जीवन और साहित्य में वंचितों की आवाज

जीवन और साहित्य में वंचितों की आवाज

वे दिन : वे लोग

तो लखनऊ के सदाबहार 83 वर्षीय लेखक मुद्राराक्षस नहीं रहे। बीते 13 जून की दोपहर लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में उन्होंने आखिरी साँस ली और दोस्तों, परिजनों सहित इस जहान को अलविदा कर दिया, जबकि इधर के वर्षों में जिंदगी और मौत का सिलसिला उनके साथ रू-ब-रू था। बीते मई माह में वे कई बीमारियों से घिरे, टूटे-फूटे बलरामपुर अस्पताल में ही दाखिल किए गए, जहाँ हफ्तों की मशक्कत के बाद खड़े हुए और किंचित स्वस्थ होकर घर लौटे, पर इस साल की भीषण जानलेवा गर्मी में मौत का दूसरा हमला वे सह नहीं सके। अंततः मौत को गले लगाकर चल बसे। पर दोस्तों के बीच अपने प्यारे नाम ‘मुद्रा’ के नाम से मशहूर युवकोचित उत्साह के धनी मुद्रा जी की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। मत भूलिए कि छोटे से कद के इस कुतुब आदमी के व्यक्तित्व में कई व्यक्तित्व समाहित थे–नाट्यकार, कथाकार, चिंतक-विचारक, पत्रकार, ब्रॉडकास्टर और सीमित अर्थों में राजनेता और अभिनेता का भी जीवन उन्होंने जिया। अपने उत्तरवर्ती जीवन में वे संघर्षशील युवा सरीखे लेखक-पत्रकार का ‘फ्रीलांसर’ जीवन भी जी रहे थे।

मुद्रा के जीवन और साहित्य के सफरनामे पर निगाह डाली जाए तो कहा जा सकता है कि उन्होंने जीवन और साहित्य दोनों क्षेत्रों में बहुरूपिये का जीवन जिया। मूलतः किस्सागो होने के नाते उन्हें पता था कि ‘बहुरूपिया’ क्या होता है। अपने असली रूप के भीतर कई रूप धरे हुए। शायद इसीलिए सामान्य आदमी भी चलते-फिरते एक उड़ती निगाह उन पर जरूर डाल लेता था। बेहद ठिगना-सा कद, बित्ता भर शहरी की देह धजा, खल्वाट सिर, बारहसिंहे सरीखी चौकस चमकती खुली आँखें, ठोड़ी पर बुल्गानिन कुच्ची, धवल-दाढ़ी, पाजामें पर लंबा कुर्ता जो फिराक की पोशाक को भी मात करता था, यह मुद्रा का सदाबहार ड्रेस कोड था। इसी पोशाक में वे लखनऊ, दिल्ली, गोरखपुर, बनारस, इलाहाबाद की सभा गोष्ठियों में अचानक नमूदार होते थे और हँसते खिलखिलाते मिलने वाले की पीठ पर हाथ फेरते सुग्गे जैसी टाँय-टाँय आवाज में कहकहे लगाते थे। मैंने मुद्रा को जून के महीने में गोरखपुर में आयोजित अंबेडकर सभा में बिना छतरी के बने मंच पर दूर से घंटों धारा-प्रवाह भाषण करते हुऐ सुना था। जनसामान्य की सभा में पसीने से सराबोर, विचार की गर्मी में नहाये हुए वे लगातार बोले जा रहे थे, बिना इस बात की परवाह किए कि उनके ऊपर किस कदर सूरज सवार था।

अपने राजनीतिक जीवन में ऐसी सैकड़ों जनसभाओं में उन्हें बेशुमार ढंग से भाषण करते हुए लोगों ने सुना था। कई बार ऐसे भी वाकिये हुए हैं, जब उन्हें उन्नाव और लखनऊ की चुनाव सभाओं में सिर्फ मंच पर बैठे हुए लोग ही सुन रहे होते थे, पर मुद्रा जी पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। वे अपनी चिरपरिचित मुद्राओं के साथ जनजागरण अभियान में लगे रहे। कई बार चुनाव लड़े और रेणु, नामवर जी आदि की तरह बुरी तरह हारे। 1991 में लखनऊ लोकसभा सीट पर अटल जी जैसे व्यक्तित्व के विरुद्ध ताल ठोंककर चुनाव मैदान में उतरे और महज 86 वोट पाकर भी चुप नहीं बैठे। वी.पी. सिंह के जनता दल में लखनऊ के अध्यक्ष बने और बाद में किसी बात पर नाराज होकर इस्तीफा दे दिया। असल में वे राजनीतिज्ञ थे ही नहीं। मूलतः और अंततः एक लेखक थे। पर वे मेज पर लिखने वाले लेखक भर नहीं थे बल्कि अपनी परंपरा के वाहक थे। कबीर से बेहद आकृष्ट मुद्रा ने नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश के रंगकर्मियों के साथ ‘कबीर पगचिह्न’ जनजागरण अभियान में कबीरचौरा से मगहर तक की पग यात्रा गर्मियों के दिन में हफ्ते भर में पूरा किया जिसमें मैं भी शामिल था। धारा के विरुद्ध तैरने वाले मुँहफट, मुँहजोर और बेलाग बोलने में माहिर मुद्रा जी सामने वाले से बेपरवाह होकर वो सब कह डालने की हिम्मत रखते थे जो कहना चाहते थे। साहित्य की दुनिया में तो असहमतियाँ होती रहती हैं और होनी चाहिए पर राजनीतिक पार्टियों में इस तरह की असहमतियों के लिए जरा सी भी गुंजाइश नहीं होती। देखा जाए तो शायद इसी के चलते मुद्रा की राजनीतिक पार्टियों में नहीं चल सकी। वे जितनी शिद्दत से राजनीति से जुड़े, उसी रफ्तार में लगातार नीचे की ओर लुढ़कते हुए अकेले पड़ते गए।

