धनबाद से आगे कब निकलेगी

धनबाद से आगे कब निकलेगी

भाषांतर चिंतन

छत्तीस साल पहले देखी हुई एक घटना का जिक्र करूँ। सुभाष मुखोपाध्याय को कबीर सम्मान मिला था। पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन भोपाल के भारत भवन में किया गया था। विश्ववंदित वास्तुकार चार्ल्स कोरिया द्वारा निर्मित भारत भवन एक विराट सरोवर के किनारे बना है। यह एक असाधारण साँझ थी। सुभाष मुखोपाध्याय को सम्मानित करने के लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री उठ खड़े हुए। हमलोग भी खड़े हो गए। हमलोग यानी आसेतु हिमालय से आए हुए कवि, लेखक, चिंतक का भारतवर्ष उठ खड़ा हुआ। पुरस्कार ग्रहण करने के बाद कवि से कविता सुनाने का अनुरोध किया गया। कवि धीरे-धीरे महीन स्वर में वे सभी कविताएँ पढ़ते रहे जिनके पीछे है धधकती आग। कवि-पत्नी गीता मुखोपाध्याय उनकी बगल में खड़ी होकर कविताओं के अँग्रेजी अनुवाद का सुउच्चरित पाठ करती चल रही थीं। नीरवता इतनी कि पिन गिरने की आवाज भी सुनी जा सके। सरोवर की हवा एक-दो वृक्षों के पत्ते लिए महाकाल की ओर चल पड़ी। इसे छोड़कर और कोई भी आवाज नहीं थी। थी तो बस कविता कविता और कविता। अनुष्ठान के अंत में मेरे समवयसी कन्नड़ कवि एच.एस. शिवप्रकाश ने चाय की चुस्की लेते हुए मुझसे कहा–‘कवि का इतना नाम सुना है, लेकिन कविताओं ने मन को छुआ नहीं।’

मैंने कहा, ‘क्या कह रहे हो? यह बात कहना भी पाप है। कितनी सांघातिक कविताएँ हैं ये।’ इस बार उस कन्नड़ कवि ने यह कहकर मुझे चुप करा दिया–‘अँग्रेजी अनुवाद सुनकर यह नहीं लगता दैट द पोयेम्स आर ग्रेट, मुझे बंगला सीखनी होगी।’

मैंने कहा, ‘किसी भी वामपंथी कविता में वह सूक्ष्मता नहीं दिखती जो सुभाष मुखोपाध्याय की कविताओं में हीरक-कणिकाओं की तरह बिखरी हुई है। उन कणिकाओं का ही अनुवाद नहीं किया जा सकता। कई बार अनुवाद में हीरक कणिकाएँ काँच की कणिकाएँ बन जाती हैं।’ रवीन्द्रनाथ के बाद क्या कोई भी बंगाली कवि कन्नड़ या मराठी में स्थान बना पाया है? क्या किसी भी बंगाली कवि ने त्रिवेंद्रम में जगह पाई है? केरल और बंगाल के बीच कार्ल मार्क्स वटवृक्ष की भाँति खड़े हैं, फिर भी एक समर सेन, एक विष्णु दे, एक बीरेन्द्र चट्टोपाध्याय के लिए जगह नहीं है, यहाँ तक कि सुकांत के लिए भी नहीं। प्रश्न यह है कि जगह किसे कहते हैं? बंगाल में जैसे पाब्लो नेरूदा के लिए जगह है। बंगाल में जैसे तुर्की कविता ‘जेल की चिट्ठी’ बंगला की कविता के हिसाब से ही चलती है। उसी तरह क्या ‘वनलता सेन’ एक कन्नड़ कविता नहीं हो सकती थी? ‘हटा लो फूल चुभते हैं मुझे’ क्या एक कोंकणी कविता नहीं हो सकती थी? ‘उलंग राजा (नंगा राजा)’ क्या सर्वभारतीय कविता नहीं हो सकती थी? क्योंकि सभी भाषाओं में इस समय राजा नंगे हैं। लेकिन दूर की जर्मनी कविता ‘मैरी फरार की भ्रूण हत्या’ की आवृत्ति बंगाल के हरेक कॉलेज में होने की बात सुनी जाती है। कविता के अनुवाद का अर्थ क्या एक मुद्रित किताब से है जिसके पन्ने शायद ही कोई उलटकर देखता हो? कविता के अनुवाद का मतलब क्या बहुभाषी कवि सम्मेलन में हाजिरी बजाने का वीज़ा है? किसी तरह दस कविताओं का अनुवाद कर उसे कंधे के झोले में ठूस कर प्लेन में चढ़ जाने से ही नहीं होता। अनुवाद एक साधना है।

