ओड़िया समाज के मानवोत्थान की कहानियाँ

ओड़िया समाज के मानवोत्थान की कहानियाँ

भारतीय भाषाओं की कहानियों में इन दिनों क्षेत्रीय संस्कृतियों के अंतर्द्वंद्व के साथ-साथ वहाँ के जीवन-संघर्ष और पीढ़ियों के बीच हो रहे बदलाव को रेखांकित किया जा सकता है। इन बातों को ठीक से समझना हो तो ओड़िया भाषी कथाकार गौरहरि दास की कहानियों को केंद्र में रखकर इस विमर्श को आगे बढ़ा सकते हैं। अभी-अभी उनकी तेरह कहानियों का एक संग्रह ‘जंजीर तथा अन्य कहानियाँ’ आया है, जिसमें ओड़िया समाज और वहाँ के जीवन को समझने की एक दृष्टि मिलती है। गौरहरि दास ओड़िया जीवन संस्कृति के दृष्टिसंपन्न रचनाकार हैं। इनके पूर्व के कथा-संग्रह में ओड़िया समाज को समझने की जितनी जीवंत-दृष्टि मिलती है, उसका विस्तार आलोच्य कथा-संग्रह में भी देखने को मिलता है। देखा जाय तो गौरहरि दास की इधर की कहानियाँ, दो भिन्न पीढ़ियों में हो रहे बदलाव को सामाजिक, सांस्कृतिक धरातल पर रेखांकित ही नहीं करता, उनके जीवन-साहचर्य की बारीकियों को भी सामने लाता है। अलग-अलग कहानियों के उद्देश्य भले ही अलग हों, परंतु सभी में मानवीय-मूल्यों का होना जरूरी है, यह बात भी स्पष्ट परिलक्षित होती है।

तेरह कहानियों के आलोच्य संग्रह में अलग-अलग भावनाओं को सहजता और जीवंतता के साथ रेखांकित किया गया है। इन कहानियों में कहीं मातृप्रेम, लोकलाज, धार्मिक आडंबरों को दिखाया गया है, तो कहीं मनुष्य की संवेदनाओं और मनःस्थिति का सफल-चित्रण हुआ है। रूढ़िगत परंपराओं के कारण विखंडन, तो कहीं दो पीढ़ियों के अंतर की सोच स्पष्ट परिलक्षित होती है। कहीं बालमन में पल रहे सपनों के टूटने का दर्द उजागर किया गया है, तो कहीं जिम्मेदारियों से पलायन, और मनुष्य की बदलती सोच हमें एक नया मार्ग दिखाती है। ‘जंजीर तथा अन्य कहानियाँ’ संग्रह की पहली कहानी जंजीर में परंपरा और मातृप्रेम को सहज देखा जा सकता है। आज 21वीं शती में हमारा देश जहाँ पुरुष और नारी की समानता को सहज स्वीकारता है, वहीं हमारे रूढ़िगत परंपरावादी समाज में नारियों की स्वाभिमान और आत्मनिर्भता को उनका सबसे बड़ा शत्रु भी बना देता है। फिर एक नारी को उससे उपजे कष्ट को किस प्रकार झेलना पड़ता है, इसकी स्पष्ट व्याख्या है, कहानी ‘जंजीर’। इस कहानी में मनोज और अनुराधा दोनों अध्यापक हैं। मनोज के कारण अनुराधा अध्यापन कार्य छोड़ देती है। दोनों की गृहस्थी तब भी नहीं सुधरती–क्यों?

मनोज के कुछ संवाद सुनिए–

आज प्रोफेसर तुम्हारे बारे में क्यों पूछ रहे थे?

तुम्हारे पी.एच.डी. गाईड हमारे इंटरव्यू के सदस्य थे। तुमने यह बात मुझे क्यों नहीं बताई?

तुमने अपने गाईड से मेरे लिए सिफारिश क्यों नहीं की?

