आदिम रसगंधों के गायक रेणु
- 1 August, 2021
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- 1 August, 2021
आदिम रसगंधों के गायक रेणु
हिंदी कथा साहित्य के क्षेत्र में फणीश्वरनाथ रेणु का आगमन एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इन्होंने कथा साहित्य को लोकजीवन के अपार वैभव से जोड़कर उसमें निहित संभावनाओं का अधिकतम दोहन किया है। रेणु आदिम रसगंधों के गायक हैं। अपने इसी वैशिष्ट्य के कारण अन्य कथाकारों से अलग एवं विशिष्ट भी हैं। इनके लेखन में मनुष्य के हृदय, मन के साथ-साथ उसके शरीर का भी जैव संदर्भ आता है जिससे इनकी लेखनी एक अन्यतम अर्थ-लय की सृष्टि करती हुई चलती है। इस दृष्टि से ‘मैला आँचल’, ‘तीसरी कसम’, ‘आदिम रात्रि की महक’, ‘श्रावणी दोपहरी की धूप’, ‘परती परिकथा’ और ‘लाल पान की बेगम’ सबको संदर्भित किया जा सकता है। इसके अलावा इन्होंने ‘ऋणजल, धनजल’ तथा ‘वनतुलसी की गंध’ जैसे संस्मरणात्मक लेखन में भी सुगंध के संदर्भ का बिंबात्मक प्रयोग किया है। इनका ‘मैला आँचल’ उपन्यास इस दृष्टि से एक महत्त्वाकांक्षी प्रयोग है। यह भारत के ग्रामीण जीवन को आधिकारिक सम्मान दिलाने वाला उपन्यास है। रेणु प्रेमचंद की तुलना में अपेक्षाकृत राजनीतिक दृष्टि से अधिक सक्रिय और अनुभवी थे। ये भारतीय मनुष्य, जन-जीवन और देहात को आत्मसात करने वाले कलाकार हैं। इस उपन्यास का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य यह है कि इसमें लेखक अपने ग्राम्य-जीवनानुभवों को औपन्यासिक चित्रों में रूपांतरित कर देता है। इनका कथाकार जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद का समन्वित रूप है। यही कारण है कि ‘मैला आँचल’ की अंतर्वस्तु ‘गोदान’ तथा क्लासिकी एवं व्यंजनात्मक प्रस्तुति ‘कंकाल’ के प्रभाव-संदर्भ का विस्तार है। इसकी प्रस्तुति अपने सर्जनात्मक पाठ-वितान, व्यंग्य-गर्भिता तथा विद्रूपता के रेखांकन में ‘कंकाल’ और ‘तितली’ की अनुगूँज पैदा करती है। जिस तरह प्रसाद ने ‘कंकाल’ में सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक विद्रूपता के वैविध्यपूर्ण संदर्भों की प्रस्तुति में यथार्थवादी उपन्यास का नया सौंदर्यशास्त्र रचा है, उसी तरह रेणु के यहाँ भी संपूर्ण ग्रामीण जीवन का मैलापन अपनी विशिष्ट प्रस्तुति में अतिशय रमणीय एवं अर्थ-गर्भिता में बेहद गंभीर है। जयशंकर प्रसाद ने लघुता के प्रति साहित्यिक दृष्टिपात को जिस यथार्थवाद का चरम वैशिष्ट्य निरूपित किया था, ‘मैला आँचल’ उसकी विराट प्रयोगशाला है। इसमें लेखक ने उपेक्षित अंचल की समस्त छवियों और कुरूपताओं को, उसकी विवशता और संभावनाओं को, उसके आर्थिक अभावों और सांस्कृतिक वैभव को, उसके समूचे पुण्य और पाप को इतनी आत्मीयता एवं सूक्ष्मता से चित्रित किया गया है कि उसके रचनात्मक कौशल को देखकर यही कहना पड़ता है कि उसने एक ही राग में भैरवी और विहाग दोनों गा लिया है। फलतः पूर्णिया जिले का मेरीगंज केवल एक गाँव का लघु-संस्करण होकर भी सारे भारत का गाँव बन जाता है। लेखक की दृष्टि में संपूर्ण देश ही मैला आँचल है, क्योंकि यह मैलापन बाहरी तौर पर जितना सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक स्तर पर प्रकट है उतना ही लोगों के मन-हृदय और आत्मा की कालिमा बनकर बैठा है।
