तेजेंद्र शर्मा की कहानियाँ

तेजेंद्र शर्मा की कहानियाँ

तेजेंद्र शर्मा अपनी कहानियों में अपने समय के परिवेश को पूरी गहनता और सघनता से व्यक्त करते है। उनकी कहानियों में फैले परिवेश का विस्तार देशी और विदेशी पृष्ठभूमि पर आधारित है। अपनी कहानियों में तेजेंद्र शर्मा उस परिवेश को उद्घाटित करते हैं जो हमारी चेतना को बहुत गहरे जाकर उद्वेलित और प्रभावित करता है। उनकी कहानियों का परिवेश अपने विराट सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक संदर्भों  को सामने लाता है जो मनुष्य के जीवन को निर्धारित और संचालित करता है। वे परिवेश के बिंब रचते हैं ताकि पाठक उनके साथ अपना तादात्म्य सहजता से स्थापित कर सके। वह परिवेश वर्तमान भी हो सकता है और अतीत भी। इसी क्रम में तेजेंद्र शर्मा प्रवासी बन जाने के आधारभूत कारणों की तलाशी के साथ-साथ प्रवासियों के जीवन संदर्भों को गहराई से देखने का प्रयास भी करते हैं।

सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन के साथ-साथ मनुष्य की जीवन-शैली में भी बदलाव होता है। इस बदलाव के साथ साथ कई पुराने संदर्भ और स्थितियाँ समयानुकूल नहीं रह पाते। इन संदर्भों और स्थितियों से हमें उल्लास मिलता था, स्फुर्ति मिलती थी। तेजेंद्र की अधिकांश कहानियाँ इसी भावभूमि पर आधारित हैं। इन कहानियों के पात्र अपना देश छोड़कर विदेश चले गए, पर अपना देश उनसे नहीं छूटता और वह हमेशा वर्तमान में रहते हुए अपने देश की स्मृतियों को अपनी सजग चेतना में बसाए रहते हैं, तेजेंद्र की कहानियों का प्रमुख आधार विदेशों में रह रहे भारतीयों के सामने आने वाले जीवन संदर्भ हैं, दरअसल विदेशों में जो भी भारतीय गए हैं उनके मूल में एक ही जीवन दर्शन काम करता है किस तरह कम समय में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जाए और किस तरह ऐशों  आराम की जिंदगी गुजरी जाए। यह सोच भारतीयों में गहरे समाई हुई है इसीलिए बहुत बड़ी संख्या में शिक्षित और अशिक्षित भारतीयों ने भी विदेशों की राह पकड़ी। इस क्रम में वे अपने माँ बाप को ले गए, अपने भाई-बहनों को ले गए, शादी कराने हिंदुस्तान आए और शादी करा कर यहाँ की लड़कियों को लेकर चले गए। इस प्रवास के दौरान बहुत कुछ खत्म हो गया–नाते रिश्ते खत्म हो गए। उनके जीवन में अकेलापन और बेगानापन समा गया। विदेशों में अनेक दारुण स्थितियों और संदर्भों का सामना उन्हें करना पड़ा और यहाँ तक पारिवारिक संबंधों में बिखराव भी आया। धन कमाने की लालसा में व्यक्ति इन तमाम संबंधों से कटता गया। भौतिक साधन उन्होंने जरूर जुटा लिए लेकिन भीतर ही भीतर वे खाली हो गए।

तेजेंद्र की कहानियाँ इन संदर्भों को बहुत गहराई से व्यक्त करती हैं। ‘देह की कीमत’ एक ऐसी कहानी है जिसका प्रमुख पात्र हरदीप फरीदाबाद की लड़की से शादी करता है पर शादी के दौरान यह नहीं बताता है कि वह गलत तरीके से जापान जाता है और दो तीन साल वहाँ रहकर जेबें भरकर वापस आ जाता है। अपनी पत्नी के पूछने पर कि इललीगल काम क्यों करता है तो हरदीप जवाब देता है कि ‘जब तक रिस्क नहीं लेंगे तो यह ऐशों आराम की कैसे जुटाएँगे? यह सारी इंपॉर्टेंट चीजे कहाँ से आएगी।’ ऐशों आराम करने की यह मानसिकता विदेशों में जाकर बसने वाले भारतीयों में कूट कूट कर भरी हुई है और यह सब जुटाने के चक्कर में वह अपना सब कुछ गँवा देते हैं। हरदीप को जापान में रहते हुए बुखार आता हो। चूँकि वह गलत तरीके से वहाँ रहता है, इसलिए किसी डॉक्टर के पास नहीं जा सकता क्योंकि डॉक्टर के पास जाने से उसका भेद खुल जाएगा। पर बुखार तो बुखार था शरीर कमजोर हो गया और इस कमजोरी की हालत में भी वह काम पर जाने को तैयार हो गया क्योंकि काम भी वह चोरी चोरी कर रहा था। काम नहीं तो दाम नहीं। लिहाजा सड़क पार करते ही उसे जोर का चक्कर आता है और किसी तेज रफ्तार से आती हुई कार उसके जीवन का अंत कर जाता है।