तुम्हें इतने फोन क्यों आते हैं?

दरवाजा खोलने में इतनी देरी क्यों हुई?

तुम्हें उस अध्यापक ने पहचाना कैसे?

क्यों, कौन, कैसे, कहाँ जैसे प्रश्नों की कोई सीमा नहीं होती। उत्तर दे या ना दें, अनुराधा की यातना निश्चित थी। अपने ऊपर किए गए अत्याचारों को तो वो सह गई, परंतु जब अपना क्रोध उतारने के लिए मनोज ने बेटी अपर्णा को पिटा, तो माँ के सब्र का बाँध टूट गया। उसने पाँच साल की बेटी के साथ मनोज और उसके घर को छोड़ दिया। बाईस साल बीत गए। अपर्णा शादी करना नहीं चाहती–कारण माँ की देखरेख कौन करेगा? देवव्रत की सहायता से अनुराधा अपर्णा को समझाने में सफल होती है, कि सभी ऋणों से बड़ा बच्चों की सहानुभूति का ऋण होता है और फिर अपर्णा शादी के लिए राजी हो जाती है। अनुराधा को सभी प्रकार के जंजीरों से जैसे मुक्ति मिल जाती है।

संग्रह की दूसरी कहानी, ‘बेटी लौट आई’ अपने शीर्षक को केंद्र में रखकर ही लिखी गई है। हमारे इस परंपरावादी समाज में आज भी बेटे को ही प्राथमिकता प्राप्त है। धार्मिक आडंबरों के कारण न जाने कितनी बेटियों को माँ की कोख में ही मार दिया जाता है। कितनों को बेचा जाता है और न जाने कितने को ही अस्पतालों में बदल लिया जाता है। बेटे की मुखाग्नि से माता-पिता को मोक्ष मिलती है, ऐसे मत वाले पाखंडियों के कारण आज भी समाज में बेटे-बेटी में भेद विद्यमान है। इस कहानी की कथावस्तु भी कुछ ऐसी ही है। उमाकांत जी को पता चलता है, कि उनकी पत्नी फिर कभी माँ नहीं बन सकती तो उन्हें लगता है, कि इतने बड़े कारोबार को कौन सँभालेगा, मुखाग्नि कौन देगा? लोग क्या कहेंगे? ऐसा सोच वह नर्स की मदद से करूणा नर्सिंग होम में कैलाश महंती के बेटे से अपनी बेटी को बदल देते है। बाद में जहाँ उनका बेटा एक लड़की को कुँवारी माँ बना देता है, तो वहीं कैलाश महंती की बेटी पूरे राज्य में मैट्रिक की परीक्षा में टॉप करती है। जब उमाकांत जी अपने बेटे को समझाते हैं, तो वह उनके सिर पर बैट से प्रहार कर देता है। उमाकांत अपने किए के लिए खुद को दोष देते हुए, रेलवे ट्रैक पर आत्महत्या करने जाते हैं जहाँ उन्हें एक नवजात, मासूम बच्ची मिलती है। वो अपर्णा को फोन करते हैं और बच्ची को सिने से चिपकाते हुए कहते है–‘बेटा, थोड़ा और इंतजार करो, तेरी माँ जल्दी ही आ रही होगी।’ उन्हें लगता है, उनकी बिटिया योगमाया लौट आई। यह कहानी अपनेआप में पूर्णता की कसौटी पर खरी उतरती है। ‘काँच का पुतला’ बालमन की सहज अभिव्यक्ति की कहानी है। बालमन पर जब किसी चीज, व्यक्ति या परिवेश के एक रूप का प्रभाव पड़ता है, जिससे वो प्रभावित होता है, फिर उसी चीज, व्यक्ति या परिवेश का दूसरा रूप जब सामने आता है, तो कैसे बालमन हतोत्साहित हो जाता है, इसी की सफल व्यंजना है, कहानी ‘काँच का पुतला’ गाँव का माहौल जब पूरा खुशनुमा होता, तभी गाँव में आते बट चाचा। उसके पास सब के लिए कुछ न कुछ देने को होता है। वो खुद भी किओकार्पिन हैं। इत्र और सिगरेट से लैश रहते। नीले कुर्ते, चमकते जूते और नीले गमछे में बटचाचा का व्यक्तित्व किसी राजा से कम न लगता। वो कोलकाता से लेखक के लिए ‘काँच का पुतला’ लाते हैं, जिसमें एक तरफ राज, दूसरी तरफ बनमानुष दिखता। लेखक जब अपने शिक्षक के साथ बट चाचा से मिलता है, तो उन्हें पहचान नहीं पाता है। देह-हाथ कादो से बलबल, मुँह तमाम धूल, सिर गंदा, गमछा पुराना, देह में घुटने भी छिपा पाता। एक पाटरिया गमछा, पाँव में किसी जमाने की फटी चप्पल और हाथ में एक छुरी। वो किसी बनमानुष से कम न दिख रहे थे। लौट कर लेखक जब घर आता है, तो किसी से कुछ बात न करता है। अलका कहती है, ‘पुतली टूटी इसलिए परेशान हो, नहीं क्यों? पुरानी चीजें टूट जाने पर सचमुच कष्ट होता है’ लेखक ने सोचा मेरा पुतला तो उसी दिन बरसात में टूट गया था। अब अलका से यह बात कहने का क्या फायदा?

