ऐसा भी होता है

ऐसा भी होता है

बात थोड़ी पुरानी है। जनवरी 1983 की सात तारीख। नाथनगर (भागलपुर) के नूरपुर मुहल्ले में रहकर मैं एम.ए. की पढ़ाई कर रहा था। परीक्षा हो चुकी थी, परीक्षाफल का इन्तज़ार था। विद्यार्थी जीवन में ग्रामीण परिवेश के विद्यार्थियों को पैसे की समस्या अक्सर आती है, आज भी है और तब भी थी। प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी की शुरुआत अभी प्रारंभ नहीं किया था, फिर भी शाम के वक्त लॉज में रहने वाले अपने साथियों के साथ टहलने अक्सर नाथनगर चौक पर चला जाया करता था। चौक के आवोहवा से रूबरू होने के साथ-साथ पान की दुकान से मुफ्त में पेपर पढ़ने को मिल जाता था। दुकानदार कभी-कभी झल्ला भी जाता, क्योंकि हमारे जैसे छात्रों से उसे कोई आर्थिक लाभ नहीं था। पान खाने वालों के लिए समाचार पत्र की सुविधा उपलब्ध थी। चूँकि हममें से एकाध को छोड़ कोई पान नहीं खाता था, सिगरेट आदि का तो तब सवाल ही नहीं था, पानवाला ऐसा खड़ूस दुकानदार था कि यदि कोई विद्यार्थी गलती से सिगरेट माँग भी ले तो सिगरेट तो नहीं ही मिलने वाला था, ढेर सारा भाषण जरूर मिल जाता–‘ये कोई उम्र है तुम्हारी सिगरेट पीने की? गार्जियन के पैसे बर्बाद करते हो’, आदि, आदि। हाँ, पान पर पाबंदी नहीं थी। तो सप्ताह में एकाध बार वैसे साथियों को साथ लेकर दुकान पर पहुँचते, जिसकी पान में रुचि होती, तो पेपर आसानी से पढ़ने को मिल जाता। हालाँकि पानवाले की झल्लाहट शुरुआत के दिनों में ही रही। बाद में उसे भी एहसास हो गया कि हम मुफ्तखोर भी हैं और थेथर भी। उसकी झल्लाहट का हम पर बहुत असर नहीं होता। थोड़े ना-नुकुर के बाद पढ़ने की इजाज़त मिल जाती। सात जनवरी 1983 को भी ऐसा ही हुआ, चाह तो थी पटना से प्रकाशित आर्यावर्त या प्रदीप की, लेकिन अन्य ग्राहकों के हाथों होने की वजह से तुरंत उपलब्ध नहीं हो सकता था तो समय काटने के लिए उसकी दुकान पर पड़े दो पेज का एक पेपर उठाया ‘इंडिया अपॉइंटमेंट गजट’ जो कोलकाता (तब का कलकत्ता) से छपता था। यह एक साप्ताहिक रोज़गार समाचार जैसा पत्र था, लेकिन बहुत उपयोगी हमलोगों को कभी नहीं लगा, इसलिए कभी उस दृष्टिकोण से इसे हमने देखा भी नहीं। लेकिन इसी नकारे अखबार से किसी की किस्मत सँवरनी थी, तो मेरे हाथ उसे आना ही था। 29 दिसंबर 1982 को छपे यह अंक 7 जनवरी 83 को मेरे हाथ में था। पलटते हुए एक जगह मेरी निगाह ठहरी। कर्मचारी चयन आयोग इलाहाबाद की ओर से उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के आकाशवाणी के कुछ केंद्रों के लिए प्रसारण अधिशासी (ट्रांसमिशन एग्जेक्युटिव) के लिए सात पद की वेकेंसी थी, जिसमें चार पद सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए था, शेष तीन आरक्षित