इस बड़ी साधना के कारण ही बुद्धदेव बसु ने अपनी आत्मा बॉडेलेयर को बेच दी थी। अपना अनंत रेनर मारिया रिल्के को बेच दिया था। अपनी मैत्री पास्तरनाक को बेच दी थी। अपनी निद्रा मेघदूत को बेच दी थी। वे जितने बड़े महान कवि थे, उससे और अधिक महत्तर कवि हो सकते थे। बॉडेलेयर, रिल्के, पास्तरनाक ने नहीं होने दिया। वे हमारे वही ‘फॉलेन एंजेल’ हैं जिन्होंने अपनी उच्चता को कुछ ह्रास कर हमारे हाथों में यूरोप थमा दिया है।

दो

बंगाली हाफ इन्स्युलर (संकीर्णमना) होता है। अपने घर के बारे में आग्रह नहीं है। दूसरे के घर को लेकर उसकी मनीषा कुलबुलाती है। मराठी, मलयालम, हिंदी, मणिपुरी को लेकर उसे कोई भी चिंता नहीं है, किंतु फ्रांसीसी, जर्मन, स्पेनिश के बारे में उसकी ज्ञानचर्चा गगन विहारिणी है। उसका उद्दीपन देखकर लगता है कि कालिदास नहीं होते तो भी चल जाता, लेकिन शेक्सपियर के न होने पर उसे मुट्ठी-मुट्ठी भर सॉरिडॉन खाना पड़ता। बंगाली पाठक, बंगाली सारस्वत समाज जितना भारतवर्ष में नहीं रहता, उससे कहीं अधिक पेरिस में रहता है, लंदन में रहता है, बर्लिन में रहता है। घर के पास ही बिहार है, हमने उन्हें मर्यादा नहीं दी। हमारी द्विचारिता प्रकट हो उठी, हम तुलसीदास को हृदय में नहीं बसा सके, लेकिन पाठक के रूप में हमने ढोंड़ाई चरितमानस को कामू, काफ्का के पास बैठा दिया, जिस ढोंड़ाई चरितमानस को सतीनाथ ने लिखा ही था तुलसीदास के रामचरितमानस को मॉडल बना कर। और यह बात भी छोड़ी नहीं जा सकती कि यदि रवीन्द्रनाथ कबीर का अनुवाद न करते तो क्या कबीर बंगाली समाज में पांक्तेय हो सकते थे? एवलिन अंडरवुड के साथ बैठकर उन्होंने जो अँग्रेजी अनुवाद तैयार किया था, उससे केवल बिहार, उत्तर प्रदेश नहीं, उपमहादेश के समग्र सूफी ऐतिह्य को सम्मान दिया था शांतिनिकेतन से, जो ऐतिह्य जलालुद्दीन रुमी की मार्फत भारतीय रक्त में प्रवाहित है।

शंख घोष ने शिमला की समर हिल में बैठकर जिस तरह इकबाल का अनुवाद किया था या चेरबाद राजु की कविता का अनुवाद किया था, क्या उस तरह बंगाली भारतीय कविता की तरफ बढ़ पाया? अपनी तरुणाई में जब हमने भारतीय कविता को लेकर भाषानगर पत्रिका निकालनी शुरू की, उस समय बड़े-बड़े कवियों ने टिप्पणी की थी, ये सब करके क्या होगा, केरल में सरीअलिजम इस समय किस रास्ते पर चल रहा है, यह जान कर क्या होगा, मणिपुर में फेमिनिज्म है, भाषानगर पढ़कर क्या इसे भी जानना होगा? मराठी दलित पैंथर के सबसे बड़े लिरिकल गैंगस्टर हैं नामदेव ढसाल, तीस वर्ष पहले भाषानगर में यदि उनकी कविता का अनुवाद नहीं निकला होता, तो हो सकता है कि यादवपुर विश्वविद्यालय के तुलनात्मक साहित्य में ढसाल की कविता आज भी नहीं पढ़ाई जाती। उसी प्रकार कवि अनुवादक अध्यापक मानवेन्द्र बंद्योपाध्याय के नेतृत्व में अय्यप्प पणिकर के साथ बारंबार मुलाकात न होने पर, भाषानगर में उनकी कविता नहीं आ पाती। क्या अन्य विश्वविद्यालय भी ऐसी भूमिका नहीं निभा सकते थे? नहीं निभाई। प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक ट्रांसलेशन सेंटर खोला जा सकता था, नहीं खोला गया। सारे भारत का एक ही हाल है। यू.आर. अनंतमूर्ति, अय्यप्प पणिकर, सुनील गंगोपाध्याय, नवकांत बरुवा यदि जीवित होते तो शायद खुलता।

