समकालीन ग़ज़ल और अनिरुद्ध सिन्हा

समकालीन ग़ज़ल और अनिरुद्ध सिन्हा

परंपरा और आधुनिकता का एक अकेला शायर

मैं ग़ज़ल को हिंदी कविता का एक बृहद अंग मानता हूँ, यह मान्यता आज के लगभग सभी आलोचक स्वीकार कर रहे हैं। एक दौर था जब कविता को गीतों और ग़ज़लों से पृथक कर मात्र गद्यात्मक बयानों को कथ्य और विचारों की शह पर ‘कविता’ की संज्ञा दी गई थी तब से यह रूढ़ि बन गई कि कविता लिखना साहित्य का उत्तम काम है और ग़ज़ल लिखना दोयम दर्जे का काम है। यह विभेद आजादी के बाद ही प्रारंभ हो गया था। आजादी के पूर्व ग़ज़ल और कविता में ऐसे किसी विभेद को स्वीकृत नहीं किया गया था। प्रगतिशील धारा की कविता में निराला, केदारनाथ अग्रवाल, मन्नूलाल शर्मा शील, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, शमशेर बहादुर सिंह आदि ने तो खूब लिखा। यहाँ तक कि बाबा नागार्जुन ने भी ग़ज़ल की तर्ज पर कुछ शेर कहे हैं और गीत व दोहा की तो बात ही नहीं है यह लेकिन जैसे ही प्रयोगवाद और नई कविता का पाश्चात्य अपरूप हिंदी में प्रविष्ट हुआ अज्ञेय और भाषावादी चिंतक इस आंदोलन के नायक बनकर उभरे। कविता अपनी लयात्मक धार व अंतर्लय का परित्याग करती गई। कविता को बयान बनाने की प्रक्रिया प्रयोगवाद ने प्रारंभ की। आगे चलकर नई कविता ने तो लय और व्याकरणिक आबद्धता व नियमावली को सिरे से नकार दिया। प्रयोगवाद और नई कविता बड़ा आंदोलन था जो विश्व के नये चौधरी अमेरिका के इशारे और आर्थिक सहायता से भारत में भी अपने पैर जमाने लगा। उस दौर के बड़े-बड़े प्रगतिशील जो खुद को अमरीकी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का विरोधी कहते थे, वे भी धन और पद के लाभ हेतु प्रयोगवादी आंदोलन में शरीक हो गए। इस आंदोलन ने काँग्रेस के भीतर अपनी लॉबी तैयार की और विभिन्न अकादमियों व कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में अपने मनमुताबिक नियुक्तियाँ करवाईं और जिन लोगों की नियुक्ति हुई, उन लोगों ने प्रयोगवादी सैद्धांतिकी का आलोचना शास्त्र तैयार कर दिया, जिसमें कविता के केवल उस अपरूप को मान्यता प्राप्त हुई, जो आम जनता के लिए कठिन था और अपठनीय था व उबाऊ था। कविता के वह अपरूप जो जनता के मध्य लोकप्रिय थे जिनसे जनता और लोक का गहरा नाता था जो भारतीयता और भारतीय जनमानस को प्रभावित कर सकते थे, उनको कविता से बाहर रखने की पूरी साजिस रची। इस साजिस के तहत ग़ज़ल, गीत, लोकगीत, जनगीत आदि को कविता के दायरे में नहीं रखा गया, क्योंकि इनका दायरा जनता के बीच था। ऐसी कोई भी संरचना जो आम लोक को प्रभावित कर सकती है, आम लोक को वस्तुनिष्ठ यथार्थ का बोध दे सकती है, इन लोगों की नजर में खतरनाक थी। इनकी कोशिश थी कि हिंदी में सामाजिक यथार्थ अपदस्थ हो और वैयक्तिक यथार्थ की प्रतिष्ठा हो। इस लक्ष्य को लेकर हिंदी आलोचना ने कविता के इतिहास को भी नहीं छोड़ा। बड़े-बड़े गीतकारों और ग़ज़लकारों को इतिहास में जगह नहीं दी गई और बहाना बनाया गया कि कविता होने की शर्त लय और बंध नहीं है, कविता की शर्त है बंध से मुक्ति काव्यत्व से मुक्ति और सौंदर्य से मुक्ति, इन दुराग्रहों का प्रतिफल यह हुआ कि ग़ज़ल और गीत कविता आंदोलन की मुख्यधारा से विस्थापित होकर महफिल, मुशायरे और सम्मेलन की विधा बन गई। यह सिलसिला लंबे समय तक चला। यहाँ तक कि दुष्यंत कुमार, गोरख पांडेय, अदम गोडंवी, कैलाश गौतम, कृष्ण मुरारी पहरिया जैसे बड़े गीतकार, ग़ज़ल-गो मंचों के शायर बन गए और लंबे समय तक मंचों से जुड़े रहे।