फणीश्वरनाथ रेणु ‘मैला आँचल’ में केवल ग्रामीण जीवन की विकृतियों, बिडंबनाओं, कुत्सित बुराइयों, कमीनगी, दैन्य और सड़ांध को ही निर्ममतापूर्वक नहीं उद्घाटित करते हैं अपितु वे अंचल विशेष की माटी की गंध, प्रकृति के उन्मुक्त फैलाव, लोकजीवन की धड़कन, उसमें होने वाले तमाम विवर्तन, लोक-संस्कृति के छंद तथा कल्पनात्मक मोहक छवियों को सर्जनात्मक लोकभाषा की ताजगी तथा कथा-बिंबों के माध्यम से इस प्रकार उपस्थित करते हैं कि समूचा अंचल सजीव-सवाक् हो उठा है। लोकजीवन का एक विविधतापूर्ण समारोह चलचित्र की भाँति ‘मैला आँचल’ में हमारी आँखों के सामने से गुजरता है और हम चित्र लिखे से उसे हतप्रभ निहारते जाते हैं। इस उपन्यास में अंतर-पाठीय वैविध्यपूर्ण कथा-संरचना लगभग तीन सौ चरित्रों के अंतर्मन और उनके आंचलिक शील-संस्कारों के द्वारा रूपायित हुई है। लेखक अंचल विशेष के समूचे परिवेश, विभिन्न आंचलिक संदर्भों और प्रासंगिक लोक-कथाओं के सगुंफन द्वारा संवेदना और यथार्थता के वैविध्यपूर्ण सर्जनात्मक मूल्यबोध को जिस तीव्र अर्थवत्ता के साथ व्यंजित करता है। वह उपन्यास के अर्थ गौरव को अभूतपूर्व उत्कर्ष प्रदान करता है।
रेणु ‘मैला आँचल’ की कथा-संरचना में किस तरह आदिम रसगंधों को अनुस्यूत करते हैं, इसे हम उस अंचल के परिचय में ही देख सकते हैं। सर्वप्रथम वे उपन्यास की भूमिका में ही लिखते हैं कि, इसमें फूल भी हैं, शूल भी, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी! मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। कहने का आशय यह है कि लेखक के मन में ग्रामीण जीवन और वहाँ की मिट्टी के प्रति जो आंतरिक लगाव है उसे मैला आँचल में बेलौस अभिव्यक्ति प्रदान की गई है। इसी तरह लेखक बूढ़ी कोशी के किनारे-किनारे बहुत दूर तक ताड़ और खजूर के पेड़ों वाले जंगल का वर्णन करने के उपरांत लिखता है कि, तड़बन्ना के बाद ही एक बड़ा मैदान है, जो नेपाल की तराई से शुरू होकर गंगा जी के किनारे खत्म हुआ है। लाखों एकड़ जमीन! बंध्या धरती का विशाल अंचल। इसमें दूब भी नहीं पनपती है। बीच-बीच में बालूचर और कहीं-कहीं बेर की झाड़ियाँ। कोस भर मैदान पार करने के बाद, पूरब की ओर काला जंगल दिखाई पड़ता है। वही है मेरीगंज कोठी। लेखक सर्वप्रथम प्राकृतिक अंचल के मैलेपन को रेखांकित करता है और अपनी दृश्यात्मक प्रविधि द्वारा उसे मानवीय मैलेपन तक ले जाता है। लेखक सुगंध के संदर्भ को प्रकृति की राशि-राशि दृश्यावलियों से लेकर मानव शरीर तक ले जाता है। वह सुमित्रानंदन पंत की कविता भारत माता ग्रामवासिनी से ही मैला आँचल शब्द भी उठाता है और ग्रामीण जीवन के सारे संस्कारों और विद्रूप मायाजाल को तीखी एवं गहरी व्यंजना प्रदान करता है। रेणु प्रसाद के उपन्यासों एवं कहानियों की भाँति अतिशय सृजनशील काव्यात्मक भाषा का व्यवहार करते हैं जो कलात्मक बिंब, लोकगीत-संगीत से सुसज्जित है। लेखक के पास गाँव को देखने की एक विशिष्ट अंतर्दृष्टि है। लेखक आरंभ में ही मेरी और मार्टिन की कहानी के माध्यम से यह संकेतित करता है कि भारतवर्ष का गाँव ऐसा है जहाँ मार्टिन जैसे शक्तिशाली अँग्रेज की पत्नी भी मलेरिया से मर जाती है और बचाव के उसके सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं। अंततः उसे गाँव का नाम बदलकर मेरीगंज और अँग्रेजी फूलों के जंगल में मेरी की कब्र बनाकर संतोष करना पड़ता है। वह गाँव में एक दवाखाना और डॉक्टर की माँग को लेकर जिले के तमाम अधिकारियों से मिलकर अनुमति प्राप्त करने के प्रयास में पागल हो जाता है। अंततः उसे राँची स्थित कांके के पागलखाने भेज दिया जाता है जहाँ उसकी मृत्यु हो जाती है। लेखक मेरीगंज को ऐसे ही मैले आँचल के रूप में प्रस्तुत करता है जो ग्रामवासिनी भारतमाता के वास्तविक स्वरूप का निदर्शन बन जाता है। लेखक अपनी सर्जनात्मक भाषा द्वारा प्रकृति के मनोरम चित्र को आधार बनाकर मैलेपन को सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक सौंदर्य द्वारा संतुलित करता है जिससे गाँव के प्रति पाठक का लगाव और भी गहरा हो जाता है। वह पंत को उद्धृत करते हुए लिखता है कि, भारत माता ग्रामवासिनी! ‘खेतों में फैला है श्यामल,/धूल भरा मैला-सा आँचल!’
