महाकाव्यकार जायसी

महाकाव्यकार जायसी

अवधी भाषा के महाकाव्यकार मलिक मुहम्मद जायसी का पुनीत मकबरा अमेठी के अर्धशहर रामनगर में कीर्तिमान है। इस स्थल का मैंने कई बार दर्शन किए हैं। मेरा निवास अमेठी नगर पंचायत में अवस्थित है, अत: उस क्षेत्र की पूर्ण जानकारी है। गत 12 मार्च 2022 को अवधी साहित्य संस्थान अमेठी द्वारा मुझे ‘मलिक मुहम्मद जायसी सम्मान’ से अलंकृत किया गया। अवसर था ‘वधेली और अवधी भाषा के साहित्कारों के मिलन समारोह’ का। यह साहित्यिक एवं सांस्कृतिक सम्मेलन जायसी समाधि स्थल के प्रांगण में आयोजित किया गया था। जायसी मकबरा के प्रबंधक से मुलाकात हुई, जिन्होंने गर्भगृह का दर्शन कराया था। हरित चादर से सम्मानित जायसी का गर्भगृह सुगंध से गमक रहा था। कुछ समय पूर्व आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा संपादित ‘जायसी ग्रंथावली’ को पढ़ने का अवसर मिला था जिससे लगा कि बहुत सी सूचनाएँ शुक्ल जी ने सुनी-सुनाई बातों को आधार मान कर लिख दिया होगा।

जायसी आविर्भाव एवं कर्म क्षेत्र–मलिक मुहम्मद जायसी के पूर्वज निजामुद्दीन औलिया (मृत्यु 1325 ई.) की शिष्य परंपरा में माने जाते हैं। वे सूफी संत थे। इस सूफी परंपरा की दो शाखाओं का उल्लेख मिलता है। एक है, शेख बुरहम (कालपी शाखा) और दूसरी शैय्यद असरफ जहाँगीर की जायसी शाखा। कालपी बुंदेलखंड में है, जहाँ मलिक मुहम्मद जायसी या उनके पूर्वज कभी नहीं गए। जायसी का जन्म जायस में हुआ था, ऐसा जायसी ने स्वयं कहा है, ‘जायस नगर धरम स्थानू। जहाँ जाय कवि कीन बखानू॥’ ‘धरम’ का तात्पर्य ‘करम’ से मान्य है। ‘जाय’ शब्द के अवधी क्षेत्र में दो अर्थ प्रचलित हैं। एक है ‘जायकर’ अर्थात जा कर के और दूसरा है ‘जन्म’ अर्थात जायसी ने जायस ग्राम अव नगर में जन्म लेकर कवि हुए और काव्य प्रणयन किया। इसी से जुड़ा है ‘जाया’ अर्थात पक्षी या जन्म देने वाली।

जायस नगर मेरे निवास अमेठी से करीब 37 किलोमीटर पर सुलतानपुर-लखनऊ राजमार्ग पर अवस्थित है। जायसी के पूर्वजों का मकान नगर के मोटा (उच्च स्थल) पर है। कुछ वर्ष पूर्व सरकार ने जायस नगर के बाहर पूर्व में राजमार्ग से सटे जायसी स्मृति भवन बनवाया है, जो अब एक दर्शनीय स्थल बन गया है।

जायसी सूफी संत परंपरा के थे, अत: जायस के बाहर के गाँवों में भटकते रहते थे। इसी सिलसिले में वे अमेठी राज जो उस समय रामपुर राज के नाम से था, के जंगल में रहने लगे। अमेठी राज और राजा बाद में अवस्थित हुए। रामपुर किला की चारों ओर सुरक्षा की खाई आज भी है। रामपुर से रामनगर तक जंगल ही जंगल था। अमेठी राज का महल रामपुर (अमेठी) से पाँच कि.मी. उत्तर अमेठी-मुसाफिर खाना मार्ग पर अवस्थित है। मलिक मुहम्मद जायसी (1492-1542 या 48) का पैदायसी नाम मुहम्मद था, जो इस्लाम धर्म के प्रवर्तक माने जाते हैं। उनके परिवार के लोगों के नाम के साथ ‘मलिक’ टायटिल के बारे में कहा जाता है कि उनके वंशजों को यह उपाधि ‘मलिक’ मिस्र के राजा मलिक ने दी थी। जायसी ने स्वयं लिखा–