अपने राजनीतिक उद्यम में वह यह भूल गए कि सक्रिय राजनीति के चक्रव्यूह को भेदने और तोड़ने के लिए साहित्यिक औजार नहीं आजमाये जा सकते। उनके पास न तो फॉलोअरों की कोई जमात थी, न ही राजनीतिक वर्चस्व हासिल करने के लिए खर्च की जाने वाली बेशुमार ‘मुद्रा’! ऐसे में अंबेडकर के अनुयायी और वी.पी. सिंह के फॉलोअर बने रहने के बावजूद मुद्रा को दलित और पिछड़ी कही जाने वाली पार्टियों में कहीं जगह नहीं मिली। फलतः उनका राजनीतिक जीवन विफलता और विकलता की दास्तान रहा। असल में मुद्रा में ट्रेड यूनियन में भागीदारी के कारण 1964 से सांगठनिक अनुभव तो थे पर उनमें राजनीतिक पार्टियों में सेंध लगाकर अपनी ‘जगह’ बनाए रखने का कौशल नहीं था। फलतः राजनीतिक हलके में उनकी नियति फणीश्वरनाथ रेणु, श्रीकांत वर्मा, नामवर सिंह, उदयभान शर्मा आदि से भिन्न नहीं थी। यद्यपि मुद्रा के भीतर का लेखक राजनीतिक परिवर्तन के लिए उग्र था, पर लेखकीय उग्रता महज वैचारिकी होती है। इस देश में कोई लेखक महज अपनी उष्मायुक्त वैचारिकी से देश और समाज नहीं बदल सकता! राजनीति को तो बिल्कुल नहीं, जबकि बदलाव हमेशा राजनीतिक परिवर्तन से आता है। मुद्रा में राजनीतिक समझ तो थी पर उनमें राजनीतिक कौशल का सर्वथा अभाव था। फलतः राजनीतिक गलियारों में लंबे समय तक व्यर्थ की चीख-पुकार मचाकर उन्होंने अपनी लेखकीय ऊर्जा को क्षरित होने दिया। भारतीय लेखकों को कम से कम राजनीतिक आजमाइश में अपनी सामर्थ्य और सीमा का अंदाजा हमेशा रखना चाहिए। देखा जाए तो मुद्रा का राजनीतिक जीवन उनके लेखकीय जीवन की धारा में एक असफल तैराक जैसा था, जो तैरने के लिए उत्साहित तो था पर तैरना नहीं जानता था। इस लिहाज से देखा जाए तो मुद्रा का व्यक्तित्व ‘हंता’ और अंततः ‘आत्महंता’ के दो छोरों पर फैला हुआ टँगा है। वे राजनीति और साहित्य में दूसरों को पलट देने की कोशिश में लगे रहे, पर परिणति ‘आत्महंता’ की ही बनी रही। धर्म से सर्वथा परहेज रखने वाले अनीश्वरवादी मुद्रा जी यह भी भूल गए कि एक लेखक का धर्मक्षेत्र साहित्य ही है, और अंततः काल उसी की गणना के अनुसार आपका आकलन करेगा। आखिर लखनऊ की त्रिमूर्ति यशपाल, नागर और भगवती बाबू का धर्मक्षेत्र साहित्य ही तो था। उनके समकालीन श्रीलाल शुक्ल, कामतानाथ की वास्तविक कर्मभूमि साहित्य ही बनी रही। इसके बावजूद मुद्रा राजनीति के दलदल में जा फँसे और लगातार अकेले पड़ते चले गए। उनके राजनीतिक दुश्चक्र का असर कालांतर में उनके लेखन पर भी पड़ा। मुद्रा इससे वाकिफ थे, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

