बेनीपुरी और उनकी ‘माटी की मूरतें’
- 1 June, 2022
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बेनीपुरी और उनकी ‘माटी की मूरतें’
अँग्रेजों के कुशासन के विरुद्ध सशक्त आवाज उठाने में हिंदी-प्रदेश सदा आगे रहा इसलिए भले ही स्वाधीनता संग्राम व उसके पश्चात भी वह आर्थिक रूप से पिछड़ा रहा, वहाँ के लोग कष्टपूर्ण जीवन जीने के लिए विवश हुए किंतु इतना होने के बावजूद सामाजिक और राजनीतिक चेतना के मामले में यह भारत का सिरमौर रहा है। देश में नवजागरण से बदलाव की जो लहर उठी और आगे चलकर जिसकी स्वाधीनता आंदोलन के साथ नाभिनाल का संबंध बना, उसका साक्षी भारतीय इतिहास का पन्ना-पन्ना है। यह वह समय था, जब ग्रामीण जन-जीवन की विविध छवियों को साहित्य में साकार रूप देने की एक विधिवत परंपरा चली। जिसका आधुनिक हिंदी साहित्य पर गहरा प्रभाव है। इस बदलाव को हिंदी भाषा के रचनाकारों ने हाथों-हाथ लिया। उन्नीसवीं सदी में भारतेन्दु इसका सूत्रपात कर ही चुके थे और प्रेमचंद जिस पर हिंदी साहित्य की नींव रख ही रहे थे। आगे चलकर साहित्य की जिन कुछ कृतियों में ग्रामीण जीवन अपने पूरे परिवेश और समग्रता में अभिव्यक्त हुआ उनमें श्री रामवृक्ष बेनीपुरी की ‘माटी की मूरतें’ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। ‘माटी की मूरतें’ जैसी जीवंत कृति की रचना कर उन्होंने अपने साहित्यिक-सांस्कृतिक चिंतन को एक साकार रूप देने का सफल प्रयास किया है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से बेनीपुरी जी का गहरा नाता रहा। वे स्वयं अग्रिम मोर्चों पर विविध आंदोलनों में भाग लेते रहे। इसलिए वे उन साहित्यिकों में न थे, जो सदा ही कलम लिए बैठे रहते हैं। स्वातंत्र्य-आंदोलन में वे एक प्रचंड योद्धा के रूप में सामने आए। वे बिहार के नेता थे पर देश के स्वतंत्र होने पर वे मिनिस्टरी से न चिपक गए–उससे अलग रहकर ‘समाजवाद’ का उन्होंने नेतृत्व किया।
बेनीपुरी जी साहित्यकर्मी के साथ ही एक सजग पत्रकार और विविध आंदोलनों में भाग लेने वाले सक्रिय कार्यकर्ता थे, इसलिए वे अपने साहित्यिक पात्रों के साथ पूर्णतया तल्लीन हो सके। उनका साहित्य अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संरचना में हस्तक्षेप तो करता ही है, वह पाठकों की रुचियों का परिष्कार भी करता है। उनकी दृष्टि में नए समाज के लिए संस्कृति पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। क्योंकि कोई भी सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़कर ही स्थायित्व ग्रहण कर सकता है। इसलिए अपने जड़ों की तलाश जरूरी है। बेनीपुरी की यह तलाश अपने आस-पास दृष्टिपात करने पर पूर्ण हो जाती है और ‘माटी की मूरतें’ उनके सामने साक्षात प्रकट हो जाती हैं। सन् 42 के आंदोलन के दौरान उनके स्मृति पटल पर घनीभूत वह पूर्व छवियाँ अपना आकार ग्रहण करने लगती हैं और इनके माध्यम से बेनीपुरी सामाजिक, सांस्कृतिक गुत्थियों को सुलझाने में मशगूल हो जाते हैं।