हिंदी ग़ज़ल ने इस बीच दो तरह के काम किए। पहला कि उन्होंने अपनी पुरानी परिपाटी मसलन हिंदुस्तानियत को बचाए रखा और दूसरी तरफ मंचों में बढ़ रहे प्रयोगवादी ऐन्द्रिक अश्लीलता का प्रसार रोककर प्रगतिशीलता को भी बचाए रखा। कुछ ग़ज़लकार जो लोकप्रिय रहे उन पर कुछ बड़े आलोचकों ने लिखा मगर हिंदी आलोचना ग़ज़ल के मामले में एकदम मौन रही। अस्सी के दशक में कविता की वापसी के साथ जनवाद की भी वापसी हुई। पुनः ग़ज़ल और गीतों ने वापसी की। जब आंदोलन और विचारधारा की वापसी होती है तो वह अपनी सांस्कृतिक संसाधनों को भी साथ लाता है। अस्सी के दशक में गोरख पांडे अदम गोडंवी, शलभ श्रीराम सिंह जैसे बड़े ग़ज़लकारों ने ग़ज़ल को उसी भाव और लहज़े से युक्त किया जिस भाव और लहज़े में तत्कालीन कविता चल पड़ी थी। यदि कविता में जनवाद की वापसी नहीं होती तो शायद ग़ज़ल और गीतों की भी वापसी नहीं होती। ग़ज़ल का स्वाभाविक जुड़ाव जनवाद है, क्योंकि ग़ज़ल जिस हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी आवाम की कल्पना प्रस्तुत करती है, उस हिंदुस्तान को कविता से हटाने के लिए ही प्रयोगवाद ने आंदोलन छेड़ा था। आज आलम यह है कि समय बदल चुका है। विश्वविद्यालयों में हिंदी आलोचना अब नहीं रह गई। वहाँ अब केवल कुंजी और पाठ्यक्रम के संपादक बचे हैं। मौलिक आलोचना अकादमिक जगत से बहुत दूर चली गई है। आज रचना और आलोचना अकादमिक जकड़बंदी से अवमुक्त होकर अपनी राह पर चल पड़ी है। यही कारण है आज ग़ज़ल का नाता लोकधर्मी आलोचना से गहरे जुड़ गया है। ग़ज़ल पर लिखा जा रहा है। ग़ज़ल पढ़ी जा रही है और हिंदी कविता की धारा के समानांतर वह अपनी धारा और अपना इतिहास भी बना चुकी है। जिन मुद्दों पर कविता को बात करनी चाहिए, कवि वहाँ चूक सकता है मगर ग़ज़लकार नहीं चूक रहा। यही कारण है आज ग़ज़ल की सैद्धांतिकी व उसकी सामयिकता वैचारिकता पर बड़ी शिद्दत से बहस हो रही है। ग़ज़लकारों का मूल्यांकन हो रहा है। यह तभी संभव हुआ जब अकादमिक जगत अपनी ही संकुचित आतताई विभेदकारी आलोचना के अतिवादी स्वीकृतियों में डूब गया।

