जन से जुड़ी कविताओं का वह दौर

जन से जुड़ी कविताओं का वह दौर

वे दिन वे लोग

कहते हैं कि बचपन में जो संस्कार पड़ जाते हैं, वे कहीं न कहीं आगे बढ़ते हुए आपको प्रोत्साहित करते रहते हैं। जब त्रिलोकचन्द जैन हाई स्कूल में पढ़ता था तो वहाँ सीताराम शर्मा अँग्रेजी पढ़ाते थे। वे एक्साइट होकर बड़े उत्साह से अँग्रेजी कविताएँ पढ़ाते थे। कविताओं पर उनकी टिप्पणियाँ मुझे आकर्षित करती थीं। कोई आदमी जब इतना डूबकर इतनी रुचि से कविता या कुछ भी पढ़ाता है तो वह जरूर सफल होता है। डूबकर काम करने की प्रेरणा मुझे उन्हीं से मिली।

मेरा जन्म रजिस्टर में 6 नवंबर, 1937 दर्ज है, लेकिन मेरी माँ हमेशा तिथि के हिसाब से मेरा जन्मदिन मनाती थी–दीपावली के बाद चौथे दिन। मेरे पिता ने होलकर स्टेट से नौकरी शुरू की और वहीं से रिटायर हुए। त्रिलोकचन्द जैन हाई स्कूल छोटा था, जहाँ बहुत कम विद्यार्थी हुआ करते। हेड मास्टर सुखचन्द जैन लड़कों को क्या, उनके पिता तक को जानते थे। क्लास में कोई लड़का अनुपस्थित नहीं हो सकता था।

एक बार क्रिकेट का मैच हो रहा था। हमलोग उनके पास गए और कहा, ‘साहब, मैच हो रहा है, छुट्टी दे दीजिए।’ हमारी बात सुनकर वे बोले, ‘छुट्टी, क्लास से काहे की छुट्टी।’

तब मैंने कहा, ‘साहब, क्रिकेट देखने जा रहे हैं, टिकट खरीदे हैं। बड़ा अच्छा मैच है, हमलोग देखना चाहते हैं। कॉमनवेल्थ की टीम आई है।’

बड़े नाराज हुए और बोले, ‘मैं तुम्हारे घर आऊँगा।’ और शाम को वे मेरे घर आकर पिता जी से बोले, ‘आपका लड़का सबको बिगाड़ रहा है। सबको लेकर क्रिकेट देखने जाना चाहता है।’

इस पर मैंने कहा, ‘नहीं, मैं किसी को नहीं बिगाड़ रहा। आप बताइए, मैंने कभी पढ़ाई में कोताही की, आपका कहना नहीं माना, कभी मेरे नंबर कम आए? अगर मैच देखने जाना चाहता हूँ तो झूठ नहीं, सच बोल रहा हूँ।’

बड़ी मुश्किल से बोले, ‘ठीक है, जिनका टिकट है, वही लोग जाएँ।’

इस तरह मैच देखने की अनुमति मिली। वहाँ के संस्कार ऐसे थे। हमारे अँग्रेजी के एक शिक्षक थे–एस.एल. शर्मा। उनको हम पोक साहब कहते थे, क्योंकि वो लाल सुर्ख हुआ करते थे और बोलते बड़े एक्साइट्ली थे, साफ उच्चारण, वहीं से अँग्रेजी के संस्कार पड़े। तभी तय कर लिया था कि अगर पढ़ाऊँगा तो अँग्रेजी ही पढ़ाऊँगा। यह छठी-सातवीं क्लास की बात है। मैंने न जाने क्यों ऐसा सोच लिया। सुनकर पिता जी नाराज होते हुए बोले, ‘जिंदगी खराब करोगे।’

मैंने कहा, ‘खराब करेंगे तो करेंगे, पर मेरी इच्छा यही है।’