साहित्य के हलके में मुद्राराक्षस का प्रवेश सन् साठ के दशक में हुआ था। 21 जून, 1933 में लखनऊ से 20 किलोमीटर दूर ग्राम बेहटा में जन्मे और पले-पुसे मुद्राराक्षस का वास्तविक नाम सुभाषचंद्र वर्मा था। सुभाषचंद्र वर्मा की पहली कहानी ‘सुबह, दुपहर, शाम’ 1953 में पहले पहल अमृतलाल नागर ने ‘प्रसाद’ नाम की पत्रिका में ‘मुद्राराक्षस’ नाम से प्रकाशित की थी। मुद्रा जी को यह नाम इस कदर रास आया कि वे खुद अपने मूल नाम सुभाषचंद्र को भूल गए। कालांतर में उनकी ख्याति इसी नाम से चहुँ ओर फैली, जब उन्होंने कहानियाँ लिखीं, उपन्यास लिखे तथा सत्तर और अस्सी के दशक में नाट्य लेखन में अपनी महारत का डंका बजाया। संस्कृत साहित्य में विशालदत्त अपने नाटक ‘मुद्राराक्षस’ के नाते मशहूर हुए और मुद्राराक्षस ने उस नाटक के नाम से कालांतर में हिंदी साहित्य में एक बड़े और महत्वाकांक्षी नाटककार और रंग-मंच के कुशल जादूगर के रूप में असाधारण लोकप्रियता हासिल की। नई कहानी आंदोलन के दौर में मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल और मुद्राराक्षस ने अपने लेखन की यात्रा कहानीकार के रूप में की थी। पर क्रमशः कथा से नाट्य लेखक के रूप में अग्रसर हुए। मुद्रा जी की नाट्य सक्रियता केवल लेखन तक सीमित न थी, बाद के वर्षों में उन्होंने–‘मरजीवा’, ‘तेंदुआ’, ‘तिलचट्टा’, ‘गुफाएँ’, ‘डाकू’, ‘संतोला’, ‘आला अफसर’, ‘बदबख्त बादशाह’ जैसे नाटकों में सफल अभिनय भी किया। इसके अलावा हिंदी के बीस से अधिक नाटकों का निर्देशन किया। सन् सत्तर-अस्सी के दशक में हिंदी जगत में नाटक विधा ने तेजी से अपनी केंद्रीयता हासिल की, जिनमें राकेश और मुद्रा की सक्रियता शीर्ष पर थी। उन दिनों मुद्रा हिंदी रंगमंच के ‘हीमैन’ के रूप में शुमार थे। खासतौर से ‘आला अफसर’, ‘तेंदुआ’, ‘तिलचट्टा’ जैसे नाटकों के प्रदर्शन से मुद्रा को असाधारण लोकप्रियता हासिल हुई।

यहाँ उनके नाटकों की खूबियों की चर्चा अपेक्षित नहीं, पर इस तथ्य की ओर इशारा करना जरूरी है कि यह आम शिकायत रही है कि हिंदी में मौलिक नाट्य-लेखन नदारद रहा है। ऐसे परिदृश्य में मुद्रा का नाट्य लेखन एक चुनौती की तरह पेश हुआ और उन्होंने सामाजिक मानवीय यथार्थ की खोज में पशुओं और जीव-जंतुओं की दुनिया में प्रवेश करके समाज में व्याप्त मनुष्य की हिंसा और बर्बरता को बेनकाब करने वाले नाटक लिखे जो दर्शकों को बेहद पसंद आए। मुद्रा के नाटकों के शीर्षक पशु और वन्य जीव-जंतुओं से निर्मित हुए हैं। इसके प्रयोग के सिलसिले में मुद्रा का कथन दिलचस्प है कि ‘पशुप्राणी जैसे दिखते हैं वैसे होते हैं, जबकि आदमी आदमी जैसा नहीं दिखता। आदमी के बारे में लिखते वक्त ज्यादा सही व्याख्या मुश्किल होती है।’ (मुद्राराक्षस, सृजन संदर्भ : साक्षात्कार, पृष्ठ-96) उस दौर में मुद्रा नाट्य लेखन से लेकर अभिनय और प्रस्तुति तक में इस तरह डूबे हुए थे कि उन्हें लोग ‘रंग पुरुष’ के रूप में पुकारने लगे। यद्यपि उन्होंने नाटक के साथ कहानी और उपन्यास भी लगातार लिखे, जिनमें ‘भगोड़ा’, ‘शांतिभंग’, ‘दंडविधान’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आरंभिक उपन्यासों में स्त्री मनोविज्ञान पर केंद्रित उपन्यास ‘अचला : एक मनःस्थिति’ भी चर्चित रही है। उनकी कहानियों के भी कई संकलन आए! साठोत्तरी दौर में वे अकविता आंदोलन में भी सक्रिय हुए। उस दौर में उन्होंने कविताएँ भी लिखी थीं। आरंभिक दिनों में कलकत्ते से प्रकाशित ‘ज्ञानोदय’ में सहायक संपादक के रूप में मुद्रा ने अपने साहित्यिक विवेक और संपादन की छाप छोड़ी। फिर 1962 से लेकर 1976 तक आकाशवाणी, दिल्ली में बतौर स्क्रिप्ट राइटर और संपादक पदों पर कार्य किया। वहाँ के रेडियो नाटकों को अपने अद्भुत लेखन और कलाधर्मिता के चलते एक नया मुकाम दिया। उस दौर में उन्होंने आकाशवाणी के कर्मचारी संगठन में सक्रिय हिस्सेदारी की। बताया जाता है कि आकाशवाणी कर्मचारी संगठन में सक्रिय भूमिका के चलते ऊपर के अफसर उनसे नाराज हो गए थे। मुद्रा खुद नाराज थे, लिहाजा आपातकाल के दौर के तुरंत बाद 1976 में उन्होंने आकाशवाणी से इस्तीफा दे दिया।

