सूर्यबाला की रचनाशीलता

सूर्यबाला की रचनाशीलता

संभवतः यह कथन पूर्णतः सत्य नहीं है कि नाम में क्या रखा है! नाम का अपना महत्त्व है। अनेक हैं जिन्होंने अपने नाम को सार्थक किया है। उनका नाम जिह्वा पर आते ही मन श्रद्धा से भर आता है। एक विशिष्ट छवि मन-मस्तिष्क पर अंकित हो जाती है। सरस्वती, सीता, सावित्री, गंगा जैसे नामों का स्मरण होते ही उनके कर्म, अवदान, समर्पण की उज्ज्वल तस्वीर मन में उभरती है। सूर्यबाला भी अपने नाम के साथ पूर्ण न्याय करती हैं। सूर्यबाला अर्थात सूर्यपुत्री यमुना की भाँति गहन-गंभीर। अपने प्रवाह में कूड़े को किनारे करती और सत्व-गुण को धारण करती हुई। सूर्यपुत्र शनि या यम की तरह नहीं कि अशुभ की आशंका या मृत्यु का भय बना रहे। सूर्यबाला का विश्वास सकारात्मकता में है। जीवन-मूल्यों में। उनकी रचनाशीलता व्यक्ति को उत्साह-उमंग से भर, जीने की राह दिखाती है। उनका भरोसा मनुष्यता में है। मर्यादाओं और आदर्शों में। सहजता और आचरण की शुचिता में। एक संवेदनशील, कर्त्तव्यनिष्ठ गृहिणी के आगे उन्होंने अपने अंदर की लेखिका की आहुति अनेक बार दी है। उनका बहुआयामी व्यक्तित्व इतने हिस्सों में बँटा है कि उसका जोड़ घटाव कठिन है। इतनी बड़ी लेखिका है, पर अहं शून्य। दिखावे-प्रदर्शन से दूर। अपने अवदान के उल्लेख को बहुत ही संकोच और विनम्र भाव से स्वीकारती हैं। जोड़-तोड़ से दूर एक आत्मीय मुकाम उनके चेहरे पर सदैव फैली रहती है। शार्टकट के खतरों से भिज्ञ हैं। धैर्य उनकी बड़ी पूँजी है। लिखने में जल्दबाजी नहीं। कई अनुभव बरसों-बरस अंदर खदबदाते रहते हैं और अंदर से अलार्म बजने के बाद ही मूर्त रूप लेते हैं। वे अपने लिखे को थोड़े-थोड़े अंतराल से पढ़ती-गुनती हैं और कमजोरियों से रू-ब-रू होती है। उनका कोई लेखन सायास नहीं होता।

सूर्यबाला को साहित्य के संस्कार पिता से मिले। वे साहित्य और संगीतप्रेमी थे। अच्छे शायर भी। उनके पास समृद्ध लाइब्रेरी थी जिसका भरपूर उपयोग सूर्यबाला ने किशोरावस्था में ही कर लिया था। फिर विपन्नता में बिताया कुछ समय। अभावों के बीच संघर्षमय जीवन ने पीड़ा और अवसाद का अनुभव कराया। सपाट जीवन कुछ नहीं देता। विपरीत परिस्थितियों में ही मनुष्य की परीक्षा होती है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि न अकेले संस्कार और न अकेला परिवेश मनुष्य को लेखक बनाता है। दोनों के योग से ही सही रचनाशीलता जन्म लेती है। कला, कल्पना, संवेदना और भाषा से वह पठनीय और मननीय बनती है। बिना नैसर्गिक प्रतिभा के लेखन गूँगे का गुड़ बनकर रह सकता है। सूर्यबाला में ये तमाम लेखकीय गुण हैं और इसीलिए वे साहित्य-जगत में मुकम्मल मुकाम बनाए हुए हैं।