स्त्री अगर सृजन का आधार है, तो वही सत्यनाश की सूत्रधार भी है। इसी कथ्य पर आधारित है ‘माया’। कैसे एक गुंडा पाणुआ जिसके आगे मंत्री, विधायक से लेकर इलेक्ट्रिशियन और पानीवाले तक की नहीं चलती, वो मुर्गा, आदमी, बकरी जिसे कहे उसे काटे। ऐसा मनुष्य एक लड़की रजनी की बातों में आकर पोखर में पद्म लाने जाता है, जो साँपों से भरा है और काल के गाल में समा जाता है। राघव बोला–‘नये पोखर का साँप नहीं रे नरी, उस छोकरी का विष पणुआ को मार दिया। नहीं तो क्या पणुआ जैसा दुर्दांत इस काम में हाथ देता क्या?’ रजनी ने फिर नरी को भी पद्म लाने को कहा। उसका मन हुआ वह अभी जाकर ला दे। पर राघव ने मना करते हुआ कहा–‘नारी माया नारायण को अगोचर। पणुआ वो तुच्छ इनसान। तुझे भी कह दे रहा हूँ, भूल से इस माया में न पड़ना। भारी संगीन है ये रास्ता।’ नरी ने हाँ में सिर हिलाया। इस कहानी में नारी की स्वार्थलिप्सा को सहजता से उद्घाटित किया गया है, जिसके लिए किसी की जान भी मायने नहीं रखती। नारी की माया सच में नारायण के लिए भी अगोचर है। ‘मुखौटा’ में पिता-पुत्र के संबंधों को उजागर किया गया है। कैसे एक पुत्र अपनी पहुँच और पद का लाभ उठा पिता की इलाज मुफ्त में करवाता है। बाद में अस्पताल भी ले जाता है, परंतु पिता के न जीने की इच्छा उन्हें मृत्यु के मुँह में ले जाती है। वहीं संजय की मुफ्त की विटामिन्स की दवाइयाँ खाकर सना बहेरा ठीक हो जाता है क्योंकि वह जीना चाहता है। सना बहेरा को स्वस्थ देखकर संजय को एहसास होता है कि उसके पिता उसकी वजह से जीना नहीं चाहते होंगे, क्योंकि वह कभी उनके लिए वक्त नहीं निकाल पाता था। उसने तो एक अच्छे बेटे बनने का मुखौटा पहन रखा था। यह कहानी मार्मिकता से ओत-प्रोत है। पिता अपने पुत्र के लिए हर संभव प्रयास करता है, परंतु पुत्र अपनी जिम्मेदारियों को भली-भाँति कभी नहीं निभा पाता। संजय ने तो बस अपने पिता को ठगा है।