‘मुहम्मद कवि यह जोरि सुनावा।
सुना जो प्रेम पीर भा गावा॥’

मलिक मुहम्मद जायसी के जीवन चरित और उनकी अमर कृतियों पर अनेक अनुसंधातित समालोचनात्मक कृतियों का प्रणयन हुआ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा संपादित ‘जायसी ग्रंथावली’ एक प्रमाणित कृति मानी जाती हैं। परंतु इस ग्रंथ में भी कई अप्रमाणित घटनाओं का उल्लेख है। इसका एक मात्र कारण है, उन्होंने जायस, रामपुर, अमेठी, रामनगर आदि का भ्रमण नहीं किया था। आचार्य शुक्ल के अनुसार, ‘जीवन के अंतिम दिनों में जायसी अमेठी से कुछ दूर एक घने जंगल में रहा करते थे।’ उस घने जंगल का क्या नाम था, उनको पता नहीं था। वह जंगल जहाँ पर जायसी का मकबरा है, अभी नगर बन गया है, उसका नाम था और आज भी है रामनगर। अब जंगल नहीं है। शुक्ल जी ने यह भी लिखा है, ‘जायसी की कब्र अमेठी के राजा के वर्तमान कोट से पौन मील के लगभग है।’ जायसी की कब्र या मकबरा वर्तमान में रामनगर कोट (जिसे अमेठी कोट) भी कहा जाता है, रामनगर के उतरी छोर पर है।

मलिक मुहम्मद जायसी के दीक्षागुरु के बारे में एक मत नहीं है। निजामुद्दीन औलिया के वंशज शैयद असरफ जहाँगीर, शेख हाजी, शेख मुहम्मद को जायसी ने अपना पीर या दीक्षागुरु माना है। एक अन्य मान्यता के अनुसार जायसी के पीर शेख बुरहम या शैयद असरफ थे। इन सब बातों का कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। सूफी संत जायसी ने पद्मावत महाकाव्य के स्तुतिखंड में कहा है–

‘सुमिरौ आदि एक करतारू।
जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू॥’

जायसी ‘एक करतारू’ अर्थात एक ब्रह्म, एक ईश्वर की स्तुति करते हैं, किसी पीर, गुरु की नहीं। वह करतार जिसने सर्व प्रथम ‘जोति परकासू’ अगिनि, पवन, जल, धरती, सरग, पतारू, दिन, रात्रि, सूरज, चाँद आदि उत्पन्न किया। वही लगता है कि जायसी के मुहम्मद दीक्षा-गुरु हैं। उन्होंने कहा–

‘कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि।
पहिले ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि॥’

इस कथन को जायसी ने और स्पष्ट करते हुए कहा–‘कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू। इसका सार किया गया है कि ‘उसी ज्योति अर्थात पैगम्बर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की (कुरान की आयत) कैलासू अर्थात स्वर्ग या विहिस्त।’

मलिक मुहम्मद जायसी ने मानिकपुर के मुहीउद्दीन के या जायस के सैयद असरफ के मुरीद थे। उन्होंने दोनों पीरों का उल्लेख किया है–

‘सैयद असरफ पीर पियारा।
जेइ मोहिं पंथ दीन्ह उजियारा॥’–पद्मावत

कही सरीअत चिस्ती पीरू। उधरी असरफ औ जहँगीरू॥
पा पाएउँ गुरु मोहिदी मीठा। मिला पंथ सो दरसन दीठा॥–अखरावट

