शिवकुमार मिश्र–बीहड़ पर्वत से फूटता एक निर्झर

शिवकुमार मिश्र–बीहड़ पर्वत से फूटता एक निर्झर

वे दिन : वे लोग

शरीर के अनुपात में ही भरा-भरा चेहरा! खस की गई मूँछों की चौड़ी पट्टी। सघन भौंहें। बड़ी-बड़ी आँखें और सहीम-सहीम शरीर! वैसी ही वजनदार आवाज। कुछ बढ़े हुए सिर के बाल जो पीछे तक पहुँच जाते थे। इसे बुंदेली में पछेला कहा जाता है। तो वे पछेला खड़े थे। कभी-कभी जाने-अनजाने व्यक्तित्व अपने अनुकूल अपने संसाधन की तलाश कर लेता है। वे मोटर साइकिल, वह भी बुलेट पर बैठते थे–जस इलह तस बनी शराता की तर्ज पर वे अपने परिधान में भी इकदम अलग थे। पैंट शर्ट और जैकेट : अधिक ठंड पड़ती तो बंद गले का कोट वह भी ट्वीड का! जब लोग विभाग में स्कूटर या साइकिल से या पैदल आते थे तब वे बड़ी फटफटिया से पोर्च के सामने उतरते दिखते थे। उनके आगमन की सूचना उनकी फटफटिया पहले दे देती थी। उनका यह व्यक्तित्व सभी प्रोफेसर्स पर भारी पड़ता था। वे प्रो. शिवकुमार मिश्र थे। हमें नए कवि पढ़ाते थे। जिस काव्य-संकलन को वे पढ़ाते थे, उसका नाम था ‘सप्तपर्णी।’ उस समय काव्य संकलनों के ऐसे ही काव्यात्मक नाम रखे जाते थे। इस संकलन में नागार्जुन, अज्ञेय, धर्मवीर भारती जैसे कवियों के साथ ‘समय की शिला पर’ गीत के रचयिता डॉ. शंभूनाथ सिंह भी थे। वे रिक्शा में आते और कुर्सी पर बैठ जाते। कुर्सी भरी-पूरी लगने लगती। हो सकता है–उनके बैठने से वह चरमरा उठती हो–यह तो कुर्सी ही जाने लेकिन उनकी जोरदार आवाज से कक्षा गुँजायमान हो उठती थी। वे ‘प्रेत का बयान’ कविता पढ़ाते तो उनके हाथ नाटकीय मुद्रा में चलने लगते थे।

डॉ. मिश्र की विचारधारा मार्क्सवाद से प्रभावित थी। वे कम्युनिस्ट के रूप में जाने जाते थे–यद्यपि उन्हें कॉमरेड नहीं कहा जाता था। वे ट्रेड यूनियन से भी संबद्ध थे। ऐसा हम छात्रों में अन्य प्रोफेसर ने प्रचारित कर दिया था। इस प्रचलित धारणा के कारण छात्र उनसे कुछ दूरी बनाकर चलते थे। जबकि सदैव वे एक शिक्षक की तरह ही कक्षा में तत्पर रहते थे। उनकी विचारधारा कभी पढ़ाते समय आड़े नहीं आई है। वे पढ़ाने में रुचि लेते थे। और विषय के साथ न्याय करते थे। वे खरी-खरी कहने वाले थे। मेरे वहाँ रहते डॉ. मिश्र से घनिष्ठ संबंध नहीं थे। उनके आवास पर मैं दो-तीन वर्ष के दरम्यान एक-दो बार ही गया था। वे मेरे संबंध में यद्यपि मुखर नहीं थे किंतु वे मेरे लिखने-पढ़ने से प्रभावित थे। कक्षा में कभी-कभी वे मुझसे प्रश्न पूछ लेते थे। कभी किसी कार्यक्रम में मैं बोलता तो वे शाबाश कह देते थे। बस इतना ही हमारा उनसे वार्तालाप था।