‘माटी की मूरत’ बेनीपुरी के शब्दचित्रों का दूसरा संग्रह है। इसका पहली बार प्रकाशन 1946 ई. में हुआ। ‘रजिया’, ‘बलदेव सिंह’, ‘सरजू भैया’, ‘मँगरू’, ‘रूपा की आजी’, ‘देव’, ‘बाल गोबिन भगत’, ‘भौजी’, ‘परमेसर’, ‘बैजू मामा’, ‘सुभान खाँ’ और ‘बुधिया’ जैसे ठेठ गँवई चरित्रों को जीवंत कर उन्होंने ग्रामीण जीवन की तहों में प्रवेश करने का प्रयास किया है। कारावास के नीरस और कष्टकारी समय में ऐसी जीवंत रचना कर सकना बेनीपुरी जैसे संयमी मनुष्य के लिए ही सहज हो सकता था। वे लिखते हैं–‘हजारीबाग सेंट्रल जेल के एकांत जीवन में अचानक मेरे गाँव और मेरे ननिहाल के कुछ ऐसे लोगों की मूरतें मेरी आँखों के सामने आकर नाचने और मेरी कलम से चित्रण की याचना करने लगीं! उनकी याचना में कुछ ऐसा जोर था कि अंततः यह ‘माटी की मूरतें’ तैयार होकर रहीं।’
इन अनाम, अनजाने से पात्रों को सामने रखकर बेनीपुरी ग्रामीण जीवन की यथार्थ तस्वीर प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। एक आदर्श भी सदा उनके सामने रहा जहाँ मनुष्य में मनुष्यता का भाव कैसे बचा रहे, कैसे बढ़े। इसलिए अपने पात्रों के उदात्त मूल्यों को उभारते हुए वे पाठकों में इस भाव की स्थापना करना चाहते हैं। ‘बलदेव सिंह’ जैसे पात्रों के जीवन का चित्रण लगता है वे इसीलिए करना चाह रहे थे कि कैसे कोई बिना स्वार्थ के भी किसी अबला बेचारी के लिए समाज में अशांति और क्षोभ उत्पन्न करने वाले तत्वों से लड़ सकता है। जिसके कारण उसे अपनी जान से हाथ भी धोना पड़ गया।
जो लोग यह मानते हैं कि मनुष्य कभी पीछे लौटकर हू-ब-हू उन्हीं नीतियों, विचारों पर चलेगा जो पूर्व में थे, तो वे गलती पर हैं। इतिहास चाहे और किसी क्षेत्र में अपने को दुहरा लेता हो, विचारों के क्षेत्र में जो गया, सो गया। उसके लिए अफसोस करना बेकार है। बेनीपुरी इस विचार से सहमत हैं, इसलिए वे नए समाज के निर्माण पर बल देते हैं। बेनीपुरी समाज में हो रहे परिवर्तन को बारीक नजरिये से देख रहे थे। उसका ढाँचा कैसे चरमरा रहा था, वह उनकी ‘रजिया’ की व्यथा में देखा जा सकता है कि कैसे उसका व्यवसाय उजड़ रहा है–‘अब तो नए किस्म के लोग हो गए हैं न? अब लाह की चुड़ियाँ कहाँ किसी को भाती हैं। नए लोग, नई चुड़ियाँ।’ सांप्रदायिक सद्भाव कैसे बिगड़ रहा है, रजिया की जबानी–‘किस तरह दुनिया बदल रही है। अब तो ऐसे भी गाँव हैं, जहाँ के हिंदू मुसलमानों के हाथ से सौदे भी नहीं खरीदते। अब हिंदू चुड़िहारिनें हैं, हिंदू दरजी हैं।’
बेनीपुरी के लिए यह समाज का यथार्थ तो है, पर समाज के लिए यह नकारात्मक परिवर्तन है। इसलिए वे अपने साहित्य के विविध पात्रों के माध्यम से समाज में हो रहे इस नकारात्मक परिवर्तन का प्रतिरोध पूरी शक्ति से करते हैं। इसीलिए गो-हत्या जैसे संवेदनशील प्रश्न पर वे चुप नहीं हैं। ‘सुभान खाँ’ को प्रस्तुत करते हैं और उन कुविचारों पर कसकर प्रहार करते हैं, जो मतवादी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर केवल अपनी बात कहना जानते हैं पर दूसरे की बात सुनना नहीं चाहते, जो अपने हठ से पूरे समाज को अस्त-व्यस्त तो कर सकते हैं पर सृजन जिनके लिए कोई मायने नहीं रखता।
ग्रामीण परिवेश को आधार बनाकर बेनीपुरी ने जो रचनात्मक स्वरूप ग्रहण किया वह कहीं से बनावटी व सायास नहीं दिखता तो इसलिए कि वे कहीं से भी केवल कोरे चिंतक एवं शुष्क जीव न थे। यही कारण है कि उन्होंने ‘साहित्य को जीवन से बड़ा कभी नहीं माना। जीवन उनके लिए साहित्य का उत्स था, इसलिए वे पहले जीवन पर ही दृष्टि डालते थे और उसी का सम्मान करते थे।’ यही कारण था कि ‘माटी की मूरतें’ में समाज के साधारण तबकों के जीवन की समस्याओं की ओर उनकी दृष्टि गई। सहानुभूति उनकी कैसी थी यह पात्र में लेखक की मूर्त उपस्थिति से ही ज्ञात हो जाता है। बेनीपुरी जैसे लेखक की विशेषता यह है कि उन्होंने गाँवों में अत्यंत गरीब और बेजमीन किसानों की समस्याओं पर भी ध्यान दिया था। जिनके बीच रहकर उन्होंने काम किया था।