जीआईटीएस में भर्ती हुआ, एक दिन गया भी वहाँ पढ़ने के लिए, पर मेरा मन नहीं लगा। मेरे पास सिवा अँग्रेजी के अन्य किताबें नहीं हुआ करती थीं। क्लास नोट से इंटरमीडिएट कर लिया। मैथेमेटिक की कोई किताब, न फिजिक्स-केमिस्ट्री की, पर अँग्रेजी की सारी किताबें रखता था। तब से शायद कुछ संस्कार पड़ गए। फिर जब क्रिश्चियन कॉलेज आया तो ईसा दास मेरे टीचर हुए, जो बहुत अच्छा बोलते थे, जैसे जादूगर, मेजिशियन इन द क्लास रूम। डूब के बोलना और सहजता से बोलना। राजसिंह डोंगरपुर तब साथ पढ़ते थे।

छात्र ही था जब इंदौर में रेडियो स्टेशन खुला। होलकर कॉलेज में कवि सम्मेलन हुआ। उसमें बच्चन जी आए तो उनको सुनने गया। उन्होंने गहरी छाप छोड़ी। ‘मधुशाला’ तो पढ़ी ही उन्होंने, एक-दो गीत और भी पढ़े, जो बहुत अच्छे लगे थे,

‘इस पार प्रिये तुम हो
मधु है
उस पार न जाने क्या होगा…
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी
प्रिय तुम आते तो क्या होता?’

अगले दिन मुशायरा हुआ तो उसमें शायरों को भी सुना। ये सब ऐसे संस्कार थे, जो मुझे आकर्षित करते रहे और फिर जिनको भी मैंने सुना, उन्होंने दिल पर छाप छोड़ी। उनमें गोपालदास नीरज भी थे।

लाल किले का कवि सम्मेलन तब लाइव सुनाया जाता था। उसका प्रसारण होता था रेडियो पर। उन्होंने एक गीत सुनाया–

‘आदमी हो तुम
कि उठो आदमी को प्यार दो
दुलार दो।’

उनकी आवाज ऐसी थी कि आदमी को खींच रही हो जैसे। वे बहुत अच्छा पढ़ते थे। फिर गोपाल सिंह नेपाली को सुना, रामावतार त्यागी और भारत भूषण को भी। सुमन जी को तो सुना ही। सरोज को सुना। उर्दू शायरों में देखें तो शकील को सुना, खुमार बाराबंकवी को। कैफी आजमी को, जाँ निसार अख्तर को सुना। ये सब मुझे आकर्षित करते थे। इन्होंने जो भी कहा या पढ़ा। मुझे अच्छा लगा, याद होता गया। तभी लगा था कि यह कविता की ताकत है।

हर बात का अपना समय होता है। वो ऐसा समय था, जब हर गली-मोहल्ले में हर त्योहार पर अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरे हुआ करते थे और सड़क पर दस-दस, बीस-बीस हजार की संख्या में लोग कविताएँ सुनते थे और सब बड़े कवि वहाँ आते थे। मैंने दिनकर को सुना, भवानी प्रसाद मिश्र को सुना। इन कवियों को रात-रात भर लोग सुनते थे। शायद ये अच्छा भी था और बुरा भी। जब पूरी रात कोई कवि बैठा रहेगा और लगातार कविताएँ सुनाएगा तो वह लोगों की आदत भी खराब करेगा। दूसरे कवियों से भी लोग उम्मीद करते हैं कि वे भी रात भर सुनाएँ और ऐसा हमेशा हो नहीं पाता था। यह थोड़ी ‘ज्यादती थी कि पूरी रात बैठकर लोग कविताएँ सुनते रहते और एक कवि पूरी रात सुनाता रहता, उसको’ ज्यादा सुनते, दूसरों को कम, पर धीरे-धीरे कमीशनबाजी और गुटबंदियाँ शुरू हो गईं और कोई कवि संचालक भी हो गया। उसमें पेशेवर नजरिया आ गया। इन सब चीजों का असर पड़ा और फिर वैसे बड़े कवि भी नहीं रहे। धीरे-धीरे सब चले गए। फिर ऐसे श्रोता भी नहीं रह गए। फिर थोड़ी मिलावट हो गई। पहले हास्य थोड़ा-सा परिवर्तन के लिए आता था, बाद में हास्य रस हावी होता चला गया। कविताएँ गायब हो गईं। अब गंभीर कविताएँ कोई सुनता नहीं। फिर कवयित्रियाँ भी आती गईं। ये जो रस परिवर्तन हुआ। इसने बहुत नुकसान किया। यही चीजें हावी होती चली गईं और कविता पीछे छूटती गई।

