सन् 1857 और ‘देश की बात’
- 1 August, 2020
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सन् 1857 और ‘देश की बात’
इधर के कुछ वर्षों से भारत में शताब्दी, अर्द्धशताब्दी समारोह मनाने की होड़-सी लगी हुई है। यह परंपरा भारतीय स्वाधीनता की स्वर्णजयंती से शुरू हुई, और भारतेंदु हरिश्चंद्र की डेढ़ सौवीं, कबीर की छह सौवीं, प्रेमचंद की सवा सौवीं, सुभद्राकुमारी चौहान और जैनेन्द्र कुमार की सौवीं, सन् 1857 के गदर की डेढ़ सौवीं जयंती पार करती हुई, अश्क, नेपाली, नागार्जुन, शमशेर, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, कामिल बुल्के, फैज आदि की शताब्दियों पर ढोल बजाया जा चुका।
दरअसल भारत में संचार माध्यमों के नियंत्रणहीन विकास के कारण खबरिया चैनल इतने बढ़ गए कि उन्हें विशेषज्ञों का अकाल हो गया। खबरनवीसों की माँग इतनी बढ़ गई कि उन्हें पत्रकारिता के लिए विधिवत् प्रशिक्षित पत्रकार की कोई आवश्यकता नहीं रही। स्वयंसेवी संगठनों और साहित्यिक संस्थाओं की संख्या इतनी अधिक हो गई कि उनकी सारी ऊर्जा आयोजनों के अवसर तलाशने में खर्च हो जाती है। पत्र-पत्रिकाओं और वक्ताओं की संख्या इतनी बढ़ गई कि उन्हें चर्चा के लिए ठीक-ठाक विषय नहीं मिलते और ठीक-ठाक विषय पर चर्चा करने का ठीक-ठाक अवसर नहीं मिल पाता, सारा मामला फैशन की तरह चल पड़ा है। टिप्पणी करने वाला हरेक व्यक्ति हर विषय के लिए मेज ठोककर एक ही बात कहेगा–इस विषय पर अब तक ठीक से बात नहीं की गई। हर कोई कलम दबा-दबा कर लिखेगा–इस विषय पर अब तक ठीक से लिखा नहीं गया! अरे भाई! किसने रोक रखा था अब तक आपको? अब तक आप क्यों नहीं बोल-लिख रहे थे?
कुछ धाँसू विद्वानों ने एक और फैशन अपनाया है–उन्हें सारा कुछ खराब ही लगता है। अपने ‘सुकर्मों’ के अलावा सारा कुछ खराब, तर्कहीन और बकवास लगता है। ‘हंस’ (जून-2006) के संपादकीय में उद्भट कथाकार/संपादक राजेन्द्र यादव का संपादकीय ‘काश, मैं राष्ट्रद्रोही होता’, और ‘पहल’–82 में राजीव मित्तल का लेख ‘सन् 1857 वाया मंगल पांडे’ पढ़कर ऐसा ही महसूस हुआ। तथ्य को गंभीरतापूर्वक समझने के लिए वीरेन्द्र यादव का शोध-संपन्न आलेख ‘1857 का मिथक और विरासत : एक पुनर्पाठ’ गौरतलब है।
राजेन्द्र यादव कहते हैं, ‘हम शायद दुनिया के सबसे बड़े कृतघ्न देश होंगे जो कहें कि अँग्रेजों ने हमें आधुनिक नहीं बनाया। वे हमसे ज्यादा मेधावी, परिश्रमी और डायनैमिक लोग थे। उन्होंने हमारे अतीत के कबाड़खाने को तरतीब देकर इतिहास बनाया।’ सखाराम गणेश देउस्कर द्वारा दिए आँकड़ों के अनुसार–सभी बातों में हमारे पुराने गौरव का लोप कर, या उनका विकृत चित्र हमारे सामने खींचकर हमें मोहान्ध करने की चेष्टा ब्रिटिश राज्य के प्रारंभ से ही की जा रही है। असंख्य उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बड़ी-बड़ी सड़कों की चर्चा में सखाराम गणेश देउस्कर की मान्यता है–इसमें संदेह नहीं कि अच्छी सड़कें उन्नत सभ्यता के चिद्द हैं। इस विषय में हमारे सभ्यताभिमानी शासक अँग्रेज और हम भारतवासियों में विराट अंतर है। इंग्लैंड के प्रसिद्ध ऐतिहासिक राबर्ट मेकेंजी उक्त देश के 19वीं शताब्दी के अपने इतिहास में लिखते हैं कि 18वीं शताब्दी के मध्यकाल में इंग्लैंड में अच्छी सड़कें नहीं थीं। इस क्षुद्र देश के एक भाग से अन्य भाग में माल ले जाना उस समय असंभव ही था। इससे व्यापार की बुरी हालत हो रही थी। पर तत्कालीन अँग्रेज यूरोप के अन्यान्य देशों की केवल सैर करने में ही जान-माल बर्बाद कर रहे थे। यूरोप के किसी भी देश में सड़कों की ऐसी बुरी हालत नहीं थी, जैसी कि इंग्लैंड में। लिवरपुल और मैनचेस्टर में केवल 12-13 कोस का फासला है और ये दोनों शहर व्यापार वाणिज्य के प्रधान केंद्र होने पर भी लिवरपुल से मैनचेस्टर तक अठाईस मन कोयला ले जाने का भाड़ा 30 रुपये पड़ता था। इसके अलावा जाड़े में सफर करना साधारणतः असंभव ही था। लंदन शहर में खाद्य सामग्री घोड़ों की पीठ पर लादकर लाई जाती थी। बड़े-बड़े शहरों में लोग अन्न न मिलने के कारण मरते थे, और उनमें थोड़ी दूर के किसानों के घर में गल्ला और गोश्त सड़ा करता था। लंदन तथा ग्लासगो के बीच में केवल घोड़े की गाड़ियाँ चलती थीं, और उन्हें यह प्रचंड यात्रा समाप्त करने में 12-14 दिन लगते