महीप सिंह का संपादनकर्म

महीप सिंह का संपादनकर्म

किसी भी साहित्यकार का अनायास चले जाना उनकी रचना प्रक्रिया को जहाँ रोकता है वहीं उनके पाठकों/प्रशंसकों तथा परिवारजनों पर निश्चित ही आघात भी लगता है। और वे उस आघात को बरसों तक नहीं भुला पाते हैं। उसका सबसे बड़ा कारण होता है कि लेखक मात्र व्यक्तिगत जीवन नहीं जीता उसके सामाजिक सरोकार भी होते हैं। देश ही नहीं विदेश में भी उसके संपर्क सूत्र होते हैं। वे संपर्क सूत्र रिश्तों की वजह से नहीं होते बल्कि उसकी अपनी रचनाधर्मिता की गर्माहट के कारण होते हैं। जिन पाठकों ने साहित्य के माध्यम से उस विशेष व्यक्तित्व से अपने रिश्ते बनाए, वे हमेशा-हमेशा उसे पढ़ते हुए याद करते रहेंगे। साहित्यिक सम्मेलनों में उनकी रचनाओं पर विमर्श होता रहेगा। उनके प्रखर व्यक्तित्व और कृतित्व पर विमर्श होता रहेगा। डॉ. महीप सिंह भी उन्हीं साहित्यिक शख्सियतों में से एक थे, जिन्हें हम याद कर रहे हैं।

महीप सिंह से मेरा परिचय 80 के दशक में हुआ और ‘संचेतना’ के लिए कुछ ज्वलंत सवालों पर लिखने की प्रक्रिया आरंभ हुई। हालाँकि तब तक ‘संचेतना’ को शुरू हुए पंद्रह-सोलह बरस हो गए थे। कुछ समय पहले तक मैं पहाड़गंज रहता था। संभवतः 80 के दशक के मध्य में पहाड़गंज से पश्चिम विहार शिफ्ट हुआ। 1984 के दंगे की विभीषिका का मैं चश्मदीद गवाह रहा हूँ। इसलिए भी कि दंगे वाले दिन और रात के अगले दिन पहाड़गंज से पश्चिम विहार तक झुलसती बस्तियों, जले हुए मकानों तथा क्षतिग्रस्त वाहनों के आसपास से होकर मुझे पैदल ही आना पड़ा था। उसके बाद ही मैंने अखबारों में महीप सिंह जी का बयान पढ़ा था। ‘संचेतना’ पत्रिका भी अवश्य ही पढ़ी होगी, लेकिन नियमित नहीं। वैसे नियमित जिन पत्रिकाओं को पढ़ना होता था, उनमें रविवार, दिनमान, हंस, सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, माया, ऑब्जर्वर, निर्णायक भीम आदि विशेष थीं। वैसे महीप सिंह जी के नाम से मैं भलीभाँति वाकिफ था। उनकी एक-दो कहानियाँ तथा आलेख भी पढ़े थे। कहना न होगा कि साहित्य की दुनिया में उनका नाम था।

बाद के दौर में जब ‘संचेतना’ पढ़ना और उसके लिए लिखना शुरू हुआ तो महीप सिंह जी के करीब होने का अहसास हुआ। वैसे उस समय तक कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मस्तराम कपूर, विष्णु प्रभाकर, मणिका मधुकर, रमणिका गुप्ता, स्वामी अग्निवेश, सुरेन्द्र मोहन आदि से परिचय हो चुका था। 80 के दशक में लगभग आठ बरस मैं दृश्य एवं श्रव्य निदेशालय में ‘डैमोस्ट्रेटर’ के पद पर भी रहा। संसद मार्ग स्थित पी.टी.आई. बिल्डिंग की तीसरी मंजिल पर मैं बैठता था और एक रेडियो कार्यक्रम ‘नया सवेरा’ देखता था। इस मामले में 80 का दशक मेरे लिए ऊर्जावान भी रहा। वरिष्ठ नाट्यकार लक्ष्मीनारायण लाल से भी मुलाकात हुई। मेरे लेखन में इजाफा भी हुआ। और जब मैं ‘संचेतना’ से उपसंपादक के रूप में जुड़ा तो गंभीर रूप से पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया बढ़ी। दलित सवालों और समस्याओं से इतर अन्य सवालों से भी रू-ब-रू हुआ। साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में मेरे भीतर विस्तार हुआ।