उन दिनों मुद्राराक्षस की आकाशवाणी में आला अफसर रहे कवि गिरिजा कुमार माथुर से भिड़ंत हो गई। दोनों लेखकों के बीच इस कदर घमासान हुआ कि मुद्राराक्षस को अपनी नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा। असल में मुद्रा के स्वभाव में अड़ियलपन था जो किसी को बर्दाश्त नहीं कर पाता था। उनके व्यक्तित्व में समावेशिता का तत्व गायब था। शायद इसी के चलते वे जिंदगी से लेकर नौकरी तक, साहित्य से लेकर राजनीतिक तक सबसे भिड़ने की कवायद में जिद ठाने रहे। फलतः उनकी जिंदगी में ‘सुकून’ शब्द गायब हो गया था। उनकी वैचारिकी पर निगाह डालें तो शुरू में वे समाजवादी विचारधारा में अनुप्राणित हुए, फिर साम्यवादी बने, फिर अंततः अंबेडकरवादी बनकर मार्क्सवादियों पर हमला किया। उनके आरंभिक शिकार दक्षिणपंथी अज्ञेय, निर्मल वर्मा तो हुए ही, बाद में उन्होंने अशोक वाजपेयी आदि को भी निशाना बनाया। फिर मार्क्सवादी लेखन के शिखर रामविलास शर्मा की भी खिल्लियाँ उड़ायी। नामवर सिंह नई कहानी के दौर से ही उनके एजेंडे पर थे, जिनके विरुद्ध उन्होंने नाम सहित प्रचुर मात्रा में व्यंग्य लेखन किया।

जीवन के उत्तरवर्ती दौर में मुद्रा पर जब बाबा अंबेडकर सवार हुए तो उन्होंने प्रेमचंद को भी नहीं बख्शा। प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ की प्रतियों को दिल्ली की दलित साहित्य अकादमी द्वारा जब सरेआम जलाया जा रहा था, उस समय मुद्रा जी ने लखनऊ समाचार पत्र में हैरतअंगेज बयान देकर अपनी असहमति वाली मुद्रा का इस तरह इजहार किया था। ‘रंगभूमि का जैसा विरोध किया जा रहा है, उससे ज्यादा बड़े पैमाने पर किया जाना चाहिए।’ (हिन्दुस्तान, लखनऊ 1 अगस्त, 2004)

