विजयमोहन सिंह : जीवन एवं साहित्य

विजयमोहन सिंह : जीवन एवं साहित्य

व्याख्यान

मैं प्रो. केदारनाथ सिंह के रूप में नहीं और ज्ञानपीठ विजेता कवि के रूप में नहीं, मैं यहाँ विजयमोहन जी के 50 साल पुराने और बेहद घनिष्ठ मित्र के रूप में आपके सामने खड़ा हूँ। ‘नई धारा’ से जो सम्मान मुझे मिला, इसे सम्मान को सम्मान करने के रूप में लिया जाय, क्योंकि इस ‘नई धारा’ पत्रिका से विजयमोहन जी का भी वर्षों प्रीत संबंध रहा है। वे इस पत्रिका से लगभग चार वर्ष तक जुड़े रहे, संपादन किए और उन चार वर्षों में बहुत अच्छे अंक निकाले थे। तब ‘नई धारा’ पत्रिका में एक नई ताजगी आ गई थी। उस समय हिंदी जगत् के नये लेखक ‘नई धारा’ पत्रिका से जुड़ने में संतोष का अनुभव किया करते थे। ये सोचकर मैंने एक यह निर्णय लिया कि इस पुरस्कार की धनराशि (एक लाख रुपये) को श्रद्धांजलि के रूप में विजयमोहन सिंह ट्रस्ट को अर्पित करूँगा, जिसकी स्थापना उनके दो बेटों ने मिलकर की है। वो मेरे बहुत करीबी थे। उनके लिए यह बहुत छोटी सी, बहुत तुच्छ-सी श्रद्धांजलि है। इससे बड़ा कुछ होना चाहिए।

विजयमोहन सिंह का घर उस जमाने में बनारस के उस माहौल में भी केंद्र (अड्डा) था, जहाँ नामवर सिंह (तो आते ही रहते थे) तथा अनेक साहित्यकार आते रहते थे। एक बार मकबूल फिदा हुसैन बनारस में आए हुए थे और वे किसी होटल में न ठहरकर, सरस्वती प्रेस में ठहरे थे। साथ में रामकुमार जी भी थे। ये दोनों चित्रकार के साथ-साथ कथाकार भी थे। विजयमोहन सिंह हुसैन साहब को अपने घर आने का निमंत्रण देना चाहते थे। मैं और विजयमोहन जी सरस्वती प्रेस में गए तो हुसैन साबह को देखकर अवाक रह गए। वे दीवार से लगे कैनवास पर पेंट सेट कर रहे थे और सर्दियों के मौसम में भी पसीने से लथपथ थे। ऐसा लग रहा था कि वे दीवार के साथ संघर्ष कर रहे हैं। मैंने उनसे निवेदन किया कि विजयमोहन जी एक नये कथाकार हैं और वे आपको अपने घर पर आमंत्रित करना चाहते हैं। वे हमदोनों को चुपचाप देख रहे थे क्योंकि वे हमलोग को नहीं जानते थे। रामकुमार जी हमलोग की तरफ से बोले, तब वे आमंत्रण को स्वीकार कर लिये। ये पहला मौका था, जब मकबूल फिदा हुसैन बनारस में किसी के घर पर गए होंगे।

विजयमोहन सिंह जी बक्सर (आरा) जिला के कैसठ ग्राम के रहनेवाले थे। वे एक अच्छे जमींदार परिवार के थे। बनारस में रहते थे तो वे एक बड़े परिसर में। उनके साथ एक रसोइया तथा एक नौकर हमेशा रहता था। मैं भी साथ में ही रहता था। उनके अभिन्न मित्रों में ब.व. कारंत जी थे जो एक महान नाट्य कर्मी थे (वे भी अब नहीं रहे)। वे उनके पड़ोसी थे। इस माहौल में मकबूल फिदा हुसैन साहब और रामकुमार साहब का स्वागत किया गया था। हुसैन साहब चुप्पा कलाकार थे, वे ज्यादातर चुप रहते थे, कुछ बोलते नहीं थे। विजयमोहन जी मंच संचालन कर रहे थे। उन्होंने हुसैन साहब से निवेदन किया कि वे कुछ बोलें, लेकिन वे चुप रहे। वहाँ पर सभी को अटपटा लगा, तब रामकुमार जी ने हस्तक्षेप किया कि हुसैन साहब कि तरफ से मैं बोलूँगा और वे ही अँग्रेजी में बोले।

विजयमोहन सिंह जी बड़े लेखक एवं आलोचक थे, किंतु वे साहित्य तक ही सीमित नहीं थे। वे कला तथा संगीत के भी ज्ञानी थे। उनको संगीत की शिक्षा ओंकारनाथ ठाकुर जी ने दी थी। 54-55 के दशक में इलाहाबाद से बी.एच.यू. आए; तब वे धर्मवीर भारती (नई कविता) के प्रभाव में थे। लेकिन बनारस आने के बाद उनमें बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ और धीरे-धीरे वे कथा साहित्य की ओर बढ़ने लगे। वे कुछ-कुछ कहानियाँ लिखने लगे। बाद में ‘टट्टू सवार’ नाम से उनका पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ। उस समय जब ‘नई कहानी’ का आंदोलन शुरू हुआ था, तब उसमें भी उनकी एक अलग पहचान थी। उस समय विजयमोहन जी एक अच्छे कहानी आलोचक गिने जाते थे। वे बिना किसी प्रत्याशा के चुपचाप लिखते रहते और छपते रहते थे। उनका एक उपन्यास ‘कोई विरानी सी विरानी’ था, जो बहुत अच्छा था। 80 से 85 के दशक में उनकी एक कहानी ‘शेरपुर : पंद्रह मील’ छपी, जो अद्भुत कहानी थी। ये छोटा-सा योगदान था उनका। वे चुप्पा साधक थे, जो कुछ भी पाने की अपेक्षा नहीं करते थे। सिर्फ काम करते थे।