थे। जाहिर है कि इस दुरव्यवस्था का कारण सड़कों का न होना ही है। बावजूद इसके भारत को पिछड़ा कहा जाना कितना समीचीन है? इंग्लैंड जनपद की जिस अवधि की ये बातें की गई हैं, उस अवधि में भारत में सड़कों का जाल बिछा हुआ था। सखाराम गणेश देउस्कर के शब्दों में–अब भारत की बात लीजिए। हम बहुत प्राचीन समय की बातें नहीं कहेंगे, कारण सभ्य भारत-संतान तो अति प्राचीन समय से ही कूप, तड़ाग, सड़क और धर्मशालाएँ बनाना सर्वश्रेष्ठ धर्म-कार्य समझते थे। भारत-संतानों की इस प्रकार की अमर कीर्तियाँ आज भी सारे सभ्य जगत को चक्कर में डाल रही है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने कलकत्ते से जगन्नाथ तक एक सड़क बनाई थी, पर वह भी एक ब्राह्मण-संतान के प्रदत्त धन से। पर आज हम बहुत पुरानी बातें न कहकर मुगल सम्राटों के समय की ही बात कहेंगे। सन् 1839 में इंग्लैंड में भारत-शासन की जाँच करने के लिए जो कमीशन बैठा था, उसके सामने साक्ष्य देते समय मि. फ्रीमैन ने जो कुछ कहा था, उसका सारांश यह है कि अँग्रेजों के भारत में आने के पहले यहाँ अच्छी-अच्छी सड़कें थीं, ब्रिटिश शासन के प्रारंभ काल तक उनकी अवस्था भी संतोषजनक थी। ये सड़कें उत्तम, चौड़ी और घनछायायुक्त बड़े-बड़े वृक्षों से आच्छादित थीं; पर उनकी मरम्मत की ओर अँग्रेजों के ध्यान नहीं देने के कारण, मि. फ्रीमैन के साक्ष्य देते समय (सन् 1839) वे जगह-जगह टूट गई थीं। उनके मत से हिंदू और मुसलमानों के समय, विशेषतः शाहजहाँ के समय, भारत सड़कों के जाल से आच्छादित था। पर अँग्रेजों ने केवल फौजों के लिए कुछ सड़कें बनाई थीं। वे 4,027वें प्रश्न के उत्तर में कहते हैं–From all inquires I could make and form the vestiges of the roads that have existed, I should say that the internal communication of the country was much better under both the Hindoo and Mahomedan rule than it is at present. The Village Communities, now no longer in being, are understood to have maintained their respective proportions of the roads.
वे आगे कहते हैं–मैंने जहाँ तक खोज की है, उससे तथा सड़कों के अवशिष्ट अंशों के देखने से तो यही मालूम होता है कि हिंदू और मुसलमानों के समय भारत में सड़कों की अवस्था आजकल से (सन् 1858) कहीं अच्छी थी। ग्राम-पंचायतें, जो अब लुप्त हो गई हैं, अपने-अपने ग्रामों की सड़कों की मरम्मत आदि किया करती थी। देउस्कर का कहना है कि–अँग्रेज कहते हैं, हम तुमलोग को सभ्यता सिखा रहे हैं। हम भी समझते हैं, ‘अँग्रेजों के सहवास से हम सभ्य हो रहे हैं।’ इस पहेली की मीमांसा करते समय सर टॉमस मनरो ने कहा है–भारतवासियों को सभ्य बनाने की बात का मतलब ही मैं अच्छी तरह समझ नहीं सका हूँ। हो सकता है कि देश में सुशासन चलाने में भारतवासी वैसे निपुण नहीं हैं, सुशासन के विषय में उनकी समझ भी ठीक नहीं हो सकती है। पर खेती करने की उत्तम रीति, अतुलनीय कारीगरी, प्रयोजनीय अभाव पूर्ण करने और विलासिता की चीजें बनाने की शक्ति, प्रत्येक गाँव में पाठशालाओं की प्रतिष्ठा, दया दाक्षिण्य, अतिथि-सेवा और स्त्री-जाति के प्रति सम्मान प्रदर्शन करने में तत्परता प्रभृति गुण यदि सभ्यता के अंग हों, तो हिंदू यूरोपियनों से किसी अंश में कम सभ्य नहीं हैं। स्पष्ट है कि करीब ढाई सौ वर्ष पूर्व जब वे भारत को असभ्य कहते थे, तो समझदार लोग विश्वास करने को तैयार नहीं होते थे। इधर कुछ दंतकथा के ब्राह्मण की तरह बकरे को कुत्ता मानकर उनका यशोगान किए जा रहे हैं।
राजीव मित्तल ने सन् 1857 के गदर की व्याख्या करने के लिए इतिहास की नींव खोदी है। उनका तरीका थोड़ा भिन्न है, मगर लक्ष्य राजेन्द्र यादव की तरह ही है। उन दोनों विद्वानों की नजर में अँग्रेज महान थे, भारतीय नागरिक भीरु, डरपोक, स्वार्थी, नासमझ और अतार्किक थे। सन् 1857 का पहला भारतीय स्वाधीनता संग्राम यदि कायदे से लड़ा जाता तो जीत लिया जा सकता था, मगर उस संग्राम की अवधारणा ही गलत थी। वह लड़ाई झाँसी के लिए, कुँवर सिंह की जमींदारी बचाने के लिए, बूढ़े और अशक्य बहादुरशाह जफर के लिए, कारतूसों में गाय या सूअर की चर्बी के लिए लड़ी गई थी। सन् 1857 में हुए प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (सावरकर ने अपनी