महीप सिंह जितना दमदार संपादकीय लिखते थे उतने ही बेबाक पत्र भी ‘संचेतना’ में छापने की वे हिम्मत रखते थे। अक्तूबर 1987 के अंक में उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद (जिला बलिया) उ.प्र. का पत्र छापा। केंद्रीय मंत्री की औकात दो टके की। जी हाँ पत्र का टाइटल यही थी। जिसकी बानगी देखें–‘संचेतना’ का सितंबर अंक देखा। इन्द्रकुमार गुजराल का लेख ‘प्रधानमंत्री का कार्यालय’ बेहद अच्छा लगा। हमें पहली बार पता चला कि सारे केंद्रीय मंत्री और उनके मंत्रालय प्रधानमंत्री के गुलाम हैं और किसी भी मंत्री की औकात प्रधानमंत्री के कार्यालय के सामने दो टके की है।

अक्तूबर, 1987 के अंक में ही उनका संपादकीय देखें–सती-प्रथा एक और ‘जागरण?’ राजस्थान की 18 वर्षीय रूपकुँवर और उसे जिंदा जलते हुए देखने के लिए ‘चुंदड़ी महोत्सव’ में पहुँची लाखों की गिनती में भीड़। सती-स्थल, पूजा-स्थल में बदलने लगा था। सती माता का मंदिर बनाने के लिए 40 लाख रुपये जमा हो गए थे।

बाल विवाह के विरुद्ध शारदा कानून बना परंतु बाल विवाह आज भी होते हैं। छुआछूत कानूनन अपराध है परंतु आज भी छुआछूत बरतने वालों की कमी नहीं…। नए तरह का जागरण, जो लोगों में सोये धार्मिक उन्माद को जगाकर उन्हें रूढ़ियों, अंधविश्वासों और सांप्रदायिक कट्टरताओं की अँधेरी गलियों में धकेलता है…। हिंदू धर्म की रूढ़ियों पर वार करने वाला इससे सशक्त और क्या संपादकीय हो सकता है। उसी अंक के पृष्ठ 12 पर फाँसी पर लटक कर भी सती के पक्ष में, पुरी के शंकराचार्य स्वामी निरंजन देव तीर्थ का बयान छपा। जो ऐसी अमानवीय परंपराओं को जन्म से ही ढोते रहे। साथ ही दलितों के मंदिर प्रवेश का विरोध भी करते रहे। देश की कोई भी अदालत उस शंकराचार्य को सजा नहीं दे सकी। महीप सिंह के द्वारा इसे छापने का उद्देश्य यही था। वे बहुत कुछ लिखना और कहना चाहते थे। उनके भीतर चुभन थी। दलितों पर हो रहे उत्पीड़न का उन्हें गहरे तक अहसास था। बीच-बीच में वे मुझसे भी चर्चा करते।

नवंबर, 1987 के ‘संचेतना’ अंक का मुख्य पृष्ठ चित्रों के साथ इस बानगी के साथ छापा गया–पिता ही हत्या, माँ जेल में क्या कसूर है इन लड़कियों का? भीतर इस पर आवरण कथा छपी जिसे कमलेश सचदेव तथा विनय बिहारी सिंह ने तैयार किया था। नवंबर, 1984 के कत्लेआम ने जिन्हें विधवा बना दिया, ऐसी 1200 से अधिक विधवाओं की कॉलोनी तिलक विहार के हर घर की दीवार अपनी करुण कहानी कहने को अकुलाती है…। दिसंबर, 1987 के ‘संचेतना’ का मुख्य पृष्ठ था–सज्जन कुमार को कौन करेगा गिरफ्तार? दिसंबर 1987 के ‘संचेतना’ में मुकुल के द्वारा तैयार किया गया पहाड़िया जाति का एक सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण प्रकाशित किया गया। दिसंबर 1987 के ही अंक में मेरे द्वारा तैयार किया गया आलेख ‘नेपाल के हिंदू राज्य में दलित अमानवीय जीवन जी रहे हैं तथा नेपाल के भूतपूर्व सांसद और दलित नेता टी.आर. विश्वकर्मा से मेरे द्वारा लिया गया साक्षात्कार प्रकाशित हुआ। इसी अंक में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखित ‘रिडल्स इन हिंदुइज्म’ के बारे में भी छापा गया।