कहने की जरूरत नहीं कि मुद्रा अपने वैचारिक और आलोचनात्मक लेखन से ध्वंसवाद के प्रतीक पुरुष बने गए थे। उनसे हंसराज रहबर पीछे छूट गए। उन्होंने मार्क्स से आगे बढ़कर धर्म को मनुष्यता का सबसे बड़ा शत्रु करार दिया। ‘धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ’ उनकी धर्म मीमांसाओं को समझने के लिए एक जरूरी पिटारा है। इस पुस्तक में उन्होंने सभी धर्मों की मीमांसा करते हुए हिंदू धर्म को सबसे अधिक हिंसक और क्रूर साबित किया है। इस प्रसंग में उन्होंने ईसाई धर्म की वकालत की है और कहा कि ‘अगर जीसस ईश्वर को न मानते होते तो मैं उनका समर्थक हो जाता, क्योंकि ईश्वर को छोड़कर बाकी ऐसी कोई बात जीसस ने नहीं कहीं जो मुझे चुभे’ (वही पृष्ठ-3) उन्होंने एक अन्य साक्षात्कार में कहा भी है कि ‘एक मध्यम कोटि के धर्मग्रंथ की तुलना में मैं एक अच्छी पोर्नोग्राफी ज्यादा रुचि के साथ पढ़ता हूँ।’ (वही पृष्ठ-97) कहना न होगा कि मुद्रा की वैचारिकी में अनीश्वरवाद हावी था, जिसकी वजह से उन्होंने हर विचारधारा को अतिवाद की धाराओं में बदल दिया। गाँधी, लोहिया उन्हें अप्रासंगिक जान पड़े। मार्क्सवादी उन्हें कोरे पाखंडी लगने लगे। जीवन की सांध्यवेला में वे अंबेडकर के अनुयायी बने और अंबेडकर की छड़ी से प्रेमचंद को पीटने का जोखिम उठाया। हालाँकि दलित स्त्रियों के प्रति उनकी पक्षधरता निर्विवाद थी। देखा जाए तो दलित लेखन को लेकर उनके विचार बेहद सख्त किंतु स्पष्ट थे। उनका निर्भ्रांत मत था कि दलित लेखन केवल दलित लेखक ही कर सकता है, क्योंकि जो भोक्ता है वही असल में उसका रचयिता हो सकता है। विचार किया जाए तो दलित लेखन और आंदोलन के दौर में मुद्रा की बहसें, जिरह, और नजीरें मूल्यवान हैं। उन्होंने दलित आंदोलन की सीमाओं का जिक्र करते हुए सही जगह उँगली रखी है। उनका मत है कि ‘दलित आंदोलन की सबसे बड़ी असफलताएँ दो हैं–एक तो दलितों में जातिवाद समाप्त न कर पाना और दूसरे पिछड़ी जातियों से भी अपने को अलग बनाए रखना। आर्थिक विपन्न्ता दलितों में भी है और पिछड़ों में भी। लेकिन जातिवाद इतना मजबूत है कि दोनों में कोई सहयोग संभव नहीं’ (वही पृष्ठ-6)

मुद्रा की दृष्टि में ‘स्त्री और दलित ये दोनों ऐसी संस्कृतियाँ हैं जिनका विस्तार से कहीं और विवेचन नहीं हुआ। जिस तरह दलित मुख्यधारा के लेखन में प्रतिनिधित्व नहीं पा सके, उसी तरह स्त्रियाँ भी मुख्यधारा से बाहर ही रही हैं। इसलिए स्त्री और दलितों के साहित्य को अलग मान्यता देनी होगी।’ (वही पृष्ठ-4) उल्लेखनीय तथ्य यह है कि दलित जीवन और लेखन के पक्ष में जितना निर्भीक और निष्पक्ष मुद्राराक्षस ने पेश किए, उतनी खुली, बेबाक और सुविचारित दृष्टि राजेंद्र यादव के पास भी नहीं थी। राजेंद्र यादव के पास दलित दृष्टि सिर्फ किताबी और सुनी-सुनाई थी। मुद्रा दलित और पिछड़े समाज की मुक्ति को लेकर सिर्फ स्वप्न ही नहीं देखते थे, बल्कि उसे उन्होंने देखा, भोगा और जिया है। इसलिए हिंदी में दलित लेखन के इतिहास को जब भी लिपिबद्ध किया जाएगा तो मेरी दृष्टि में मुद्रा की उपस्थिति प्रथम पुरुष की होगी; क्योंकि दलितों और समाज के वंचितों के लिए उनके भीतर सिर्फ सहानुभूति भर नहीं थी, बल्कि सक्रिय कार्यवाही के रूप में उनके कारनामे दर्ज हैं। वे कारनामे राजनीति, समाज और साहित्य के मोर्चे पर ऐतिहासिक हैं जो शक और संदेह से परे हैं। मुद्रा की कबीर-मुद्रा यही है।

मुद्रा जी को याद करते हुए आज उनसे हुई मेरी पहली मुलाकात बरबस याद आ रही है, जो मेरे और उनके बीच लेखकीय भिड़ंत के साथ शुरू होती है। दिल्ली–जीवन में कमलेश्वर ने ‘राष्ट्रीय सहारा’ से त्यागपत्र देकर ‘गंगा’ पत्रिका शुरू की थी। टाइम्स हाउस के बगल में उनका कार्यालय था। कमलेश्वर ने कहा ‘इसमें आप कुछ लिखिए।’ उन्होंने गंगा का ताजा अंक दिया था। उसे पढ़ते हुए मुद्रा जी के एक लेख जिसका शीर्षक था ‘आज की कविता एक सहज सुलभ शौचालय हो गई है’ पर मेरी निगाह गई। मैंने कुछ दिनों बाद कमलेश्वर जी को फोन किया कि ‘मुद्रा जी का लेख अतिरंजित और अपाठ्य है। मैं एक लेख लिख रहा हूँ। क्या आप प्रकाशित करेंगे?’ उन्होंने कहा कि ‘जरूर! आप लिखें’, खैर, वह लेख प्रकाशित हुआ। मैंने तर्कों के साथ मुद्रा की सभी काल्पनिक स्थापनाओं को दरकिनार करते हुए नई कविता के इतिहास और 80 के बाद की कविता में आए जनोन्मुखी बदलावों का उदाहरण के साथ विश्लेषण प्रस्तुत किया। और यह भी कहने से नहीं चूका कि मुद्रा जी राजनीति और नाटक आदि में इतने रम गए कि उन्हें सच्ची कविता पढ़ने का समय नहीं मिल रहा है।