विदेश की बात करें तो कभी-कभी बीबीसी में किसी प्रमुख कवि को बुलाया जाता और वो काव्य पाठ करता। वो लोग भी अच्छी तरह पढ़ते थे। टीएस इलियट के कुछ कैसेट्स हैं, जिनमें वे अपनी कविता ‘वेस्टलैंड’ पढ़ रहे हैं, दूसरे को पढ़कर सुना रहे हैं। मैंने देखा कि कवि जब अपनी कविता खुद पढ़ता है तो उससे अलग ही भाव उत्पन्न होते हैं। कहाँ उतार, कहाँ चढ़ाव, शब्द के साथ कैसा क्या जोड़, उच्चारण उसका कैसे हो। ये सारी चीजें जरूरत से जुड़ी होती थीं। कई कवि ऐसे हैं, जो लिखते तो बहुत अच्छा हैं, पर अच्छा पढ़ नहीं पाते।

मैंने अँग्रेजी में ‘आलोचना साहित्य’ बरसों पढ़ाया। मेरा मानना है कि जो कविता में लिखा होता है, वो याद रहता है। इसलिए बहुत से यूनानी हकीम अपने नुस्खे कविता में लिखते थे। कहा जाता था कि कवि निर्माता होता है और ये माना जाता था कि कविता में जो चीजें लिखी जाएँगीं, वो याद रहेंगी। पहले गिनती-पहाड़े भी बच्चों को कविता में ही पढ़कर सुनाए जाते थे, क्योंकि इसका असर हमेशा रहता है। जो भी चीज लिखी हुई होगी, वो याद रहेगी। आज की कविता याद नहीं रहती, क्योंकि वो छंद में बँधी हुई नहीं है। जिस इलियट ने छंद छोड़ने की शुरुआत की, उसने कहा था कि छंद तोड़ने का अधिकार उसे ही है, जिसने छंद में बँधना जाना है, जिसने बँधना नहीं जाना, वो तोड़ना क्या जानेगा, लेकिन छंद को तोड़ने की कोशिश में लोगों ने छंद को ही छोड़ दिया।

भारत भूषण प्रेमी आदमी थे, बहुत भावुक। मैंने सबसे पहले उनको सन् 1962 में रतलाम में सुना, जब वहाँ पढ़ाता था। उसके बाद तीन बार उन्हें इंदौर बुलाया तो वे हर बार यहाँ आए। रामावतार त्यागी की कविता है–

‘मेरे सपनों
तुम हौले से विचरो
चीलों की तरह उड़ानें नहीं भरो
आकाश नहीं
ये मेरी आँखें हैं।’

त्यागी ऐसी ही कविताएँ पढ़ते थे। वीरेंद्र मिश्र का एक गीत है–

‘है प्रणय पथ में
विरह पहले मिलन पीछे
पाँव मेरे चल रहे आगे
नयन पीछे।’

भारत भूषण का एक गीत मुझे सबसे ज्यादा अच्छा लगता है–

‘कह मेरे आँगन के गुलाब
क्यों सुबह-सुबह पलकें गीलीं।

किन अलकों का सपना देखा
किन यादों में रजनी गुजरी।’