मैला आँचल! लेकिन धरती माता अभी स्वर्णांचला हैं। गेहूँ की सुनहली बालियों से भरे हुए खेतों में पुरवैया हवा लहरें पैदा करती है। सारे गाँव के लोग खेतों में हैं। मानो सोने की नदी में, कमर भर सुनहले पानी में सारे गाँव के लोग क्रीड़ा कर रहे हैं। सुनहली लहरें! ताड़ के पेड़ों की पंक्तियाँ, झरबेरी का जंगल, कोठी का बाग, कमल के पत्तों से भरे हुए कमला नदी के गड्ढे! डॉक्टर को सभी चीजें नई लगती हैं। कोयल की कूक ने डॉक्टर के दिल में कभी हूक नहीं पैदा की। किंतु खेतों में गेहूँ काटते हुए मजदूरों की चैती में आधी रात को कूकनेवाली कोयल के गले की मिठास का वह अनुभव करने लगा। इस तरह लेखक गाँव के प्राकृतिक सौंदर्य और मानवीय विश्वास के सहारे मैलेपन को छाँटने का कार्य करता है। वह अपनी रचनात्मक शक्ति का अधिकतम दोहन करते हुए गाँव के अनगढ़पन, अशिक्षा, अंतर्कलह और व्याधि के मध्य भी जिस युगव्यापी जीवन सत्य का कवित्वपूर्ण उद्घाटन करता है वह सहृदय पाठक के लिए आकर्षण का केंद्र है।
रेणु इस अर्थ में अप्रतिम हैं कि उनके मन में मिट्टी और मनुष्य से मुहब्बत का तीव्र आवेग है। वे मेरीगंज की मिट्टी और वहाँ के मनुष्य से डॉ. प्रशांत के मोह एवं प्रेम को व्यंजित करते हुए लिखते हैं कि, ‘डॉक्टर पर यहाँ की मिट्टी का मोह सवार हो गया। उसे लगता है, मानो वह युग-युग से इस धरती को पहचानता है। यह अपनी मिट्टी है। नदी, तालाब, पेड़-पौधे, जंगल-मैदान, जीव-जानवर, कीड़े-मकोड़े, सभी में वह एक विशेषता देखता है। बनारस और पटना में भी गुलमोहर की डालियाँ लाल फूलों से लद जाती थीं। नेपाल की तराई में पहाड़ियों पर पलास और अमलतास को भी गले मिलकर फूलते देखा है, लेकिन इन फूलों के रंगों ने उस पर पहली बार जादू डाला है।’ कहना न होगा कि डॉक्टर प्रशांत के मन की यही मुहब्बत गाँव में नए सिरे से उसके उत्थान के लिए किए जा रहे कार्यों, जानवर को मनुष्य बनाने के उपक्रम और डॉक्टर के सेवा-साधना करने के संकल्प को गहराती है। उसे विकसित करती है। उपन्यास के अंत में ममता कहती है कि, ‘उसका रिसर्च? असफल नहीं हुआ है। मिट्टी और मनुष्य से इतनी गहरी मुहब्बत किसी ‘लेबोरेटरी’ में नहीं बनती।’ लेखक का यही आत्यंतिक विश्वास उपन्यास के अंत में आशावाद का संचार करता है। वह गुलमोहर, अमलतास और योजनगंधा की मुस्कुराने के लिए तैयार नयी कलियों की भाँति आंतरिक उमंग से ऊपर उठने के लिए आकुल है। यह मानवीय सत्य के आश्वस्तिपूर्ण भविष्य के प्रति अत्यंत विवेकपूर्ण संकेत है।
अज्ञेय ने रेणु के उपन्यासों के संबंध में कहा था कि ‘उसमें एक अखंड मानवीय विश्वास की चिनगारी सुलगती है।’ मैला आँचल में यह चिनगारी डॉक्टर प्रशांत के मेरीगंज में ही रहकर ‘प्यार की खेती’ करने के संकल्प के साथ अभिव्यक्त हुई है। वह अपने दृढ-विश्वास को प्रकट करते हुए कहता है कि, ‘ममता! मैं फिर काम शुरू करूँगा–यहीं, इसी गाँव में। मैं प्यार की खेती करना चाहता हूँ। आँसू से भीगी हुई धरती पर प्यार के पौधे लहलहाएँगे। मैं साधना करूँगा, ग्रामविसिनी भारतमाता के मैले आँचल तले! कम-से-कम एक ही गाँव के कुछ प्राणियों के मुरझाए ओठों पर मुस्कुराहट लौटा सकूँ, उनके हृदय में आशा और विश्वास को प्रतिष्ठित कर सकूँ।’ इस तरह लेखक डॉक्टर प्रशांत के संकल्प के माध्यम से आशामय संकेत देकर उपन्यास का समापन करते हैं। यही उपन्यास का उद्देश्य और डॉक्टर प्रशांत द्वारा संकल्पित प्यार की खेती उस मानवीय चिनगारी का ज्वलंत रूप है। लेखक यहाँ अंचल विशेष के मैलेपन को अर्थ व्याप्ति प्रदान करता है और वह ग्रामांचल मात्र के मैलेपन का प्रतीक बन जाती है। वह ग्रामवासिनी भारत माता के वास्तविक स्वरूप के साथ-साथ उसके उज्ज्वल भविष्य के प्रति अटूट आस्था प्रकट करता है। इसे हम स्वाधीन भारत की उपलब्धियों के संदर्भ में गाँवों के विकास और बदलावों द्वारा प्रत्यक्ष देख सकते हैं।
