह किए
इन हौसलों का और भी
दम भरते हुए
शिराओं में गूँजती है धार
एक वृन्दावन हुआ संसार।’
नवगीत एक स्वाभाविक रचना-प्रक्रिया है और प्रकृतिधर्मी भी। इसीलिए इसकी बनावट, बुनावट में सृष्टि की बोध-व्याख्या भी संश्लिष्ट होती है। यह इस विधा की ऐसी विशेषता है जो भाव और विचार दोनों को गूँथता है किंतु अपनी चेतना और सर्जनात्मकता के लिए द्वार खुला रखता है। शान्ति सुमन के नवगीतों में जो प्रगतिशील तत्व हैं, वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं तथा आधुनिकता-बोध के विचारों के कारण एक बड़े और खुले परिप्रेक्ष्य का दर्शन कराते हैं। ‘ऊपर मुँह किए’ और ‘दम भरते हुए’ वाक्य-खंड खोखले नहीं बल्कि विचार और विकास के मानदंड की परिभाषा के सूत्र हैं। सारांश यह कि जर्मन समीक्षा से निकले दो ‘पद’ की याद कराते हैं–‘जीवन दृष्टि’ और ‘विश्व दृष्टि’। शान्ति सुमन के नवगीतों को पढ़ते हुए यह तथ्य बार-बार प्रत्यक्ष होता है कि उनकी रचनाओं की उच्चकोटि की ‘जीवन दृष्टि’ से हमारी ‘विश्व दृष्टि’ बनती प्रतीत हो रही है। असल में उनके नवगीत ‘नव’ विधान तक सीमित नहीं बल्कि शब्दों के बहुआयामी प्रयोगों द्वारा उनकी सर्जनाएँ ज़िंदगी के दबावों से मुक्त होकर इतर लोक रचती हैं–
‘इसी शहर में ललमनिया भी
रहती है बाबू
आग बचाने खातिर कोयला
चुनती है बाबू
पेट नहीं भर सका
रोज के रोज दिहाड़ी से
सोचे मन चढ़कर गिर
जाए ऊँच पहाड़ी से।’
शान्ति सुमन के नवगीतों में चिंतनात्मक और अनुभूत्यात्मक सत्य गीत के समान हैं, जो अपनी समग्रता, संश्लिष्टता में बहुआयामी और बहुलार्थक हैं। इसके अतिरिक्त गीतफरोशी नवगीत के सृजन में भी उनका साधारण आदमी अपनी क्रियात्मक-चेतना के तल में सक्रिय मनोभूमि का विश्लेषण करता प्रतीत होता है। इसीलिए उनकी अधिकांश रचनाएँ उनके समकालीनों से भिन्न हैं। उनके नवगीतों के समग्र अनुभव उनकी प्रगाढ़ इच्छाओं, उद्देश्यों, परिस्थितियों के साथ जीवन के बीच खुलते हैं। उनके शब्द, भाषा, भाव, बोध सब जीवन के अध्ययन, चिंतन, मनन से उपलब्ध हुए हैं; सुनी-सुनाई अथवा कल्पना के क्रोड़ से या शब्दों के आडंबर से नहीं। यही वजह है कि उनमें लोकगीतों जैसा मार्मिक उपालम्भ, गहरी आर्द्रता और स्निग्ध जीवंतता है। उनकी रचनाओं के अध्ययन से इस तथ्य को भी जाना-समझा जा सकता है कि आज के जीवन में उत्कृष्ट की खोज उनकी एकांत साधना और समर्पित किस्म की चेष्टा का परिणाम है; निजी और सामाजिक जीवन-बोध का वह सबसे संवेदनशील प्रयास है जिसके आलंबन को बौद्धिक और भावनात्मक स्तरों पर ही ग्रहण किया जा सकता है। यथा,
‘खोजने से कहाँ मिलते
सुखों के पल
फुहियाँ बनकर बरसते
आँखों के जल।’