श्रेणी के लिए। तब मुझ पर प्राध्यापक बनने का भूत सवार था, तो बाकी वैकेंसी पर मेरा ध्यान जाता ही नहीं था। मेरे साथ मेरे एक मित्र भी थे, कॉलेज के साथी तो नहीं थे, लेकिन रहते हमलोग साथ-साथ थे। वेकैंसी को उन्होंने भी देखा। अनिवार्य और वांछनीय योग्यता की जो माँग की गई थी, उनके अनुसार मैं एक पात्र हो सकता था। अनिवार्य योग्यता तो स्नातक मात्र थी, लेकिन वांछनीय में ड्रामा-साहित्य में लेखन कार्यानुभव की माँग की गई थी। तब तक मेरा दो मंचीय नाटक ‘विधवा’ और ‘गंगाधाम’ प्रकाशित हो चुका था। पानवाले भाई साहब से पेपर का वह पेज माँग भी लिया। साप्ताहिक पत्र होने की समय-सीमा को पार कर चुका था, इसलिए पेपर का वह पेज देने में उन्हें बहुत परेशानी नहीं हुई। लॉज में आकर जब ध्यान से पढ़ा तो आवेदन करने से कोई फायदा नहीं लगा। दूसरे दिन ही आवेदन के इलाहाबाद पहुँचने की आखरी तारीख थी। 7 जनवरी 83 के शाम का सात बज रहा था। 8 जनवरी के पाँच बजे तक एस.एस.सी. ऑफिस में पहुँचना संभव ही नहीं था। नाटक लेखन और मंचन के प्रति मेरी दीवानगी देख सभी साथियों को बड़ी निराशा हुई। एक मित्र विकाश (दुर्भाग्य से अब वो इस दुनिया में नहीं रहे) मुझसे एकाध वर्ष बड़े होंगे, लेकिन थे काफ़ी उत्साही। उन्होंने सब साथियों में जोश भर दिया कि सभी लग जाओ तो यह आवेदन कल तक इलाहाबाद पहुँच सकता है। पहले तो बात मेरी समझ में नहीं आई, लेकिन उनकी दूर दृष्टि के हम सभी पहले भी कायल हो चुके थे। वो बोल रहे थे, तो शक की कोई गुंजाइश नहीं थी। फिर भी सभी के लग जाने की बात किसी के समझ से बाहर की बात थी। फिर उनके गुप्त योजना की एक बैठक हुई। विकाश जी ने एक ख़ाका सबके सामने पेश किया। शुरू हुआ मेरे आवेदन करने और इलाहाबाद पहुँचाने का मुहिम। मेरे सारे प्रमाणपत्र की माँग की गई। तब फोटोकॉपी का जमाना नहीं था। हम पाँच छात्र एक साथ लॉज में रहते थे। सब ने मिलकर पेंसिल, कलम, स्केल के साथ जूझना शुरू किया। सारे प्रमाणपत्र की सत्य प्रति बनाया जाने लगा। आठ बजते-बजते सारे कागजात तैयार हो गए। मुझे जिम्मेदारी मिली सिर्फ आवेदन पत्र बनाने की। अब प्रमाणपत्रों की ट्रू कॉपी को अभिप्रमाणित करने का दुरूह कार्य शेष था। लॉज के बगल में भागलपुर विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर साहब रहते थे। सवाल अब ये था कि जाड़े की रात नौ बजे कौन जाएगा उनके पास प्रमाणपत्रों को अभिप्रमाणित कराने। समर्पित मित्रों की टोली थी। उसमें से एक थे अशोक जी, वे आगे आए। उन्होंने ये बीड़ा उठाया। सभी मूल प्रमाणपत्रों के साथ हम दोनों प्रोफेसर साहब के आवास पर पहुँचे। दरवाजा नॉक किया गया। मैडम प्रोफेसर निकलीं। डरते-डरते प्रोफेसर साहब से जरूरी काम का बहाना बनाया गया। आवाज सुन प्रोफेसर साहब कमरे से बाहर दरवाजे तक आए। हम दोनों को देखते ही उनकी भृकुटि तन गई। पहले भी अनेक बार हमारे साथियों ने प्रमाणपत्र अभिप्रमाणित करने हेतु उन्हें परेशान करते रहे थे। हमें देखते ही थोड़ा असहज लगे।