लेखक ने आदिम रसगंधों के प्रति अपने अनन्य अनुराग को व्यक्त करने के लिए स्त्री-देह के सौंदर्य चित्रण के साथ-साथ उसकी देह गंध का भी चित्रण किया है। इसके लिए वह लछमी दासिन जैसे अत्यंत आकर्षक, व्यक्तित्व-संपन्न, संवेदनशील पात्र की सृष्टि करता है। उसका व्यक्तित्व एक सुरुचिपूर्ण सौंदर्यबोध से अनुप्राणित है। उसमें एक विशिष्ट प्रकार की मनोवैज्ञानिक गहराई भी है। रेणु स्वयं इस पात्र की शारीरिक सुगंध की तुलना मंदिर की गंध से करते हैं। वे लिखते हैं कि, ‘लछमी के शरीर से एक खास तरह की सुगंध निकलती है। पंचायत में लछमी बालदेव के पास ही बैठी थी। बालदेव को रामनगर मेला के दुर्गा मंदिर की तरह गंध लगती है–मनोहर सुगंध! पवित्र गंध!… औरतों की देह से तो हल्दी, लहसुन, प्याज और घाम की गंध निकलती है!’ इस तरह लेखक लछमी की शारीरिक सुगंध को मंदिर की गंध की तरह मनोहर और पवित्र बताता है जबकि उसके वैपरीत्य सामान्य स्त्रियों की घृण्य-गंध को उपस्थित करता है जो हल्दी, लहसुन, प्याज और घाम के समान है। यह रेणु का अपना सौंदर्यबोध है जो सुगंध के संदर्भ को विशिष्टता प्रदान करता है। लेखक यहीं नहीं ठहरता। वह आगे बढ़कर बालदेव की मानसिक स्थिति का वर्णन करता हुआ लिखता है कि, ‘उसे बार-बार लछमी दासिन की याद आती है। आते समय कह रही थी–आज यहीं परसाद पा लीजिए बालदेव जी! परसाद! लछमी के शरीर की सुगंध!…’ यहाँ अत्यंत चिंतनीय है कि स्वयं लेखक भी लछमी की शारीरिक सुगंध पर एकांत मुग्ध है। वह उसकी शारीरिक सुगंध के द्वारा उपन्यास में अर्थ की लय सजाने का उपक्रम करता है। वह सुगंध के संदर्भ को दुबारा लाकर लछमी के माला नहीं पहनने की प्रोक्ति उभारता है। वह लिखता है कि, ‘हरगौरी लछमी के गले में माला डालने के लिए आगे बढ़ रहा है। लछमी माला नहीं पहनती है। माला लेकर बालदेव को पहना देती है–गेंदे के फूलों की माला! फूल से लछमी के शरीर की सुगंधी निकलती है!’ रेणु जी का यह गंध प्रेम और आगे जाता है और वह गमकौआ साबुन को भी व्यंजित करता है। वह लिखता है कि, ‘अरे, कपड़ा धोने वाला साबुन नहीं, गमकौआ साबुन चाहिए। भगत की दुकान में गमकौआ साबुन कहाँ से आवेगा? कटिहार में मिलता है। तहसीलदार की बेटी कमली जब गमकौआ साबुन से नहाने लगती है तो सारा गाँव गमगम करने लगता है।’ लेखक लछमी की शारीरिक सुगंध को एक-एक करके प्रोक्त्ति शृंखला के रूप में प्रस्तुत करता है। बालदेव बीजक की पोथी से भी लछमी की देह गंध का अहसास करता है। वह कहता है कि, ‘बीजक से लछमी की देह की सुगंधी निकलती है। इस सुगंध में एक नशा है। इस पोथी के हरेक पन्ने को लछमी की उँगलियों ने परस किया है।… ‘पोथी पढ़ि-पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।’ लछमी को देखने से ही मन पवित्र हो जाता है।’ इस तरह लेखक और बालदेव दोनों ही लछमी की मनोहर शारीरिक सुगंध से आप्लावित हैं। वह बालदेव के मन में चंदन नाम वाली बस्ती की सुगंधहीन छवि निर्मित करता है और यह प्रतिपादित करता है कि उसके बाहर रहने वाली लछमी सुगंध पूर्ण है। लेखक पुनः अवसर निकालकर लछमी की देह गंध को और भी अर्थपूर्ण तथा गहरे रूप में प्रस्तुत करता है। वह सुगंध की आवृत्ति को निर्दिष्ट करते हुए लिखता है कि, ‘लछमी बालदेव जी की आँखों में आँखें डालकर देखती है। लछमी जब-जब इस तरह देखती है, बालदेव जी न जाने कहाँ खो जाता है! एक मनोहर सुगंध हवा में फैल जाती है। पवित्र सुगंध! बीजक के जैसी सुगंधी निकलती है।