सन् 1992 में मई की दोपहर एक दिन एक व्यक्ति आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र पर नमूदार हुए। धोती और बंडी पहने हुए आधी धोती का छोर उनके सिर और कंधे को ढँके था। उन्होंने कहा कि ‘आप मुझे पहचानते हैं?’ मैंने मुद्रा जी की तस्वीरें देखी थीं, सो मैंने उठकर स्वागत करते हुए कहा ‘मुद्रा जी! भला आपको कौन नहीं जानता है।’ खैर, वे इत्मीनान से बैठे और प्रत्युत्तर में लिखे मेरे लेख की चर्चा कर बैठे। बोले ‘भाई, लगता है आप मेरे लेख से काफी नाराज हैं। सो मैंने सोचा गोरखपुर के इस लेखक से मैं खुद मिल लूँ। कमलेश्वर ने तुम्हारे बारे में बताया था। सो मैंने सोचा रेडियो मेरा पुराना घर है उसे देखूँ और तुमसे मिलूँ।’ बरहहाल, मुद्रा शाम तक जमे रहे और आकाशवाणी के अनेक संस्मरण किस्से, लतीफे और अपने कार्यानुभव बताते रहे। शाम को मैं उन्हें विट्ठल भाई पटेल हाउस पहुँचाने गया, जहाँ वे ठहरे थे। मैंने कहा कि ‘कल आपकी एक कहानी रिकार्ड करना चाहता हूँ।’ उन्होंने गंभीर होकर कहा ‘मेरे पास भाई कोई कहानी नहीं है।’ मैंने कहा कि ‘आपकी कहानी मैं कल लाऊँगा आप 2 बजे तशरीफ लाइये।’ उन्होंने कहा ‘अच्छा, चलो देखा जाएगा।’ दूसरे दिन आए और अपने कहानी संग्रह से एक कहानी रिकार्ड कराया। चलते वक्त मैंने देखा मुद्रा से मिलने के लिए दिल्ली स्टेशन के तमाम पुराने कर्मचारी इकट्ठे थे। उन्हें पता चल गया कि मुद्रा जी आए हैं। उस दिन वे घंटों एक दूसरे से गले मिलकर बात करते रहे। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा कि रेडियो स्टेशन की पान खाने वाली हँसमुख, मेहतरानी को दूर से देखते ही वे लपके और गले लगकर कहा ‘कैसी हो’। दोनों की आँखें सजल थी। सभी लोग मुद्रा जी से मिलकर बेहद खुश दीख रहे थे और मुझे धन्यवाद दे रहे थे कि मुद्रा जी से मैंने यह अचानक मुलाकाती करायी।

मैंने मुद्रा जी से पूछा आपके आकाशवाणी परिसर में छोटे कर्मचारियों से इतनी घनिष्ठता देखकर अभिभूत हूँ। इतना मेल-मिलाप तो यहाँ मैंने किसी का कभी नहीं देखा। यहाँ के देव और देवियाँ छोटे कर्मचारियों से बात करना भी अपनी तौहीन समझते हैं। मुद्रा ने कहा कि ‘दरअसल रेडियो की मेरी जिंदगी और नौकरी में यही लोग मेरी जान थे। इनके साथ उठना-बैठना, बात करना इनके हक की लड़ाई के लिए ही मैं यहाँ की यूनियन में पदाधिकारी बना और अफसरों की नाक में दम किए रहता था। ये सभी मेरी एक बात पर मरने-मिटने को तैयार रहते थे। देख रहा हूँ अब लगभग सभी रिटायर्ड हो गए हैं, कुछ लोगों से मिल सका जो अभी बचे हैं। मुझे आज पुराने दिन की गहमागहमी याद आई। मुझे अच्छा लगा कि यहाँ तुम मिल गए हो। वर्ना मैं आकाशवाणी दिल्ली नहीं आता।’ मैंने कहा ‘अब जब भी दिल्ली आएँ, मुझे फोन कर दें। हाँ, हर बार एक कहानी जरूर रिकार्ड करानी होगी।’