जब मैं नौकरी में आ गया तब भी मेरा सागर जाना होता था। यों ही एक बार मेरा मन हुआ कि सागर आए हैं, तो डॉ. मिश्र से मिल लिया जाए। मैं उनके आवास पर पहुँचा तो वे अपनी बाड़ी में खुरपी लेकर कुछ गौड़ रहे थे। मुझे देखकर वे खुश हुए, बोले–‘आओ श्यामसुंदर!’ उन्होंने अपना काम छोड़ा और पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गए, मुझे बैठने का संकेत किया। अंबिकापुर के संबंध में कुछ जानकारी ली। फिर बोले, ‘तुम्हारा ललित निबंध मैंने पढ़ा है’। मैं चौंक गया। ‘कौन-सा?’ वही ‘एक संध्या मीन-चिंतन के लिए’। ‘अरे! आप ‘मधुमती’ पढ़ते हैं।’ ‘हाँ भाई! हाँ।’ मेरा ये निबंध ‘मधुमती’ में प्रकाशित हुआ था एकाध महीने पहले। वे बोल रहे थे ‘मुझे पसंद आया। तुम्हारी भाषा अच्छी है। विषय वस्तु उठाना भी तुम्हें आ गया है। रुकना नहीं लिखते रहना। बस थोड़ा-सा समाज सापेक्ष भी हो जाओ। ललित निबंध में जो आत्म प्रक्षेपण है, वह समाज की परिधि में समाता रहे। तुमसे मुझे बहुत उम्मीद है।’ मुझे उनके विचार सुनकर अच्छा लगा। वे फिर बोले कि–‘वे मेरे लेखन से मेरे छात्र जीवन से ही प्रभावित रहे हैं’ ये समझो कि विभाग की राजनीति के चलते वे मुझे किसी उलझन में नहीं डालना चाहते थे। उन्हें यह अहसास हो गया था कि विभागीय जनों के भीतर पनप रहे षड़यंत्र के शिकार छात्र होते रहते हैं और अच्छे छात्रों के साथ ही दिक्कत अधिक आती है। वे प्रसन्न थे कि मैंने मध्यप्रदेश शासन के उच्च शिक्षा विभाग में नौकरी कर ली। वे एक विशेष छात्र का नाम लेकर बोले कि वह मेरे साथ ही पढ़ता था, अभी तक पीएच.डी. में लटका है। अब स्थिति यह है कि वह शासकीय सेवा की निर्धारित आयु को पूरा करने जा रहा है। मुझे उनसे भेंट करके उनके कक्षा वाले स्वरूप का स्मरण हो आया।

कुछ संबंध समय बीतने के साथ छीजने लगते हैं और कुछ संबंध ऐसे होते हैं–जो समय बीतते मेंहदी के रंग जैसे गाढ़े होने लगते हैं। मुझे लगता है कि संबंधों में स्वार्थ का होना ही इस बात को तय करता है कि संबंध कितने स्थायी हैं? कुछ संबंध जो देर से घनिष्ठ होते हैं, वे अपने स्थायी भाव में अधिक ऊर्जान्वित होते रहते हैं। डॉ. मिश्र से मेरे जुग जुगांते संबंधों में आँच की तपिश देर से प्रारंभ हुई, किंतु मुझे लगा कि वे मेरे सबसे करीब रहने वाले रहे हैं। वह प्रसन्न प्रीतिभाव भले ही देर से प्रकट हुआ हो, किंतु मेरे लिए महत्त्वपूर्ण था। मैं कभी दूरभाष पर कभी पत्रों के माध्यम से डॉ. मिश्र तक पहुँचता रहता था। मेरा एक उपन्यास सरगुजा के आदिवासी जीवन पर ‘मरे न माहुर खाए’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। बाद में यही उपन्यास ‘सोनफुला’ नाम से आया। मैंने ‘सोनफूला’ को डॉ. मिश्र के पास भेज दिया। उन्होंने उस पर एक लंबी समीक्षा लिखी। यह समीक्षा केवल प्रशंसापरक नहीं थी। उसमें कुछ प्रश्न भी उठाए गए थे। उन्होंने समीक्षा के साथ जो पत्र लिखा था, उसमें यह उल्लेख था कि यह मात्र तुरंत प्रतिक्रिया है, यह कहीं प्रकाशित होने के लिए नहीं है। वे फिर से उस पर लिखेंगे। उस समय दमोह से एक अच्छी पत्रिका ‘कहन’ प्रारंभ हुई थी। उसके संपादक ने यह समीक्षा छाप दी। समीक्षा पर अच्छी प्रतिक्रियाएँ आई। डॉ. मिश्र ने समीक्षा के प्रकाशित होने पर ऐतराज नहीं किया, बल्कि वे इस रूप में प्रसन्न हुए कि मैं केवल प्रशंसा प्रिय नहीं हूँ।