किताब का यही नाम दिया है) के कई लड़ाकों के नाम इतिहास में दर्ज हो चुके हैं, जो आज भी बड़ी शिद्दत से याद किए जाते हैं। मंगल पांडे के अलावा इनमें प्रमुख हैं–अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर, नाना साहब पेशवा, रानी लक्ष्मीबाई, कुँवर सिंह, तात्या टोपे, बेगम हजरत महल, जनरल बख्त खान आदि-आदि। इन सबके और कंपनी की लाल-नीली धारियों वाली वर्दी डाले दो लाख छब्बीस हजार देशी फौज के रहते ऐसा नहीं था कि कुछ हजार अँग्रेज नब्बे साल पहले ही यह देश छोड़ कर न चले जाते। लेकिन जब लड़ाई झाँसी नाम के ‘मुलुक’ के लिए होगी, कुछ हजार पाउंड की सालाना पेंशन के लिए होगी, कारतूसों में गाय या सूअर की चर्बी के लिए होगी और दिल्ली के अस्सी साल के बादशाह की कमर में कहीं से तलाश कर जबरन बाँधी गई तलवार से होगी, दिल्ली की लड़ाई हारने के बाद जिसे पठान जनरल बख्त खाँ के साथ लालकिले से बच कर निकलना नहीं वरन् अँग्रेजों के हाथ पड़ना मंजूर था, आरा के जमींदार कुँवर सिंह की गोते खा रही जमींदारी के लिए और जंगलों में छुप कर रहने की मजबूरी से होगी, उस अवध की सत्ता के लिए होगी, जिसका नवाब बदइंतजामी के चलते कलकत्ता के मटिजाबुर्ज में नजरबंद हो, दिल्ली से अँग्रेजों को भगाने के बाद देशी फौज का खाना बनाने के लिए जल रहे अलाव ऊँची-नीची जातियों में बँटे हों, तो उसे भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कह कर हम केवल खुशफहमी ही पाल सकते हैं, बल्कि इस खुशफहमी में हम जिए भी जा रहे हैं। सावरकर के मुताबिक अगर मंगल पांडे ने कारतूस का मुद्दा बनाकर शहीद होने की जल्दबाजी न की होती तो यह लड़ाई बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से लड़ी जानी थी और विजय पक्की थी। उन्होंने इसमें आर्यसमाज के प्रवर्तक ऋषि दयानंद का भी महत्त्वपूर्ण योगदान दर्शाया है, कि उन्होंने कमल के फूल और रोटी के जरिये देश भर के राजाओं का अँग्रेजों के खिलाफ इस लड़ाई में शामिल होने का आह्वान किया था। चलिए मान लिया, लेकिन यह उससे भी बड़ा सच है कि इस ‘आजादी की लड़ाई’ में देश के बहुत छोटे से हिस्से ने भाग लिया था। उत्तर में हिमालय, पश्चिम में अफगानिस्तान, पूरब में बर्मा और दक्षिण में श्रीलंका वाले तब के भारत में लखनऊ से आरा और मध्य भारत का बहुत छोटा हिस्सा ही इस ‘गुबार’ में शामिल था। कुल मिलाकर इस ‘क्रांति’ को थोड़ा-बहुत लखनऊ और दिल्ली के बीच की पाँच सौ किलोमीटर की पट्टी में बसे मुसलमानों ने ही ढोया, क्योंकि इस देश की केंद्रीय सत्ता अँग्रेजों ने उन्हीं से छीनी थी। कड़वा सच यह भी है कि अँग्रेजों के पैर इस देश में जमाने में मदद करने वाले हिंदू बहुत बड़ी संख्या में थे और वह इसलिए ही सही, जिसका उन्हें भरपूर पारितोषिक भी मिला। उस समय की दो महान लड़ाकू जातियों राजस्थान के राजपूत और पंजाब के जाट सिखों ने तो इस स्वतंत्रता संग्राम की गंध और गर्दन तक अपने इलाके में नहीं घुसने दी, क्योंकि शहंशाह अकबर अपने जीते जी राजपूत राजाओं को आगरा के मुगल दरबार में हर वक्त कमर झुकाए रहने की आदत लगा गया था, या शाही खानदान की औरतों के महलों की रखवाली करने का काम सौंप गया था (चौकीदारी का यह काम जयपुर के राणा सवाई जयसिंह के जमाने में बखूबी किया था)। अँग्रेजों और हिंदू-सिख राजाओं का यह हनीमून सन् 1947 के बाद तक वगैर बाधा के चलता रहा। राजपूत राजाओं ने वैसे भी अँग्रेजों के खिलाफ कभी तलवार उठाई ही नहीं। सच तो यह है कि उनकी तलवार का रहा-सहा पानी औरंगजेब के मरते समय तक सूख चुका था। बचे सिख, तो महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद पंजाब को हथियाने के कंपनी के अभियानों में देशी सैनिकों ने खुल कर हिस्सा लेने से उनके दिलों में ‘पूरबियों’ से बदला लेने की सोच ज्यादा प्रबल थी। औरंगजेब को थर्रा देने वाला मराठा, पेशवा बाजीराव प्रथम के मरते ही किसका साथ दें–किसका नहीं के कन्फ्यूजन में आपस में ही लड़-भिड़ कर तबाह हो गए, जबकि 18वीं सदी के अंतिम 20 सालों में हैदरअली या टीपू सुल्तान को केवल मराठों की मदद मिल जाती तो अँग्रेज कब का भारत छोड़ कर भाग गए होते। या सन् 1857 में केवल ग्वालियर के सिंधिया ने ही आँखें तरेर दी होतीं तो अँग्रेजों की खैर नहीं थी।