फिर तो मुद्रा जी से दिल्ली, लखनऊ में लगातार मेरी मुलाकात का सिलसिला जारी रहा। मित्र शैलेंद्र सागर की वजह से ‘कथाक्रम’ के वार्षिक समारोहों में भागीदारी शायद हमने सबसे ज्यादा की है। वहाँ मुद्रा जी के आरंभिक निर्वचन के बहाने गर्मागर्म बहसें और खाने के समय उनकी बतकही जारी रहती थी, जो लंबे समय तक बिसरायी नहीं जा सकेगी।

गोरखपुर आने के बाद भी मुद्रा जी से फोन पर बराबर बातें होती थी। उन दिनों वे ‘राष्ट्रीय सहारा’ में धारावाहिक कॉलम लिख रहे थे, जिसको मैं नियमित पढ़ता रहा। फोन पर उनसे कभी-कभार नोकझोंक भी होती थी, पर मुद्रा व्यक्तिगत संबंधों में मुझे हर बार बेहद उदार सहृदय और सहज इनसान लगे। एक बार मेरी सिफारिश पर उन्होंने लखनऊ दूरदर्शन में एक उम्मीदवार को नौकरी दे दी और फोन पर उसी शाम इत्तला किया। मैंने आभार प्रकट किया तो बोले ‘तुमने जिसको अपना प्रिय कहकर सिफारिश की वह जाति से दलित था। इसलिए मुझे प्रसन्नता हुई कि सवर्ण परिवार में पैदा होने के बावजूद तुम में सवर्ण बोध नहीं है और तुम वाकई प्रगतिशील हो। वर्ना पूरब के पंडितों को पंडितों के अलावा किसी और में प्रतिभा नहीं दिखती। इसलिए तुम्हें धन्यवाद देने के लिए फोन कर रहा हूँ। लखनऊ आना तो मिलना।’ मुद्रा जी ने 1976 में जब आकाशवाणी सेवा से इस्तीफा दे दिया तो नौकरी छोड़ने के साथ उन्हें कुछ इकट्ठा धनराशि मिली। उन्होंने आर्थिक तंगी के बावजूद उत्साह में एक लाल रंग की फिएट खरीदी और स्वयं ड्राइव करने लगे। वह कार लखनऊ शहर की सड़कों पर बेहद चर्चित हुई। कार के चर्चित होने की वजह उसका रंग-रूप नहीं था, क्योंकि वह कोई कीमती गाड़ी तो थी नहीं, वह चर्चित हुई चलाने वाले की भूमिका को लेकर। लखनऊ में लेखकों-पत्रकारों और मिलने-जुलने वालों के बीच यह लतीफा मशहूर था कि हजरतगंज की सड़क पर अगर कोई गाड़ी बिना ड्राइवर के चल रही है तो मानिये कि वह मुद्रा जी की गाड़ी है जिसे वे खुद चला रहे हैं। दरअसल यह लतीफा इसलिए जुबान पर चढ़ा क्योंकि मुद्रा जी की कद-काठी छोटी थी। चालक सीट पर बैठने के लिए वह बड़ी मुश्किल से सामने वाले को दिखाई देते थे। बाद के वर्षों में वह गाड़ी फिर नहीं दिखी क्योंकि चलाने वाला अब सड़क पर पैदल चलने लगा था।

एक दूसरा दिलचस्प वाकया ‘राष्ट्रीय सहारा’ में छपने वाले उनके कॉलम में घटित हुआ। उस कॉलम में मुद्रा जी ने रेडियो के पुराने साथियों-साथिनों को याद करते हुए किश्वर सुल्तान जो बाद में किश्वर आरा हो गई थीं, का जिक्र किया था। किश्वर अपने जमाने में बेहद प्रगतिशील विचारों की खुली बेबाक और बिंदास किस्म की महिला थीं, जो दिल्ली आकाशवाणी में मुद्रा के साथ कार्यरत थीं। उसके बाद बी.बी.सी. लंदन की सेवा के बाद किश्वर आकाशवाणी सेवा में वापस लौटी और आकाशवाणी गोरखपुर में केंद्र निदेशक पद पर लंबे समय तक कार्य किया। वे अकेली थीं। परिवार से उनका मोहभंग हो चुका था। गोरखपुर में मेरे परिचय की एक लड़की को गोद ले लिया था जिसके साथ वे सेवानिवृत्ति के बाद स्थायी तौर पर रहने लगी थीं। उनसे विभागीय होने के नाते मेरा भी परिचय था।