‘ये कोई टाइम है तुमलोगों के आने की। अटेस्टेड कराने आए हो न। अभी नहीं करूँगा सुबह आना।’ कहकर वे दरवाजा बंद करने लगे।
‘सर! बस एक मिनट का वक्त दे दें। सर! बड़ी कृपा होगी। सिचुएशन ही कुछ ऐसा है।’ मित्र अशोक जी प्रोफेसर साहब के सामने हाथ जोड़े खड़े थे।
‘रातभर में कौन सी आफत आ जाएगी। क्या सिचुएशन है बताओ।’ प्रोफेसर साहब ढिठाई पर थोड़ा मुस्कुराए। लगा अब बात बन जाएगी। अशोक जी ने विस्तार से बताना शुरू किया, अभी एक मिनट भी नहीं हुआ था कि पीछे खड़ी मैडम बोल पड़ीं। जितनी देर तक आप राम कहानी सुनेंगे, उससे कम समय लगेगा अटेस्टेड करने में। सही कह रही हो तुम। लाओ कहाँ है सर्टिफिकेट। हम दोनों को सोफे पर बैठने का इशारा करते हुए खुद सामने के सोफे पर बैठ गए। हमने जल्दी-जल्दी सारा ऑरिजिनल और उसकी सत्य प्रति उनके सामने रख दी। प्रोफेसर साहब की मैडम बहुत अच्छी थीं।
‘चाय पिएँगे, आपलोग। वैसे समय तो खाने का हो चुका है। खाना लगाऊँ।’ मैडम की बातों पर जब तक हमलोग रिएक्ट करते प्रोफेसर साहब बोल पड़े।
‘कुछ नहीं, न चाय, न खाना। बिना चाय-पान के तो ये लोग इतना तंग करता है।’ हमसबों को प्रोफेसर साहब की बात पर हँसी आ गई। खैर बीस मिनट में सारे प्रमाणपत्रों को अभिप्रमाणित किया जा चुका था। रात दस बजे से पहले ही हम लॉज आ गए। आवेदन के साथ सारे संबंधित प्रमाणपत्रों की सत्य प्रति लगाकर टिकट चिपका दिया गया। अब आवेदनपत्र भेजने का मिशन सुबह सात बजे का था। खाना खाकर सभी साथियों ने अपने-अपने टेबल घड़ी में सुबह छह बजे का अलार्म लगा, सो गए।
सबसे पहले नींद विकाश की ही खुली। मेरे साथ सबको जगाया गया। तय हुआ कि सियालदह से दिल्ली जाने वाली अपर इंडिया एक्सप्रेस (जो अभी सियालदह इलाहाबाद एक्सप्रेस के नाम से चल रही है, और उस समय की राजधानी मानी जाती थी) में यात्रा कर रहे किसी यात्री के हाथों भेजा जाना था। हम सभी समय पूर्व स्टेशन पर आ गए। चार साथी दो-दो यात्री डब्बे के बीच खड़े थे। आवेदन अशोक जी के हाथ में था, जिनको प्लेटफार्म के बीच खड़ा किया गया। ट्रेन आ गई। मेरे साथ-साथ सभी साथी अपने पास खड़ी बोगी के यात्रियों से खोमचे वाले की तरह ‘कोई इलाहाबाद जाने वाले हैं, कोई इलाहाबाद जाने वाले हैं?’ चिल्ला रहे थे। इंजन के बाद दूसरी बोगी में से एक प्रौढ़ व्यक्ति ने हामी भरी। ‘बोलिए क्या बात है, मैं इलाहाबाद जा रहा हूँ।’ मुझे आवाज दी गई। जब तक मैं उस व्यक्ति के बोगी के खिड़की तक पहुँचता अशोक जी ने पच्चीस पैसे का डाक टिकट लिफाफा धमा दिया था और चिरौरी कर रहे थे कि आज एस.