विचित्र बात है। लड़ाई लड़ी गई, अपने ही लोगों की धोखेबाजी, भारतीय लोगों द्वारा अँग्रेजों की चाटुकारिता, आधुनिक हथियारों के अभाव, युद्धरत लोगों के क्षुद्र स्वार्थ या और भी किसी कारण से यदि भारतीय सिपाहियों की पराजय हो गई, तो इसका अर्थ क्या यह निकलता है कि आज उनके त्याग और निष्ठा को उनका स्वार्थ कहकर उनका अपमान करें? राजेन्द्र यादव, और राजीव मित्तल, या इनके जैसे कुछ और लोग, या फिर इनके लेख के यशोगान में पाठकीय प्रतिक्रिया लिखने वाले लोगों को आज, अपनी तमाम क्षुद्र वासनाओं की तृप्ति हेतु सारे सुकर्म-कुकर्म करने की सुविधा और व्यवस्था है, इस सुविधा संपन्न वातावरण में अपनी सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने का लोभ तो छोड़ नहीं पाते–ये 1857 के जुझारू सिपाहियों पर क्या उँगली उठाएँगे?
वीरेन्द्र यादव अपने लेख ‘1857 का मिथक और विरासत : एक पुनर्पाठ’ में कहते हैं–1857 के विप्लव में नेतृत्वकारी भूमिका का निर्वाह करते हुए बेगम हजरत महल, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, मौलवी अहमदुल्ला शाह तथा कुँवर सिंह सरीखे योद्धाओं ने जिस दुर्दम्य साहस के साथ गोरी फौजों का मुकाबला किया वह भारत में ब्रिटिश राज को दी जाने वाली सबसे बड़ी चुनौती थी, लेकिन विडंबना यह थी कि यही वे लोग थे जिनके वंशजों के बल पर अँग्रेजी राज के पैर भारत में जमे थे। स्वीकार करना होगा कि अँग्रेजों के विरुद्ध इन सभी का संघर्ष इनकी स्वेच्छा का परिणाम न होकर अँग्रेजों द्वारा थोपी गई विवशता थी। अपने राज रियासत के लिए देशहित और स्वाभिमान को तिलांजलि देकर जिस प्रकार इन्होंने अँग्रेजों के लिए पलक पाँवड़े बिछाए थे, वह स्वाभिमानी हिंदुस्तानी मानस को लज्जित करने वाला है। समझ नहीं आता कि वंशवाद की यह कौन-सी अवधारणा है! कपिल मुनि द्वारा शापित और भस्म हो गए राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के पाप को उनके वंशज भगीरथ ने धो दिया; उस रास्ते से गंगा बहाकर उनका उद्धार करा दिया; मगर देश की आजादी के लिए संघर्षरत सिपाही अपने पूर्वजों के पाप आज भी ढो रहे हैं। मतलब यह निकला कि आपके पिता की किसी गलती से यदि आपके घर में साँप घुस आए, तो आपके द्वारा उसको भगाने का कोई अर्थ नहीं है। वीरेन्द्र यादव ने तो भारतेंदु हरिश्चंद्र तक को नहीं बख्शा। हिंदी पढ़ने-लिखने वाले लोग, और स्वाधीनता संग्राम में साहित्य-सृजन के अवदान को रेखांकित करने वाले लोग, इस बात के लिए गौरवान्वित होते हैं कि सन् 1857 का संग्राम हार जाने के बाद नई चेतना, नई अवधारणा और प्रभूत प्रतिबद्धता के साथ देश के कुछ साहित्यसेवी स्वाधीनता आंदोलन के सिपाही बने। भारतेंदु हरिश्चंद्र उनका नेतृत्व कर रहे थे। ये वही भारतेंदु हैं, जिन्होंने देश को, हिंदी भाषा और साहित्य को, और हिंदी पट्टी की सांस्कृतिक, भाषिक समझ को एक दिशा दी। आज जिस हिंदी भाषा में लिख-पढ़कर हम तोप दाग रहे हैं, उस भाषा के क्षेत्र में भारतेंदु की भूमिका आँकने के लिए हमारे शब्दकोश ओछे पड़ जाते हैं। पर वीरेन्द्र यादव कहते हैं–सन् 1857 और उसके बाद के दौर में शिव प्रसाद सितारेहिंद और भारतेंदु हरिश्चंद्र, दोनों ही सरकार के वफादार थे, भारतेंदु और शिव प्रसाद दोनों के पुरखों ने, जो दिल्ली के बादशाहों के करीब थे, बाद में बंगाल के नवाब के खिलाफ अँग्रेजों को लड़ने में मदद की। इस मदद के एवज में ही बीस साल के लड़के हरिश्चंद्र को बनारस शहर का आनरेरी मजिस्ट्रेट बनाया गया।
विडंबना ही है कि भारतेंदु जैसे गहन चिंतन वाले आंदोलनधर्मी के बारे में आज यह कहा जा रहा है। ये वे भारतेंदु हैं जिन्होंने सन् 1857 की पराजय के बाद दो महत्त्वपूर्ण बातें रखीं–पहली यह कि हम विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करें, जो आगे आकर गाँधी जी के स्वदेशी आंदोलन का आधार बना और दूसरी कि भाषा के नाम पर पूरे राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधने का सफलतम प्रयास किया, पूरा राष्ट्र एक हुआ। ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल’ कहने वाले भारतेंदु ने कितनी व्यथा से लिखा होगा–‘अँग्रेज राज सब साज सजे सुख भारी, पै धन विदेस चलि जात अहौ यह ख्वारी।’ आज उस भारतेंदु के अवदान का मूल्यांकन लोग किस रूप में कर रहे हैं!