हिंदी ग़ज़ल को हिंदी कविता के समानांतर स्थापित करने में यदि किसी बड़े ग़ज़लकार का नाम लिया जा सकता है, जिसने हिंदी ग़ज़ल की एकेडमिक जरूरतों व सौंदर्यबोध, समकालीन बहसों के अनुरूप ढाला और सैद्धांतिकी तैयार करने में अपने जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को समर्पित किया है तो ऐसे ग़ज़लकारों में अनिरुद्ध सिन्हा का नाम सर्वोपरि है। अनिरुद्ध को मैं बड़ा ग़ज़लकार इसलिए कहता हूँ कि उन्होंने लेखन और आलोचना दोनों में ग़ज़ल को विविधता प्रदत्त की और ग़ज़ल को वर्तमान के सवालातों के समक्ष खड़ा किया। मुंगेर निवासी अनिरुद्ध सिन्हा के अब तक अनगिन ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर छपते रहे हैं और हिंदी ग़ज़ल में हस्तक्षेप रखने वाले तमाम बड़े आलोचकों व संपादकों के संपादन में हमेशा छपते रहे हैं। पुरस्कार और सम्मान की बात छोड़ दें (इसमें इनकी कोई बराबरी नहीं कर सकता) तो जितनी विविधता, और विषय की आधुनिकता तथा वैयक्तिकता को सामूहिकता में तब्दील करने का जज्बा और कला इनके पास है, शायद ही किसी ग़ज़लकार के पास हो। इनकी विशेषता यह है कि नयेपन की तलाश में भी इन्होंने अपनी परिपाटी व्यंग्य और हिंदुस्तानियत को नहीं छोड़ा। आज के सवालों से तो मुठभेड़ करते ही हैं साथ ही ग़ज़ल की चली आ रही परंपरा में भी जरूरी बदलाव कर उसे समय के सापेक्ष करते हैं। परंपरा और आधुनिकता का यह संगम विरले रचनाकारों में परिलक्षित होता है। यदि कोई आलोचक चाहे कि अनिरुद्ध को हम एक जड़, रूढ़ि और प्रयोग के दायरे में बाँधकर रख दें तो यह असंभव है। इसका मूल कारण है कि अनिरुद्ध इतना लिखने के वावजूद अपने आपको दोहराते नहीं हैं। दोहराव आज की ग़ज़ल के समक्ष सबसे बड़ा संकट है। जिस ग़ज़लकार ने अपना मुहावरा तय कर लिया, वह उस मुहावरे से आजीवन अवमुक्त नहीं हो पाता है। वह लिखता है, ग़ज़ल कहता है मगर मुहावरा और भाषा जो ग़ज़ल में नयेपन और ताजगी का अहसास देता उसे छोड़ता नहीं है। समकालीन ग़ज़ल में ऐसे कई नाम हैं जो अपना सर्वश्रेष्ठ अनुदान देने के बाद आज केवल खुद को दोहरा रहे हैं। यह दोहराव किसी भी कवि लेखक और रचनाकार के लिए आत्मघात से कम नहीं होता है। इससे रचनाकार एक विशेष समय का रचनाकार होकर रह जाता है, वह आजीवन सार्वकालिक नहीं हो पाता है। जनकवि नहीं बन पाता है। रामकुमार कृषक इस दोहराव का सबसे बड़ा उदाहरण हैं। रामकुमार कृषक के पास केवल एक ही टोन है, वह टोन है क्रांति की। वह लेनिन और माओ को अस्सी के दशक में भी लिख रहे थे और आज भी लिख रहे हैं। अस्सी का दशक जनवाद की वापसी का दशक था, तब तक क्रांति ठीक थी, मगर आज अस्मितावाद का युग है, भूमंडलीकरण का दौर है। तमाम नये हासिये उभर कर केंद्रिकता के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। बाजारवाद आदमी, परिवार और प्रकृति के लिए आसन्न संकट की तरह उपस्थित है। गाँव और लोक संस्कृति खतरे में है। शहरीकरण बढ़ता जा रहा है। पूँजीवाद परिवार और घर के भीतर तक पहुँचकर विघटन पैदा कर रहा है। आदमी इतना विघटित, विस्थापित और अकेला हो चुका है कि वह समय के भीषण संकटों के समक्ष खुद को निहत्था, अकेला और असहाय महसूस कर रहा है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि रामकुमार कृषक की ग़ज़लों में समय की इन विसंगतियों पर कोई चर्चा नहीं है। वह आज भी अस्सी-नब्बे के दशक में जी रहे हैं और उसी दशक को अपनी ग़ज़ल में उकेर रहे हैं। आधुनिकता के मामले में सबसे सक्रिय और सटीक लेखन देवेन्द्र आर्य, महेश कटारे व अनिरुद्ध सिन्हा का रहा है। इन तीन ग़ज़लकारों की तिकड़ी ने हिंदी ग़ज़ल को समकालीन और आधुनिक बनाया। हिंदी कविता जिन विमर्शों को अब तक नहीं पहचान सकी उन विमर्शों को ग़ज़ल के दायरे में समेटा।