जिन बातों का उल्लेख जायसी ने अपने ग्रंथों में किया है, उससे लगता है कि उन्हें वेद, पुराण, गीता और स्मृतियों के सार से परिचित थे। कबीर औ?र जायसी के सामाजिक, लोकव्यवस्था में मतैक्य नहीं था। फिर भी कबीर को वे बड़ा साधक मानते थे। देखिए इन चौपाइयों में–

‘ना-नारद तब रोई पुकारा।
एक जोलाहे सौं मैं हारा॥
प्रेम तंतु नित ताना तनई।
जप तप साधि सैकरा भरई॥’

जायसी घुमक्कड़ सूफी संत थे। वे जो कहते थे, वह काव्यांश बनता जाता था। लोक प्रचलित कहावत है कि उनका एक शिष्य उनके द्वारा गाए गए नागमती का बारहमासा गा गाकर भिक्षाटन करता था। अमेठी के राजा ने बारहमासा सुना। उन्हें अच्छा लगा। उन्होंने जायसी को बुलाकर सम्मानित किया–

‘कँवल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गयउ सुखाइ।
सूखि बेलि पुनि पलुहै, जो पिय सींचै आइ॥’

इसके भाव से तो राजा प्रसन्न दिखे परंतु जायसी को देख कर मुसकराए उनकी सूरत पर। जायसी ने तत्काल कहा–‘मोहि का हँसहि कि कोहरहि।’
इससे राजा ने लज्जित होकर क्षमा याचना की। जायसी का चेहरा शायद चेचक होने से कुरूप हो गया था।

जायसी का साहित्यिक अवदान–मलिक मुहम्मद जायसी ने मुख्यत: तीन पद्मावत काव्यों की रचना की। पद्मावत, महाकाव्य के बारे में कहा जाता है कि यदि जायसी का पद्मावत नहीं होता तो तुलसीदास कृत रामचरितमानस नहीं होता। यद्यपि दोनों की कथावस्तु अलग-अलग है, परंतु दोहा, चौपाई, सोरठा आदि विधाएँ एक सी हैं। पद्मावत काव्य को जायसी ने विभिन्न विषयों पर आधारित अध्यायों को खंडों में विभाजित किया है, जबकि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस को ‘कांडों’ में विभक्त किया है। वाल्मीकि ने रामायण को ‘सर्गों’ में विभाजित किया है।

‘पद्मावत महाकाव्य को जायसी ने 57 खंडों में विभाजित कर प्रस्तुत किया है। इसमें राजा रतनसेन, नागमती, पदि्मनी, अलाउद्दीन खिलजी आदि के प्रेमानुराग को रोचक ढंग से संकलित किया गया है। इन सब पात्रों को कथानक के रूप में पिरोने का काम एक सुआ ने किया है। राजा रतनसेन को अलाउद्दीन के बंदीगृह से मुक्त करने का काम किया है, गोरा-बादल ने। अपने पति रतनसेन को मुक्त कराने के लिए गोरा-बादल के पास गई, तब उन्होंने कहा–

‘उलटि बहा गंगा कर पानी।
सेवक बार जाईं जो रानी॥
का अस कष्ट कीन्ह तुम्ह, जो तुम्ह करत न छाज।
आला होई वेग सो, जीउ तुम्हारे काज॥’

आदर्श क्षत्रिय वीरता के उदाहरण गोरा अपने पुत्र बादल के साथ सोलह सौ पालकियों के भीतर राजपूत योद्धाओं को बिठाकर दिल्ली गए और राजा रतनसेन को मुक्त कराया खिलजी के बंदीगृह से। वे चित्तौड़ आए, परंतु कुम्भलगढ़ के राजा देवपाल के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। पति के वीरगति को प्राप्त होने पर पदि्मनी अन्य रानियों एवं विधवाओं के साथ जौहर कर लिया।

‘जौहर भई सब इस्तिरी, पुरुष गए संग्राम।
बादशाह गढ़ चूरा, चितउर भा इसलाम॥’