… लछमी की बाँह ठीक बालदेव के नाक से सट गयी थी। लछमी के रोम-रोम से पवित्र सुगंधी निकलती है। चंदन की तरह मनोहर शीतल गंध निकल रही है। बालदेव का मन इस सुगंध में हेल-डूब कर रहा है। वह लछमी को छोड़कर चन्ननपट्टी में कैसे रह सकेगा?’ इस तरह रेणु जी की कथा–भाषा केवल लोकजीवन का ही विरहस्यीकरण नहीं करती अपितु वह सुगंध के माध्यम से दो दिलों की अंतरंगता की अद्भुत व्यंजना बन जाती है। इस उपन्यास में लेखक लछमी की सुगंधमयता को रूप-रस और कायिक सुगंध से आगे ले जाकर लछमी के शील की गुणवत्ता के रूप में उपस्थित करता है। लेखक उसके चरित्र को उस समय उत्कर्ष प्रदान करता है जब वह बावनदास के पत्रों वाले बस्ते को आग की धूनी में जलाए जाने से बचा लेती है। वह सही मायने में मंदिर और बीजक से निकलने वाली सुगंध का पर्याय बन जाती है।
फणीश्वरनाथ रेणु लछमी के साथ-साथ अपने भाषाई खेल से फुलिया की शारीरिक सुगंध की भंगिमा भी प्रस्तुत करते हैं। वे रूप-रस के अलावा गंध के संदर्भ को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं। वे फुलिया की देह गंध का चित्रण करते हुए लिखते हैं कि, ‘फुलिया बालों में महकौआ तेल लगाती है। अंगिया के नीचे वाली छोटी चोली में रब्बड़ लगा रहता है शायद।… फुलिया की देह से अब घास की गंध नहीं निकलती है। सौंफ, दालचीनी खाने से मुँह गमकता है।’ चूँकि रेणु का लोक निरीक्षण और संवेदनात्मक उत्कर्ष लछमी एवं डॉक्टर प्रशांत द्वारा सिद्ध होता है अतः वे लछमी की शारीरिक सुगंध की पुनरावृत्ति करते हैं, ‘बालदेव जी कुछ सोचकर बैठ जाते हैं।… लछमी की देह से गंध निकलती है। चुपचाप लछमी की ओर देखते हैं वह। लछमी चुपचाप किवाड़ के सहारे खड़ी आँसू पोंछते हुए सिसकती है, मेरी तकदीर ही खराब है।’ रेणु की सर्जनात्मक भाषा की यही क्रीड़ा मैला आँचल की तमाम मलिनता को प्रेम तत्त्व के सहारे शुभ्र, निर्मल और उज्ज्वल आँचल में रूपांतरित कर देती है। लेखक का यही कथा-विवेक मैला आँचल को अद्वितीय सर्जनात्मक उपलब्धि बना देता है। वे सुगंध को प्रोक्ति और संदर्भ को प्रकृति के अनंत रमणीय सौंदर्य तक ले जाते हैं और मैला आँचल विशिष्ट कलात्मक वैभव का संश्लिष्ट बिंब बन जाता है। वे लिखते हैं कि, ‘कोठी के बाग में गुलमोहर की बड़ी-बड़ी डालियाँ, लाल-लाल फूलों से जलती हुई, हवा के हल्के झोंकों में हिल-डुल रही थीं।… मार्टिन ने बड़े जतन से फूल लगाए थे। योजन-गंधा शाम की हवा में पागलपन बिखेर रही थी। शिरीष के फूलों की पंखुड़ियाँ मंगल आशीष की तरह झड़ रही थी।… गुलमोहर के लाल-लाल फूल बुझ गए और अमलतास की पीली ओढ़नी न जाने कब सरक कर गिर पड़ी। किंतु योजनगंधा अभी भी पागल बना रही है।’ इस तरह लेखक मानव शरीर से लेकर प्रकृति के नाना रूपात्मक छवियों तक सुगंध के संदर्भ को प्रस्तुत करता है। वह उस अंचल विशेष के साथ-साथ नदी-नालों, खेत-खलियानों, ताड़ के विरल वनों, कमलों से सुशोभित ताल-तलैया और पोखर के कलात्मक चित्रण में सुगंध का अनिवार्य रूप से सन्निवेश करता है। फलतः एक विशिष्ट प्रकार का जीवनोत्सव आकार पाता है।