हरदम प्रतिष्ठान के भरोसे रहने से नहीं होता। कब किसी विश्वविद्यालय का ग्रांट मिलेगा, कब राज्य सरकार अनुमोदन करेगी, कब केंद्रीय सरकार मैचिंग ग्रांट देगी, इस आशा में बैठे रहने पर नाव निकल जाएगी, ट्रेन निकल जाएगी, प्लेन टेकऑफ कर लेगा। कालीप्रसन्न सिंह को किसी मैचिंग ग्रांट के लिए प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी थी। महाभारत के युगांतकारी अनुवाद के लिए एक कालपुरुष की जरूरत थी। सोम और लास्य का अतिक्रमण कर वे अकेले ही सप्तर्षिमंडल हो गए थे। अलेक्जेंडर पोप ने जब अँग्रेजी में इलियड और ओडिसी का पहला अनुवाद किया, उस समय क्या उन्हें फोर्ड फाउंडेशन से धन मिला था? कालीप्रसन्न की तरह वे भी जानते थे कि काम को अकेले ही करना पड़ेगा। कभी-कभी एक अकेला व्यक्ति विश्वविद्यालय से भी बड़ा हो जाता है, पोप और कालीप्रसन्न इसके दो उदाहरण हैं।

अनंतमूर्ति ने एक बार साहित्य अकादेमी के कॉरिडोर में खड़ा होकर कहा था, ‘तुमलोग बहुत इन्स्युलर हो।’ बंगाली होने के नाते मैंने तर्क किया था, ‘कौन कहता है कि हम भारतीय साहित्य का सम्मान नहीं करते? रवीन्द्रनाथ सभी को एक छोटे ग्राम में ले आते थे, मैनचेस्टर से मणिपुर, जिसे जहाँ पाते, पकड़ लाते। जापान से जावा तक के सभी को लेकर एक आँगन में बैठते। ऐसा कोई उदाहरण कर्नाटक में है?’

अनंतमूर्ति ने कहा, ‘उसके बाद? अब क्या हाल है? कितनी मराठी पुस्तकों का बंगला में अनुवाद किया जाता है? क्या तुमलोग कुमारन आसन की कविता पढ़ते हो? हमलोग लेकिन जीवनानंद दास को पढ़ते हैं। क्या तुमलोग बेंद्रे की कविता पढ़ते हो, हम विष्णु दे को पढ़ते हैं। तुम्हारे ताराशंकर केरल के स्कूलों में मलयाली लेखक के रूप में जाने जाते हैं। तुमलोग को यह सम्मान भारतीयों ने दिया है। तुमलोग ने भारतीयों को नहीं दिया है। तुमलोग कहते हो, अरे, भला बिहारी भी लिख सकते हैं, ओड़िया लोग भला कब से कवि हो गए, हम दक्षिण भारत में रहनेवाले सभी लोग तुम्हारी नजरों में मद्रासी हैं, हम भले ही आईटी सेक्टर में अच्छा कर लें, तुम्हारी निगाहों में उन्नत कवि लेखक नहीं हैं।’

उस दिन मुझे बहुत बुरा लगा था। कहा था, ‘आपके ‘ संस्कार’ का किंतु बंगला में बार-बार अनुवाद किया गया है। उस पर लिखा गया है। चर्चा हुई है। उसका पाठ हुआ है। हमलोग लेकिन उतने इन्स्युलर नहीं हैं, जितना लोग समझते हैं।’ उस दिन घर लौटकर कागज-कलम लेकर बैठा। यूरोप को लेकर हमने क्या किया है। और भारतवर्ष को लेकर क्या किया है। हमने देश को कहाँ हटा रखा है और यूरोप को खींच लिया है।

तीन

पिछले पचास वर्षों में तीन बाह्य लहरें बंगला से टकराई थीं। बंगला कविता इन तीन लहरों को लेकर बैठी नहीं रही। बंगला कविता में तहलका मचा है। लोट लगाई है बंगला कविता ने। मोती चुनकर उन्हें अपने मुकुट पर लगाया है।

फ्रांसीसी-जर्मन : बुद्धदेव बसु के बॉडेलेयर : उनकी कविता वह अनुवाद है जिसने उस दिन बंगला कविता को तुलसी के चौरे की गंध से ज्यामुक्त कर उसे नागरिक बना दिया था। बंगला कविता की देह पर जो शैवाल लगे थे, बॉडलेयर ने आकर उन्हें अपने क्लेदज कुसुम से पोंछ दिया। पचास के दशक की बंगला कविता में जो स्वीकारोक्तिमूलक उद्भासन लक्ष्य किया जाता है, खुद के भीतर के कुत्ते को देखने के लिए जो यंत्रणा ज्योत्स्ना की सहोदरा हो उठी थी, उसे द फ्लावर ऑफ इविल ने आकर त्वरान्वित किया।