ब्रिटिश कुशासन का एक परिणाम यह निकला कि गाँवों में सूदखोरी एक व्यवसाय का रूप लेती गई। प्रेमचन्द का गोदान उपन्यास इसी को केंद्र में रखकर लिखा गया था। ‘माटी की मूरतें’ का सरजू भैया भी ऐसा ही पात्र है, जो महाजन के विश्वास में आकर सफेद कागज पर अँगूठे का निशान लगा देता है और अपना सब कुछ गँवा बैठता है। उसकी निर्धनता के मूल की ओर बेनीपुरी दृष्टिपात करते हैं और केवल सहानुभूति का कोरा प्रदर्शन ही नहीं करते बल्कि कारणों की वास्तविक पड़ताल भी करते हैं। बेटों और बेटियों में समाज कितना फर्क करता है, इसका भी संकेत सरजू भैया के दु:खमय जीवन के माध्यम से सामने आ जाता है।
मेहनतकश मजदूरों की दशा का चित्र ‘मंगर’ में देखा जा सकता है। मंगर जैसे हलवाहे जीवन भर अपने मालिक का खेत जोतते रहते हैं, पर बदले में पाते क्या हैं? दो जून की रोटी। वह भी जब तक उनके शरीर में बल है, तभी तक। उनके लिए बुढ़ापे में कोई आर्थिक, सामाजिक सुरक्षा नहीं है। उचित चिकित्सा न होने से मंगरू अपनी आँख खो बैठता है। पक्षाघात जैसी विपत्ति का सामना करता है। लेकिन सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा के नाम पर उसके पास कुछ भी नहीं रहा। यहाँ बेनीपुरी का आक्रोश देखने लायक है–‘अब एक ही उपाय रह गया है कि, उसे पेंशन मिले। लेकिन हलवाहों–यथार्थ अन्नदाताओं–के लिए पेंशन की हमारे देश में कहाँ व्यवस्था है।’ देखा जाए तो यह बेनीपुरी के समय की स्थिति ही नहीं है, आज की स्थिति भी है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि जनतंत्र को कुछ समर्थ लोगों के हाथ से मुक्त कराया जाय, तभी वह आम जनता के हित में काम कर सकेगा। ‘बेनीपुरी ने पूँजीवादी जनतंत्र का खोखलापन उजागर किया था। उनका उद्देश्य जनतंत्र को नष्ट करना नहीं था, परंतु उसका रूप बदलना था जिससे कि वह जनता के हित में काम कर सके।’
सामाजिक अंधविश्वासों में मानवीय संवेदनशीलता को कितनी क्षति पहुँची है, यह ‘रूपा की आजी’ नामक शब्दचित्र स्वतः बयाँ करता है। कहाँ तो उस बेसहारा को समाज सहारा देता, पर सहारा देना तो दूर, उसे चैन से जीने भी नहीं दिया। कोई भी उसे अपने यहाँ शरण देने को तैयार नहीं, उसका जीवन अभावों की करुण कथा ही कही जा सकती है। एक स्थान से दूसरे स्थान तक भागते रहना जैसे उसकी नियति बन गई हो। वह आज भी ‘वह भागी जा रही है। स्त्रियाँ, बच्चे, मर्द उसके पीछे लगे हैं। थोड़ी-थोड़ी देर पर वह रुकती है, दाँत दिखाती है, हाथ जोड़ती है : कभी-कभी गुस्सा होकर ढेले उठाती है। वह सिर्फ ढेले उठाती है, लोग उस पर ढेले फेंकते हैं।’ एक के पीछे अनेक लोग जिनमें दया जैसी कोई चीज नहीं, विचार को अवकाश नहीं। आखिर वह वृद्धा कितना भागती। उसके सामने कुआँ आ गया किंतु उसे ध्यान कहाँ, भय और भ्रम के वशीभूत वह कुएँ में जा गिरी, तब जाकर निर्दयी लोग रुके। बेनीपुरी की कलम से निकलता है–‘भीड़ रुकती है। कोई कहता है–मरने दो। कोई कहता है–निकालो। जब तक निर्दयता पर करुणा की विजय हो, तब तक वह जल-समाधि ले चुकती है।’ यह है संवेदनहीनता की वह पराकाष्ठा जिसमें एक असहाय की मृत्यु भी समाज की घनीभूत जड़ता को तोड़ नहीं पाती। बेनीपुरी जैसे लेखक के लिए ग्रामीण परिवेश की यह घटना मात्र कोई संयोग नहीं है। समाज में चली आ रही वह सोच इसके लिए उत्तरदाई है, जहाँ डायन घोषित कर किसी अबला बेचारी को मार डालना सामान्य घटना मान ली जाती है। इसलिए बेनीपुरी ऐसी सोच का प्रतिरोध करते हैं।
