श्यामसुंदर घोष को याद करते हुए

श्यामसुंदर घोष को याद करते हुए

वे दिन : वे लोग

वह 1957 का मार्च या अप्रैल का महीना रहा होगा जब पहली बार डॉ. श्यामसुंदर घोष के दर्शन हुए। मैं गोड्डा कॉलेज में द्वितीय वर्ष आई.ए. का छात्र था और कॉलेज के राजकचहरी में स्थित छात्रावास में रहता था। वहीं बगल के गाँव सैदापुर के निवासी श्यामसुंदर घोष राज कचहरी के एक भाग में रहते थे। बात फैल गई थी कि वह पटना विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिंदी) की परीक्षा देकर आए हैं और परीक्षाफल के बाद हमलोग के व्याख्याता बनेंगे। मेरा वैकल्पिक विषय था प्रधान हिंदी। अतः उनकी ओर मेरा झुकाव स्वाभाविक था।
कॉलेज से आकर चार-पाँच बजे उनसे बीच-बीच में मिला करता था। मेरा लिखा वह शुद्ध करते, नया सबक देते और मुझे प्रोत्साहित करते रहते। कुछ ही दिनों बाद पटना विश्वविद्यालय के एम.ए. हिंदी का परीक्षाफल निकला और उन्हें प्रथम वर्ग मिला। फिर नियमित रूप से वह हमें हिंदी पढ़ाने लगे। मैंने ध्यान दिया तो धीरे-धीरे पता चला कि वह कोई व्याख्यान हवा में नहीं देते कि बिना किसी तैयारी के आ गए और अपनी वक्तव्य का कमाल कर दिया। महादेवी वर्मा की कुछ कविताएँ थी पाठ्यक्रम में। उन्होंने काव्य, कविता छायावाद उसके चारों स्तंभ, महादेवी की पृष्ठभूमि, छायावादी कविता की प्रवृत्तियों आदि पर तीन-चार व्याख्यान देने के बाद शुरू किया पढ़ाना ‘मैं नीर भरी दुःख की बदली’, फिर उनके जीवन, दर्शन आदि पर प्रकाश डालकर उसकी व्याख्या विवेचना की।
उनके छायावादी, रहस्यवादी रूप से अरूप की ओर प्रयाण आदि पर बताते रहे। फिर पंक्तियाँ आई।

‘जाने जीवन की कौन सुधि ले लहराती आती मधु बयार
रंजित कर दे यह शिथिल चरण ले नव अशोक का अरुण राग
मेरे मंडन को आज मधुर रंजनीगंधा का पराग।’

इसकी व्याख्या में उन्होंने छायावादी रहस्यवाद की विवेचना करते हुए बताया–रूप की साधना हो, सगुण-साधना हो तो फिर मिलन है तो कुछ काल मिलन है, वियोग है तो फिर वियोग है। परंतु अरुण की आराधना हो तो भावात्मक मिलन-विरह तो चलता ही रहता है। प्रकृति ही बननी है माध्यम :

‘मेरे प्रियतम को भाता है तम के पर्दे में आना
ओ नभ की दीपावलियो तुम क्षण भर को बुझ जाना।’