एस.सी. में पहुँचने का अंतिम दिन है, अगर आप इलाहाबाद स्टेशन पर आर.एम.एस. में डाल देंगे तभी आज मिल पाएगा। विद्यार्थी हूँ, एक अदद नौकरी की तलाश है। उनकी चिरौरी वाजिब थी, लेकिन कहने का स्टाइल थोड़ा अलग था, तो हम सभी अपनी हँसी रोक नहीं पाए। ट्रेन खुल गई, आगे किस्मत पर छोड़, हम सभी संतोष का भाव लिए वापस लॉज आ गए। फिर याद भी नहीं रहा कि ऐसा आवेदन भी भेजा है, लेकिन तीन महीने बाद जब 19 अप्रैल 1983 के लिए साक्षात्कार पत्र मिला तब आवेदन भेजने की मुहिम सफल होने का पुख्ता प्रमाण मिल चुका था। संयोग देखिए आवेदन पहुँचाने की प्रक्रिया जितनी दुरूह लग रही थी। आवेदन का लिफाफा इलाहाबाद तक पहुँचाने वाले का तो नहीं पता, लेकिन साक्षात दैवीय शक्ति ही रहा होगा। साक्षात्कार संतोषजनक रहा। अभी एम.ए. का रिजल्ट आना शेष था। कोई काम भी नहीं था। मेरा एक मित्र शैलेन्द्र बाघला, समस्तीपुर के एक इंटर कॉलेज में तदर्थ रूप में योगदान किया था, वह जियोलॉजी का एक अच्छा छात्र था (आजकल मैथन के डी.वी.सी. कॉलेज में टीचर है)। उसके कहने पर बैठे समय का सदुपयोग करने मैंने भी जून 1982 में ही उसी कॉलेज को ज्वॉइन किया। एक कमिटी द्वारा संचालित वित्त रहित कॉलेज था। चार महीने तक काम किया होगा, एम.ए. का रिजल्ट आ गया। गाँव के उस कॉलेज का मुझे कोई अच्छा भविष्य नहीं दिख रहा था। बिना मास्टर डिग्री के सैलरी की भी कोई बात नहीं थी। पुनः वापस नाथनगर अपने साथियों के बीच आ गया। इसी बीच सी.एस.आई.आर. द्वारा कोल बेल्ट पर एक प्रोजेक्ट के लिए जूनियर फेलोशिप की वेकैंसी आई। मेरा चयन हो गया। रिसर्च के काम में लग गया।
सितंबर 1983 में दूरदर्शन मुजफ्फरपुर से एक पत्र प्राप्त हुआ, जिसमें प्रसारण अधिशासी के रूप में चयन होने की सूचना के साथ कुछ जरूरी सूचनाएँ माँगी गई थी। एक कॉलम चरित्र प्रमाणपत्र का भी था। चरित्र प्रमाणपत्र हेतु अपने गाइड और जाने-माने भूगोलविद डॉ. अनिल कुमार से बात की, उन्होंने सहर्ष स्वीकार भी किया। रिसर्च का कार्य उन्हीं की देखरेख में हो रहा था। आवेदन पुनः दूरदर्शन मुजफ्फरपुर को भेज दी गई। शोध प्रोजेक्ट को अभी एक वर्ष ही हुआ था, इसलिए नौकरी की बहुत जल्दीबाजी नहीं थी। चार महीने से अधिक बीत जाने के बावजूद कोई जानकारी मुझे इस संबंध में नहीं मिल पाई कि चयन के बाद कोई सूचना क्यों नहीं मिली। एक दिन विभाग में कार्य करते हुए अचानक डॉ. अनिल कुमार ने पूछ दिया कि जिस आवेदन पर चरित्र प्रमाणपत्र लिया गया था, उसका क्या हुआ। मैंने जानकारी देने में अनभिज्ञता प्रकट की। उनका कहना था कि मुजफ्फरपुर है ही कितनी दूर। रात के धूरियान पैसेंजर ट्रेन (जो अब जयनगर हावड़ा फास्ट पैसेंजर ट्रेन के