अब यहाँ कहानी एक दूसरे मोड़ पर पहुँचती है। जापान वाले हरदीप का क्रियाकरम करके सारा पैसा उसकी पत्नी परमजीत कौर को भेजते हैं, पर यह हरदीप की माँ और भाइयों को मंजूर नहीं है कि हरदीप का सारा पैसा उसकी बीबी को मिले। घर में कोहराम सा मच जाता है। हरदीप की माँ यह मानती है कि उसके  बेटे की मौत तो उसके बहू के कारण ही हुई है क्योंकि वह मंगली जो है। लेकिन हरदीप के पिता परिवार में बढ़ रही कलह को देखकर हैरान परेशान हैं। वे सोचते हैं अपने ही पुत्र या भाई के कफन के पैसों की चाह इस परिवार को कहाँ तक गिराएगी। मध्यवर्ग की यह सोच इस कहानी में गहराई से रेखांकित हुई है।

तेजेंद्र शर्मा अपनी कहानियों में भारतीय समाज में स्त्रियों की दारुण स्थितियों को और स्त्रियों के प्रति सामंती सोच को सामने लाते हैं। ‘मलबे की मालकिन’ एक ऐसी कहानी है जहाँ नीलिमा को महज इसलिए तिरस्कृत और अपमानित किया जाता है कि उसने एक लड़की को जन्म दिया। अपमान की पराकाष्ठा तो तब होती है, जब नीलिमा को मारा जाता है और उसे यह घर छोड़ देने के लिए कहा जाता है। ऐसी स्थिति में नीलिमा जाए तो जाए कहाँ? अंततः उसे वह घर छोड़ना पड़ता है। तब न उसे भाई रखने को तैयार होता है और न ही माँ बाप। वह अकेली अपना रास्ता तय करती है। और जब उसकी लड़की बड़ी हो जाती है तो एक लड़का उनकी जिंदगी में प्रवेश करता है। वह सोचती है कि यह लड़का उसकी बेटी से शादी करेगा लेकिन उसकी यह धारणा गलत साबित होती है, जब उसे यह पता चलता है वह लड़का उसकी बेटी से नहीं वरन उससे शादी करना चाहता है। तेजेंद्र शर्मा इस कहानी में सामंती समाज में स्त्रियों के अनेक पर्तों के शोषण की कहानी कहते हैं।

स्त्रियों के प्रति सामंती सोच का दूसरा स्तर ‘मुझे मुक्ति’ दो कहानी में दिखाई देता है, जहाँ लेखक अपनी कहानियों में एक ऐसे पात्र को चित्रित करता है जो पत्नी होते हुए भी अन्य स्त्रियों से संबंध रखता है। तेजेंद्र इस कहानी में नारी विमर्श के सवालों से रूबरू होते हैं। स्त्रियों के विद्रोह को, उनके असंतोष को रेखांकित करते हैं। रमेश नाथ की पत्नी लता अभावों में जिंदगी जीती है। पैसों की कमी के कारण उसका इलाज तक नहीं हो पाता लेकिन उसका पति रमेश नाथ अपने आप को बहुत बड़ा कहानीकार समझता है और लेखक होने का दंभ हमेशा पाले रहता है। उसकी पत्नी लता अपने पति की सारी कहानियाँ पढ़ती है। कहानियों को पढ़कर उसे महसूस होता है कि इन कहानियों में उसका पति एक चरित्र का निर्माण करता है जो अपनी पत्नी के प्रति ईमानदार नहीं है। वह कहती है कि ‘तुम्हारी किसी कहानी में मैं तुम्हारे पिछले जन्म का पाप हूँ तो दूसरी कहानी में तुम्हारे लिए एक गाली हूँ। अपनी एक कहानी में तो तुमने यह भी लिखा था कि घर आते ही जब पत्नी की सूरत देखता हूँ तो लगता है जैसे अभावों की मूर्ति मेरे सामने खड़ी है। तुम्हारी प्रत्येक कहानी में मैं तो एक बकबक करने वाली वाहियात किस्म की औरत हूँ–झगड़ालू, ईर्ष्यालु, बददिमाग,बेवकूफ और न जाने क्या? जब तुमने अपनी कहानियों में सब्जपरियों के साथ तोला है तो मैं उनके सामने हमेशा हारी हूँ।’