महाकाव्य के ‘उपसंहार’ खंड में जायसी ने कहा–‘कहँ सुरूप पद्मावति रानी। कोई न रहा, जग रही कहानी। धनि सोई जस कीरति जासू। फूल मरै, पै मरै न बासू॥

अखरावट–जायसी ने एक ओर जहाँ ऐतिहासिक कथानक पर पद्मावत महाकाव्य की रचना की, वहीं पर ‘अखरावट’ काव्य में ‘वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर सिद्धांत संबंधी आरंभिक बातें कही हैं।’ इसमें उपनिषद की बातें समरूप में मिलती हैं। यथा-इशोपनिषद में कहा गया है कि ‘आत्मा अचल मन से अधिक वेग वाला है। इंद्रियाँ उसको नहीं पा सकती। ‘अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षदिति।’

जायसी ने अखरावट में कहा–‘पवन चाहि मन बहुत उताइल। तेहिं तें परम आसु सुठि पाइल॥ मन एक खंड न पहुचै पावै। आसु भुवन चौदह फिरि आवै॥’ जायसी ने कहीं-कहीं अद्वैत की भावना उजागिर किया है। उन्होंने संसार को असत्य और माया कहा है। कबीर कहते हैं ‘माया महाठगिनी हम जानी।’

अखरावट काव्य के सत्व को स्पष्ट करते हुए जायसी ने कहा–‘कहौं सो ज्ञान ककहरा, सब आखर महँ लेखि। पंडित पढ़ि अखरावटी, टूटा जोरेहु देखि॥’

इस ग्रंथ पर इस्लाम और कुरआन की आयतों का सर्वत्र प्रभाव ही नहीं उनके भावों को उद्धाटित किया है जायसी ने। उनके समय इसलाम का पूरे भारत में प्रभाव था। इसीलिए उन्होंने ‘रजा मुहम्मद नूई’ नूर मुहम्मद देखि परगट गुपुत बिचारि सो बूझा। सो तजि दूसर और न सूझा॥’ आदि सत्योक्तियों का बार-बार उल्लेख किया है।

अखरावट जितना पढ़िए उतना ही आत्मा, परमात्मा, मुहम्मद के विचारों में उलझते जाते हैं। कभी इसका विश्लेषण विस्तार में किया जाएगा। अभी इतना ही कहना उचित होगा जायसी के शब्दों में–‘दूध माँझ जस धीउ है, समुद्र मोह जस मोति। नैन मींजि जो देखिहु, चमकि उहै तस जोति॥’

आखिरी कलाम–‘आखिरी कलाम’ जायसी की एक और कृति है जो है छोटी पर विचार रूपी घाव गंभीर करती है। कुरआन पर आधारित मुस्लिम संस्कृति शुरू से अंत तक प्रदर्शित है। जो कुछ भी संसार में है वह सब मुहम्मद की देन है। नयन ज्योति, स्रवन (कान) बुद्धि, ज्ञान, नासिक, सुमन में सुगंध, जीभ, वाणी, दाँत, अधर आदि जिसने दिया है, उसके बारे में जायसी ने कहा–‘दीन्हेसि बदन सुरूप रंग, दीन्हेसि माथे भाग। देखि दयाल, ‘मुहम्मद’ सीस नाइ पद लाग॥’

उपनिषदों में व्यक्त सिद्धांतों का उल्लेख जायसी ने निम्न पंक्तियों में दर्शाया है–‘दीन्हेसि नौ नौ फाटका, दीन्हेसि दसवँ दुवार। सो असि दानि ‘मुहम्मद’ तिन्ह कै हौं बलिहार॥’

इस कृति पर बाद में विषद व्याख्या अलग से करना चाहूँगा। ‘आखरी कलाम’ कृति का अभी इस पंक्ति के साथ विराम देना चाहता हूँ–‘भा औतार मोर नौ सदी। तीस बरिस ऊपर कवि बदी।’


जियालाल आर्य द्वारा भी