‘नन्हा बाबा जी’ गौरहरि दास की कहानियों में मुझे सबसे अच्छी कहानी लगी। इसमें धार्मिक पाखंड या रूढ़िवादी आस्था के कारण एक नन्हें बच्चे को किस तरह बाबा जी बनना पड़ता है और उसे क्या-क्या यातनाएँ सहनी पड़ती हैं, उसका इस कहानी में बहुत ही सुंदर वर्णन हुआ है। यह बाल मनोविज्ञान की ऐसी कहानी है, जो हमें अंदर तक झकझोर देती है। कच्ची मिट्टी जैसा बालमन-क्या उसमें इतने कठोर शासन का निर्वाह कर पाने की शक्ति हो सकती है? –बच्चा आपराधिक गतिविधियों में भी पड़ सकता है क्या? ऐसे कई सवालों से भरा है, कहानी ‘नन्हा बाबा जी’। आस-पास के गाँव के सभी देवी-देवताओं से मनौती माँगने के बाद अंत में पुरी जाते हैं। टुटुल के माता-पिता को ठीक एक साल बाद ही टुटुल के रूप में पुत्र-रत्न की प्राप्ति होती है। जब टुटुल दस साल का हो जाता है, तो उसके पिता जी, माँ के लाख रोने पर भी उसे पातेपुर मंदिर में रख आते हैं, क्योंकि उन्होंने मनौती की थी कि अगर बेटा होगा तो वो उसे ‘बाबा जी’ बना देंगे। गाँव में टुटुल का बहुत सा काम अधूरा रह जाता है। अब टुटुल यहाँ बन जाता है–नन्हा बाबा जी। वह सुबह-शाम मंदिर का काम करता, स्कूल जाता, गौ चराता और आलुआ बाबा जी की सेवा भी करता। वो मन ही मन पुजारी, पिता जी और भगवान को कोसता कि इन्हीं सब ने उसे उसकी माँ से अलग किया है। वह परशु से मिल कर नित्य नई-नई योजना बनाता ताकि उसे मंदिर से निष्कासित कर दिया जाए। जब उसकी पाँचवीं गलती होने पर पुजारी जी उसे निष्कासित करने की बात करते हैं, तो वह खुश हो जाता है। अब वह सारे छुटे हुए काम गाँव में पूरा करेगा और कोई भी ऐसी गलती नहीं करेगा, जिससे उसे मंदिर में आना पड़े। जब टुटुल अपना बैग पैक कर बाहर आता है, तो देखता है, कि पिता जी पुजारी को कुछ पैसे दे रहे हैं। ‘बच्चा है, गलती हो गई, माफ कर दीजिए।’ फिर वह टुटुल से आकर कहते हैं, ‘पुजारी जी को मैंने हाथ-पैर जोड़े हैं–क्षमा माँगी है। उन्होंने तेरी भूलों को माफ कर दिया है। अब तू अच्छा बच्चा बन जाना। जब तू बारह साल का हो जाएगा तो तुझे भगवान को बेच दूँगा और फिर खरीद लाऊँगा। फिर तुझे बाबा जी नहीं बनना पड़ेगा। टुटुल आलुआ बाबा जी की भुजाओं में छटपटा रहा था। उसका रोना न तो भगवान को, न पुजारी को और न ही उसके पिता को सुनाई दे रहा था। उसके बैग से उसके कॉपी-किताबों की तरह उसके मन की योजनाएँ, इच्छाएँ और सपने सभी बिखर गए थे।