पुरुष की इस सोच के प्रति लता विद्रोह करती है और स्वयं ही ऐसे पुरुष का चुनाव करती है जिसके साथ वह एक रात रह सके और उस रात का पूरा विवरण वह अपने पति को बताना चाहती है। पर सवाल है कि क्या नारी मुक्ति इन्हीं संदर्भों तक सीमित है। क्या सामाजिक आर्थिक संदर्भों से उनका कोई संबंध नहीं है?

तेजेंद्र शर्मा ऐसे भारतीय मध्यवर्ग को अपनी रचनाओं के केंद्र में रखते हैं जिनमें विदेशों के प्रति जबरदस्त आकर्षण है। वे विदेशों में उपलब्ध रोजगार के अवसरों को भुनाना चाहते हैं। वे विदेशों में हो रही भौतिकवादी प्रगति को बड़ी हसरत भरी निगाहों से देखते हैं। वे विदेशों में सामाजिक स्वीकृति पाने के लिए लालायित रहते हैं। इस मध्यवर्ग की सोच के अनेक संदर्भ तेजेंद्र की कहानियों में देखने को मिलते हैं।

‘अपराध बोध का प्रेत’ एक ऐसी कहानी है जिसमें मध्यवर्गीय क्षुद्रताओं और महत्वाकाक्षांओं को बहुत गहराई से सामने रखा गया है। नरेन की पत्नी सुरभि कैंसर से पीड़ित और दो वर्षों से बिस्तर पर है। केवल दवाइयों और ऑक्सीजन के सहारे वह अपनी साँस को चलाए हुए है। इस बीमारी में सुरभि के सारे नाते रिश्तेदार उससे अपना नाता तोड़ चुके हैं। कोई उसके पास नहीं आता। नरेन ने कभी उसे इतना वक्त नहीं दिया कि उसके पास बैठ सके। हमेशा अपनी कहानियों में ही डूबा रहा, लेकिन उसे वह ख्याति नहीं मिल पाई जिसकी उसे उम्मीद थी। उसे लगता है उसकी रचनाओं में वह बात नहीं आ रही जो आनी चाहिए। जीवन के इस आखिरी सोपान में केवल नरेन सुरभि के साथ रहता है। सुरभि भी कहानियाँ और कविताएँ लिखती है। कहानियाँ नरेन भी लिखता है लेकिन उसकी कोई कहानी किसी पत्रिका में नहीं छपी। छपी सुरभि की कहानियाँ और कविताएँ भी नहीं हैं, क्योंकि सुरभि छपवाने के लिए नहीं लिखती। नरेन को यह पता है कि सुरभि की कहानियाँ उसकी कहानियों से ज्यादा बेहतर है। उसकी बीमारी के बाद नरेन यह सोचता है कि जब यह मर जाएगी तो इसकी सारी कहानियाँ और कविताएँ अपने नाम से छपवाऊँगा। यह विचार उसके दिमाग में आता है लेकिन बाद में उसे पछतावा भी होता है कि उसने ऐसा क्यों सोचा। इससे पहले कि वह सुरभि से अपनी  इस सोच के लिए माफी माँगे सुरभि यह संसार छोड़कर जा चुकी होती है। कहानी में परिवारों के विघटन और मध्यवर्गीय क्षुद्रताओं को बखूबी उभारा गया है।