यहाँ एक बात कह रखूँ, बुद्धदेव के अनुवाद की मूल के साथ कितनी संगति है, यह कितना विश्वसनीय है, कितना भ्रामक है, मैं नहीं बता सकता। जो लोग इंटरटेक्स्ट्यूअलिटी का अति सूक्ष्मता से विश्लेषण करते हैं वे बता पाएँगे। हम ठहरे कविता के व्यापारी, फ्रांसीसी न जानने पर भी फ्रांसीसी कविता के लिए उत्सुक हो उठते हैं। बुद्धदेव बसु वैसे अनुवादक हैं जिनकी भूलें (कुछ-कुछ लोग भूल कहते हैं) बहुत सुंदर हैं, मॉन्यूमेंट के ऊपर उतर आए नक्षत्रों की तरह सुंदर। कविता में मूल जैसा कुछ नहीं होता। टेक्निकली छंद में भूल हो सकती है, लेकिन उस मूल छंद को हम तब भूल जाते हैं जब हम सारे बाउल गान सुनते हैं। बुद्धदेव यदि बॉडेलेयर का अनुवाद नहीं करते तो पचास के दशक में बंगला कविता में रेनेसां की जो आँधी आई थी, वह शाम की कालवैशाखी होकर साँझ के सात बजे के पहले ही अपनी शक्ति खोकर चट्टग्राम में घुसकर विलीन हो जाती। लगातार रातों में जागकर आत्मक्षयी अनुवाद कर बुद्धदेव को अपने लिए क्या मिला, नहीं जानता। कोई फ्रांसीसी सम्मान उन्हें नहीं मिला, उन्हें कोई अनुवाद पुरस्कार नहीं मिला। कोई अनुवाद जब मील का पत्थर बन जाता है तब यह समझना होगा कि मील और पत्थर, दोनों ही इतिहास बन गए हैं। असल में कवि और अनुवादक दोनों ही ईश्वर के शरणार्थी होते हैं। कोई महान कवि जैसे यह नहीं समझ पाते कि उनकी कविता वस्तुत: कविता है भी या नहीं, उसी तरह एक अनुवादक भी यह नहीं जान पाते कि वे क्या रख गए। दोनों ही नतमस्तक होकर एक ‘डिवाइन स्पार्क’ दिखाई देने की प्रतीक्षा करते हैं।

फ्रांसीसी वेव के तुरंत बाद ही जर्मन वेव आ टकराई। बंगाली पाठकों के अलौकिक आँगन में रेनर मारिया रिल्के आ खड़े हुए। जब कॉलेज स्ट्रीट में नए कवि घुसते हैं उस समय गोधूलि बेला में कॉलेज स्ट्रीट आफ्रोदिते की तरह सुंदर दिख पड़ता है। रिल्के की लोकप्रियता ने जब शिखर का स्पर्श किया, उस समय मन में यह प्रश्न उठा कि बुद्धदेव ने हमें किस कवि के सामने लाकर खड़ा कर दिया। यह कवि इतने दिन कहाँ थे? नाम कुछ अलग तरह का तो है लेकिन वे भी तो एक बंगाली कवि हैं। रिल्के जब गौतम बुद्ध को लेकर सॉनेट रचते हैं, वीनस को लेकर जब नैरेटिव लिखते हैं, आबिशाग को लेकर मिथ तोड़ देते हैं, तब ये नाम हट जाते हैं, यूरोप विलीन हो जाता है, गिरजाघरों के शिखर भूमध्यसागर के जल में डूब जाते हैं, बस जगी रहती है कविता, और कविता और कविता। रिल्के का अनुवाद वह कविता लेकर आया जो जर्मन होकर भी बंगला की कविता है–

‘पत्ते झड़ते हैं, पत्ते झड़ते हैं, शून्य से झड़कर गिर जाते हैं
उस अदा से झड़ते हैं जैसे प्रत्याखान के लिए हों प्रतिश्रुत।
हम भी झड़ जाते हैं, यह हाथ भी तो झड़ जाता है
देखो अन्य सभी को, सभी हैं इसके अंशीदार
फिर भी है एक जन जिसका हाथ है कोमल निर्भार
इन सब पतनों को अंतहीन रूप से पकड़े रहता है।’

विषय भारतीय दर्शन : शून्यता का उद्यापन, बिइंग इज़ नथिंग–इस असामान्य बोध को बेला-अबेला कालबेला के साथ मिला पाए हैं रेनर मारिया रिल्के। जब वे लिटिल मैगजीन के पन्नों पर छा गए, तब पेड़ों के नीचे के कॉलेज, विश्वविद्यालय के कैंटिनों (अब वे दिन नहीं रहे) में प्रश्न उठा–कौन हैं ये रेनर मारिया रिल्के? उस समय संदीपन चट्टोपाध्याय ने लिटिल मैगजीनों के पृष्ठों पर ही यह व्यंग्योक्ति चस्पां की : रेनर नामक एक कवि की कविता को मारिया यानी मार कर रिल्के नाम के एक कवि ने इस समय कलकत्ता में घाटी बनाई है। बहुत कुछ जॉबचार्नक की तरह। तो क्या बंगला कविता में जर्मन कॉलिनिअलिज़म शुरू हो गया? यदि होता तो अच्छा ही होता। वर्ड्सवर्थ, शेली, बायरन, कोट्स से भरे हुए बंगला भाषा के निबंध कक्षा आठ की उत्तर पुस्तिका की तरह लगते थे। जर्मन-प्रांसीसी के सामूहिक अभिसार से यदि बंगला कविता यमुना का पुलिन बन जाती, तो क्या बुरा होता?

