समकालीन गीत की पृष्ठभूमि और मेरा गीतकर्म

समकालीन गीत की पृष्ठभूमि और मेरा गीतकर्म

समें संदेह की गुंजाइश नहीं है कि गीत साहित्य का अत्यंत ही प्राचीन काव्य रूप है। भारतीय काव्य-शास्त्र के अनुसार गीत का प्रथम बार उल्लेख संसार के सर्वाधिक प्राचीन या आदिग्रंथ ऋग्वेद की इस ऋचा ‘गीर्भिः वरुण सीमहि’ के रूप में मिलता है। तब गीत, गिर, गिरा, गान, गातु आदि गीत के समानार्थक शब्द थे। ऋग्वेद की इस ऋचा में यह संकेत स्पष्ट रूप से विद्यमान है कि गीत ऋग्वेद के उदय के पूर्व से ही अस्तित्वमान था और उस काल के संपूर्ण जीवनानुभव की अभिव्यक्ति का सबसे उत्कृष्ट, कलात्मक और सर्वाधिक प्रभावशाली अभिव्यक्ति का माध्यम माना जाता था। तभी ऋग्वेद के ऋषियों ने अपने स्तवन में वरुणदेव से प्रार्थना करते हुए वरुणदेव को गीतों में ही सीमित करने की प्रार्थना की है। इसके बावजूद गीत साहित्य-चर्चा से लगभग गायब हो गया। यह कैसे हुआ और क्यों हुआ, यह अनुसंधान का विषय है। यह विडंबना ही है कि आज तक हिंदी के आलोचक और शोधकर्त्ता इस विषय पर चुप्पी साधे हुए हैं। इस दिशा में कोई ठोस पहलकदमी आज तक नहीं की गई, फलतः गीत की चर्चा साहित्य-चिंतन में न के बराबर हुआ।

यह दीगर है कि भारतीय काव्य-शास्त्र के मूल्यांकन के मानदंड प्रबंध काव्यों और नाटकों के अनुसार तय किए गए हैं और प्रबंध काव्य सामंती जीवन-मूल्य की अभिव्यक्ति के संवाहक के रूप में कार्य करते रहे हैं। फलस्वरूप गीत जैसी प्राचीनतम और अत्यंत ही समृद्ध एवं प्रभावशाली स्फुट काव्य की घोर उपेक्षा ही नहीं की गई, बल्कि उसे अलग विधा मानकर कभी उसकी चर्चा नहीं की गई और कविता से अलग काव्य-विधा कभी माना ही नहीं गया। इस लिहाज से उसकी घोर उपेक्षा की गई। लोकगीत की भाँति ही गीत को भी साहित्य-धारा से बहिष्कृत ही रखा गया या उसे अभिव्यक्ति का एक शिल्प और प्रबंध काव्यों की अंगीभूत काव्य भर माना गया।

पश्चिमी आलोचना-पद्धति के अंधानुकरण के शिकार भारतीय काव्य-शास्त्र के मूल्यांकन के प्रतिमान भी हुए। भारतीय आलोचकों ने न तो अपनी सांस्कृतिक परंपरा पर विशेष ध्यान दिया, न उसका उत्खनन किया और न ही अपनी स्वतंत्र आलोचना-दृष्टि और इतिहास-दृष्टि ही विकसित करने की चेष्टा की। बल्कि पश्चिमी जीवन-मूल्य की अभिव्यक्ति के अनुकूल निर्मित साहित्यिक मूल्य को बेहिचक और बगैर अपनी सांस्कृतिक परंपरा के आलोक में परिवर्तित किए हुबहू अपना लिया गया। गीत के प्रसंग में हिंदी आलोचना की स्थिति अत्यंत ही दरिद्र है, तभी वह गीत को कभी गीत कहती है, कभी गीति और कभी प्रगीत; जबकि गीति और प्रगीत गीत के पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। सबके अलग-अलग अर्थ हैं और उनमें एकरूपता भी नहीं है। हमारे मार्क्सवादी आलोचक गीत की शक्ति और सामर्थ्य के प्रति संवेदनशील होते हुए, उसकी शक्ति और सामर्थ्य पर भरोसा एवं उसे जन-सामान्य से संवाद और संपर्क का सर्वोत्कृष्ट माध्यम मानने के बाद भी व्यावहारिक रूप से गीत की उपेक्षा करने के लिए जिम्मेदार माने जाएँगे। उन्होंने गीत और कविता को अलग-अलग काव्य मानने का खतरा नहीं उठाने का साहस करने की तुलना में बगल से कतराकर निकल जाने में ही अपनी भलाई समझी। नई इतिहास-दृष्टि और वैज्ञानिक समझ विकसित करने का कोई ठोस प्रयास भी नहीं किया। इतना ही नहीं, प्रबंध काव्यों के अनुसार तय किए गए साहित्य की मूल्यांकन पद्धति के स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए गीत को कविता के बनिस्पत दोयम दर्जे का काव्य ही मानकर एक हद तक गंभीर विचार-विमर्श से दरकिनार ही रखा।