किश्वर कभी कभार उर्दू में अफसाने भी लिखती थी। हुआ यह कि मुद्रा ने अपने उस कॉलम में उनके निधन की खबर देते हुए विस्तार से किश्वर के व्यक्तित्व और कारनामे को याद करते हुए अपना अफसोस जताया था। मैंने जब यह खबर पढ़ी तो हैरत में पड़ गया, क्योंकि वे मेरे घर के बिल्कुल पास में रहती थीं। दिलचस्प बात यह है कि कुछ दिनों पूर्व ही आकाशवाणी में मुलाकात हुई थी। फिर भी मैंने खबर पढ़ते ही किश्वर जी को फोन मिलाया और कुशल क्षेम की जानकारी ली। दो बार पूछा कि ‘आप ठीक हैं ना’, फिर उन्होंने कहा ‘बेटे इतना पूछ रहे हो खुद आकर देख लो मुझे।’ ‘सेहत ठीक है ना’ मैंने कहा ‘मैं जल्दी आऊँगा’। फिर मैंने मुद्रा जी को फोन मिलाया और कहा ‘आपने किश्वर जी को अपने कॉलम में जीते जी आज मार दिया है जबकि वे पूर्ववत जीवित और सक्रिय हैं।’ उन्होंने कहा ‘वाकई सही बोल रहे हो? मैंने कहा ‘हाँ, मैंने अभी उनसे बात की है।’ इतना सुनते ही मुद्रा जी की आवाज भरभरा गई। उनके होश उड़ गए थे, बोले ‘यार बड़ी चूक हो गई। अब क्या करूँ। सहारा तो गोरखपुर आता ही है। तुमने बताया तो नहीं।’ मैंने कहा ‘बिल्कुल नहीं’, ‘तो फिर क्या होगा।’ मैंने कहा ‘मुद्रा जी भूल जाइये, कुछ नहीं होगा, जो होगा मैं देख लूँगा।’ फिर इस वाकये के सिलसिले में मुद्रा जी के कई फोन आए और कहा ‘किसी ने पढ़कर उसे बताया तो नहीं?’ मैंने कहा ‘ऐसी कोई खबर तो नहीं मिली है। लेकिन मेरी राय है कि आप किश्वर जी से एक बार स्वयं बात करके कुशल क्षेम प्राप्त कर लें।’ खैर, उन्होंने किश्वर जी से बात की और फिर मुझे बताया कि ‘यार वह तो उसी तरह पुराने दिनों के ख्वाओं के साथ बात कर रही है। मैं उससे बात करके बेहद परेशान हो गया।’ मैंने कहा ‘आप इस वाकये को जितना जल्दी हो सके भूल जाइए पर ऐसी खबर लिखने के पहले तथ्य की जानकारी जरूर ले लेनी चाहिए। वर्ना अनर्थ हो जाता है। उनसे बातों-बातों में मैंने परिहास में कहा कि ‘कहीं परमानंद जी ने तो नहीं यह खबर आपको दे दी थी, क्योंकि वे अपने संस्मरणों में जीते जी कीर्ति चौधरी (‘तीसरा सप्तक’ की कवयित्री) को मार चुके हैं। कई मरे लेखकों को जीवित कर देते हैं।’ उन्होंने कहा ‘उन्होंने तो नहीं बताया था, पर अब तो गलती हो गई है। जीवन में आगे इसका ध्यान रखूँगा।’ यह संस्मरण यह बताने के लिए काफी है कि मुद्रा के भीतर मनुष्यता की गहरी छाप थी। वे अपने मित्रों-आत्मीयों को कभी खोना पसंद नहीं करते थे। यद्यपि वे कई बार लोगों को अपने ‘कुंभक’ वचनों से नाराज कर देते थे।

कहने की जरूरत नहीं कि मुद्रा को गरीबों और वंचितों से, दीन दुखियों से बेहद लगाव था, जिनकी वे बेहिचक आजीवन मदद करते रहे। उनके लिए लिखते रहे, उनके लिए रेडियो की नौकरी छोड़ी, उनके लिए राजनीति में गए और उनके लिए कोपभाजन भी हुए। साहित्य में भद्र और कुलीन वर्ग के तथाकथित मठाधीशों को हमेशा उन्होंने ठेंगे पर रखा। उनसे हमेशा ठसक के साथ जवाब दिये, पंगे लिए, हमले किए और स्वयं भी लहूलुहान होकर अकेले पड़ते गए। उनकी खुद्दारी पर शक करना गुनाह होगा। पर आज कहना चाहता हूँ, जो मुद्रा जी के आगे कभी नहीं कह सका।’ ‘मुद्रा जी! काश आप वैचारिक धरातल पर थोड़े समावेशी और सहिष्णु होते तो आपकी मुद्राएँ कितनी देदीप्यमान और अगणित होती। लेकिन आप आजीवन हंता और आत्महंता बने रहे। किसी की परवाह नहीं की पर साहित्य और समाज में आपकी खुद्दारी हमेशा याद की जाएगी।’


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