स्वार्थ में लिप्त बेटे के अंतर्मन पर ‘पिता’ एक जोरदार प्रहार करती है, एक पिता अपनी भूख छोड़, जिन बच्चों की हर ख्वाईश पूरी करता है, कैसे एक बेटा अपनी हर नाकामयाबी और बदतर स्थिति का जिम्मेदार मजबूर पिता को बनाता है और स्वार्थवश उस पिता को मार तक डालना चाहता है। इसकी सफल व्यंजना है। ‘दूर आकाश का पंछी’ एक असहाय पिता के इंतजार की कहानी है। उसका पुत्र अंततः नहीं आता और जीने की इच्छा नहीं होने की वजह से वो असमय ही काल के गाल का आहार बन जाता है। पिता की मनोदशा का सुंदर-चित्रण प्रस्तुत करने में लेखक को सफलता प्राप्त हुई है। ‘पहाड़’ स्त्री के मनोभाव और उसकी मर्यादाओं को सहजता से उजागर करती है। मायके और पति से विहीन (त्याज्य) पारो जब 36-37 साल के बाद अपने पीहर से किसी को आया पाती है, तो उसकी मनोदशा की विकलता और पति से त्याज्य होने पर भी अपने सुहागन होने और मर्यादा को सँभाल रखने पर गर्व का आकर्षक चित्रण हुआ है–कहानी ‘पहाड़’ में। ‘दंशन’ एक ऐसे परिवेश को दर्शाते हुए लिखी गई है जहाँ मनुष्य को असामाजिक तत्वों के खिलाफ आवाज न उठाने और किसी अबला की मदद न करने पर उसकी अंतरआत्मा उसे धिक्कारती है। उसे भीरू से साहसी बनने को कहती है। अपनी गलती का एहसास विषाक्त दंशन की ज्वाला में उसके तन-मन और आत्मा सब को जला देता है। ‘पाप’ के माध्यम से लेखक यह कहना चाहते हैं, कि हर समाज और संप्रदाय में कुछ निश्चित कार्य वर्जित होते हैं और उनका हमारे द्वारा संपन्न होना–‘पाप’ कहलाता है और ईश्वर उसकी सजा भी देता है। यही इस कहानी का आशय है। ‘हस्ताक्षर’ एक बुर्जुग शिक्षक की समस्याओं और उसके ही दो स्कूली छात्रों के परस्पर व्यवहार की कहानी है। ‘सोने का हार’ एक ऐसी पारिवारिक कहानी है, जिसमें दो पीढ़ियों की सोच के बीच बेचारा रघुनाथ पिस जाता है। जहाँ एक ओर संपन्न परिवार की आधुनिक अध्यापिका पत्नी है, तो दूसरी तरफ अशिक्षित गरीब परिवार से आई माँ का गहनों से लगाव हमेशा बना रहता है। चाहे स्त्री की उमर जो हो, माँ भी अपवाद नहीं। उन्हें भी हार चाहिए। परिवार में इस बात के लिए भी कलह होता। अंत में हार मिलने पर वह रघुनाथ की बेटी के लिए रख देती है। यही इस कहानी का कथ्य है। गौरहरि दास की कहानियों से गुजरते हुए इस तथ्य से स्वतः अवगत हुआ जा सकता है कि इनकी कहानियाँ ओड़िया समाज के मानवीय मूल्यों, रीति-रिवाज और सामाजिक तानेबाने का द्वंद्व रचती हैं। समकालीन कथा-साहित्य में ऐसे अनेक कथाकार सामने आए हैं, जिनकी कहानियाँ क्षेत्रीय समस्याओं को उकेरती हुई मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करती हैं। यही गौरहरि दास की कहानियों में भी है। इन कहानियों का ओड़िया से हिंदी अनुवाद सहज एवं चित्तस्पर्शी है, जिसकी तारीफ की जानी चाहिए।


Image: Jagannath Rath Yatra Puri Odisha- (cc sharealike)
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Note : This is a Modified version of the Original Arwork

रजनी प्रभा द्वारा भी