सूर्यबाला के व्यक्तित्व-कृतित्व को जानने के कई मौके आए। तीन-चार बार उनका इंदौर आगमन हो चुका है और उससे पहले एक बार उज्जैन। वहीं पहली मुलाकात हुई थी। मौका था भारतीय दलित साहित्य अकादमी, म.प्र. द्वारा 20-21 अक्टूबर, 2001 को नारी-अस्मिता पर व्याख्यान और सम्मान-समारोह का। मंच पर थे आदरणीय शिवमंगल सिंह जी सुमन, सूर्यबाला, डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, डॉ. तारा परमार और यह नाचीज। मुझे सुमन जी के हाथों ‘सृजन सेवा सम्मान’ से सम्मानित किया गया था। तब की एक बढ़िया तस्वीर मेरे ड्राइंग रूम में लगी है। इस बात का बेहद अफसोस रहा कि कुछ वर्षों पूर्व जब सूर्यबाला, कथाकार-रंगकर्मी प्रभु जोशी के साथ मेरे निवास पर आई थी, तब मैं उस तस्वीर की ओर इंगित कर उन्हें उज्जैन-प्रसंग की क्षीण होती स्मृति को ताजा न करा सका!

विगत दिसंबर, मैं जब मुंबई गया था, सूर्यबाला जी से मिलने उनके निवास पर गया था। डॉ. सतीश शुक्ल भी मेरे साथ थे। सूर्यबाला जी के पति श्री लाल साहब की शालीन, मीठी आवाज फोन पर तो सुनने के कई अवसर आए थे, पर उस दिन उनके प्रत्यक्ष दर्शन का सौभाग्य भी मिला। उच्च पद से सेवानिवृत लाल साहब सज्जन व्यक्ति हैं। लेखन कार्य में उनका पूरा सहयोग सूर्यबाला जी को मिलता है। ऐसा न होता तो एक गृहिणी के लिए पारिवारिक जिम्मेवारियों का निर्वाह करते हुए अपनी सृजनात्मकता को बचाए रखना मुश्किल होता। कई बार लाल साहब सूर्यबाला जी की रचनाओं के प्रथम पाठक होते हैं और जरूरी होने पर अपने सुझाव देते हैं; इस लोकतांत्रिक भावना के साथ कि यह जरूरी नहीं कि उनकी सलाह या सुझाव को माना ही जाए।