अनिरुद्ध सिन्हा की ग़ज़ल को यदि ध्यान से देखें, तो वह एक ऐसे आदमी का साक्षात्कार करवाती है जो किसी और के लिए धोखे का सृजन नहीं करता है बल्कि देश और दुनिया में परिव्याप्त धोखे को बेरहमी के साथ उजागर करता है। व्यक्ति के संकट को निजी तौर पर कहने के आदती अनिरुद्ध समय की जर्जरता और प्रकृति व समय की घटनाओं से अपनी ग़ज़ल को प्राप्त करते हैं। यदि यह समय मानव के अनुकूल होता तो शायद ग़ज़लकार को ग़ज़ल कहने की जरूरत भी नहीं होती, अपने आपको असहाय तो पाता है, मगर वह अपनी असहायता से ऊपर उठकर ग़ज़ल को व्यापक मानवीय सरोकारों के लिए समर्पित भी करता है। तमाम खतरों को उठाकर भी एक अदद जिंदगी की चाहत रखता है। मुश्किलों में भी जिंदगी खोजता है।

उम्मीदों के नये चेहरे नई बरसात के किस्से ‘समय की पटकथा’ में है। महज इस बात के किस्से ‘यही तो खौफ है दिल में अकेले हम कहाँ जाएँ छुड़ाकर हाथ जब निकले मिले आघात के किस्से’ ग़ज़लकार का यह कहना गलत नहीं है यह हमारे समय के आदमी का सच है। इसी से हम आदमी की असमर्थता का, पराजय बोध का अहसास कर सकते हैं। आदमी का अकेलापन, ऊब, खीज निराशा तब और बढ़ जाती है जब वह अकेला होता चला जाता है। भारतीय मध्यमवर्ग में यदि कोई भी इनसान की खोज करे तो ऐसे धोखे उसे कदम-कदम पर मिलना स्वाभाविक है। यह आघात व्यक्ति पर नहीं है उसकी सामूहिक चेतना पर वैयक्तिक चेतना का आघात है, जिसे कभी-कभार हिंदी कविता भी व्यक्त करती है। मैंने देखा, यह ग़ज़लकार अपनी ग़ज़लों में कहीं भी अपनी विवशता को ग्लोरीफाई नहीं करता है, न ही उसने इसे मेग्नीफाई किया है। वह विवशता और असहायता को अपना औजार बनाता है। अपने आसपास के परिदृश्य के लिए भाषा की तलाश करता है। वह घटनाओं का दृष्टा बनकर नहीं रहता, भोक्ता बनकर रहता है। एक ऐसा भोक्ता जिसमें हिंदुस्तान का हर आदमी दिखता है। यह यों कहें ग़ज़लकार अनिरुद्ध जिस विवशता की बात करते हैं, उस विवशता को निजी नहीं सार्वजनिक विवशता कहना चाहिए, जिसमें पूरा हिंदुस्तान फँसा हुआ है। इसलिए वह आज की सियासत से सवाल करते हैं।

‘आँखों में लहू दिल में जो काँटा नहीं होता, फिर तुमसे अदावत का इरादा नहीं होता।
इतना तो बताओ सियासत तेरे घर में, क्यों रात के दामन में अँधेरा नहीं होता।’