इस समय पंचतंत्र की एक कथा याद आती है–एक गुरु आश्रम के दो शिष्यों को आपस में वैमनस्य रहता था। दोनों शिष्य रात को भोजनोपरान्त गुरु की सेवा करते समय भी झगड़ते रहते थे। गुरु ने दोनों को अपने पाँव बाँट दिए थे, दोनों शिष्य अपने-अपने हिस्से के पाँव की सेवा करके सो जाते थे। एक रात एक शिष्य अनुपस्थित हो गया। दूसरा शिष्य जब अपने हिस्से के पाँव की सेवा कर वापस जाने लगा, तो गुरु ने उसे कहा कि आज तुम्हारा गुरुभाई अनुपस्थित है, दूसरे पाँव की भी सेवा कर दो। शिष्य को गुस्सा आ गया। वह एक बड़ा-सा पत्थर उठा लाया और अपने प्रतिद्वंद्वी के हिस्से के पाँव को, जो उसके परमपूज्य गुरुदेव का पाँव था, तोड़ डाला। सन् 1857 के सिपाही आज वैसे ही गुरु हो गए हैं और सन् 1857 पर चर्चा करने वाले लोग दो खेमों में बँटकर अपना समय व्यतीत कर रहे हैं।
संसार भर में संभवतः हमारा देश अकेला है, जो अपनी भव्य विरासत की भव्यता देखने और उससे प्रेरणा लेने की बजाय, उस पर उँगली उठाने, छिद्रान्वेषण करने, उसके सूक्ष्मतर दोष को वैराट्य दे कर प्रचारित करने में प्रसन्नताबोध से भर उठते हैं। इन दिनों पूरे देश के बुद्धिजीवी सन् 1857 के संग्राम के पीछे इस कदर लगे हुए हैं, जैसे कान्वेंट स्कूल के छात्र वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग ले रहे हों। स्वाभाविक है कि जो लोग कुँवर सिंह, लक्ष्मीबाई, मंगल पांडेय को ही प्रथम स्वाधीनता आंदोलन के सिपाही की गरिमा नहीं देना चाहते, वे भारतेंदु, शिवप्रसाद सितारेहिंद से लेकर प्रेमचंद तक को अगले स्वाधीनता संग्राम के सिपाही का दर्जा कैसे देंगे। पर तथ्य है कि आंदोलन केवल तोप, तलवार और मशाल से नहीं, कलम से भी लड़ा जाता है और उसमें सन् 1857 से लेकर सन् 1947 तक; मंगल पांडे, कुँवर सिंह, लक्ष्मीबाई से लेकर भगत सिंह, महात्मा गाँधी तक; और भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर प्रेमचंद, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी तक सबका योगदान प्रबल है। अपने पूर्वजों को, अपने अतीत को, विवेकशील नजरिये से देखने-समझने का तरीका हमें सीखना चाहिए। हमें इसका भी आकलन करना चाहिए कि जिन परिस्थितियों में हमारे इन पूर्वजों ने जितनी कुर्बानी दी, उससे हजार गुनी अधिक सुविधा, स्वाधीनता, अभयदान का वातावरण पाकर भी हम उनके किए का दशमांश भी कर पाते हैं? हजार-दो हजार के पुरस्कार, मान्यता, प्रभुत्व पाने के लिए; सभा-समितियों की सदस्यता हासिल करने के लिए, ओछी-ओछी उपलब्धियों के लिए घृणित आचरण करने वाले लोग भी आज अपने पूर्वजों के बलिदान पर कलंक का टीका लगाने को व्याकुल रहते हैं।
वीरेन्द्र यादव का कहना है कि–दो राय नहीं कि 1857 अँग्रेजी सत्ता के लिए देशी शक्तियों द्वारा दी गई उस समय तक की सबसे बड़ी चुनौती थी। लेकिन यह साम्राज्यवाद के विरुद्ध सुविचारित व सुसंगठित आंदोलन न होकर धर्म आधारित वह नस्ली विरोध था जिसके निशाने पर अँग्रेजी राज न होकर समूची अँग्रेजी कौम और ईसाइयत थी। यह धार्मिक मुहावरे में लड़ी गई देश की आजादी की लड़ाई न होकर धर्म आधारित सामंती व्यवस्था के विशेषाधिकारों को बचाने की लड़ाई थी, जिसमें देश महज एक रणक्षेत्र था। यह देश की जनता द्वारा देश के लिए लड़ी गई लड़ाई न होकर देशी शासक वर्ग द्वारा अपने हितों की रक्षा के लिए लड़ा गया वह धार्मिक संग्राम था, जिसमें हिंदू मुस्लिम दोनों धर्म के अनुयायी-जनता कच्चे माल की तरह इस्तेमाल की गई। देशी शासकों के जुल्म-ओ-सितम से त्रस्त रहने के बावजूद गुलाम प्रजा द्वारा 1857 में जो भी हिस्सेदारी थी, वह उनकी सजग साम्राज्यवाद विरोधी चेतना का परिणाम न होकर उस सामंती अनुकूलन का परिणाम थी जो उनके अपने हित में किसी स्वतंत्र निर्णय को बाधित करती थी। हाँ, उत्पीड़ित जन के मन में अँग्रेजों के प्रति स्वाभाविक दूरी व विलगाव की भावना थी। उसने इस हिस्सेदारी को और सहज बनाया। तब तक पराधीन जनता में न तो सामंती गुलामी से मुक्ति की क्षमता थी, न ही साम्राज्यवाद से मुक्ति की चेतना। सामंती सत्ता ने ही उस पर अँग्रेजों की गुलामी थोपी थी और उसी को जन-विद्रोह कहना एक नए मिथक को गढ़ना है।