तेजेंद्र शर्मा की कहानियों का एक और स्तर अपने समय की समकालीन समस्याओं से रूबरू होना भी है। अपने समय की एक भयावह समस्या है मुंबई जैसे महानगरों में अपने रहने के लिए जगह की तलाश करना। तेजेंद्र शर्मा ने अपनी कहानी ‘ईटों के जंगल’ इस समस्या के कारण पिसते आम आदमी को बहुत ही संवेदनापरक धरातल पर प्रस्तुत किया है। छोटेलाल जैसे दलाल किस तरह लोगों की मजबूरी का फायदा उठाते हैं और किस तरह एक आदमी सपनों के शहर में रहने के लिए एक छत की आस में तरस जाता है। यह कहानी में देखा जा सकता है। हर आदमी का एक सपना होता है कि उसके पास एक घर हो लेकिन दलाल उस सपने को किस तरह तितर बितर कर देते हैं। घर खरीदने की आस में धारावी, माहीम, कूर्ला और कई उपनगरों में लोग झोपड़पट्टियों में किसी सपने के सहारे अपना जीवन बिता रहे हैं। तेजेंद्र ने बहुत खूबसूरती से इस कहानी का ताना बाना बुना है।

कहानी में तेजेंद्र शर्मा ने एक ऐसे पिता की कहानी कही है जो पंजाब से विस्थापित होकर अपने बलबूते पर अपना जीवन नए सिरे से शुरू करता है और जीवन के आखिरी सोपान पर उसे अधरंग हो जाता है। जीवन भर वह पिता अपनी अदम्य संघर्ष क्षमता के कारण हर चुनौती का सामना करता है लेकिन अधरंग की बीमारी के कारण वह इतना असहाय हो जाता है कि अपने बेटों से अपनी मौत माँगता है। कहानी में पिता और पुत्र गहन रागात्मक संबंधों का उल्लेख बहुत ही बारीकी से किया गया है। पुत्र हर हाल में पिता की देखभाल करना चाहता है और उन्हें दिलासा देता है कि वह जल्द ही ठीक हो जाएँगे, लेकिन पिता को यकीन नहीं है। कहानी में नया मोड़ तब आता है जब पुत्र की पत्नी गर्भवती होती है और उसे यह पता चलता है कि जुड़वाँ बच्चे होने वाले हैं और जो बच्चे पैदा होंगे, वे जितने दिन भी जिंदा रहेंगे दवाइयों और इजेक्शनों के भरोसे ही जीवित रहेंगे। इस द्वंद्व के बीच पुत्र यह फैसला लेता है कि वह अजन्मा बच्चों को दवाइयों और इजेक्शनों के सहारे जीवित नहीं रखेगा। पुत्र  बच्चों को तो मृत्यु दे देता है लेकिन अपने पिता के बारे में वह फैसला नहीं कर पाता। यह द्वंद्व कहानी में एक अंतः सलिला की तरह मौजूद है और यह द्वंद्व ही कहानी को महत्त्वपूर्ण व विशिष्ट बनाता है। तेजेंद्र की कहानी ‘कब्र का मुनाफा’ एक तरफ वैश्वीकरण और वैश्वीकिरण से उत्पन्न परिवेश तथा उस परिवेश से जन्मी बाजार अर्थव्यवस्था की ओर इशारा करती है और दूसरी तरफ इस बाजार अर्थव्यवस्था से विकसित पारिवारिक संबंधों में बिखराव, एकाकीपन जैसे कई धरातलों को स्पर्श करती हैं। पारिवारिक संबंधों की प्रगाढ़ता का पैमाना जब धन और भौतिक सुविधाओं को बना दिया जाए तो सदियों से चले आ रहे हमारे जीवन मूल्य और मान्यताएँ बदल जाएँगी। हमारी अपनी मूल्य पद्धति में उदारता है, सहिष्णुता है, परदुःखकातरता है, सहनशीलता है, इस मूल्य पद्धति के केंद्र में मनुष्य है। अब इस मूल्य पद्धति के केंद्र में मनुष्य के स्थान पर धन और भौतिक सुविधाओं को रख देंगे तो और अमानवीयता ही जन्म लेगी। तेजेंद्र की यह कहानी मनुष्यता को अमानवीयता में तब्दील होने की दास्तान भी कहती है।