नवगीत की प्रवृत्तियों पर विचार के बहाने समाज एवं साहित्य के प्रति हमारी राय ही नहीं बनती बल्कि हम अतीत में गतिशील चेतना के उन कालखंडों से भी टकराते हैं जिनका गहरा संबंध डाल के सामाजिक परिवर्तन और विकास की सच्चाइयों से होता है। इसी प्रकार, हिंदी साहित्य में अस्मिता संबंधी लेखन के बहाने हम संक्रमणकालीन समाज की उन निर्मितियों को समझ सकते हैं जिससे इतिहास, समाज एवं नये साहित्य बनने की प्रक्रियाएँ शुरू होती हैं। खासकर तब, जब हम समकालीन साहित्य की प्रवृत्तियों पर बात कर रहे हों। उदाहरण के लिए भारतीय स्तर पर परिवर्तन की प्रक्रियाओं का जो दौर शुरू होता है उसका गहरा असर शान्ति सुमन के नवगीतों में देखने को मिलता है। छायावाद के बाद धीरे-धीरे अतीत के भारतीय साहित्य एवं आधुनिक काल के साहित्य के बदले एक अलग तरह के अघोषित साहित्य को प्रभावी बनाने की कवायद शुरू होती है। भारतीय साहित्य में साम्यवाद और पाश्चात्य साहित्य के प्रति निष्ठा, आस्था स्पष्ट दिखायी पड़ने लगती है; सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाएँ पारंपरिक प्रतीकों एवं संकेतों को ध्वस्त करना शुरू कर देती हैं, उसका असर छांदसिक कविता, विशेषकर गीत पर अधिक पड़ा। नये सिरे से विचार-विमर्श के साथ नये किस्म के साहित्य एवं नई विधाओं का दौर शुरू हुआ; खासतौर से कविता को नई कविता बनाकर गीत की सांस्कृतिक चेतनाओं को मृत बनाने की कोशिश हुई, जिसके कारण भारतीय साहित्य में एक नए वर्ग ‘मजदूर’ और नई विचारधारा ‘साम्यवाद’ का सूत्रपात हुआ, जिसका असर नई कविता में देखा जा सकता है जो भारतीय साहित्य और भारतीयता के लिए एक बड़ी दुर्घटना का समय था। ऐसी विषम परिस्थिति में डॉ. शान्ति सुमन ने नवगीत को एक नई विधा के रूप में अपनी स्वीकृति प्रदान की। उन्होंने भारतीय कविता के सांस्कृतिक गौरव और कविता के भौतिक विकास के साथ-साथ समय, समाज, साहित्य और लोक जीवन और लोकजन की वास्तविकताओं तथा अनुभवों की पहचान वाली कविता से जनमानस का परिचय कराया। अतीत के गीत ही वर्तमान में लिखी जानेवाली कविता के आधार हैं, इसे स्वीकार कर उन्होंने अपना सर्वप्रथम संकलन ‘ओ प्रतीक्षित’ से एक नई विधा का मार्का और नवगीतकार के रूप में स्वयं को रेखांकित किया।
डॉ. शान्ति सुमन के ‘ओ प्रतीक्षित’ (नवगीत संकलन) को पढ़ना और उसमें संकलित रचनाओं के बीच से गुजरना, नवगीत को जानना और समझना है। कारण, साहित्य की इस नई विधा के उदय के पीछे समकालीन समय के यथार्थ की ही भूमिका नहीं है अपितु अतीत की साहित्यिक संपदा, वैभव और विरासत की महत्तम उपलब्धियों के प्रभाव एवं आदर्श के विमर्श तथा दृष्टांत और वृत्तांत की महत्ता भी है। ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ तथा ‘साहित्य सहचर’ जैसे कई निबंधों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है–‘जीवन मनुष्य के धारावाहिक जीवन के सारभूत रस का प्रवाह है। कारण, साहित्य, वस्तुत: उस जाति की संपूर्ण चिंताराशि, अनुभूति परंपरा और संवेदनशीलता का प्रतीक होता है।’ यही कारण है कि नवगीत में गीत और कविता पुन: एकमेक हुए प्रतीत होते हैं; उसके विधागत स्वरूप में केवल वर्तमान ही नहीं, बल्कि अतीत का भी अमिट प्रभाव है। इसके साथ ही साम्यवादी व्यवस्था के समानांतर पूँजीवादी व्यवस्था की टकराहट और द्वंद्व से वैश्विक स्तर पर ध्रुवीकरण की प्रतिक्रिया के भी रंग और रूप हैं। वास्तव में नवगीत हमारी जातीय एवं सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति अनुदार, अस्वाभाविक, अस्वस्थ राजनीतिक व्यवस्था, आर्थिक विषमता, जन-गण की अनदेखी, उपेक्षा, अपर्याप्तता के प्रति असंतोष और आम जनता की आशाओं, आकांक्षाओं, विचारों एवं संघर्षों के असरदार स्वर हैं। इस विधा की वैचारिकता के निर्माण में अतीत के स्वाभिमान और वर्तमान की स्थिति-परिस्थिति के शब्द आकार लेते प्रतीत होते हैं।
विशद् अध्ययन-मनन से ऐसा लगता है कि डॉ. शान्ति सुमन ने ‘ओ प्रतीक्षित’ के नवगीतों में अपने नये भाव, नई भाषा के साथ आम आदमी की ज़िंदगी के यथार्थ को जोड़कर असुविधा में कट रहे जीवन को संकलित करने का प्रयत्न किया है–
‘रंगों के भँवर–बीच गंधों की नौका
अर्थ के उड़े पाल, शब्द चौंका
भोर हो शरद के या वर्षा की शाम
आँखों में गीत घिरते अनाम
किए अब तक तेरे नाम–
मेरे प्रतीक्षित ओ रे!
मन पर ठहरे से सँवलाए युगबोध
इच्छाओं की उगती कितनी पौध
बँटे-बँटे समय के आयाम
लिखे-अनलिखे पत्र गुमनाम
किए अब तक तेरे नाम
मेरे प्रतीक्षित ओ रे!’
ध्यातव्य यह भी है कि ‘ओ प्रतीक्षित’ की कविता में आई विकसित रूप-रेखा के सर्वथा नये प्रकार की जो प्रवृत्ति सबसे अधिक भारतीय साहित्य की दुनिया को प्रभावित करती है, वह है–रागात्मक और गीतात्मक तथा आँचलिकता का स्वाभाविक सौष्ठव, प्राकृतिक रूप का आकर्षण, लोकजीवन और लोकलय का उभरकर आना। असल में नवगीतकार ने जिस कुशलता से भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक बोध को अपनी रचनाओं में आविर्भूत किया है, वह एक नई काव्यकला है जिसकी प्रक्रिया में उत्पीड़ित जीवन और संघर्षरत समाज का दर्शन होता है। अतः यह कहा जा सकता है कि ‘ओ प्रतीक्षित’ में शान्ति सुमन ने जिस बारीकी के साथ अपनी रचनाओं में भाव को अभिव्यंजित किया है कि उसके केंद्र में आम आदमी अपनी पूरी ताकत के साथ आकर खड़ा हुआ प्रतीत होता है। वस्तुतः डॉ. शान्ति सुमन की रचनात्मकता पर विचार करने के साथ नवगीत विधा को भी जानना-समझना आवश्यक है। वास्तव में नवगीत कविता का वह नया गीत है जिसमें परिवेश और परिस्थिति के उत्पीड़न से घिरा सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन तथा व्यवस्था की अनुपयुक्तता के कारण सामाजिक जीवन में आ रहे परिवर्तन और अमहत्त्वपूर्ण मानकर आमतौर से मुख्यधारा के आलोचक अथवा समाज-वैज्ञानिक छोड़ देते हैं, उसी के समर्थ विमर्श की अभिव्यक्ति नवगीत है–