विजयमोहन सिंह जी के प्रिय कथाकार मुंशी प्रेमचंद नहीं थे। वे फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ को अपना प्रिय कथाकार मानते थे। फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी ‘तीसरी कसम’ की एक कॉपी बनारस गई थी, जो सबसे पहले विजयमोहन जी को प्राप्त हुई थी। उनके प्रिय हिंदी लेखकों में निर्मल वर्मा भी थे। वे अमरकांत को भी अपना प्रिय लेखक मानते थे। अँग्रेजी लेखकों में हेमिंग्वे के वे परम भक्त थे। हेमिंग्वे पर उनसे कोई घंटों चर्चा कर सकता था। उनके व्यक्तित्व का एक और पक्ष था–दर्शन। वे दर्शन के भीतर रहे और इसका परिणाम था उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ज्यां पाल सार्त्र’, जो संवाद प्रकाशन से छपी थी। हिंदी में कोई दूसरी दमदार पुस्तक नहीं है सार्त्र पर। सार्त्र पहले लेखक थे जिन्होंने नोवेल पुरस्कार को ठुकरा दिया था। विजयमोहन सिंह जी ने सार्त्र की ‘आयरण ऑन दी सोल’ सहित उनके नाटकों पर बहुत काम किया।

विजयमोहन सिंह जी भोजपुरी बहुत अच्छी बोलते थे, खाँटी भोजपुरी (आरा की तरफ का)। वे भोजपुरी बोलते तो नहीं लगता था कि वे हिंदी के कवि हैं। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में ‘हिंदी गद्य का विकास’ (लगभग 200-250 पृष्ठों में) नामक पुस्तक लिखी थी, जिसे ज्ञानपीठ ने आधे-अधूरे रूप में छापा था, क्योंकि वे उन दिनों बहुत गंभीर रूप से बीमार थे और उसको व्यवस्थित ढंग से लिखने की उनमें शक्ति नहीं थी और समय भी नहीं था। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में वटवृक्ष की तरह व्यक्तित्व रखनेवाले आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी से टक्कर लेने की हिम्मत कम लोगों में थी, लेकिन विजयमोहन सिंह जी टकराते अक्सर उन्हीं से हैं। वे शुक्ल जी के शुद्धतावाद पर आपत्ति जाहिर करते रहे। शुक्ल जी ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में खड़ी बोली हिंदी के विकास की चर्चा में मुसलमानों के अवदान को माना था, जिसको विजयमोहन जी ने खारिज कर दी। उनका मानना था कि जिस समय अरबी फारसी के शब्द से हट गया था, उस समय हिंदी बनी, उससे पहले उर्दू थी वो। विजयमोहन सिंह जी ने अपनी पुस्तकों के द्वारा ये स्थापित करने की कोशिश की, कि खड़ी बोली हिंदी उससे पहले बन चुकी थी, इससे परेशान थे दक्खिनी। जिसको हम उर्दू कहते हैं, वे हिंदी में लिखते हैं। नजीर अकबरवादी जो शायरी लिखते थे वे हिंदी में ही थे। अमीर खुसरो की जो पहेलियाँ हैं, वो हिंदी में हैं। ऐसे बहुत उदाहरण मिलते हैं। उनका तर्क है कि इसके बावजूद ये कहा जाए कि हिंदी के विकास में मुसलमानों का कोई योगदान नहीं है। ये शुद्धतावाद का शिकार है, मैं इसका खंडन करता हूँ। इतना साहस था उनमें, जो किसी चिंतक के लिए जरूरी है।

विजयमोहन सिंह जी की जो अप्रकाशित पुस्तकें हैं, उसको उनके पुत्र प्रकाशित करने की कोशिश कर रहे हैं। मैं यह पुरस्कार उनको समर्पित करता हूँ। मुझे खुशी है इस अवसर पर अपने मित्र का स्मरण कर रहा हूँ एक छोटी सी श्रद्धांजलि के साथ। ‘नई धारा’ ने भी मेरे इस प्रस्ताव को स्वीकार किया, जिसके लिए मैं ‘नई धारा’ का शुक्रगुजार हूँ। ‘नई धारा’ पत्रिका से मेरा संबंध बहुत पुराना है। जब बेनीपुरी जी इसके संपादक थे, उस समय मैं हाई स्कूल का छात्र था। तब मुझसे जो भी कविता बनी, मैंने दुस्साहस करके ‘नई धारा’ में छपने के लिए भेज दिया; लेकिन वो कविता वहाँ से लौटा दी गई थी। लेकिन एक बड़े लेखक, बड़े संपादक के द्वारा लौटाई गई थी मेरी वो रचना जो मेरे लिए बड़े संतोष की बात थी। तो जिस पत्रिका में मेरी कविता नहीं छपी (बाद में कुछ छपीं) वहीं पर आज आप सबके सामने हूँ। ये संबंध ‘नई धारा’ से मेरा बहुत प्रिय है क्योंकि ये पुराना है। और कोई संबंध जितना पुराना होता है, उतना ही और प्रिय होता जाता है। बहुत-बहुत धन्यवाद और मैं आभारी हूँ ‘नई धारा’ का, जिसने मुझे इस सम्मान के लायक समझा।

(प्रस्तुति : अश्विनी कुमार)

(‘नई धारा’ द्वारा 7 दिसंबर, 2015 को पटना में आयोजित साहित्यकार सम्मान समारोह में दिया गया ग्यारहवाँ उदय राज सिंह स्मारक व्याख्यान)


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Artist :Edwin Lord Weeks
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