फरवरी, 1988 के अंक में महीप सिंह जी ने पाकिस्तान यात्रा पर लिखा और इसी अंक में उन्होंने ‘तमसः इतिहास से डरे हुए लोगों की हाय तौबा’ नाम से लेख भी लिखा। अप्रैल, 1988 के अंक में बाल ठाकरे का खनक और ठनक से भरा बयान छापा–हिटलर मेरा आदर्श है। निश्चित ही यह बयान हिंदू राष्ट्र प्रेमियों की आँखें खोलने वाला था। इसी अंक में मेरे द्वारा लिखित लेख ‘दलित अपनी शक्ति को पहचान रहे हैं’ भी छापा।

जून, 1988 के अंक में ‘शब्द नहीं शब्दकार दोगले होते हैं!’ हैदराबाद से योगेन्द्र कुमार ने अपने इस बेबाकी से भरे पत्र में लिखा–‘संचेतना’ का अप्रैल 88 का अंक पढ़ा। खबर-दर-खबर में अमृता प्रीतम के प्रसंग ने मेरे जहन को दर बदर कर दिया। हुसैन-विख्यात पेंटर तो इंदिरा के जमाने से दरबारी घोड़ों के साथ हिनहिनाए जा रहे थे, क्योंकि घोड़ा उनकी कलाकृतियों की अपनी एक पहचान है, पर अमृता प्रीतम का 59वें संविधान संशोधन पर चुप्पी साध लेना और उसे अपनी मौन स्वीकृति-सहमति देना सचमुच हमारे देश में लोकतंत्र की रीढ़ पर उसकी दुहाई देने वालों की चोट है। इसके बाद इसी अंक में चौका देने वाला दूसरा पत्र भी छपा–59वाँ संशोधन, जनता पर एक बुलडोजर। यह पत्र अहमदाबाद से विष्णु पंडया का था। वे लिखते हैं, अनायास ही ‘संचेतना’ (अप्रैल, 1988) की एक प्रति मिल गई। 59वाँ संविधान संशोधन पारित हो गया और राज्यसभा की मनोनीत सदस्या अमृता प्रीतम कुछ नहीं बोली। महीप सिंह जी, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि पिछली इमरजेंसी 1975-76 में जब मूक जनता अपने बुद्धिजीवियों से आस लगाए बैठी थी। अमृता जी ने यही किया था यानी इमरजेंसी का समर्थन। उनके साथ मृणाल सेन, कमलेश्वर थे, मकबूल फिदा हुसैन थे…और न जाने कितने थे। अप्रैल, 1988 के ‘संचेतना’ के संपादकीय में स्वयं महीप सिंह ने लिखा–इमरजेंसी : फिर वही खतरनाक इरादे।

पंजाब में इमरजेंसी लगाने की तैयारी पूरी हो चुकी है। संसद के दोनों सदनों ने 59वाँ संविधान संशोधन विधेयक मंजूर कर लिया है…। अंततः जनता को संविधान द्वारा दिए गए सभी मूल अधिकारों से वंचित करते हुए उसके हाथों-पैरों में इमरजेंसी की हथकड़ियाँ-बेड़ियाँ डाल दी। यही नहीं संपादकीय के साथ पहली बार उन्होंने पैरों तथा हाथों जंजीरों से जकड़े व्यक्ति का चित्र भी छापा था।

संभवतः जून, 1988 में पहली बार इलाहाबाद उपचुनाव में इस बार जनता ठगी नहीं जाएगी के तहत कांशीराम जी को छापा गया। जुलाई, 1988 के अंक में मेरा लेख छपा ‘आदमी आदमी बीच भेद की दीवारें कब तक खड़ी होती रहेंगी?’ उसी अंक में मेरे द्वारा तैयार की गई परिचर्चा–‘महाराष्ट्र की दलित राजनीति में उभरते अंतर्विरोध’ छपी। जिसमें आर.एस. गवई, प्रकाश अम्बेडकर और बापुराव पखिड्डे आदि के साथ बातचीत हुई थी। इसका उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूँ कि ‘संचेतना’ में 80 के दशक के अंत होते-होते दलित साहित्य और आंदोलन का सूरज फिर से उभरने लगा था। और मुझे यह भी लिखना पड़ता है कि तब तक महीप सिंह के सान्निध्य में कोई दलित लेखक/पत्रकार/या समीक्षक न था या फिर से पंजाब की समस्याओं और सवालों से भी घिरे थे। हाँ, डॉ. सुखबीर उनके करीब थे। जो संभवतः राजधानी कॉलेज में पढ़ाते थे। लेकिन वे दलित पहचान को छुपाकर रहते थे। मैं साफ कर दूँ कि वे वाल्मीकि जाति से थे। दलित जीवन के आसपास की कभी-कभी कविताएँ जरूर लिखते थे, लेकिन दलित साथियों से अलग-अलग रहते थे। उनकी कविताओं में भी वैसी आँच नहीं थी। एक दो बार महीप सिंह ने उनका जिक्र भी किया था।