अँग्रेजों की दुष्टता, कुटिलता और निर्दयता के; कृषि और कारीगरी के विकास के प्रति उनकी अदूरदर्शिता के असंख्य उदाहरण देउस्कर ने अपनी पुस्तक ‘देश की बात’ में पेश किए हैं। जहाज बनाने की भारत की दक्षता और गुणवत्ता की तुलना अँग्रेजों से करते हुए उन्होंने जो तालिका प्रस्तुत की, उसे देखकर चौंक जाना पड़ता है। ऊपर से उनकी बेईमानी और अनैतिकता का उदाहरण भी देते हैं–सिपाही-विद्रोह दमन करने के लिए इंग्लैंड के 40 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। पर यह खर्च भी भारतवासियों के सिर लादा गया। ईस्ट इंडिया कंपनी से भारत खरीदने के लिए भारतवासियों को ही इंग्लैंड को जिस प्रकार रुपये कर्ज लेकर देने पड़े थे, उसी प्रकार सिपाही विद्रोह दमन करने के लिए भी उन्हें 40 करोड़ रुपये फिर कर्ज लेकर देने पड़े। यही नहीं, विप्लव दमन के बड़े खर्च के कारण जिस समय भारत का खजाना खाली हो रहा था, उस समय भी भारत पर एक और अन्याय किया गया–विद्रोह को शांत करने के लिए इंग्लैंड से जो सेना यहाँ आई थी उसको इंग्लैंड छोड़ने के छह महीने पहले का वेतन भी बेचारे भारत से वसूल किया। कहना होगा कि इस विद्रोह का कारण अँग्रेज ही थे। अँग्रेजी सेना के पूर्व प्रधान सेनापति स्वयं लार्ड राबर्ट्स ने कबूल किया है कि विद्रोह के समय कारतूस के बारे में जो अफवाह उड़ी थी वह झूठ नहीं थी; सचमुच उस समय कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी लगाई जाती थी।
अँग्रेजों के आगमन से पूर्व भी भारत की शासन-व्यवस्था और राज्य-रक्षा प्रणाली की सुव्यवस्थित तरकीब यहाँ थी–बादशाह अकबर और छत्रपति शिवाजी ने इस प्रथा में फेर-बदल कर सुफल पाया था। अकबर की अमलदारी में देश के हिंदुओं को राज्य रक्षा का भार दिया गया था। इसी से मुगल साम्राज्य यहाँ ऐसी दृढ़ता से जम गया था। औरंगजेब ने संकीर्ण नीति अपनाकर हिंदुओं के हाथ से देश-रक्षा का भार निकाल लिया। इसी से मुगल-राज्य देखते-देखते उनके सामने जल-बूँद के समान नष्ट हो गया। महात्मा शिवाजी की नीति अकबर से भी अच्छी थी। उनके राज्य में देश के सामान्य किसानों को भी देश-रक्षा का भार सौंपा गया था। शिवाजी ने प्रत्येक महाराष्ट्रीय के हृदय में जो स्वदेश-रक्षा का बीज बोया था, वह थोड़े ही दिनों में इतने बड़े वृक्ष में परिणत हो गया था कि खुद बादशाह औरंगजेब बीस लाख सेना लेकर महाराष्ट्र पर चढ़ गया, पर उसे काबिज नहीं कर सका। बीस वर्ष तक बीस लाख सेना लेकर मुट्ठी भर स्वदेश भक्त महाराष्ट्रीय राजाओं ने अंत तक महात्मा शिवाजी की नीति का अनुकरण किया होता तो सुविशाल महाराष्ट्र साम्राज्य का अकाल में ही लोप न हो जाता।
आज भारत का हरेक कृतज्ञ नागरिक इस तथ्य से वाकिफ है कि सन् 1857 में भारतीय सिपाहियों की जैसी पराजय हुई, उससे भी बुरी पराजय हुई होती, तो भी वह हमारे लिए महत्त्वपूर्ण होती। संघर्ष और संग्राम की आग को जिलाकर रखना छोटी बात नहीं होती। युद्ध में पराजय मनुष्य को हर समय हताशा ही नहीं देती; अपनी शक्ति की समीक्षा करने का विवेक, अगली लड़ाई की तैयारी का साहस, और लड़ाई जीतने हेतु आक्रमण की नई शैली तलाशने की चतुराई भी देती है। मूल बात है आत्मसम्मान के प्रति सावधानी, राष्ट्र के प्रति अनुराग, और उसके रक्षणार्थ ताकत के साथ खड़े होने की हिम्मत। यह हिम्मत उसी आग से मिलती है, उसी उष्मा से मिलती है, जिसे भारतवासियों ने सन् 1857 से जिलाए रखा था। मगर राजेन्द्र यादव और राजीव मित्तल को राख ही राख मिली। असल में सस्ती वासनाओं में लिप्त विद्वानों के हाथ इतने ठंडे होते हैं कि ज्वाला और ज्वालामुखी में भी उन्हें उष्मा नहीं नजर आती। ‘इंग्लिशमैन’ पत्र के संपादक का वाक्य इनके लिए गौरतलब है–war and war alone, has made the nations of Europe strong. On war and the hard-bought stregnth and energy is bestows, have been founded all Europe’s liberties and progress. The day, civilised nations forget war, that day they degenerate.