उसी यमुना से जल भरने आए आलोकरंजन दासगुप्त। वे यमुना का जल लेकर हाइडेलबर्ग गए, वहाँ रहे, घर बनाया, पढ़ाया। हिशबर्ग में बैठकर गेटे, शिल्लर की चर्चा की, लेकिन पोस्टकार्ड से, ई-मेल से पुरुलिया की खबर लेते रहे। रिखिया के आलोकरंजन मल्टीकल्चरल आलोकरंजन बन गए। उन्होंने यादवपुर के मास्टरमोशाय के पाँव छूकर हाथ पकड़ा जिनका संक्षिप्त नाम है बु.ब.। आलोकरंजन ने बंगला कविता के घर में एक जर्मन रिट्रिवर छोड़ना और जर्मन कविता के घर में एक रॉयल बंगाल टाइगर बाँध रखना चाहा था।

सोवियत-रूसी : भारतीय लेखकों के एक डेलिगेशन के साथ मैं वर्ष 2010 में रूस गया था। इस तरह के डेलिगेशन में कुछ प्रतिबंध होता है। सभी जगह नहीं जाया जा सकता, सभी बातें नहीं बोली जा सकतीं, सभी बातें सुनी भी नहीं जा सकतीं। हम कई लोग थे। अशोक वाजपेयी थे, गुलज़ार थे, वामा थीं, नवनीता देव सेन थीं। हमें राइटर्स यूनियन में ले जाया गया, जो एक विशाल सुंदर भवन था। वहाँ हमने खूबसूरत प्यालियों में चाय पी। गोल टेबुल पर गोल होकर बैठे भारतीय लेखक और रूसी लेखक शांत होकर एक-दूसरे का मुँह देखते रहे। मेरे पास एक तरुण लेखक बैठे थे, मुस्कुराते हुए फुसफुसाकर उनसे जिज्ञासा की, ‘क्या तुमलोग किसी लेखक को अभी भी साइबेरिया भेजते हो?’ इस अंदाज से पूछा मानो विशेष फेलोशिप मिलने पर ही किसी लेखक को साइबेरिया भेजा जाता है। तरुण लेखक अँग्रेजी जानते थे। उन्होंने भयभीत निगाहों से मेरे चेहरे की ओर देखा। मैं समझ नहीं पाया कि उसे डर किस बात का था? अब तो स्टालिन नहीं हैं। उत्तर न पाकर भी मैंने दूसरा प्रश्न किया–‘क्या तुम सोल्झेनित्सिन का लिखा पढ़ते हो?’ वह बोला–‘एक्सक्यूज मी, थोड़ा वाशरूम से आ रहा हूँ।’ मैं बोला, ‘मैं भी जाऊँगा।’ वाशरूम में घुसकर मैंने कहा–‘मैं तो तुम्हारा मित्र हूँ, मुझसे कन्नी क्यों काट रहे हो? बोरिस पास्तरनाक को पढ़ते हो? मैं पढ़ता हूँ। मायकोवस्की पढ़ते हो? मैं पढ़ता हूँ।’ तरुण लेखक ने कहा, ‘दे आर ऑल स्टिगमैटाइज्ड, मुझसे उनकी बात न कहो।’ मैंने कहा, ‘सुनो भाई, पृथ्वी पर सभी लेखक किसी न किसी राष्ट्र में चिह्नित हैं। जो आज आदृत है, कल वह आदृत नहीं भी रह सकता है।’ मैंने कहा, ‘जो ओरहान पामुक यूरोप में नायक हैं, वे अपने देश तुर्की में खलनायक हैं। उनके कारण तुर्किस्तान यूरोपियन यूनियन में घुस नहीं पाया है।’ तरुण रूसी कवि को साहस दिलाते हुए मैंने कहा, ‘मैं किसी को कुछ नहीं बताऊँगा, सोवियत के पतन से क्या रूसी कविता का भला हुआ है?’ उसने कोई उत्तर नहीं दिया। वॉशरूम में आकर मेरा कोई भी काम नहीं हुआ। लेकिन जिस सोवियत ने एक दिन बंगाली के द्वार-द्वार आकर जिस तरह सिटकिनी खटखटाई थी, वह कल्पनातीत है। साइकिल कैरियर पर सवार होकर सोवियत लहर हमारे गाँव-गाँव में पहुँच गई थी। हमारे मुहल्ले के अधिकांश परिवारों में पुश्किन, मायकोवस्की पहुँच गए थे। कीमती आर्ट पेपर पर मुद्रित सोवियत लिटरेचर मुफ्त में मिलता था। ऐसी कीमती पत्रिका फ्री में मिलती है, उस समय भी नहीं सोच पाया था, आज भी नहीं सोच पाता हूँ। यही था प्रथम ‘दुआर प्रोजेक्ट’। कहा जा सकता है ‘द्वार पर सोवियत’। कोई भी सरकार अपने साहित्य के प्रचार के लिए इतने रुपये खर्च कर सकती है, ऐसा न पहले हुआ था, न बाद में होगा। लेकिन वहाँ कभी भी अन्ना अख्मातोवा या ब्रॉड्स्की की कविता नहीं देखी। ब्रॉड्स्की ने मजबूरन देश छोड़ा और अमेरिका में बस गए और उन्हें नोबेल मिला था। हमारे बचपन में यह सोवियत लहर न होकर सोवियत सुनामी थी। हमारे गाँव में सोवियत ब्लॉक बनाया गया था, वहाँ से कह दिया जाता कि किसका लिखा पढ़ना है, किसका लिखा नहीं पढ़ना है। उस समय किसी भी कविता, किसी भी नाटक, किसी भी कहानी की समाप्ति लाल सूर्य से होती। हरदम कान के पास ‘सामाजिक यथार्थवाद’ अथवा कवि का ‘दायित्व’ सुनता रहता। इससे खीझ कर पिकासो तक बोल उठे थे, ‘यह सब छोड़िए तो, कला को कला रहने दीजिए, इसकी हत्या मत कीजिए।’ सोवियत अनुशासन बहुत दिनों तक रहा। 34 वर्ष पहले एक और 34 वर्ष चला था मनन और जोराजोरी से।