अगस्त, 1988 के अंक में एक जात-पाँत तोड़क जिंदगी संतराम बी.ए. के साथ रामविलास पासवान का साक्षात्कार, दबे हुओं को विशेष अधिकार देकर ऊपर लाना होगा। डॉ. लोहिया, मानवता और आजादी का कथा नामक नेल्सन मंडेला प्रकाशित हुए। जो मेरे द्वारा तैयार किए गए थे। इसी अंक में बाबूराव बागुल की कहानी ‘जब मैंने जाति छिपाई थी’ छपी। संभवतः ‘संचेतना’ में छपने वाली यह पहली दलित कहानी थी।

सितंबर, 1988 के अंक में महीप सिंह ने अपने संपादकीय ‘पहचान को पहचानिए’ लिखा। कहना न होगा कि दलितों को पहचान मिली। इसी अंक में अजमेर से प्रकाशित पुस्तक दलित रंगमंच और दलित चेतना की समीक्षा नरेन्द्र मोहन के द्वारा लिखी गई। संभवतः यह भी ‘संचेतना’ में छपने वाली पहली दलित पुस्तक की समीक्षा थी। हालाँकि दिल्ली के साथ उत्तरी भारत में भी दलित साहित्य पर पुस्तकें छपने लगी थीं, लेकिन सवर्ण साहित्यकारों की दुनिया वह सब नजरअंदाज ही करती थी।

‘संचेतना’ के संपादक के रूप में उनका साहित्य और आंदोलन के लिए उदारवादी दृष्टिकोण रहा। जिन्हें उन्होंने छापा उनमें डॉ. गुरचरण सिंह, डॉ. बलदेव वंशी, सुदर्शन मजीठिया, कन्हैयालाल नंदन (वैसे नन्दन जी कुंदन कुमार के नाम से लिखते थे।) कीर्ति केसर, जगदीश चतुर्वेदी, इन्दु जैन, कुसुम अंसल, डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल, भारत डोगरा, सिम्मी हर्षिता, मुकेश मिश्र, सुरेन्द्र मोहन, नरेन्द्र मोहन, नासिरा शर्मा, डॉ. सुखबीर सिंह, लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह, सरोज वशिष्ठ आदि। ‘संचेतना’ के अंकों में साक्षात्कार भी प्रकाशित किए गए–जिनमें विशेष शहाबुद्दीन, सुवास घीसिंग, रामधन, दिलीप कुमार, चन्द्रशेखर, जैन मुनि सुशील कुमार, महेन्द्र सिंह टिकैत, स्वामी अग्निवेश, जार्ज फर्नाडीस, विश्वनाथ प्रताप सिंह, मधुलिमये आदि थे।