सन् 1857 के बारे में, राजेन्द्र यादव की उक्ति ठीक है कि हजारों लोग फाँसी पर लटका दिए गए, फौजी फाइरिंग स्क्वाड में मरे, और तोप के मुहानों पर चढ़ा दिए गए। दिल्ली, लखनऊ की मीलों लंबी सड़कों पर लोग पेड़ों से लटके दिखाई देते थे। तो जिस स्वाधीनता-संग्राम में इतने लोगों की आहूति दी गई; उसको इतनी सस्ती दर में आँककर आज के बुद्धिजीवी अपना विवेक-वध किस कारण कर रहे हैं?
आज के 1857 विरोधी, और अँग्रेजों के प्रशंसक विद्वान इस तथ्य से भी वाकिफ होंगे कि सन् 1860 तक, खास लंदन शहर के तीन चतुर्थांश बालकों को किसी प्रकार की शिक्षा नहीं मिलती थी। और, जब राजधानी की यह हालत थी, तब गाँवों की अवस्था क्या रही होगी? मानव-सभ्यता के विकास में किसने किसको कितना सभ्य-असभ्य, आधुनिक-पारंपरिक प्रगतिशील-पाखंडी बनाया–इसका श्रेय ढूँढ़ना फिजूल बात है। विकास-प्रक्रिया में हम अँग्रेज के योगदान के बगैर भी अत्याधुनिक हो जा सकते थे। मैं तो कहना चाहता हूँ कि भारतीय कारीगरों ने भी अँग्रेजों को अत्यधिक आधुनिक बनाया था। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक उनके शिल्प की दशा डॉ. बुइस्ट के शब्दों में देखें–The correct forms of ships–only elaborated the past ten years by the science of Europe–have been familiar to India for ten centuries. जिनकी अपनी हालत ऐसी हो, वह दूसरों को आधुनिक क्या बनाएँगे?
इतिहास गवाह है कि भारत में गद्दारों और राष्ट्रद्रोहियों की कमी न तब थी, न अब है। भारत की भूमि पर विदेशियों के पदार्पण का मूल कारण भारतीय नागरिकों का आपसी कलह-द्वेष है, यह बात तब के लोग भी जानते थे, और अब के भी। मगर इन गद्दारों की गद्दारी के कारण आम भारतीय नागरिक के स्वाभिमान पर कीचड़ उछालना, किसी बुद्धिजीवी का धर्म नहीं होना चाहिए। जिसकी जीभ में छाले पड़े हों, उनके मिर्च खाने का अनुभव दूसरे नहीं समझ सकेंगे। राजेन्द्र यादव, या राजीव मित्तल, या इस देश के किसी भी पढ़े-लिखे नागरिक को यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है कि सन् 1857 का गदर कैसे हुआ, गदर से पूर्व के सौ वर्षों में भारत के कोने-कोने में धर्म, प्राण, मान-स्वाभिमान, परंपरा-सभ्यता के रक्षणार्थ विरोध और विद्रोह का सिलसिला लगातार चल रहा था। पलासी युद्ध में सिराजुद्दौला की हार (1757), बक्सर में शाह आलम की हार (1764), जंगल महाल का जमींदार-विद्रोह, संन्यासी विद्रोह (1763), चुआड़ों का विद्रोह, बहावी विद्रोह, बैरकपुर का प्रथम सैनिक विद्रोह, बुंदेला विद्रोह, संताल विद्रोह, कूका विद्रोह, ये सब के सब आग को जिलाए रखने के एक स्रोत, और चिनगारी को ज्वाला बनाने के तरीके थे। सब संगठित होकर लड़े, पराजित हुए, पर हताश नहीं हुए। बार-बार असफल होकर भी अंततः स्वाधीनता उन्होंने ही हासिल की। यदि राजेन्द्र यादव और राजीव मित्तल की तरह हारे हुए दिनों, और खाई हुई चोटों को रोते रहते, तो आज स्वाधीनता के दशक नहीं नाप पाते।
कुछ दिनों पूर्व हिंदी के एक बुद्धिजीवी ने भारतेंदु हरिश्चंद्र पर लेख लिखना शुरू किया, उन्हें लगा कि सारे लोग तो प्रशंसा ही किए जा रहे हैं, मैं कुछ अलग करूँ, बस उन्होंने उनमें दोष गिनाने शुरू किए। और, वे आत्ममुग्ध ऐसे, कि अपने चरित्र की सारी ‘विशेषताएँ’ उन पर थोप दीं–उन्हें चरित्रहीन, वेश्यागामी कह दिया। आजकल लोग मंगल पांडेय और कुँवर सिंह में भी अपना-अपना चरित्र आरोपित करने लगे हैं। उन्हें स्वार्थी और आत्मकेंद्रित साबित कर अपना कद बढ़ा लेना चाह रहे हैं। स्थापित सत्य के विपरीत बोलने से लोग महान हो जाते हैं–ऐसा भ्रम विद्वानों को भी रहता है।