‘इतना साहस भरा हवा में
मौसम हुआ कबीर
देख नहीं पाता कि समय ने
खींची कहाँ लकीर।’
डॉ. शान्ति सुमन के रचनाकर्म को किसी एक प्रवृत्ति विशेष से परिभाषित करना कठिन है। इसमें कई प्रवृतियाँ एक साथ निरंतर बनी हुई हैं। अतीत और आधुनिककाल तथा गीत और कविता दोनों से लैस नवगीत अपने नये स्वरूप में समय के बोध के साथ उपस्थित मिलते हैं। आद्य स्थितियों की वे तस्वीरें जो समकालीन स्थितियों की शक्ल अख्तियार कर लेती हैं, जिनका बहुत ही मार्मिक चित्रण ‘परछाईं टूटती’ में हुआ है। यथा, ‘गाँठ बंधी हल्दी से/रंग छूटे उम्मीद के/कैसे सोयें साँपों का जंगल खरीद के।’ शान्ति सुमन अपनी रचनाओं में ज्यादा व्यावहारिक, ज्यादा आधुनिक, ज्यादा विवेकवान तब दिखायी पड़ती हैं जब समकालीन परिवेश में फैली परिस्थितियों को अपने शब्दों से उकेरती हैं–
‘टिनही थाली रखी–
आध टूक रोटी का स्वाद हो गया
चंद्रमा विवाद हो गया
हाथों से पेटों तक
बुने हुए जाले
अपने घर नागफनी
रोकती उजाले
चुभते संदर्भ बहुत–
मूल नहीं जैसे अनुवाद हो गया।’
शान्ति सुमन की विचारणा में यह परिवर्तन, तिक्तता, आक्रोश या असहज होना आकस्मिक नहीं है, बल्कि वह बराबर उठनेवाला दर्द है जो अपने निष्कर्षों की भूमिका में वस्तुनिष्ठ है, व्यवस्था की अपर्याप्तता, अस्वाभाविकता पर क्षोभ और आक्रमण का सिलसिला भी है। उनके अनुभव के सूत्र, विमर्श के सोपान तथा मीमांसा की शास्त्रीयता ‘मौसम हुआ कबीर’, ‘भीतर-भीतर आग’ आदि संकलनों में बहुत बारीक बुनावटों में सामने आती है जिनकी ‘कहन’ की पहली शर्त यह है कि वे अपनी सहजता में जीवन की मुश्किलों और बेचारगी का वृतांत रचती हैं। मेरा मानना है, यही उनके नवगीतों की शक्ति है और सीमा भी।
कोई भी साहित्य की काव्य-विधा कविता की किसी परंपरागत ढाँचे को तभी तोड़ पाती है, जब वह समाज, राजनीति, अर्थनीति और सभ्यता, संस्कृति, कला में आई नवीनता को स्वीकार लेती है तथा जिसका वर्तमान भूत और भविष्य दोनों को प्रभावित करने में समर्थ होता है। डॉ. शान्ति सुमन ने अपने नवगीतों में मानव जीवन और प्रकृति जीवन में एक ऐसी सादृश्यता प्रतिपादित की जो केवल कविता में नवीन, भव्य और मूल्यवान नहीं है अपितु वह मानव जीवन और पादप जीवन के जगत के परिदृश्य को रूपायित करने में भी महत्त्वपूर्ण है। उनकी नवगीत-विधा में यह एक ऐसी कलात्मक चेतना है जिसे केवल मानव अथवा केवल प्राकृतिक धरातल पर देखना संभव नहीं है, बल्कि दोनों की संगति में ही देखना संभव है; संगति में दर्शन और दर्शन में संगति, आत्मा में परमात्मा और परमात्मा में आत्मा, लहर में सागर और सागर में लहर के उस विस्तार को देखना-समझना संभव करता है जिसे सीमाहीन कहा जाता है, उस अपरिमित दृश्य को डॉ. शान्ति सुमन ने अपने नवगीतों में परिमित किया तथा मानविक और प्राकृतिक चेतनाओं की आनुभूतिक चिंतन को भी अपने शब्दों से परिदृश्यात्मक आकार दिया–