कहानी संवेदनात्मक धरातलों के अनेक स्तरों को स्पर्श करती हुई सामंती सोच, नारीवादी आंदोलन, उपभोक्ता संस्कृति के बीच से नारी की अस्मिता के सवालों को भी सामने रखती है। जिस परिवेश की कहानी तेजेंद्र कहते हैं उस परिवेश की नारियाँ अपनी मुक्ति के रास्ते भी खुद तलाश करती हैं। वह अपने स्तर से अपनी आवाज बुलंद करती हैं और घर का सौदा सुल्फ लाने से मना कर देती है। खलील उसकी इस हरकत से कुढ़ता रह जाता है और उसकी समझ में नहीं आता कि वह नादिरा को कैसे अपने वश में करे। पर नादिरा को भी अपने रास्ते तलाशने आते हैं। श्रीमती खलील जैदी के नाम से आए पत्र को पढ़ने पर उसे पता चलता है कि खलील ने उसके मरने के बाद उसे दफनाने के लिए कब्रिस्तान में कब्र बुक कराई है तो वह अपने विरोध के स्वरों को तेज कर देती है। वह सोचती है कि  क्या उसका यह घर जिंदा कब्रिस्तान नहीं है कि उसके लिए कब्र बुक कराई जाए। क्या इस घर में खलील उसके लिए नर्क का जल्लाद नहीं है कि उसके मरने के बाद भी उसकी बगल में रहा जाए।

दरअसल यह सामंती सोच मध्यवर्ग में ज्यादा मुखर रूप से सामने आई, जहाँ स्त्रियाँ अपने आप को ज्यादा घुटन भरे माहौल में पाती है लेकिन धीरे-धीरे पुरुषों की इस सोच के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करती है। नादिरा खलील से सवाल करती है कि उसने अभी से कब्रें क्यों बुक करवा ली है और वह भी घर से दूर कार्पेंडर्स पार्क में? तो खलील जवाब देता है कि यह कब्रिस्तान जरा पॉश किस्म का है। फाइनेंशियल सेक्टर के ज्यादातर लोग वहीं दफन होने का फैसला करते हैं। कम से कम मरने के बाद तो अपने स्टेटस के लोगों के साथ तो रहेंगे।

नादिरा इस सोच को नकार देती है। वह कहती है ‘खलील आप जिंदगीभर इनसान को पैसों से तोलते रहे, क्या मरने के बाद भी आप नहीं बदलेंगे? मरने के बाद तो शरीर मिट्टी है, फिर उस  मिट्टी का नाम चाहें अब्दुल हो, नादिरा या फिर खलील’ उसका मानना है कि वह किसी फाइव स्टार कब्रिस्तान में न खुद को दफन होने देगी और न ही खलील को। इससे बेहतर तो वह अपने देश भारत में अपने लोगों के बीच दफन होना चाहती है, लेकिन खलील उसकी इस सोच को खारिज कर देता है कि उसके सामने उसकी कोई चाल नहीं चल सकती कि वह खुद भारत में दफन हो और खलील पाकिस्तान में, पर नादिरा उसकी इस सोच को नहीं मानती। वह कहती है कि ये आसमानी मजहब है जो पूरी जमीन को कब्रिस्तान बनाने पर आमादा है। एक दिन पूरी जमीन कम पड़ जाएगी इन तीनों मजहबों के मरने वालों के लिए।’

लेकिन नादिरा बुक कराई गई कबरें कैंसिल कराने का फैसला करती है और कैंसिल कराने से जो नुकसान होगा उसकी भरपाई भी करने को तैयार हो जाती है और जब वे बुक कराई गई कब्रों को कैंसिल करवा देती है तो कहानी एक नया मोड़ लेती है। कहानीकार ने व्यवसायपरक सोच को सामने रखा है। कबरें कैंसिल कराने में भी उन्हें फायदा होता है। नादिरा कहती है, ‘लीजिए खलील हमने पता भी कर लिया है और कैंसिलेशन का आर्डर भी दे दिया है। पता है उन्होंने क्या कहा? उनका कहना है कि आपने साढ़े तीन सौ पाउंड एक कब्र के लिए जमा करवाए हैं यानी कि दो कब्रों के लिए सात सौ पाउंड और अब इंफ्लेशन की वजह से उन कब्रों की कीमत हो गई है ग्यारह सौ पाउंड यानी कि आपको हुआ है कुल चार सौ पाउंड का फायदा।’