रात होने पर भी अंधकार न होना एक विडंबना है, एक उलटबाँसी है, यह उलटबाँसी एक फकीराना कबीर की है, जो अपने लिए नहीं इनसानियत के लिए विभ्रम से मुठभेड़ कर रहा है। आजादी और लोकतंत्र का जो सपना भारतीय आवाम ने देखा था, उस सपने में था कि धन का बराबर वितरण होगा जनता के लिए, जनता की जनता द्वारा की गई व्यवस्था होगी। मगर हमारे देश में अमीरी-गरीबी की खाई इतनी गहरी थी और चुनाव प्रक्रिया इतनी जटिल कि सियासत से आम आदमी और बुद्धिजीवी बाहर हो गए। चंद शोषक और जातिवादी अपराधियों ने राजनीति पर अपना अधिकार जमा लिया। इस स्थिति से इस देश के जानकार तबके का लोकतंत्र से मोहभंग हुआ। मोहभंग भारतीय कविता के इतिहास का स्थाई भाव है। इस मोहभंग के पीछे मात्र समय की दुश्वारियाँ भर नहीं थीं, बल्कि समस्याओं का इतिहासबोध भी था। यही कारण है अनिरुद्ध जमाने का शोकगीत भर नहीं गाते वह सवालात करते हैं।

‘देश बदला है जिस तरीके से
अब नया संविधान आएगा

चाँद को करवटों में रहने दो
अब नया विहान आएगा

लाश पर फेंकने कफन केवल
न्याय फिर बेजुबान आएगा।’

यदि हम मोहभंग की बात करें तो अधिकांश हिंदी कवियों ने चाहे वह धूमिल हों, चाहे नक्सलवादी दौर का जो भी कवि हो, नेताओं के साथ संसद पर भी हमलावर रहा है। लेनिन खुद संसद को बातूनी दुकान कहा करते थे। गाँधी भी सत्ता विरोधी थे। वह संसद को बाँझ महिला कहते थे अर्थात वह केवल बहस करती है निष्कर्ष नहीं देती है। धूमिल ने तो संसद को तेली की घानी कहा था ‘अपने देश की ससंद तेली की वह घानी है, जिसमें आधा तेल आधा पानी है’ (संसद से सड़क तक)। संसद लोकतंत्र का सबसे बड़ा सदन है। यहीं से सरकार बनती है और बिगड़ती है। यहीं से देश का कानून बनता है और देश के बड़े निर्णय लिए जाते हैं। अतः संसदीय जनतंत्र में संसद की श्रेष्ठता असंदिग्ध है। यही कारण है हिंदी के कवियों और विश्व के तानाशाही विरोधी दार्शनिकों में संसद के प्रति आक्रोश रहा है। अनिरुद्ध सिन्हा भी सियासत और संसद की चर्चा के दौरान आलोचना ही करते हैं। यह उनके मोहभंग का धूमिलवादी पक्ष है–

‘मोह से दंशित समर्पण के प्रबल प्रतिवाद से
पाप अपना धो रही सत्ता महज उन्माद से

प्रश्न संसद में उठे जो तोड़कर सारी हदें
देखकर पथरा गईं आँखें मुखर संवाद से।’

यह ग़ज़ल धूमिल की कविताई से कमतर नहीं है। उस दौर के कवियों में आलोक धन्वा की ‘गोली दागो पोस्टर’ भी थी लेकिन उनके इस कविता-संग्रह में संसद और जन प्रतिनिधियों की वह आलोचना नहीं थी, जो धूमिल की कविता में थी। धूमिल ने जनतंत्र पर संस्थागत आक्रमण करके मोहभंग को हिंदी कविता की मुख्यधारा बना दिया था। धूमिल की इस रीति को हिंदी ग़ज़ल में प्रभावी करने वाले एकमात्र शायर अनिरुद्ध सिन्हा हैं।