महीप सिंह जी में यह विशेषता थी कि वे किसी न किसी रूप में उन शख्सियतों से लिखवा ही लेते थे, जिनका राजनीति तथा आंदोलन में अच्छा-खासा दबदबा था। उनमें जसवंत सिंह, बी.एम. तारकुंडे, मृणाल पांडे, पदमा सचदेव, डॉ. माजदा असद, अमरजीत नारंग, प्रताप सहगल, डॉ. हरदयाल आदि थे। खास लोगों के अलावा वे ऐसे साथियों को भी आगे बढ़ाने में विश्वास करते थे, जिनके भीतर वे प्रतिभा विकसित होते महसूस कर लेते थे। उनमें सुरेन्द्र माथुर, विनय बिहारी सिंह, परमजीत, रोहिताश्व अस्थाना आदि थे। मुझसे भी उन्होंने एक-दो अतिरिक्त साक्षात्कार लेने के लिए जैसे उकसाया था। जैसे कहना चाहते हों, नैमिशराय क्या सुनील दत्त का इंटरव्यू ले सकते हो। और मैंने उनकी चुनौती स्वीकार कर ली थी। अगले ही दिन मैंने महाराष्ट्र सदन, नई दिल्ली में जाकर सुनील दत्त से बात की। वह साक्षात्कार ‘संचेतना’ के अप्रैल, 1987 के अंक में छपा था। साथ ही मेरे द्वारा लिखा गया लेख ‘शवयात्रा से पदयात्रा तक’ भी उसी अंक में प्रकाशित हुआ था। संभवतः उस दौर में उभरते दलित साहित्य का नजदीकी से उन्होंने अहसास कर लिया था।

मजीद अहमद को वे खूब चाहते थे। उनकी प्रशंसा भी करते थे। मजीद को साहित्य की कविता विधा प्रिय थी। उनकी कविता–

‘रात की नंगी छायाओं के बीच
-घिरा हुआ बोधि-सत्व
पारदर्शी हताशा के
संवाद घर में
युद्धरत अस्तित्व…।’

यह कविता ‘संचेतना’ में 16 पंक्तियों की थी। 90 का दशक आते आते दलित साहित्य और आंदोलन के प्रति महीप सिंह जी की रुचि बढ़ने लगी थी। उनकी रुचि बढ़ी तो दलित लेखक/पत्रकार/समीक्षक तथा कार्यकर्ता उनसे जुड़ने लगे थे। वे भी उन्हें तरजीह देते। बल्कि पहले से अधिक समय देने लगे थे। उन्हें गोष्ठियों और सम्मेलनों में भी बुलाया जाने लगा था।

कुछ वर्ष पूर्व ‘सारिका’ ने दलित कहानियों पर केंद्रित एक-दो अंक निकाले थे। इस दृष्टि से गंभीर और सुव्यवस्थित प्रयास के लिए दिसंबर 1981 का ‘संचेतना’ का ‘दलित साहित्य विशेषांक’ एक मील पत्थर साबित हुआ। दो सौ से अधिक पृष्ठों के इस विशेषांक में दलित साहित्य के वैचारिक पक्ष पर विस्तृत चर्चा थी और आत्मवृत्त, कहानियाँ, एकांकी तथा कविताओं की बानगी भी इसमें संकलित की गई थी। वह विशेषांक ‘साहित्य और दलित चेतना’ नाम से पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुआ। पिछले दिनों मेरे द्वारा आने वाली पुस्तक ‘हिंदी दलित साहित्य का इतिहास’ के लिए मैं सारिका के पुराने अंकों को पुनः पढ़ रहा था, एक अंक में महीप सिंह की दलित विषयक कहानी भी प्रकाशित हुई थी। इसके बाद हिंदी में दलित साहित्य की चर्चा को निश्चित ही बल मिला। इस दृष्टि से 21-22 अक्तूबर 1993 को नागपुर में आयोजित हिंदी दलित लेखक-साहित्य सम्मेलन को एक सार्थक पहल माना जा सकता है।

नागपुर में मराठी और हिंदी दलित लेखकों, कवियों, नाट्यकारों तथा कार्यकर्ताओं के बीच महीप सिंह का जाना और कुछ घंटों नहीं बल्कि कई दिनों तक साथ रहना, निश्चित ही उनकी उपस्थिति से साहित्य की दुनिया में सकारात्मक संदेश गए थे और दलित तथा गैर-दलितों के बीच संवाद भी बने थे।