झाबुआ के महाविद्यालय में एक प्रो. शुक्ल हिंदी पढ़ाते थे। उन्हें यू.जी.सी. से एक प्रोजेक्ट मिला था। आदिवासी जीवन पर लिखे गए उपन्यासों के आधार पर आदिवासी जीवन का विश्लेषण करने जैसा विषय था। डॉ. मिश्र ने उन्हें मेरे उपन्यास की सूचना दी। वे मेरे पास आए और न केवल उपन्यास पर चर्चा की बल्कि लोक जीवन पर भी विचार-विमर्श हुआ। डॉ. मिश्र यहीं नहीं रुके। उन्होंने प्रो. शुक्ल से कहा कि वे इस उपन्यास पर शोध कराएँ। डॉ. शुक्ल ने इस पर एम.फिल् की थीसीस लिखाई। बाद में पंजाब वि.वि. में भी इस पर काम हुआ। यह डॉ. मिश्र का अहेतुकी कृपा-भाव था। उनकी छात्र-वत्सलता का प्रमाण था और उनकी निश्छल छवि का द्योतक भी था।

डॉ. मिश्र को मैंने अपनी कविताओं की पांडुलिपि भूमिका लिखने हेतु भेजी, संयोग कुछ इस तरह का भी बना कि उस पांडुलिपि की एक प्रति मैंने डॉ. विजय बहादुर सिंह को भी भेज दी। दोनों ने अच्छी भूमिका लिखी। काव्य संकलन ‘धरती के अनंत चक्करों’ के नाम से प्रकाशित हुआ। दोनों की भूमिका इस संकलन के प्रारंभ में थी। डॉ.विजय बहादुर सिंह की प्रतिक्रिया थी कि डॉ. शिवकुमार मिश्र की भूमिका उनकी भूमिका से बेहतर है। डॉ. मिश्र ने गहराई से लिखा है। यह डॉ. मिश्र की विशेषता थी कि वे काम निबटाते नहीं थे। वे काम को तहेदिल से करते थे। उन्हें, इफ्को ने एक काम सौंपा था। ‘लोक गीतों में स्वतंत्रता’ वे इस काम में जुट गए। लोगों से संपर्क किया। विभिन्न अंचलों से लोकगीत मँगवाए। मुझे उन्होंने याद किया तो मैंने भी बुदेलखंड अंचल के विषय से संबंधित लोकगीत  भेजे। वे बहुत खुश हुए। बाद में उन्होंने बताया कि उस पुस्तक की भूमिका में उन्होंने मेरा उल्लेख किया था। यह महत्त्वपूर्ण नहीं हैं महत्त्वपूर्ण यह है कि वे किसी तरह के उऋण की उधारी नहीं रखना चाहते थे। अपने छात्र से भी एक तरह से उऋण होना चाहते थे। जबकि छात्र ही जीवन भर गुरु से उऋण होता रहना चाहता है।

डॉ. मिश्र ने मेरे ललित निबंध संकलन ‘कोई खिड़की इसी दीवार से’ की भूमिका भी लिखी थी। उन्होंने मेरे उन निबंधों की सराहना की थी और बातचीत के दौरान बताया था कि वे जिस बात की दरकार मेरे निबंधों से करते थे, वह मैं पूरी कर रहा हूँ। यह मैं इसलिए लिख रहा हूँ, कि मुझे विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले अन्य गुरुजनों से इतना प्रोत्साहन कभी नहीं मिला। मैंने अपना प्रथम ललित निबंध संकलन ‘काल मृगया’ लगभग सभी को भेजा था। किसी ने पावती तक का उल्लेख नहीं किया। मेरे हितैषी बनने वाले एक गुरुदेव ने तो कृपापूर्वक पावती भेजी और एक छोटा-सा वाक्य इस तरह से लिख भेजा जो शल्य ही बन गया। उन्होंने लिखा था, ‘तुम्हारी कितबिया मिली।’ महापुरुष ने एक खासी किताब को क्यों कितबिया लिखा? वे ही जानें, किंतु मुझे तो यह पीड़ादायक अनुभव ही था।