सूर्यबाला नारी-चेतना की प्रवक्ता के रूप में हमारे समक्ष हैं। वे भारतीय संस्कारों की पक्षधर हैं। उनकी अधिकांश नायिकाएँ विद्रोही न होकर समन्वयवादी हैं–चाहे वह कामायनी संवाद हों, मेरे संधि पत्र हों, अनाम लम्हों के नाम हों, या आदमकद हों। इनका जोर स्त्री को समर्थ सिद्ध करने से अधिक इस बात पर रहता है कि उनके पात्र विश्वसनीय और प्रामाणिक हों। इसका यह अर्थ नहीं कि वे बराबरी और समान अधिकारों की पक्षधर नहीं हैं। पर स्त्री-विमर्श के नाम पर देह की आजादी, नारी मुक्ति के नाम पर मुक्त नारी, विवाहेतर संबंधों जैसे विषयों पर कथित बोल्ड राइटिंग में उनका विश्वास नहीं है। उनके अनुसार स्त्री-विमर्श अपने सही अर्थों में रहा ही नहीं। वह फार्मूलाबद्ध लेखन बनकर रह गया है। उनका लेखन बने-बनाए फार्मूला से ऊपर है। उनकी कहानियाँ एक तरह से प्रतिरोध की कहानियाँ हैं, पर यह प्रतिरोध मुखर न हो, परोक्ष है, व्यंजना में है। ‘कात्यायनी संवाद’ में शिक्षित, नौकरीपेशा कामायनी द्वारा असंवेदी अस्वस्थ पति के विरुद्ध विद्रोह करने या प्रतिशोध लेने के बजाय लेखिका का भरोसा मानवीय करुणा में है! उनकी व्यंग्य-रचनाओं में भी करुणा की धारा विद्यमान है। ‘बाऊजी और बंदर’ करुणासिक्त व्यंग्य की श्रेष्ठ कहानी है। परिवार में बाऊजी की चाहत को बड़े ही सांकेतिक ढंग से व्यक्त किया गया है। हाँ, सुमिंतरा की बेटी में असहमति का स्वर है। वहाँ पिता द्वारा की गई दूसरी शादी के विरोध में बेटियाँ पिता की टैक्सी पर धूल फेंकती हैं और शाम को पिता की कब्र थोपने का खेल खेलती हैं। ऐसा सांकेतिक प्रतिरोध कुछ अन्य कहानियों में भी है, यद्यपि उनकी संख्या तुलनात्मक रूप से कम है। ‘यामिनी कथा’ एक स्त्री की संवेदनात्मक जटिलता, मानसिक तनावों और आत्म-संघर्ष की हृदयस्पर्शी गाथा है। यामिनी ने जीवन में जो भी चाहा, सहज रूप से चाहा, लेकिन परिस्थितियों ने उसे चैन से जीने नहीं दिया। इसके लिए केवल परिस्थितियाँ ही जिम्मेदार नहीं थीं, नारी सुलभ मन और उसकी संवेदनात्मकता भी जिम्मेदार थी। कहाँ तन के साथ मन की बात थी। ‘अनाम लम्हों के नाम’ में पति रुक्ष, कंजूस और खड़ूस है। बच्चों के प्रति भी असंवेदनशील। लेकिन पत्नी, पति के हर कृत्य को जस्टीफाई करती है। यह सदियों से चली आई परंपरावादी औरत की स्थिति पर अवसाद से भरा व्यंग्य है। वह यहाँ तक कहती है कि ‘आखिर वह उसका पति है।’ लेखिका के सकारात्मक सोच की एक और कहानी है ‘न किन्नी न’। यहाँ भी कथाकार मौसी, आकाश या किन्नी के भाई-भौजाई को खलनायक के रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाई।

पात्रानुकूल भाषा-बोली के प्रयोग के कारण सूर्यबाला की कहानियाँ ग्राह्य, पठनीय और लोकप्रिय हुई हैं। विश्वसनीय भी। ‘आगे पंखी’ में आंचलिक बोली, ‘एक इंद्रधनुष जुबेदा के नाम’ में उर्दू जबान, मध्यवर्ग द्वारा अँग्रेजी भाषा प्रयोग तथा ‘सुनंदा छोकरी की डायरी’ में मुंबइया भाषा का सटीक प्रयोग हुआ है। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि उन्हें गाँवों, कस्बों, शहरों और महानगरों में रहने के मौके मिले और एक सजग रचनाकार के नाते उन्होंने विभिन्न अंचलों की बोलियों-भाषाओं को आत्मसात किया। एक सचेत रचनाधर्मी अपनी आँखें खुली रखता है और आसपास की चीजों को बारीकी से पकड़ता है। उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हैं तो इसका यह अर्थ नहीं कि वे स्तरीय नहीं हैं। लोकप्रियता और रचनात्मकता में अनिवार्यतः विरोध हो, यह जरूरी नहीं। प्रेमचंद की कहानियाँ स्तरीय भी हैं और लोकप्रिय भी। यही बात ‘रामचरितमानस’ के साथ है।