90 का दशक विशेष रूप से हिंदी दलित साहित्यकारों के भीतर तेजी के साथ उगते, उभरते हुए सूरज जैसा था। जिसके ताप का अहसास स्वयं महीप सिंह जी को होने लगा था। देश की राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव आने लगे थे। सवर्ण साहित्यिक शख्सियतों को दलित साहित्य का आवेग झिंझोड़ने लगा था। बहुत सारे सवाल उभरने लगे थे, जिनके उत्तर सवर्ण साहित्य के मठ दे नहीं पा रहे थे। ऐसे में मुझे महीप सिंह जी के साथ फिर कमलेश सचदेव जी के बारे में कहना पड़ता है कि जहाँ कमलेश जी बिना किसी शोर-शराबे के दलित साहित्य और साहित्यकारों के बारे में लिखते हुए, उनकी हिमायत ले रही थीं वहीं महीप सिंह जी मुखर होकर दलित लेखकों, नाट्यकारों तथा कवियों की बात सवर्ण खेमे में खुल कर कह रहे थे। उस दशक की यह ऐतिहासिक घटना थी। जब नामवर सिंह तथा मैनेजर पांडे आदि दलित साहित्य को नकार रहे थे और महीप सिंह जी राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, वीर भारत तलवार आदि आगे बढ़कर स्वीकार कर रहे थे।

पिछले कुछ माह पूर्व हिंदी भवन में वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय के द्वारा एक साहित्यक गोष्ठी का आयोजन हुआ था, जिसमें मुझे भी आमंत्रित किया गया था। महीप सिंह जी लगभग एक घंटा देरी से आए। उन्होंने जैसे ही दरवाजे से प्रवेश किया। साथियों की निगाहें उधर ही उठ गई। वे काफी कमजोर लग रहे थे और उन्हें मदद करने हेतु कोई उनके साथ गुड़गाँव से ही आया था। मुझे उम्मीद थी ऐसे समय पर कमलेश सचदेव भी साथ में होंगी, लेकिन वे कहीं दिखलाई नहीं पड़ी। थोड़ी निराशा भी हुई। इसलिए भी कि मैं उनसे भी मिलना चाहता था। मैं दरवाजे के पास की ही कुर्सी पर बैठा था। उठ कर नमस्ते की। उन्होंने भी मेरी नमस्ते का जवाब नमस्ते से दिया। फिर पूछा, ‘क्या कर रहे हो नैमिशराय’ मैं तुरंत कोई जवाब नहीं दे सका। लेकिन उन्होंने पुनः कहा, ‘बताओ भई।’ तभी दो-तीन साथी और आ गए। उन्हें प्रेम जनमेजय जी ने मंच पर खाली पड़ी कुर्सियों में से एक पर बैठाया। कुर्सियाँ खाली इसलिए भी थीं कि महीप सिंह जी ही मुख्य अतिथि थे।

गुड़गाँव चले जाने से असल में महीप सिंह जी के साथ लोगों के संपर्क सूत्र घटने लगे थे। मैंने कई बार गुड़गाँव जाने के लिए विचार भी किया, लेकिन जा नहीं सका। हर बार मन में विचार आता कि अगले सप्ताह जरूर ही गुड़गाँव जाकर उनसे मिलूँगा, पर अगला सप्ताह ऐसा कोई आया ही नहीं। कमलेश सचदेव जी से भी मुलाकात करना चाहता था। उनसे भी महीप सिंह जी के चले जाने के बाद ही गुड़गाँव उनके घर पर मिलना हुआ। हालाँकि वे भी हमसे जुदा हो गईं। ‘संचेतना’ के कुछ अंकों की फाइल अभी भी मेरे पास है। वे सिर्फ पत्रिका नहीं है बल्कि संघर्ष और आंदोलन का दस्तावेज है। जब-जब भी ‘संचेतना’ के पृष्ठ देखता हूँ महीप सिंह जी मेरे बिल्कुल नजदीक हो जाते हैं। जैसे कह रहे हों, नैमिशराय लिखो और संघर्ष पथ पर अग्रसर रहो। यह शताब्दी उन सभी की है, जो संघर्ष करते-करते अपने मुकाम पर पहुँचना चाहते हैं। निश्चित ही महीप सिंह जी प्रेरक थे। साहित्य से जुड़े खास और आम तबके से उनके संवाद हमेशा रहे। कनाट प्लेस के अंसल भवन की ग्यारहवीं मंजिल पर एक बार उन्होंने मुझसे आने के लिए कहा। मैं वहाँ गया। चाय के साथ समोसा और साहित्यिक चर्चा। इस पार्टी का नाम ही समोसा पार्टी रख दिया गया था। कुसुम अंसल हमारी मेजबान थी। साथ में स्वयं महीप सिंह, कमलेश्वर, कन्हैयालाल नन्दन, शम्मी और सरोज आदि थे। बाद में कई बार अंसल भवन जाना होता था।


रूपचंद गौतम द्वारा भी