रेणु अपनी कथा-भाषा के निर्माण में सर्वत्र गंधवाही चेतना, रंगों एवं ध्वनियों के अद्भुत समन्वय द्वारा करते हैं। वे मैला आँचल में जीवन के मांगलिक पक्ष एवं उज्ज्वल भविष्य को संकेतित करने के लिए सुगंध की आवृत्ति के माध्यम से नीलोत्पल की उत्पत्ति कथा कहते हैं। वे भुरुकुआ तारा की जगमगाहट की छाया में कमला नदी के गहरे गड्ढे में नीलकमल के उन्मीलन के रूपक द्वारा नीलोत्पल के जन्म का संदर्भ लाते हैं। तदुपरांत मानवीय जीवन संदर्भ की वास्तविक प्रोक्ति द्वारा इस विशिष्ट संदर्भ का वर्णन करते हैं। वे लिखते हैं कि, ‘कुमार नीलोत्पल की आज बरही है। हाँ, ममता ने कमला के पुत्र को नाम दिया है–कुमार नीलोत्पल। डॉक्टर ने आज पहली बार अपने पुत्र को गोद में ले लिया और देखा है।… दुबला-पतला, पीले रंग का रक्त-मांस का पिंड!’ इसके आगे लेखक इसे वृहत्तर मानवीय सत्य की आश्वस्तिपूर्ण भविष्य-प्रतीति बनाते हुए लिखता है कि, ‘व्याधों के अट्टहास से आकाश हिल रहा है। छोटा-सा, नन्हा-सा हिरण हाँफ रहा है। छोटे फेफड़े की तेज धुकधुकी! नीलोत्पल! नहीं-नहीं यह अँधेरा नहीं रहेगा। मानवता के पुजारियों की सम्मिलित वाणी गूँजती है–पवित्र वाणी! उन्हें प्रकाश मिल गया है। तेजोमय! क्षत-विक्षत पृथ्वी के घाव पर शीतल चंदन लेप रहा है। प्रेम और अहिंसा की साधना सफल हो चुकी है। फिर कैसा भय! विधाता की सृष्टि में मानव ही सबसे बढ़कर शक्तिशाली है। उसको पराजित करना असंभव है।’ इस तरह लेखक चंदन की गंध के रूपक द्वारा मैलेपन की दुर्गंध को उज्ज्वल भविष्य की सुगंध में रूपांतरित कर देता है। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि आदिम रसगंध के प्रति रेणु की चेतना उनकी संवेदना के नेत्र हैं। गंध उनके लेखन की मूल प्रेरणा है।
‘मैला आँचल’ में लेखक लोकगीतों के रचनात्मक प्रयोग द्वारा राग-गंध की अवधारणा को विकसित करता है। वह लोकगीतों की गति, लय, प्रवाह और संगीत में नित्य नवीन प्रयोग करता है और लोकगीतों को कलागीतों का गौरव प्रदान करता है। यह प्रयोग बीजक, सदाबृज-सारंगा की लोककथा, भउजइया का गीत, नटवा के नाच में प्रयुक्त गीत, होली का गीत, जोगीड़ा, फगुआ, भडुआ, संस्थालियों के गीत, जाट-जाटिन का गीत, बारहमासा, विद्यापति की काव्य-माधुरी, कीर्तन, भक्तिया, विवाह-गीत और गाँधी के निधन पर गीता के श्लोक के प्रयोग द्वारा एक ऐसा ध्वनियों का सूक्ष्म संश्लेषण प्रस्तुत किया गया है कि वह मैला आँचल की कालजयता का आधार-स्तंभ बन जाता है। अपने इसी वैशिष्ट्य के कारण स्वयं अंचल नायक की भूमिका में आ जाता है। यहाँ राग-गंध के सारे संदर्भों का निर्वचन संभव नहीं है। मैं केवल डॉक्टर प्रशांत और कमली के चरम मिलन को ध्वनियों के कलात्मक नियोजन द्वारा किस तरह प्रस्तुत किया गया है इसे अवश्य उद्धृत करना चाहूँगा। लेखक बादल की गर्जन-ध्वनि गुड़गुड़ुम-गुड़गुड़ुम के उद्दीप्त परिवेश से संदर्भ का सृजन करते हुए लिखता है कि, ‘कमली को डॉक्टर ने अपनी बाँहों में जकड़ लिया है! …तीन बजे दिन में ही संथाली नाच देखने अस्पताल आई थी कमली! नाच खत्म हो गया, शाम हो गई , उधर नौटंकी कब शुरू हुई, कब खत्म हुई, शायद दोनों में से कोई नहीं बता सकेगा! …जब बादल गरजे, बिजलियाँ चमकीं और हरहराकर वर्षा होने लगी तो कमली को डॉक्टर ने अपनी बाँहों में जकड़ लिया।
कमली ने बाँहें छुड़ाने की एक हल्की चेष्टा की।…/बिजली चमकी।/गुड़गुड़ुम! गुड़गुड़ुम!/रि-रि-ता-धिन-ता!/डिग्गा-डा-डिग्गा! संथाली नाच के माँदर और डिग्गा की ताल पर दोनों की धुकधुकी चल रही है। …बाँक, हँसुली, बाजू, कँगना, अनंत, चूर, झँझनीय अर्थात झुनुक-झुनुक बजने वाली बेड़ियाँ जिसे ‘झँझनी कड़ा’ कहते हैं। और चूर तो देह के सिहरन पर भी खनकते हैं–टुन! टुन!/टुन! टुन!/छम-छम्!/गुड़गुड़ुम!/छम्म, जम्! छम्म् छम्!/ टुन-टुन!/डॉक्टर! डाकटर! ओ! प्रशांत महासागर!/राजकमल…!’