‘मुट्ठियों में बंद कर ली
नागकेसर हवा
× × × ×
तुम आए जैसे पेड़ों में
पत्ते आए
× × × ×
ओस घासों में दुबककर सो गई
सुनो! आधी रात शायद हो गई।’
नवगीत हिंदी साहित्य में गीत और कविता का वह लोक है जिसमें लोक लय है और लोक जीवन की सांसारिकता गीत के छोटे सूत्र वाक्यों, तमाम भौतिक बिंबों के सदृश्य तथा कविता जीवन-मूल्यों के साथ मानवीय अस्तित्व के होने का अहसास करा रहा है। यह अहसास ही नवगीत की आत्मीयता है। मेरा मानना है, इसी आत्मीयता में मनुष्य और प्रकृति दोनों एक-दूसरे के आसपास एक दूसरे में जीते हैं और इसी भावलोक में डॉ. शान्ति सुमन की रचनाएँ गतिशील हैं–
‘मेघ तरु फूले
साथ थे, कुछ दूर चलकर रास्ता भूले
हवा के ये महल झोंके
बीन बजते घोंसले के
बरुनियों के देवदारू तले पड़े झूले
कब कहाँ, ये छूट जाएँ
धान-बाली फूट जाएँ
आँख से देखें,
उठाकर हाथ से छू ले
धूल-माटी के घरौंदे
आँधियों के पाँव, पौदे
दस दिशा, दस हाथ, फिर भी लग रहे लूले।’
डॉ. शान्ति सुमन के नवगीतों में उनकी रचनात्मक दृष्टि व्यापक, बहुमुखी, बहुद्देशीय, बहुरंगी, बहुअर्थी एवं बहुमूल्य विचारों वाली है। उनकी रचनाओं में यदि कविता के गंभीर विचार हैं तो गीत के भी मार्मिक स्वर हैं। यही कारण है उनकी राजनीतिक बौद्धिकता में मीमांसा नहीं है, कठोर यथार्थ है और सामाजिक उर्वरता में उदात्त सोच की उद्दिष्ट आकांक्षा। उनकी लय में संवेदना के कोमल शब्द मुखरित हैं; लेकिन जो सबसे अधिक मुखर है, वह है आँचलिकता जिसकी प्रकृति जीवंत हो उठती है
और हरापन
‘पेड़ों पर उतरा है मौसम
चिड़ियाँ जान गई
प्यार नहीं छिपता है जैसे
मन से मान गई’
का परिवेश बन जाता है। ‘मौसम हुआ कबीर’ की समीक्षा करते हुए डॉ. मैनेजर पांडेय ने ‘गीत आइने की तरह’ आलेख में यह लिखा है कि ‘नचिकेता की तरह शान्ति सुमन भी नवगीत से जनवादी-गीत की ओर आई हैं। शान्ति सुमन की रचनाशीलता का सामाजिक, राजनीतिक परिवेश वही है जो नचिकेता का है, दोनों की पक्षधरता एक-सी है।’ डॉ. मैनेजर पांडेय से नवगीत और जनगीत, नचिकेता और शान्ति सुमन दोनों को समझने में बड़ी भूल हुई है। जिस प्रकार नवगीत अपने सौंदर्यशास्त्र और रूप विधान के कारण जनगीत से भिन्न है ठीक उसी प्रकार नचिकेता से शान्ति सुमन की काव्य-रचना एकदम भिन्न है। नवगीतकार जनगीतकार नहीं हो सकता; क्योंकि नवगीत में प्रकृति प्रदत्त रूपक और बिंब स्वाभाविकता के साथ प्रमुखता से उभरते हैं, जीवन-दृष्टि भी हरदम यथार्थ के सन्निकट होती है। संवेदनशीलता, सजगता, सरलता, स्वाभाविकता नवगीत की बनावट-बुनावट में प्रकृति की तरह रची-बसी होती है, जिसका अभाव जनगीत में होता है।