यह प्रसंग इसलिए आया है कि वह कितने विद्वान थे और कितना डूबकर पढ़ाते थे। फिर उनकी अरुण-आराधना पर अज्ञेय के एक उदाहरण द्वारा प्रकाश डाला गया ‘आसन्न मिलन और आसन्न विरह के दो ध्रुवों पर दोलायित जीवन की धूप-छाँह ही महादेवी वर्मा के काव्य की वर्ण्य वस्तु है।’ (आधुनिक हिंदी साहित्य, एक परिदृश्य; अज्ञेय)
गद्याध्यापन में भी वैसी ही गहनता थी। प्रेमचंद की कहानी पर विचार हुआ तो पूरी पृष्ठभूमि, विकास पर विस्तृत प्रकाश डाला गया। 1957-1960 के मध्य उनकी पुस्तकें निकली, जिनकी अंतिम पांडुलिपि मैं ही बनाता था। उसके किसी पृष्ठ में उन्होंने थोड़ा भी परिवर्तन किया, तो फिर लिखना पड़ता था। कभी-कभी पचास पृष्ठों का फिर लेखन होता था और मैं दम साधकर सब करता था। तब मैं कहाँ जानता था कि भविष्य में मैं भी उसी मार्ग का पथिक रहूँगा।
उनके आवास पर पूछकर जाने से कुछ सिखाते थे। इधर-उधर कभी पूछने पर कुछ नहीं बोलते थे। एक बार 1999 में राँची से उनके साथ मुझे धनबाद आना था। रास्ते में लाख उन्हें छेड़ता रहा, पूछता रहा। एक शब्द भी नहीं बोले।
मैं जब आर.एस.पी. कॉलेज, झरिया का अध्यापक हुआ तो उन्होंने प्रस्ताव भेजा कि वहाँ उनकी पत्रिका ‘प्रतिमान’ के ग्राहक बनाए जाएँ। किताबें बेची जाएँ। उनकी धनबाद-यात्रा में मैं साथ रहा। लगभग तीस ग्राहक बने और सारी किताबें बिक गईं, भले ही कीमत कुछ देर से मिली।
एक बार वह अपने एक संबंधी (स्व.) सुनील कुमार घोष के साथ धनबाद आवास आए। मैं मौखिकी के सिलसिले में बाहर गया हुआ था। मेरी पत्नी थी जिनको उनका सहज स्नेह प्राप्त था। वह उनहें नाम से ही पुकारते थे। मुझे नहीं देखकर बोले–‘शिष्य नहीं है तो क्या हुआ, शिष्य-पत्नी विमला तो हैं।’ उन्होंने उनसे कहा–‘आज रविवार है, तुमको कॉलेज जाना तो नहीं है।’
मेरी पत्नी ने बड़े संकोच से कहा–‘सर, कोई आज मछली ले आया है घर में। उनके गाँव से कतरनी चावल आया है। आपलोग यहीं भोजन करने की कृपा करें।’ वह प्रसन्न हुए और खा-पीकर पत्नी को आशीर्वाद देकर विदा हुए। यह थी उनकी सरलता, सहजता।
उनका स्वभाव था अक्खड़। वह किसी के आगे न झुकना जानते थे, न कोई समझौता करना ही। इसलिए गोड्डा कॉलेज के अध्यक्ष से कभी-कभार कहा सुनी हो जाती थी। इसी स्वभाव के कारण सिद्धू कानू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की अध्यक्षता उन्होंने अधिक दिन नहीं की।
उन दिनों (1957-1960) उनके पास समीक्षार्थ काफी किताबें आती थीं। उन्हें वह मनोयोगपूर्वक पढ़ते थे। कभी कोई नोट नहीं लेते थे। खूब नोंकदार पेंसिल से जहाँ-तहाँ बिंदु से चिह्नित करते थे। मैं ध्यानपूर्वक उन बिंदुओं को तलाशता तो नहीं देख पाता, पर वह उसी संकेत से समीक्षा का ठाठ खड़ा करते थे। मैं क्या जानता था कि मुझे भी समीक्षक बनना पड़ेगा कभी।
उनकी कृतियों पर लोगों ने अलग-अलग लेख लिखे थे। संपादक थे पटना के डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव। उन्होंने ही कभी किसी पत्रिका के लिए उनकी एक कृति पर मुझसे लिखवाया था। वही संयोग से उसके संपादक थे। अतः मेरा वहाँ प्रतिनिधित्व हो गया। जब पता चला कि गुरुदेव अस्वस्थ हैं और अपनी पुत्री के आवास, राँची में रह रहे हैं। गुरुमाता तो पहले से ही अस्वस्थ चल रही थीं। वह भी वहीं थी तो मुझसे उनके दर्शन किए बिना रहा नहीं जा सका। एक दिन उन्हें देखने गया तो उनके बिस्तर पर किताबों का ढेर देखा और लेटे-ही-लेटे वह उनका पारायण कर रहे थे। यत्र-तत्र कुछ बिंदुओं से चिह्नित भी।
वहीं मुझे उन्होंने वह मोटी पुस्तक दी जिसमें मेरा लेख था। यह पहला और अंतिम अवसर था जब उन्होंने मुझे कोई किताब दी थी। इस मामले में वह घोर कृपण थे और बहुत खोदने पर भी जल्दी कुछ साहित्यिक चर्चा नहीं करते थे। हाँ, आचार्य नलिनविलोचन शर्मा, डॉ. रामखेलावन पांडेय प्रभृति विद्वानों की चर्चा चलती रहे या प्रारंभ की जाए, तो वह भूलकर भी उनकी विद्वत्ता का कोई प्रसंग नहीं उठाते थे, हाँ, कहाँ उन्होंने क्या कहा, इस पर इन्होंने क्या प्रतिक्रिया दी (विशेषतः) इसका उल्लेख अवश्य करते थे। अपने अंतिम दिनों में वे हिंदी के उन चर्चित लेखकों पर संस्मरण के बहाने उनके व्यक्तित्व-कृतित्व का आकलनपरक निबंध तैयार करने में लगे थे, जिनके साथ कभी उनका साथ सहभाव रहा था। ऐसे निबंधों को वे संस्मरणाकलन विधा के रूप में परिगणित करते। घोष जी ने कविता, नाटक, आलोचना सहित अनेक विधाओं में लिखा और जमकर लिखा। उनकी पचास से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। अनेक अप्रकाशित पुस्तकों की पांडुलिपि भी उनके पास थीं, न जाने वे अब छप भी पाएगी या नहीं।
अब क्या बची हैं, उनकी स्मृतियाँ ही मेरा संबल है। उनका स्मरण करते ही मन से बरबस निकल पड़ता है ‘उजाले उनकी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने जिंदगी की किस गली में शाम हो जाए।’


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