किसी भी रचना के रचाव में जितना योगदान अवचेतन मन का होता है, उससे कहीं ज्यादा चेतन मन का होता है। यह बात दीगर है कि उर्दू शायरी में शायर चेतन मन के बनिस्बत अवचेतन मन को अधिक तरजीह देता है। वह अपने यथार्थ को भी अवचेतन रहस्य के आवरण में ढालकर प्रस्तुत करता है। अवचेतन मन बिंब और प्रतीक खोजता है, वह रूढ़ हो चुके प्रयोगों में अपनी चेतन अभिव्यक्ति को पिरोता है। यही कारण है उर्दू शायर गरीबी और मुफलिसी को भी अपने रहस्यवादी आवरण में कैद कर देता है। वह पीड़ा को अभिव्यक्ति तो देता है, मगर उसे बोध का स्वरूप नहीं दे पाता है। वो शायर जो उर्दू अपरूप में हिंदी शायरी करते हैं वहाँ अवचेतन मन की प्रधानता होती है और वह एक अज्ञात रहस्यलोक में पाठक या श्रोता को अकेला छोड़कर चला जाता है। अनिरुद्ध सिन्हा ने इस मामले में अपनी किसी शेर या ग़ज़ल में अवचेतन मन को सामने नहीं रखा। अवचेतन की बजाय चेतन को आधार बनाने के कारण ही अनिरुद्ध गरीबी, जलालत, शोषण व आदमी द्वारा आदमी के शोषण व व्यवस्था द्वारा क्रमशः निहत्थे किए जा रहे आदमी का वास्तविक खाका खींचने में सफल रहते हैं–

‘गरीबी जब कभी हालात से रिश्ता निभाती है
मेरे कच्चे मकानों से कोई आवाज आती है

खामोशी छाई रहती है सवालों के उठाने पर
सियासत गुफ्तगू से हर दफा दामन बचाती है।’

अनिरुद्ध की यह ग़ज़ल इस बात का उदाहरण है कि वह आम ग़ज़लकारों से पृथक हैं। यह दौर बाजार का दौर है। भूमंडलीकरण ने हर एक उस वस्तु को बदल दिया है जो मानवीय सभ्यता के अधिक निकट थी। आज नैतिक आचरण व मानवीय गरिमा का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य उसी वस्तु का है जो बाजार में टिकती है। बाजार लाभ और हानि के गणित से चलता है। यहाँ मानवीयता और सहानुभूति के लिए कोई जगह नहीं है। बाजार ने प्रकृति को भी नष्ट किया और अब मानवीय मूल्यों को नष्ट कर रहा है। हर आदमी दूसरे आदमी से टूटता चला जा रहा है। रिश्ते बदल रहे हैं। आदमी अकेला असहाय और निरुपाय हो चुका है। इस अकेलेपन और असमर्थता बोध के चित्र अनिरुद्ध की ग़ज़ल में बहुत हैं। बाजार और वैश्वीकरण की यह सांस्कृतिक अभिव्यक्ति हिंदी कविता में भी बड़ी शिद्दत के साथ महसूस की जा सकती है। अनिरुद्ध आत्मकेंद्रित अनास्था के बड़े शायर हैं। जब भी उनकी ग़ज़ल में उत्तम पुरुष अर्थात मैं पीड़ाबोध और आत्मचिंतन की मुद्रा में प्रयुक्त होता है तब अकेलापन, आदमी के फालतू होने का बोध, इस नई विश्व व्यवस्था का सच बनकर उभर आता है। यहाँ पीड़ा मुहब्बत की कम, दीन दुनिया की अधिक रहती है–

‘मैं अपने जिस्म के साये में थककर बैठ गया
मेरा वजूद मेरी बेबसी डराती है

मेरे उदास भरोसे को खत्म न कर सकी
गमों की आँख में डूबी सदी डराती है।’

इस पूरी सदी को गम की सदी कहना साधारण बात नहीं है, यह असाधारण प्रतिरोध है। यह सदी हिंदुस्तानी आवाम के लिए संघर्षों की सदी रही है। पहले आजादी के लिए संघर्ष फिर लोकतंत्र के लिए संघर्ष, फिर अपनी कमजोरियों और अपनो के द्वारा प्रदत्त छलों के साथ संघर्ष और अब अपने द्वारा बनाए गए बाजार की भीषण भयावह विभीषका से संघर्ष, हमारी इस सदी का श्वेत पक्ष है। बाजार न केवल इनसान को खत्म कर रहा है बल्कि अपने झंडाबरदारों को भी लील रहा है। बाजारवादी मूल्यों पर चोट करते हुए शायर कहता है–