स्पेनिश-लैटिन अमेरिकी लहर : जोराजोरी गई तो लैटिन अमेरिका घुसा। मार्केज एकमात्र लेखक हैं जिन्हें बंगाली ने अपना बना लिया। उनके पहले स्पेनिश भाषा के किसी भी लेखक ने इतनी लोकप्रियता नहीं पाई थी। नोबेल मिल जाने से ही नहीं होता, बहुतों को नोबेल मिलता है, लेकिन उनमें से कितने लोग मार्केज की तरह स्नायु-समूह को ग्रास कर पाते हैं?

और कर पाए थे पाब्लो नेरूदा, सुभाष मुखोपाध्याय का हाथ थामे बंगला कविता के अंदरमहल में प्रवेश किया था। पाब्लो नेरूदा स्वयं ही बंगला कविता का एक युग, एक कोश बन गए थे। लैटिन अमेरिका के कम्युनिज्म को उतना महत्त्व नहीं मिला, जितना महत्त्व पाब्लो नेरूदा की कविता ने पाया है। बचपन में मेरे एक नक्सल दादा ने अपने झोले से निकालकर मुझे दो कवियों की कविताएँ पढ़वाई थीं, उनमें से एक मायकोवस्की थे और दूसरे पाब्लो नेरूदा। उनके झोले के भीतर एक तीसरी वस्तु भी थी–एक हैंड ग्रेनेड जिसने फटकर मेरे दादा की देह के टुकड़े-टुकड़े कर दिए थे। लेकिन उनके दो प्रिय कवि मेरे पास रह गए हैं। उनकी कविता के बिना मैं एक भी दिन जिंदा नहीं रहा हूँ।

नेरूदा की कविता गेटवे टू लैटिन अमेरिका थी। उनकी प्रतिवादी कविताओं ने जिस तरह हमें साहस दिया है, उसी तरह उनकी प्रेम कविताओं के भीतर विद्यमान पैशन ने बंगाली पाठकों को उद्भासित किया है। अनुवादक मानवेंद्र मुखोपाध्याय का हाथ थामकर प्राय: पूरा का पूरा लैटिन अमेरिका कॉलेज स्ट्रीट में आ पहुँचा। निकालोस गियेन से शुरू कर निकानोर पार्रा से होते हुए आक्तोवियो पाज से रॉबर्तो बोलान्यो तक जो ऐतिह्य बना, उसने बंगला कविता को भूमिच्युत न कर उसकी जड़ों पर और भी मिट्टी डाल दी। इन सबको अब और खोजकर क्या होगा। स्पेनिश कविता ने बंगला कविता में आलोक की तरह प्रवेश किया है और बंगला कविता में आलोक की तरह विद्यमान रह गई है। बंगला कविता का आलोक कहाँ है, लैटिन अमेरिका का आलोक कहाँ है, अब उन्हें अलग कर पाना संभव नहीं है। क्या आलोक से आलोक को अलग किया जा सकता है। एक कवि के भीतर किस तरह दूसरा कवि टपकते-टपकते उतर जाता है, एक का बिंदु किस तरह दूसरे के बिंदु में मिल जाता है, एक की ज्योत्स्ना किस तरह दूसरे की चंद्र किरणों में प्रवेश कर जाती है, यह विस्मय की बात है।