फिर उसमें आगे लिखते हैं–

‘परिचय को प्यार समझ तूने
पंखुरी-पंखुरी अर्पित कर दी।’

अब बताओ, ऐसी लाइनें कवि को कितना ऊपर उठा देती हैं। इतने ताकतवर कवि थे भारत भूषण और मैं मानता हूँ कि हिंदी में असफल प्रेम का सबसे सफल कवि अगर कोई हुआ तो वे भारत भूषण ही हैं।

हिंदी साहित्य और भाषा के लिए समर्पित श्रीमध्यभारत हिंदी साहित्य समिति सौ साल पुरानी संस्था है, जिसकी स्थापना महात्मा गाँधी ने की थी। देश उनकी डेढ़ सौवीं जयंती मना रहा है। मैं चाहता हूँ कि जिस-जिस क्षेत्र में हिंदी पहुँची है, वहाँ के लोगों को बुलाकर उनके साथ यह समिति मंच साझा करे। उनकी समस्याओं को सुने, उनमें रुचि ले, हिंदी की सभी लेखन विधाओं को आगे बढ़ाए। प्रदेश के हों, देश के हों, जितने भी साहित्यकार हैं, सभी को बुलाकर उनकी राय ले, उनकी रचनाओं का पाठ कराए। इसी के साथ हिंदी की जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं–वो खेल हो, खेती-बाड़ी हो, विज्ञान हो, कानून हो। जहाँ-जहाँ हिंदी पहुँच रही है, उन सभी को अपने साथ जोड़े, हिंदी से जो इतर भाषाएँ हैं, जो आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती हैं, प्रदेशों में बोली जाती हैं, वे मराठी हों, गुजराती, बांग्ला या ओड़िया, सबको हिंदी के साथ जोड़े और सारी भारतीय भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जा सकें, ऐसी कोशिश करे।

और अंत में कुछ बातें खेल पर भी कर लें, जिसमें मेरी खास रुचि रही। मध्य प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन से सन् 1965 में जुड़ गया था। पहले विश्वविद्यालय स्तर पर चयनकर्ता रहा। फिर प्रबंधक हुआ। उसके बाद इंदौर डिवीजन का सेक्रेटरी। फिर एमपीसी की टेक्निकल कमेटी में आया। लिखने का शौक था तो लिखना शुरू किया। पत्र-पत्रिकाओं में क्रिकेट पर लिखता रहा। क्रिकेट पर एक दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखीं, वो भी हिंदी में। हिंदी में मेरे लेखन को रेखांकित करते हुए लाइफ टाइम अचीवमेंट के रूप में पाँच लाख रुपये का अवार्ड दिया गया। क्रिकेट में मेरे योगदान को लोगों ने सही समय पर समझा और सम्मानित किया। मेरा मानना है कि जिस भी क्षेत्र में हिंदी में काम हो रहा है, सबको ध्यान में रखना चाहिए और सही समय पर लोगों को पुरस्कृत-सम्मानित करना चाहिए। इससे उत्साह बढ़ता है और उस विषय में लेखन के प्रति रुझान भी। यह भी एक तरह से हिंदी का प्रचार ही है। खेल पर लिखना भी एक विषय है। पत्रकारिता के लिए जो पुरस्कार दिए जाते हैं, वहाँ इस तरफ भी ध्यान दिया जाना चाहिए। जब छात्र पत्रकारिता पढ़ते हैं तो उन्हें खेल पत्रकारिता अलग से पढ़ाई जाती है, लेकिन जब किसी पत्रकार को खेल पत्रकार के रूप में महत्त्व देकर पुरस्कृत करने की बात आती है तो लोग इसे पुरस्कार योग्य विषय ही नहीं मानते। यह गलत है। इस पर सरकारी-गैर सरकारी सभी तरह की संस्थाओं को विचार करना चाहिए।