डॉ. शिवकुमार मिश्र ने कानपुर से एम.ए. (हिंदी) किया था। उन्होंने एक भेंट में मुझे बताया था कि स्नात्कोत्तर होने के बाद उन्होंने आर्थिक कारणों के चलते पुस्तक लिखना प्रारंभ किया था। उन्होंने ‘कामायनी’ पर पहली पुस्तक लिखी थी। ये पुस्तक छात्रों में लोकप्रिय भी हुई थी। वे पीएच.डी. करना चाहते थे। उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. करने का मन बनाया। ऐसा इसलिए कि सागर में उन दिनों आचार्य नंददुलारे वाजपेयी थे। वे सागर पहुँच गए। वाजपेयी जी से मिले। यह मिलना फलप्रद रहा। आधुनिक काव्य पर विषय तय हुआ और डॉ. मिश्र सागर विश्वविद्यालय के शोधछात्र बन गए। शोध पूरी होते-होते उन्हें हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक आवासों में से ही एक आवास आवंटित हुआ। उनका पढ़ने-लिखने और अध्यापन का सिलसिला चल पड़ा। उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में छप रही थीं। ‘आलोचना’ पत्रिका को जब वाजपेयी जी संपादित कर रहे थे, तब डॉ. मिश्र के लेख उसमें छप रहे थे। मिश्र जी का चिंतन अपना रास्ता पकड़ चुका था। वे मार्क्सवादी विचारक की तरह प्रतिष्ठित हो चुके थे। यद्यपि विचारधारा स्थानीय आधारों पर न विकसित होती है, न परिपोषित। स्थान विशेष की जलवायु, विचारधारा की प्रवहमानता को न रोकती है। सागर में भी यही स्थिति रही है। यहाँ मार्क्सवादी विचारधारा के लिए अनुकूल अवसर नहीं रहा है। विशेषरूप से हिंदी विभाग के परिवेश में। बहुत लोग वाजपेयी जी की उपस्थिति इसका प्रमुख कारण मानते हैं–और उदाहरण देते रहते हैं कि नामवर सिंह कुछ समय के लिए सागर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक बनकर आए थे, किंतु वे अधिक टिक नहीं पाए। उन्हें सागर छोड़ना पड़ा, जबकि सच यह भी है कि सागर में वामपंथी विचारधारा और समाजवादी विचारधारा का प्रभाव रहा है। विश्वविद्यालय के छात्रों में इन विचार सरिणियों की लहरों को अनुभव किया जाता रहा था।

ऐसी ही अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में डॉ. मिश्र का लेखन चल रहा था और स्पष्ट रूप से मार्क्सवाद के पक्षधर माने जाने लगे थे। बाद में वे प्रगतिशील लेखक संघ के महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व रहे। जबलपुर में जन प्रगतिशील लेखक संघ का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ था। तभी कुछ ऐसा हो गया था कि डॉ. मिश्र को जनवादी लेखक संघ में सम्मिलित होना पड़ा। वे इस संगठन के शीर्ष स्तंभी व्यक्तित्व रहे हैं। मैंने उनके व्यक्तित्व में जो एक साफगोई देखी है–वह कभी-कभी उन्हें विपरीत में समायोजित नहीं होने की जिद से भी परिचालित करती रही है। आगे चलकर उनके भीतर उदारता का स्पेस निर्मिति लेता गया। यह अलग बात है कि वे मार्क्सवाद से अलग नहीं हुए।