इस तरह लेखक राग गंध का सफल अनुप्रयोग करते हुए ध्वनियों के सहारे युगनद्ध मिथुन-व्यापार का संश्लिष्ट चित्र प्रस्तुत कर देता है। यहाँ लेखक की सर्जनात्मक भाषा ध्वन्यात्मक सौंदर्य द्वारा शारीरिक संबंध की गत्यात्मकता, उसकी हर धड़कन, सिहरन, आवेग-त्वरा, लय और सिद्धि को एक गहरी अर्थवत्ता के साथ रूपायित कर दिया है। यह उनके भाषिक कौशल और राग गंध की सारगर्भित बुनावट का अपूर्व दृष्टांत है। यहाँ मनुष्य के एकांतिक गतिशील व्यापार को वाद्य-वृंद की ध्वनियों से पूर्ण आरोह-अवरोह की सटीकता के साथ जिस कौशल के साथ भाषिक विधान की सृष्टि की गई है वह रेणु को श्रेष्ठ कलाकारों की पाँत में बिठाने के लिए पर्याप्त है। रेणु की कला-साधना गीतों में गंध का संधान कर लेती है। इस तरह मैला आँचल रेणु की प्रतिभा का चरम निदर्शन है जो उनके मन के संस्कारों की कालजयी अभिव्यक्ति है। इसके साथ ही, रेणु ‘मैला आँचल’ के अगले सोपान के रूप में ‘परती परिकथा’ के रचनात्मक विन्यास को नया तेवर देते हैं। यहाँ ‘मैला आँचल’ में आए लोकगीत, कथा-संदर्भ, त्यौहार, क्रीड़ा, पूजा और विविध पारस्परिक मनोरंजन अपनी लोकपरंपराओं की मिठास से गुदगुदाते कम और सोचने-विचारने के लिए विवश अधिक करते हैं। लेखक इस बात को लेकर उन्मथित है कि स्वतंत्र भारत का समूचा आर्थिक कार्यक्रम गाँवों के शहरीकरण और यंत्रीकरण को लेकर चलाया जा रहा है, जिससे अन्न-वस्त्र की समस्या भले ही हल हो जाए, परंतु गाँव की सांस्कृतिक चेतना, उसका जीवन-राग, जो भारतीय चित्त की पहचान है इस टकराहट से क्षत-विक्षत है। युगांतर के इस अभिशाप की प्रतिध्वनि रेणु में सबसे तीव्र और मार्मिक है। इस उपन्यास में कृषि के नवीनतम औजारों के उपयोग की सापेक्षता में यह संकेतित किया गया है कि जब तक ग्राम्य-जीवन में अंधविश्वासों, सड़ी-गली रूढ़ियों, सामाजिक प्रभेद, वैषम्य, अज्ञानता, निरक्षरता, उदासीनता और वैमनस्य की परती तथा गंध रहित धरती मौजूद है तब तक गाँव का वास्तविक विकास कैसे हो सकता है? इस तरह इस उपन्यास में धूसर, वीरान, अंतहीन प्रांतर के दुखी-विपन्न और सांस्कृतिक संकट से गुजर रहे जन-जीवन का परती धरती के बंध्यापन के रूपक द्वारा चित्रित किया गया है।
रेणु उपन्यासों के अतिरिक्त कहानियों में भी आदिम रसगंधों के चतुर-चितेरे बनकर आते हैं। इनकी कहानियाँ भी रूप, रंग, रस, गंध, ध्वनि और स्वाद के रसायन से निर्मित हैं। इनकी प्रख्यात कहानी ‘तीसरी कसम’ में बीड़ी की गंध का संदर्भ आता है। दूसरी ओर ‘लाल पान की बेगम’ में जंगी की पतोहू की शारीरिक सुगंध का संदर्भ आता है जिसका गौना तीन माह पूर्व हुआ है। लेखक के अनुसार गौने की रंगीन साड़ी से कड़वे तेल और लठवा सिंदूर की गंध आ रही है। इस गंध के संदर्भ को वे खेतों में धान के झरते फूलों की गंध तक ले जाते हैं। वह ऐसा करके हिंदी कथा-साहित्य के सौंदर्य बोध को विलक्षण समृद्धि प्रदान करते हैं। इन कहानियों के माध्यम से वे न केवल जाने-पहचाने परिवेश से परिचय कराते हैं अपितु वास्तविक जीवन के पात्रों द्वारा सगेपन का अहसास भी कराते हैं। वे चाहते हैं कि गिरते-पड़ते संघर्षरत ग्रामीण परिवेश में ‘पहलवान की ढोलक’ की गमक फिर से गुंजायमान हो। वे नेपथ्य में जा रही लोकमंच के कलाकारों को पुनर्नवता प्रदान करते हैं और उसके माध्यम से सांस्कृतिक सुगंध की भीनी-भीनी महक से पाठक को सम्मोहित भी करते हैं। इनकी कहानियाँ कथा-चित्रों की तरह हैं जो संगीत और ध्वनियों से लैस होकर पाठक के मन पर बहुत दूर तक प्रभाव छोड़ती हैं। इनकी आदिम रात की महक कहानी मानवीय करुणा का एक अनुपम उदाहरण है। मनुष्य के जीवन में आस-पास के परिवेश और जानवरों तक से जो लगाव विकसित होता है उसे बेहद सूक्ष्मता से इसमें उकेरा गया है। रेणु यह प्रतिपादित