‘हरे पत्ते तमाम दरख्तों के जल गए
इतनी कड़ी धूप थी कि पत्थर पिघल गए

क्या उनसे हो यकीन की सेहत पे गुफ्तगू
जहरीले तीर जिनके इसारे से चल गए

बाजार में जो लोग हँसी ख्वाब के लिए
जिस राह से चले थे उसी पर पिघल गए।’

यह ग़ज़ल इतिहास के एक बड़े मिथक की रीढ़ तोड़ देती है। यह कहना कि शायरी का फार्म ही ऐसा होता है जिसमें गुफ्तगू होती है, यह कन्टेंट में मुहब्बत के सिवा कुछ कर नहीं सकती है और अगर अभिव्यक्त करेगी तो सीधे बयानों में करेगी। वह भाषा में तनाव और विचलन नहीं ला सकती है; अनिरुद्ध ने इस संदर्भ में चले आ रहे मिथक को ही नहीं, उसकी रीढ़ भी तोड़ दी है। उन्होंने मुहब्बत के फॉर्मेट में भी समकालीन यथार्थ रखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जीवन की हर विसंगति, असंगति, घटना, दुर्घटना, हिंसा, गतिविधियाँ, मानवीय इतिहास यहाँ सब कुछ एक जगह एकत्र हो गया है, तभी ग़ज़लकार बार-बार बदलाव की जिद करता है। ग़ज़ल में ऐसी जिद और गुस्सा समकालीन ग़ज़ल में केवल महेश कटारे सुगम की बुंदेली ग़ज़लों में दिखता है, जहाँ वह किसी भी बहाने और माध्यम से रहित होकर सीधे-सीधे मुठभेड़ करने की भंगिमा में दिखाई पड़ते हैं–

‘आँखों में लहू जो दिल में काँटा नहीं होता
फिर तुमसे अदावत का इरादा नहीं होता।’

अनिरुद्ध यह चेतावनी के साथ-साथ अपनी बाध्यता भी बता रहे हैं–मतलब आदमी आज का अगर अदावती हो रहा है तो उसका कारण सियासत-दाँ हैं। उनके द्वारा पिछले सत्तर सालों से किए जा रहे छल और धोखे हैं। यह कार्य और कारण की परिणिति है, आदमी का त्वरित विद्रोह नहीं है। बदलाव अदावत से ही आता है। इसलिए हर एक कवि, जो समय की त्रासदियों से ऊब जाता है, वह अदावत की बात जरूर करता है। यह शायरी अनिरुद्ध को जनकवि बनाने के लिए पर्याप्त है। जो लोग शायरी को फूल गुलाब खुश्बू महबूब और उसके होंठ तथा जिस्म का भूगोल नापने के विषय मानते हैं उन्हें इन ग़ज़लों को पढ़ना चाहिए और सीखना चाहिए कि ग़ज़ल की सभी शर्तों और सभी मान्यताओं व सौंदर्य के सभी अनुप्रयोगों को रचना में स्थापित करते हुए भी समय की और आवाम की पीड़ाओं का माध्यम कैसे बन जाती है। अनिरुद्ध को पढ़कर समझा जा सकता है। अनिरुद्ध उर्दू और हिंदी दोनों शब्दों के प्रयोगों को तरजीह देते हैं। वह किसी भी एकपक्षीय भाषाई शुद्धता के समर्थक नहीं हैं, जो शब्द जिस बात को असरदार ढंग से कह सकता है, वह निःसंकोच अपनी ग़ज़ल में तरजीह देते हैं। यदाकदा चौंकाने वाली चमकदार प्रवृत्ति से अलग हटकर अनिरुद्ध सिन्हा यथार्थ के संग ही दर्द और मर्म को रुपाकृति प्रदत्त करते हैं और समय की गतिविधियों की शिनाख्त करते हुए ग़ज़ल को समकालीन बनाए रखने का रचनात्मक रसायन रचते हैं।