यही हाल ‘बैजू मामा’ जैसे पात्रों का भी है, जिनका कि समाज में कोई उपयोग नहीं, उनके गुणों का आदर नहीं, उन्हें कोई काम नहीं और विवश होकर पेट भरने के लिए चोरी करते हैं। ताकि उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया जाय और दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाय। खेती करना चाहते हैं पर बैल नहीं है, और खेती करने का लोभ संवरण न कर पाने का फल है कि जिसे किसान बनना चाहिए, वह चोर बन गया। ‘होरी’ की तरह वह भी गाय पालने की इच्छा रखता है, पर हर बार असफलता ही हाथ लगती है। क्यों? क्योंकि औद्योगिकरण के नाम पर ऐसी व्यवस्था ने विकल्पहीन दुनिया का निर्माण किया है। जहाँ सामान्य मनुष्य स्वावलंबी न होकर परावलंबी होता जा रहा है और ‘बैजू मामा’ जैसी गति कइयों की होती जा रही है।
हमारे देश में भले अतीत में गार्गी, अपाला, घोषा और विश्ववारा जैसी विदुषियाँ हुई हों, भले ही स्त्री का सम्मान, अभिमान बना रहा हो, पर समय-समय पर जब परतंत्रता की स्थिति आई तो उसने स्त्री जाति का ही अधिक नुकसान किया। वर्ग के आधर पर उच्च वर्ग की स्त्रियों को भले ही थोड़ा आराम मिल जाता हो, पर निम्नवर्गीय स्त्रियों की दशा दयनीय ही बनी रही। रजिया, बुधिया इनका ही प्रतिनिधित्व करती हैं। बुधिया के द्वारा लेखक बहुत कुछ कह जाता है। वह बुधिया जो कभी अपने अनिंद्य सौंदर्य से बहुतों को आकर्षित करने का सामर्थ्य रखती है, वह काम के बोझ, कुपोषण आदि का शिकार होकर रह जाती है। वह बुधिया जिस राह में निकल जाती, जिंदगी तरंगे लेतीं, वही गर्भवती होकर भी खेत में काम करने के लिए विवश है। ग्रामीण ही नहीं शहरी क्षेत्रों में भी आज भी अनेक रजिया और बुधिया मिल जाएँगी। जिनके लिए जीवन का मतलब केवल अनवरत काम करना है। आज जब भारत में यह स्थिति निर्मित होती जा रही है कि कुछ लोगों के पास संसाधनों की कमी नहीं। जो यह सोचते रहते हैं कि धन को खर्च कैसे किया जाए, वहीं करोड़ों ऐसी बुधिया और रजिया हैं, जिन्हें जीवन जीने का, सुख से जीने का अवसर ही नहीं मिलता।
बेनीपुरी सजग, चिंतनशील और उत्तरदायित्व से परिपूर्ण अपने रचनाकर्म द्वारा ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में हैं, इसीलिए राजनीति में भाग लेते समय भी वे विचलित न हुए। अतः कहा जा सकता है कि उनके राजनीतिक जीवन और साहित्य-सृजन में अंतर्विरोध न थे। जो स्वर उनके जीवन में मुखर हुआ, वही उनके साहित्य में भी। उनका साहित्य भी उनके जीवन के अनुरूप ही समाजवादी साहित्य है।
यह बेनीपुरी द्वारा ही संभव था कि अपने जीवन से जुड़े और अन्यत्र बिखरे अनाम पात्रों को वर्ग विशेष का प्रतिनिधि बनाकर प्रस्तुत कर सके। यदि आज की तथाकथित जागरुक और अपने को प्रबुद्ध मानने वाली पीढ़ी सचेत नहीं होगी तो बेनीपुरी जैसे लेखक सहज ही विस्मृत हो जाएँगे और पुनः नहीं मिल सकेगा वह चिंतन जो समाज से विषमता, शोषण और अन्याय को हटाने के लिए सदा कटिबद्ध रहा और जिसने आधुनिक हिंदी साहित्य में अपने रचनाकर्म से अमिट छाप छोड़ी।