डॉ. मिश्र में संबंधों के निर्वाह की धारणा प्रबल थीं। वे प्रत्येक स्थिति में संबंधों को प्राथमिक तौर पर महत्त्व देते थे। मेरे सुपुत्र की पीएच.डी. की थीसिस के मूल्यांकनकर्ता थे। अब तक वे गुजरात के आनंद पहुँच चुके थे। वहाँ के विश्वविद्यालय में वे प्रोफेसर के पद पर थे। इस थीसिस के दूसरे मूल्यांकनकर्ता थे मैनेजर पांडेय। विश्वविद्यालय ने मौखिकी के लिए मैनेजर पांडेय का नाम तय किया था। उन्हें एतद्विषयक पत्र भी जारी किया जा चुका था। समय गुजर रहा था। लगभग दो महीने तिथि तय करने में गुजर गए थे। मैंने मैनेजर पांडेय से बात की तो उन्होंने बताया कि यात्रा कुछ आड़ी-तिरछी है। दिल्ली से बीना जाना होगा और फिर बीना से सागर। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि आप बीना आ जाएँ, वहाँ से आपको सागर के लिए कार से आने की व्यवस्था हो जाएगी। किंतु उन्होंने अपने स्वास्थ्य के उपयुक्त न होने का हवाला दिया। उनकी अस्वीकृति की सूचना विश्वविद्यालय को प्राप्त हो चुकी थी। अब डॉ. शिवकुमार मिश्र को मौखिकी के लिए आमंत्रित किया गया। वे नियत तिथि पर मौखिकी लेने आए। मौखिकी में उन्होंने प्रश्न खूब पूछे। उन्हें उत्तर भी अनुकूल मिलते रहे। मौखिकी के उपरांत जब वे सहजतापूर्वक बातें कर रहे थे, तब उन्होंने वहाँ उपस्थित लोगों से कहा था कि आज उनको इस मौखिकी को लेकर अपार प्रसन्नता है। मेरे प्रिय शिष्य श्याम सुंदर के सुपुत्र को इस रूप में देखकर मैं दादा की भूमिका का आनंद ले रहा हूँ। यह जो अभिव्यक्ति थी, यह कोई साधारण अभिव्यक्ति नहीं थी–यह कोई औपचारिक अभिव्यक्ति भी नहीं थी। यह आत्मीयता से भरा परिवारिक उद्गार था। अब डॉ. मिश्र भी वाद की पक्षधरता में विश्वास करते हों, किंतु यह मानवीय गरिमा जो संबंधों से उजागर हो रही थी–वादों से ऊपर थी।

उन दिनों विश्वरंजन जी छत्तीसगढ़ के पुलिस प्रमुख थे। उन्हें साहित्यिक संस्कार आनुवांशिक रूप से मिले थे। वे रघुपति सहाय फिराक के तरासे थे। रायपुर में रहते थे। रायगढ़ में पुलिस अधीक्षक के पद पर रह चुके थे। रायगढ़ में हिंदी के लेखक और प्राध्यापक प्रमोद वर्मा थे। विश्वरंजन की उनसे घनिष्ठता हो गई थी। प्रमोद वर्मा के निधन के बाद विश्वरंजन जी के प्रयत्नों से उनके स्मरण में एक वृहत कार्यक्रम आयोजित किया गया। उस कार्यक्रम में डॉ. शिव कुमार मिश्र को आमंत्रित किया गया था। मुझे भी बुलाया गया था। लॉज में मुझे डॉ. मिश्र के साथ एक कमरे में रहना था। साथ रहकर हम दोनों प्रसन्न थे। मैंने उन्हें अपनी प्रातःचर्या में शामिल कर लिया था। मैं सुबह-सुबह भ्रमण करता था। उनसे मैंने निवेदन किया था कि यदि उन्हें मेरे साथ सुबह भ्रमण में कोई आपत्ति न हो तो चलें। वे प्रसन्नतापूर्वक मेरे साथ चल पड़े। चल तो पड़े पर चलना कठिन हो रहा था। शरीर का भारीपन और घुटनों के दर्द के कारण उन्हें दिक्कत पेश आ रही थी। मैंने गलती कर दी थी। लेकिन वे सब कुछ भूलकर मेरे साथ बतियाते हुए चलते रहे। मैं उनकी हरसंभव सहायता कर रहा था। वे भी बार-बार कहते रहते थे कि मैं मिल गया तो उनके काम सहज हो गए।