चार

बात को दुबारा कहूँ। पचास के दशक में बंगला कविता में जिस तरह रेनेसां आया था। कविता कितनी तरह से लिखी जा सकती है, उसका एक क्लाइडोस्कोप है पचास का दशक। सुनील का तहस-नहस, शक्ति का उद्भासन, शंख का निर्माण, आलोकरंजन का विश्वनागरिकता, विनय का दिव्य उन्माद। उनकी कविता ने उन दिनों बंगला कविता का णत्वषत्व बदल कर रख दिया था। लेकिन उनके अलावा भी तो रुतबे वाले लोग थे। आलोक सरकार थे और थी उनके नि:स्वत्व की धूप, तारापद राय और उनका विद्युतर कौतुक था, शरत कुमार और उनकी निरंजन उष्मा थी और वह लड़की कविता सिंह जिनका हाहाकार और सुवर्ण तरंग बंगला कविता को उठाकर सिल्विया प्लाथ के पास ले गई है। उनका क्या दोष था कि हम उन्हें अब तक सम्मान नहीं दे पाए? पचास के दशक की कविता इतनी भुवनपथगामी थी कि उनका प्रयाण अब उँगली दिखाकर कह रहा है कि वे कवि कहाँ गए? उँगलियों पर गिनकर बस चार-पाँच कवि बचे हैं, वे भी वरिष्ठ हो गए हैं फिर भी उनके महत्व की बात कभी दूसरे मौके पर लिखूँगा। इस निबंध में जीवित कवियों की बात नहीं ही लिखी।

पाँच

हमने जिस चीज की परवाह नहीं की है उसका नाम भारतवर्ष है। हमने बंगला कविता में जिसकी अवहेलना की है उसका नाम भारतवर्ष है। हमने जिसका मज़ाक उड़ाया है उसका नाम भारतवर्ष है। नवकांत बरुवा, नीलमणि फुकन–बगल वाले घर के कवि हैं, असम के कवि हैं। बंगाली पाठक ने कभी भी उनकी कविता नहीं पढ़ी। पास का एक और घर है, ओडिशा। रमाकांत रथ एक असाधारण कवि हैं। वे भारतीय कविता के शीर्ष पर हैं किंतु बंगाली पाठक ने श्रीराधा जैसा उनका मार्मिक काव्य भी पढ़कर नहीं देखा। गुजराती कवि सीतांशु यशश्चंद्र ने पिछले पचास वर्षों से भारतीय कविता को समृद्ध किया है, लेकिन उन्हें बंगला कविता में घुसने का गेटपास नहीं मिला। केदारनाथ सिंह, जिन्होंने हिंदी कविता को आधुनिक बनाया, हिंदी कविता को गीत से दूर हटाया, ज्ञानपीठ पाया, बंगला भाषा में उन्हें भी जगह नहीं मिली।

मलयालम कविता के नायक और उसके साथ ही अडूर गोपालकृष्णन के भी नायक बालाचंद्रन चुल्लिक्कड भी केरल में ही रह गए, कॉलेज स्ट्रीट में नहीं घुस पाए। क्या इसी कारण बंगाली इन्स्युलर हैं? पूरे नहीं हाफ इन्स्युलर। हम यूरोप लेंगे। दिखाएँगे। यूरोप दिखाना हमें प्रिय है। अपना देश दिखाने में हमें लज्जा आती है। इस माइंडसेट से निकल न पाने से बंगला कविता जहाँ आज आ खड़ी है, वहाँ से कोई उद्भासन संभव नहीं है।