खलील ने कहा क्या चार सौ पाउंड का फायदा, बस साल भर में।’ उसने नजम की तरफ देखा। नजम की आँखों में भी वही चमक थी। यह व्यापारीकरण कहानी में मुखरता से उभरकर आया है और यही कहानी की सबसे बड़ी सफलता है, जो तेजेंद्र की कहानियों में अपनी एक विशेष पहचान बनाती है।

तेजेंद्र शर्मा अपनी कहानियों में भारत से बाहर रहनेवाले भारतीयों की पीड़ा को व्यक्त करते हैं, संवेदनात्मक धरातल पर यह पीड़ा कई स्तरों  पर व्यक्त होती है। पीड़ा का एक स्तर अपनी भारतीय परंपराओं, लोक व्यवहारों, रीति रिवाजों की स्मृति को अपने मन में बसाए विदेश में रहने की बाध्यता है तो दूसरा स्तर विदेशी परिवेश को आत्मसात न कर पाना है।

‘पासपोर्ट का रंग’ एक ऐसी कहानी  है जिसमें पंडित गोपाल दास त्रिखा को ब्रिटिश पासपोर्ट लेने के लिए ब्रिटेन की महारानी के प्रति निष्ठा रखने के लिए कसमें खानी पड़ती है, लेकिन उसका मन ब्रिटेन में रहने के लिए बिलकुल नहीं है। वह सोचता है ब्रिटेन की नागरिकता लेने से मर जाना कहीं बेहतर है, क्योंकि उसने अपनी सारी जवानी इन गोरे साहबों से लड़ने में  ही बिताई है, जिसके लिए उसकी बाँह में गोली लगी थी और उस बाँह में स्टील की एक रॉड लगी हुई है। प्रधानमंत्री द्वारा दोहरी नागरिकता के बारे में की गई घोषणाओं के बावजूद भी उसे दोहरी नागरिकता नहीं मिलती तो उसे लगता है कि प्रधानमंत्री की घोषणा केवल राजनीतिक घोषणा थी, तो वह बेहद खिन्न हो उठता है और ऐसे देश की नागरिकता ले लेता है जहाँ जाने के लिए भारतीय पासपोर्ट और ब्रिटिश पासपोर्ट की जरूरत नहीं होती। कहानी में तेजेंद्र शर्मा ने इग्लैंड में रह रहे भारतीयों के अपने देश वापस लौटने की पीड़ा को गहराई से व्यक्त किया है। तेजेंद्र शर्मा अपनी कहानियों में भिन्न देश की संस्कृति को, उनकी जीवन शैली को, उनकी सोच के कई स्तरों को सामने लाते हैं। ‘कोख का किराया’ एक ऐसी कहानी है जिसमें फुटबाल का खिलाड़ी डेविड पुत्र की चाह में मनप्रीत यानी मैनी की कोख किराये पर लेता है, उसकी कीमत देता है और अंत में उसे छोड़ देता है। कोख को किराये  पर देने के कारण उसका अपना जीवन बरबाद हो जाता है। उसका पति अपनी बच्चों को साथ लेकर उसे अकेला छोड़ देता है।

तेजेंद्र शर्मा की कहानियाँ मध्यवर्ग के अंतर्विरोध को सामने लाने के साथ साथ विदेशों में रह रहे भारतीयों के मन को, उनकी पीड़ाओं को पकड़ने की एक सार्थक कोशिश है। यह पीड़ा वहाँ जाकर रहने के कारण ही नहीं बल्कि एक अलग संस्कृति, एक अलग जीवन शैली को आत्मसात न कर पाने के कारण भी है। एकदम अपरिचित अनजाने माहौल में अपने आप को ढालना आसान भी नहीं है। व्यक्ति के संस्कार, उसकी सोच उसकी पसंद, उसकी रुचियाँ उसके शौक अप्रत्यक्ष रूप में हमेशा उसके साथ रहते हैं। विदेशों में रहकर ये संस्कार ज्यादा हावी हो जाते हैं। इन संस्कारों से न तो मुक्ति संभव है और न ही दूसरे देश के संस्कारों और जीवनशैली को अपनाना आसान है। तेजेंद्र शर्मा अपनी कहानियों में इस छटपटाहट को बहुत गहराई से और शिद्दत के साथ व्यक्त करते हैं और यही तेजेंद्र शर्मा की कहानियों की शक्ति है।


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हरियश राय द्वारा भी