कार्यक्रम समाप्त हुआ। हम लौटने की तैयारी करने लगे। मैंने उनकी अटैची और अन्य समान को व्यवस्थित करना प्रारंभ कर दिया। वे जैसा बता रहे थे वैसा मैं समान जमा रहा था। वे बड़े समीक्षक तो थे ही, सो उन्हें नए-पुराने लेखकों की ढेर सारी पुस्तकें भेंट स्वरूप मिली थीं । मैंने उनको व्यवस्थित करने की बाबत पूछा तो उन्होंने कहा ‘इन्हें अलग बाँध लें। इन्हें मैं ले नहीं जाऊँगा।’ मैंने कहा ‘तो फिर यहीं छोड़ना है तो जैसी हैं, वैसी ही पड़ी रहने दें।’ वे बोले ‘नहीं, मैं इन्हें ट्रेन में उसी बर्थ पर छोड़ दूँगा जिस पर मुझे यात्रा करनी है। पहले मैं होटल में छोड़ देता था, किंतु होटल वाले मेरे पते पर भेज देते थे ये समझकर कि धोखे से छूट गई है। अब ऐसा नहीं करता।’ मैंने प्रतिवाद किया, ‘यह तो आपका पुस्तकों और उनके लेखकों के प्रति अन्याय है।’ वे बोले ‘जानता हूँ, कितने आदर और सम्मान के साथ मुझे ये पुस्तकें दी गई हैं। किंतु इनका मैं क्या करूँगा! मेरे घर में जगह नहीं हैं। मुझे ये पुस्तकें पढ़नी नहीं हैं। मेरे बार-बार मना करने पर लोग दे देते हैं।’ मुझे लगा यह पुस्तकों का संकट काल है। पुस्तकें ही इस संकट की जिम्मेवार हैं। लेखक आखिर क्यों पुस्तकें छपाता है? बेचारी पुस्तकें अनियोजित अपरिपक्व स्थिति में जब आएँगी, तब यही होगा। यद्यपि डॉ. मिश्र का यह रवैया उचित नहीं लगा किंतु उनकी भी अपनी परेशानियाँ थीं।

उनसे मेरी अंतिम भेंट सागर विश्वविद्यालय के अतिथि गृह में हुई थी! हम आमने-सामने के कमरे में थे। मुझे नहीं मालूम था कि डॉ. मिश्र अतिथि गृह में हैं और मेरे सामने के कमरे में हैं। वह तो मैंने उन्हें देख लिया और मैं उनके पास पहुँच गया। हम एक दिन–एक रात वहाँ साथ-साथ थे। उन्होंने उस दिन अपने विषय में बहुत कुछ सुनाया। वे आनंद किन परिथितियों में गए। विभागीय राजनीति की क्या कुटिल चालें थीं। उन्होंने बताया कि डॉ. भगीरथ मिश्र से पहले उनके अच्छे ताल्लुकात थे। बाद में एक छात्र को लेकर उनके मन में मेरे प्रति कटुता का भाव आ गया था–यह विभागीयजनों की ही कुटनीति थी, जिसने डॉ. भगीरथ मिश्र जैसे संत व्यक्तित्व को भी उनके विषय में भड़का दिया। प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति होनी थी और डॉ. मिश्र ने घोषित कर दिया था कि अमुक के प्रोफेसर पद पर नियुक्त होने पर अपना इस्तीफा दे देंगे। अमुक प्रोफेसर बन गए। डॉ. मिश्र ने विभाग जाना बंद कर दिया। वह तो उन्होंने गुजरात में आवेदन कर दिया था। इंटरव्यू हुआ, उसमें वे चुन लिए गए। यद्यपि इस चयन में भी अड़ंगे डाले गए। फिर, शिकायत वहाँ के कुलपति के पास पहुँची कि डॉ. मिश्र आपके विश्वविद्यालय की शाख गिरा सकते हैं–उनके विषय में अनर्गल बातें लिखी गईं। सागर विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारा जाँच-परख की गई। डॉ. मिश्र को इस प्रक्रिया में दो महीने लग गए। किंतु वे सागर छोड़कर चले गए। इसी बीच विश्वविद्यालय का एक लिपिक यात्रा-भत्ता आदि के भुगतान के कागज लेकर आया। उसने डॉ. मिश्र को कुछ समझाया कि उनको ऐसा करने से कुछ अतिरिक्त मिल सकता है। वे उस पर नाराज हो गए। बोले, ‘जितना मेरा व्यय हुआ है–उससे न एक पैसा ज्यादा और न एक पैसा कम’ बेचारा लिपिक डॉ. मिश्र को मुँह बाये हुए देखता रहा। उन्होंने विदा होते हुए कहा था, ‘तुम मिल गए मुझे खुशी हुई! देखा श्यामसुंदर! मैं कहीं भी व्याख्यान देने जाता हूँ तो वहाँ अपने दो छात्रों को स्मरण करते हुए उनका नामोल्लेख अपने व्याख्यान में जरूर करता हूँ। एक तो डॉ. विजय बहादुर सिंह और दूसरा तुम्हारा!’


Image Source : Nayi Dhara Archives