छह

पिछले पच्चीस वर्षों से नए-नए दिगंत चंचल हो उठे हैं। दलित कविता। यह कहना काफी है कि बंगला कविता में दलित कविता है ही नहीं। उसका एक प्रधान कारण यह है कि बंगला की दलित कविताएँ गैर-दलित कवि लिख रहे हैं। किंतु दलित मानस के बिना दलित कविता नहीं होती। मराठी में जिस तरह दलित कविताएँ लिखी गई हैं, कन्नड़ में जिस तरह दलित कविताएँ लिखी गई हैं, मलयालम में जिस तरह दलित कविताएँ लिखी गई हैं, वे विस्मयकारी हैं। नामदेव ढसाल की कविता पढ़ते हुए अभी भी मेरे हाथ-पाँव काँपते हैं। इतना जोर, इतना पराक्रम, इतना आस्फालन, इतनी गर्जना, इतना पवित्र क्रोध–सब मिलाकर ऐसा लगता है जैसे एक स्टेनगन के सामने खड़ा हूँ। अमेरी बराका की कविता पढ़ने पर भी ठीक वैसा ही लगता है। एक तरफ राष्ट्र और दूसरी तरफ अकेले खड़े हैं कवि। दलित आबादी के ऊपर जो-जो अन्याय किए गए हैं, नामदेव ढसाल उसका प्रतिकार चाहते हैं। अमेरिका ने काले अफ्रीका के साथ जो अन्याय किया है, बराका वो सब भूले नहीं हैं। यहाँ तक कि कविता लिखने का जो ऐतिह्य है, वह उनके लिए सफेद ऐतिह्य है, इसलिए उन्होंने ‘ब्लैक पोयेटिक्स’ बना ली। साहित्य जगत में जो ‘व्हाइट पॉलिटिक्स’ विराजमान है, उन्होंने उसे उखाड़ फेंक ‘ब्लैक एथेना’ की प्रतिष्ठा की। नामदेव ढसाल, जो आत्मरक्षार्थ अपनी जेब में रिवाल्वर लेकर घूमते थे, ने उच्च वर्ण द्वारा संचालित साहित्य के ‘कानन’ को स्वीकार करना नहीं चाहा। तुकाराम को मराठी ब्राह्मणों ने मार डाला था, नामदेव ढसाल को नहीं मार पाए।

सात

जिस अँग्रेजी कविता के बारे में यह सोचा गया था कि उसका भविष्य नहीं है, वही अँग्रेजी कविता आज भारतीय कविता की फ्रंटलाइन पर खड़ी है। जयंत महापात्र ने कटक में रहकर भी भारतीय उपमहादेश की अँग्रेजी कविता का नेतृत्व किया एवं बंगला कविता के सामने एक चैलेंज रख दिया। जिस मधुसूदन को धमकाकर हमने उनसे अँग्रेजी कविता छुड़वाई थी, जो शायद शराब छुड़ाने से भी कठिन था, आज दो सौ वर्षों के बाद वही माइकेल देख पा रहे हैं कि भारत की गली-गली में प्रचुर संख्या में अँग्रेजी कविता लिखी जा रही है। इस समय अँग्रेजी में लिखी जाने के बाद भी उस कविता की आत्मा कभी बंगाली, कभी मराठी, कभी कोंकणी और यहाँ तक कि कभी संताली है। इस समय दलित भी अँग्रेजी में लिखकर हैरत में डाल रहे हैं। इस सर्वभारतीय रिग्मरोल के सामने पड़कर क्या बंगला कविता को अभिमान नहीं होगा?

आठ

भारत किस तरह बंगला कविता का देश हो सकता है? हमारा देश नहीं है। भारतवर्ष है। हम जहाँ रहते हैं, चमकीतला हो या चंडीगढ़, वही हमारा देश है। कोचबिहार हो या कोचिन, उतना ही हमारा देश है। कोचबिहार या कोचिन की मिट्टी से ही मुझे मिट्टी लेनी होगी।

इस समय बंगला कविता में कोई आंदोलन नहीं है, कोई बड़ा एक्स्पेरिमेंट नहीं है, इस पार-उस पार नहीं है, दल-बदल नहीं है। यही वह समय है जब बंगला कविता प्रकृत भारतीय कविता हो सकती है। बंगला कविता जहाँ खड़ी है, वह एक हॉल्ट स्टेशन है। उस स्टेशन का नाम धनबाद है। उसके बाद जो ट्रेन दौड़ेगी, उसका ईंधन कहाँ है? उस ईंधन का नाम है अनुवाद। विपुल परिमाण में बंगला कविता के अनुवाद की जरूरत है। बंगला कविता का चौबीस भाषाओं में अनुवाद किए जाने की आवश्यकता है। फिर चौबीस भाषाओं की कविताओं का बंगला में अनुवाद करने की जरूरत है। नवजागरण तभी होगा। बंगला-कन्नड़, बंगला-मराठी, बंगला-मलयालम, बंगला-उर्दू, बंगला-डोगरी, बंगला-मणिपुरी, बंगला-गुजराती–यदि बंगला कविता इस तरह फैल सके, तभी इसके गात्र से हम वह बदनामी मिटा सकेंगे और कह सकेंगे कि बंगला कविता इन्स्युलर नहीं है। बहुत हुआ यूरोप, बहुत लैटिन अमेरिका दिखाया है, इस बार भारतवर्ष को दिखाइए। बंगला अपना स्वयं का देश देखना चाहती है, जो पहले नहीं देखा गया था।


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