रूप में चलती है, तब यह मुजफ्फरपुर हावड़ा पैसेंजर होती थी) से चले जाओ, दूसरे दिन पता कर लौट आओ। उनके आदेशानुसार मैं उसी रात मुजफ्फरपुर के लिए निकल गया। सुबह नौ बजे मैं दूरदर्शन मुजफ्फरपुर के गेट पर था। वो तारीख थी 3 फरवरी 1984–बताया गया कि साहब 10 बजे आएँगे, तब तक आप इन्तज़ार करें। गेट से लौटने वाला ही था कि दो व्यक्ति गेट से बाहर निकल रहे थे। मेरे बारे में उन्होंने सुरक्षा अधिकारी से जानकारी ली, जब उन्हें यह पता चला कि मैं अपने चयन संबंधी जानकारी लेने आया हूँ, तो उन्होंने भी साहब के आने के बाद जानकारी मिलने की बात की, लेकिन जब उन्हें यह पता चला कि रातभर जागकर पैसेंजर ट्रेन से आया हूँ, तो उन्होंने थोड़ी सहानुभूति दिखाई और मुझे अपने साथ लेकर रेलवे स्टेशन के एक होटल गए, खाना भी खिलाया। वापस उनके साथ कार्यालय आ गया। साहब के कमरे की ओर जाने का इशारा किया गया। कमरे के बाहर बैठे कर्मचारी से मैंने मिलने की बात की। मुझे मिलने की इजाज़त मिल गई। कमरे में प्रवेश करते ही उन्होंने मुझसे ज्वॉइनिंग लेटर की माँग की। मैंने अनभिज्ञता ज़ाहिर की। मुझे तो ऐसा कोई पत्र मिला ही नहीं था। उन्होंने मुझे इशारे से बैठने को कहा और बेल बजाया। पिउन के आने पर उन्होंने बड़े बाबू को बुलाने को कहा। बड़े बाबू आए। उन्होंने मेरा नाम लेते हुए पूछा कि दो महीने पहले ज्वॉइनिंग लेटर मेरे द्वारा हस्ताक्षर किया गया था वो डिस्पैच हुआ या नहीं। बड़े बाबू फाइल लाने चले गए। तुरंत फाइल लिए वापस आए। पत्र ज्यों-का-त्यों फाइल में पड़ा था। डिस्पैच हुआ ही नहीं। अब तो साहब का पारा सातवें आसमान पर। कुर्सी छोड़ खड़े हो गए। मैं भी खड़ा हो गया–इडियट, उल्लू। क्या नहीं कहा उन्होंने। गुस्से से काँपने लगे। फाइल से एक पेपर निकाला और मुझे भी डाँटते हुए ही हस्ताक्षर करने को कहा। उनका तेवर देख मैं भी डर गया। जो उन्होंने कहा मैं करता गया। मुझे तो समझ में ही नहीं आया कि कौन-कौन सी विभागीय प्रक्रिया पूरी कर ली गई। बड़े बाबू के साथ मैं भी कमरे से बाहर आ गया। बाद में पता चला कि मेरी ज्वॉइनिंग भी हो गई और शपथ भी। मैंने बहुत आरज़ू-मिन्नत की कि अभी मेरा रिसर्च का काम बाकी है, एक साल तक मैं नौकरी नहीं कर सकता। लेकिन किसी ने मेरी एक न सुनी। एक शर्ट-पैंट पर एक सप्ताह रहना पड़ा। बाद में एक दिन की रविवार के साथ छुट्टी मिली, तब शोध छात्र से इस्तीफा देकर घर गया और अपने सामान के साथ वापस मुजफ्फरपुर आ गया। तब से 31 दिसंबर 2018 तक उसी विभाग में सेवारत रहा। इस तरह तो मुझे नौकरी मिली। आज गर्व करता हूँ अपने तब के समय और लोगों पर। कितनी निष्ठा के जो जहाँ, जिस रूप में मुझे मिले, उसी रूप में मेरी भरपूर मदद की। यकीन नहीं होता ‘ऐसा भी होता है?’