हिंदी का आदिकालीन और मध्यकालीन काव्य साक्षी है कि कबीर, सूर, तुलसी, मीरा की रचनाएँ जहाँ अपनी भावना के प्रसार में सचेष्ट हैं, वहाँ अपनी कविता की शास्त्रीय चेतना भी आविष्ट है। प्रायः यही स्थिति शान्ति सुमन के नवगीत रचना की है; यह भी कि जिस प्रकार कबीर के रागात्मक पदों में तीव्र अनुभूति अपनी अभिव्यक्ति के कारण गीति-काव्यत्व विशेष है; शान्ति सुमन के नवगीतों में गीति-काव्यत्व विशेष के साथ कविता के संस्कार भी पाए जाते हैं; दोनों अर्थात गीत और कविता की विकसित नवीनता की ही लड़ी में है जो ‘मौसम हुआ कबीर’ में मौजूद है–
‘सुबह हुई आँगन में गमकी
धूप किसी पकवान-सी
घट्ठे पड़े हुए हाथों से
पकड़ हथौड़े की
गढ़ती हैं औजार गढ़े जो
मूरत रोड़े की
खुशियों की ताबीज गले में
बच्चों की मुस्कान-सी
सर पर बोझ सँभाल फसल का
नये समय को रचता
मुट्ठीबंद इरादों में है
मुक्त भविष्यत बजता
हाथ बाँधकर भूखभगी
है खिड़की खुली दलान की।’
आज यह एक स्थापित सत्य है कि डॉ. शान्ति सुमन के व्यक्तित्व और कृतित्व का अपना पृथक मूल्य, महत्त्व और मुकाम है। उनके नवगीतों में आँचलिकता और प्रकृति के प्रति जो हार्दिकता, मानवीय सौंदर्य के प्रति जो प्रियता एवं प्रेम का जो अनूठा स्पर्श है, जो आस्वाद बोध है, वंचितों और उत्पीड़ितों के प्रति जो संवेदना है, वह सब आधुनिकता से ओतप्रोत नवगीत-विधा का मूल्यवान अध्याय होने के बावजूद सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से संपन्न अनमोल सर्जनाएँ हैं–वही उनकी वास्तविक पहचान है तथा इन रचनाओं में लोक-संस्कृति से उनका जुड़ाव ही उनकी काव्यगत विशेषता है–
‘आवाज तुम्हारी हवा में
सुगंधित धुएँ-सी ठहरी
पढ़ता ही रहा मन आँख में
कितनी ऋचाएँ उतरीं।’
भावना के विस्तार में कुछ शब्दों की सादगी जिस रूप-रंग के सूक्ष्म आकर्षक वातावरण में अपना अक्स उभारती है, उसे सुगंधित धुएँ के अहसास में ही उतारना संभव हो सकता है। नवगीत की भाषा में किसी दृश्य का सौंदर्य जब शब्द में अभिव्यक्त होता है तब स्थूल हो जाता है और स्पर्श में अनुभूति का कारण; ‘पढ़ता ही रहा मन आँख में’ जो व्यंजना कौशल है, वह एक छोटे निमेष में बड़े विस्तार से अनुरूपित है। अत: यही वह काव्य-कला है जिसके कारण नवगीत नवगीत है।
कहा जा सकता है कि नवगीत की वैचारिकता के निर्माण में अतीत के भारतीय साहित्य की भूमिका महान है और खासकर वैदिक ऋचाओं में भारतीय संस्कृति के प्राण बसते हैं। यद्यपि यह अनुभूति का विषय है, फिर भी साहित्य पर विचार करने के क्रम में जिस बोध और व्याख्या से हमारा साक्षात्कार होता है, उसकी पहचान स्वाभाविकता, आँचलिकता के शांत, गंभीर परिवेश में ध्वन्यात्मक, रागात्मक और गीतात्मक गूँज में होती है जिसे समझाने में गीत हुआ मन ही समर्थ हो सकता है। इस अर्थ में डॉ. शान्ति सुमन की भूमिका विशिष्ट है।