लंदन के ईस्ट इंडिया एसोसिएशन के सभापति लार्ड रे साहब के 11 जुलाई 1906 के भाषण में जो घोषणाएँ की गईं उसके जवाब में भारतीय मर्म के ज्ञाता सखाराम गणेश देउस्कर ने इस ऐतिहासिक तथ्य का उल्लेख किया है। लार्ड रे ने कहा–इंगलैंड और उपनिवेशों में जबर्दस्ती शिक्षा दी जाने के कारण ही वहाँ आत्म-शासन प्रणाली का चलाना संभव हुआ था। भारत के जनसाधारण में शिक्षा का अभाव होने के कारण, वे प्रतिनिधि चुनने के अधिकार पाने के योग्य नहीं हैं। जब तक उनमें वह योग्यता न आ जाए तब तक भारत में आत्म-शासन-प्रणाली नहीं चलाई जा सकती।
जिस इंग्लैंड की अपनी ही शिक्षा व्यवस्था अपाहिज और लाचार हो, वह उपनिवेश की शिक्षा व्यवस्था पर फतवेबाजी कर रहे थे। इसी हास्यास्पद घोषणा पर देउस्कर ने कहा–छठे एडवर्ड के समय ही जब समूचे इंग्लैंड में 359 से अधिक पाठशालाएँ नहीं थीं, इंग्लैंड के लोगों को ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ महासभा या संपूर्ण आत्म-शासन के अधिकार मिल गए थे। पक्षांत में यह बात भी सब लोग जानते हैं कि क्यूबा, फिलिपाइन और लाइबेरिया प्रदेश से भारत की शिक्षा-दीक्षा किसी हालत में कम नहीं है। पर अमेरिका की सरकार ने उन देशों के लोगों को जो सब अधिकार दिए हैं, वही अधिकार पाने में अँग्रेज हमें अयोग्य समझते हैं। पश्चिम अफ्रिका देशांतर्गत लाइबेरिया प्रदेश के अधिवासी निग्रो 25 वर्ष ही अमेरिका के अधीन रहकर प्रजातंत्र शासन-प्रणाली (republic) पाने के योग्य हो गए और जुलाई, 1947 में स्वाधीन भी हो गए; और 150 वर्ष के ब्रिटिश-शासन के बाद बहुत कुछ माथापच्ची करने पर केवल एक भारतवासी बड़े लाट की प्रबंधकारिणी सभा के सदस्य बनाए गए! इससे क्या जाहिर होता है–ब्रिटिश शासन-प्रणाली का दोष या गोरे राजपुरुषों की कुटिलता, या भारतवासियों में शिक्षा-दीक्षा का अभाव? भारतवासी मानसिक शक्ति में क्या लाइबेरिया के नीग्रो लोगों से भी अधिक हीन हैं? यदि यही बात सच है, तो भारतीय इंजीनियरों में अग्रगण्य काटन ने जलापूर्त और स्थापत्य विद्या में भारतवासियों को विशेष पटु क्यों बताया? The natives have shown practical talent (in Engineering), and on the main point of all, that of irrigation, nothing can be better than the ancient irrigation works of Southern India. In fact they have been a model to our selves. Sir Arthur Cottton is merely an imitator on a grant scale and with considerable personal genious, of the ancient native Indian Engineers-Sir Charles Trevellvan, Report of 1873. (Question 1547) अमेरिका के सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ ब्रायन साहब ने भारत यात्रा के बाद वक्तव्य में कहा–भारत में विद्वान और कॉलेज में शिक्षा पाए हुए आदमी बहुत हैं। इसके सिवा हमारे पूर्वजों के समान बिना पुस्तकीय विद्या के भी वहाँ बुद्धिमान और विवेकशील आदमी बहुत हैं। ब्रायन साहब ने और आगे कहा–भारतवासियों में स्वराज प्राप्ति की पूरी योग्यता है। केवल योग्यता ही क्यों? इंग्लैंड आदि पाश्चात्य देशों में आज भी लोक-प्रतिनिधि-मूलक शासन प्रणाली प्रचलित है, उसका जन्म ही इस देश में हुआ है; हमारी स्वाधीनता के समय यहाँ भी उसी प्रणाली के अनुसार शासन-कार्य परिचालित होता था, हमारे धर्म-ग्रंथ में इसके बहुत प्रमाण हैं।
इसके बावजूद, उल्टी गंगा बहानेवाले ‘विशिष्ट’ विद्वानों को भारत पिछड़ा हुआ लगे और वे अँग्रेजों के विरुद गाएँ, तो उन्हें कौन रोकेगा?
Image: Rahm Bux’s Petition, Mhow, Central India, June, 1889 Image Source: Wikimedia Commons Artist: Image in Public Domain