संस्मरणों की उनकी किताब ‘अलविदा अन्ना’ के उल्लेख के वगैर सूर्यबाला के व्यक्तित्व की चर्चा अधूरी रहेगी। यह विदेशों में पल रहे बच्चों को भारतीय संस्कृति से परिचित कराने की जिद और जुनून की वैचारिक प्रस्तुति है। निश्चित ही संस्मरणात्मक लेखन की यह एक विलक्षण कृति है। ये सूर्यबाला के अमेरिका प्रवास के संस्मरण हैं, मगर आम संस्मरणों से भिन्न। यह बाहरी स्थानों से अधिक अंतर्जगत की यात्रा है। आरंभ से विदेश में पली-बढ़ी नन्हीं पोती के व्यवहार, बोली और सोच से हतप्रभ सूर्यबाला अचंभित हैं और थोड़ा दुःखी भी। वे पोती को भारतीय संस्कारों से परिचित कराने के लिए कमर कस लेती हैं और अंततः पोती अन्ना को पूरी तरह बदल देती हैं। इसके बाद सुकून से भारत लौट आती हैं। लेखिका ने बड़े ही खिलंदड़ी अंदाज में यह विवरण लिखा है। प्रकारांतर से यह सूर्यबाला की भारतीयता में आस्था की प्रतीक रचना है।

विचार और सूक्ष्म अनुभवों से उपजी सूर्यबाला की कहानियाँ थोड़ी जटिल लग सकती हैं, पर अपने अभिव्यक्ति कौशल से वे उन्हें पठनीय बना देती हैं। उदाहरण-स्वरूप ‘एक टुकड़ा कस्तूरी’ संग्रह की कहानियों को लिया जा सकता है। इनमें किशोरवय के आभासी प्रेम या संवेदनात्मक एहसास की बहुत बारीक सर्जरी की गई है। अव्यक्त प्यार के सूक्ष्म पक्ष को लेखिका ने प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। मन के कोने में अनजाने ही जो छवि अंकित हो जाती है, उसे समय की स्याही भी नहीं मिटा पाती। निश्चित ही स्त्री मन की गहरी पहचान है उन्हें!

जिस संस्कारशील मध्यवर्ग से सूर्यबाला आती है, उसकी छाया उनकी रचनाओं में दिखाई देती है। नैतिक और मानवीय मूल्यों में उनकी गहरी आस्था है। मानवीय संबंधों की जो विरासत उन्हें मिली है, उसकी सुगंध उनकी कृतियों में मौजूद है। इसीलिए उनकी सारी रचनात्मक कोशिश बेहतर इंसान बनाने की है। उन्हें जहाँ भी मानुष गंध महसूस होती है, उसे सहेज लेती हैं और फिर उसे अपनी रचनाशीलता में पिरो देती हैं। सहज, स्वाभाविक रूप में।


Image : A river
mage Source : WikiArt
Artist : Isaac Levitan
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जैसे ही जूठी प्लेटें उठाकर एक ओर रखे ड्रम में डालने के लिए जग्गू झुका कमर में दर्द की एक लहर ऊपर से नीचे तक दौड़ गई। एक आह निकली जो सिर्फ उसने सुनी। बाकी सब तो मस्ती में डूबे थे। दुःख उसका अपना था। जग्गू को न ड्रम से आ रही जूठन की गंध ने छुआ, न नीम के पेड़ से ड्रम में झरी नीम की पत्तियों ने। छुआ होता तो पता चलता कि कड़ुवाहट कहाँ ज्यादा घुली है–पत्तियों में या खुद उसके अंदर! पर अपनी पीर लिए वह देर तक वहाँ खड़ा नहीं रह सकता था। केटरर हरनाम सिंह देख लेता तो काम-चोरी के लिए डाटता या आइंदा काम पर न आने का फरमान जारी कर देता। लँगड़ाता हुआ, जग्गू फिर से स्वागत-समारोह में आए अतिथियों के बीच जाकर जूठी प्लेटें इकट्ठी करने लगा। उसे प्रभु पर, यदि वह कहीं है तो, क्रोध हो आया। क्यों उसने...लकवे के हल्के अटैक के कारण उसके बाएँ पैर को कमजोर कर दिया। इस विकलांगता की वजह से ही उसे वेटर का पद न देकर केवल प्लेटें उठाने का काम दिया गया।