करते हैं कि प्रेम भावना मनुष्य की आंतरिक गुणवत्ता है जो व्यक्ति के जीवन के हर मोड़ पर चेतना के रूप में मौजूद रहती है। इसे वे आदिम रात की सुगंध का रूपक देते हैं। इसमें वे एक अनाथ लड़के की कथा कहते हैं जो रेलवे अधिकारियों की सेवा में बड़ा हुआ है। यह लड़का जिसे किसी का प्यार कभी नसीब नहीं हुआ वह सब ओर प्यार लुटाता है और रेलवे स्थानक ही उसका जीवन बन जाता है। वह बचपन से ही एक रेलवे स्थानक से दूसरे स्थानक तक अधिकारियों के साथ स्थानांतरित होता रहा है। लेकिन उसके जीवन में अब ऐसा समय आ गया है जब उसे एक लड़की से प्यार हो गया है और अधिकारियों के साथ अपनी यात्रा बंद करने का निर्णय करना है। वह हर रात को एक सुगंध की गोद में सो जाता है जिसे वह आदिम रात की महक कहता है। वह उस जगह और वहाँ की गंध से गहराइयों तक अनुप्राणित है। अंततः जब वह रेलवे अधिकारी के साथ ट्रेन में बैठकर जाने के लिए उद्यत होता है तो उसे वह विशिष्ट गंध रोकती है और वह ट्रेन से उतर जाता है। इस तरह रेणु की गंध चेतना व्यक्ति के स्वयं के सुख और आनंद से भी ऊपर है। यही कारण है कि डॉ. नामवर सिंह ने रेणु की कहानियों के संदर्भ में कहा था कि, ‘नि:संदेह इन (विभिन्न अंचलों या जनपदों के लोक जीवन को लेकर लिखी गई) में ताजगी है और प्रेमचंद की गाँव पर लिखी कहानियों से एक हद तक नवीनता भी।’ यही कारण है कि अज्ञेय ने इन्हें ‘धरती का धनी कहा है। कमलेश्वर ने रेणु की कहानियों पर टिप्पणी करते हुए ठीक ही लिखा है कि, ‘बीसवीं सदी का यह संजय रूप, गंध, नाद, आकार और बिंबों के माध्यम से ‘महाभारत’ की सारी वास्तविकता, सत्य, घृणा, हिंसा, प्रमाद, मानवीयता, आक्रोश और दुर्घटनाएँ बयान करता जा रहा है। उसके ऊँचे माथे पर महर्षि वेदव्यास का आशीष अंकित है।’ इस तरह रेणु की गंध चेतना उनके स्थानीय चित्रों को भी राष्ट्रव्यापी बना देती है।
समासतः कहा जा सकता है कि फणीश्वरनाथ रेणु का लेखन आदिम रसगंधों का समुच्चय है जो नारी की शारीरिक सुगंध से लेकर मिट्टी की सोंधी गंध और प्रकृति के बहुरंगी रूपों तक परिव्याप्त है। इनकी गंध चेतना अपनी सांगीतिक संरचना और कथ्य-शिल्प की जीवंतता के कारण जिस दृश्य और गंध बिंब का सृजन करती है वह अपनी ताजगी में अतिशय मोहक है। इन्होंने ग्रामीण जीवन और मानवीय संबंधों को मूल्यों में गूँथकर विभिन्न मनोवृत्तियों की जिस कुशलता के साथ व्यंजना की है वह संपूर्ण हिंदी कथा साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि है। लेखक लोकभाषा की ताजगी और बोलियों की छौंक में शब्दों-ध्वनियों के चयन और संयोजन में जिन भावनात्मक एवं जीवन-स्थितियों का चित्रण किया है वह अद्वितीय है। इनकी संवेदनशील और गंधवाही चेतना ग्रामीण पात्रों के स्वाभिमान को झकझोरते हुए उन्हें अनेक स्तर पर जीने के लिए जिस तरह प्रेरित करती है वह अपनी कल्पनाशील प्रस्तुति में संवेगात्मक प्रभाव पैदा करती है। रेणु आदिम रसगंधों के चित्रण के द्वारा जिस गंभीर अर्थ की सर्जना करते हैं वह अपने शिल्प विन्यास में बड़ी अर्थ-लय की सृष्टि करते हैं। उनकी यही गंध वही चेतना जाति-पाँति के रोग से ग्रस्त गाँव वालों में आत्मीयता, अपनत्व और ग्रहणशीलता का गुण विकसित करती है। अतः रेणु शताब्दी वर्ष में यह जरूरी हो जाता है कि हम उनके ऐसे अनछुए-अनदेखे आयामों का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करें जो उनके लेखन की केंद्रीय शक्ति है। इस दृष्टि से प्रस्तुत आलेख आदिम रसगंधों के गायक के रूप में उनके विश्लेषण द्वारा एक नया पाठ तैयार करने का अभिनव प्रयास है। रेणु का यह पक्ष उन्हें कथा गायक से कालजयी कथाकार बना देता है। इस दृष्टि से इनका अवदान अविस्मरणीय है।
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