हालाँकि अँग्रेजी कविता के आलोचकों क्रिस्टोफर कॉडवेल और जॉर्ज थॉमसन आदिम कविता के उदय के उत्स की खोजबीन करते हुए इस निष्कर्ष तक पहुँचने में सफल हो गए कि कविता का उदय समूह गीतों के रूप में आदिम वर्गविहीन समाज में सामूहिक श्रम-प्रक्रिया के दौरान हुई है। उस समय मानव-सभ्यता अपने विकास के नितांत आरंभिक दौर में था और तब तक न तो मानव-समाज और परिवार का उदय ही हुआ था, न सभ्यता और संस्कृति के विकसित रूप का प्रादुर्भाव ही। मनुष्य अपनी जीविका के साधन प्रकृति से संघर्ष की बदौलत प्राप्त करता था। अभिप्राय है कि अपने भरण-पोषण की सामग्री जुटाने के निमित्त सामूहिक श्रम पर ही निर्भर था। आदिम मानव हर प्रकार के जरूरी कार्य आपस में मिल-जुलकर सामूहिक रूप से संपन्न किया करते थे। मानव श्रम की प्रकृति सामूहिक थी, जिससे सामूहिक संवेग की ही उत्पत्ति संभव थी। फलतः सामूहिक श्रम प्रक्रिया के दौरान आदिम मनुष्यों के हास-रुदन, हर्ष-विषाद, खुशी-उल्लास या जीत-हार की खुशी और वेदना की अभिव्यक्ति सामूहिक रूप से होती थी। जाहिर है कि इन समूह गीतों का उदय आदिम मनुष्यों के श्रम-परिहार और श्रम-शक्ति को संघटित करने के उद्देश्य से हुआ था। ऐसी स्थिति में गीत का उदय सभ्यता के साथ-साथ मानना ही समीचीन होगा। गीत की इसी प्रकृति को ध्यान में रखकर थियोडोर अडोनों ने गीत को मानव-सभ्यता के विकास की धूप घड़ी कहा है जिसके द्वारा संपूर्ण मानव-सभ्यता के विकास की नब्ज टटोली जा सकती है।

आश्चर्यजनक बात यह है कि पाठ्यक्रमों पर परजीवी आलोचकों के कब्जे और उनके अप्रत्यक्ष षड्यंत्र के कारण गद्य कविता को ही हिंदी कविता कहने और अन्य छांदस कविताओं को साहित्य चर्चा से दरकिनार करने की गंभीर साजिश की गई, जो आज भी बदस्तूर जारी है। इस आतंक तथा अपने आंतरिक हीनताबोध का शिकार होकर कई गीतकारों को अपनी गीत-रचनाओं को गीत कहने में भी संकोच होने लगा। ऐसे क्लीव लोग प्रायः वे लोग हैं जो मूलतः गद्य कविता के ही कवि और पैरोकार रहे हैं तथा अपनी भावनात्मक खुजली मिटाने के लिए यदा-कदा गीत लिखने की जहमत शौकिया उठा लेते हैं और ऐसे लोग वर्तमान युग में भी बहुतायत की संख्या में मौजूद हैं, जिनके मन में अपनी गीतात्मक रचनाओं को भी कविता मनवाने की जिद है। ऐसे कमजोर और हीनताबोध से त्रस्त रचनाकारों की सद्कृपा से ही गीत आलोचकीय उपेक्षा का निरंतर शिकार हो गया। अगर इन लोगों को गीत की शक्ति और सामर्थ्य पर भरोसा होता, उसमें निष्ठा होती तो स्थिति दूसरी होती। जो लोग आज भी गीत को कविता मानने या कहने की जिद पाले हुए हैं, उनसे निवेदन है कि कम-से-कम अपने दोगलेपन से गीत को बदनाम तो नहीं करें और गीत की उपेक्षा के लिए गीत-विरोधियों के हाथों में हथियार तो नहीं सौंपें। ऐसा कोई निबंधन तो हुआ नहीं है, जिससे आप गीत लिखने के लिए मजबूर हैं। गीत में आपकी रुचि और आस्था नहीं है तो आप गीत लिखना छोड़ दें और आप गीत लिखने की बजाय कोई और चीज लिखें। गीत लिखना अगर आपकी बेवशी है तो गीत की कद्र करना भी सीखें और अगर ऐसा नहीं कर सकते तो आपलोग चुप रहें। आप चुप रहकर गीत का अधिक भला करेंगे। गीत के लिए यही बेहतर होगा।

जाहिरा तौर पर गीत और कविता में रचना-प्रक्रिया, प्रभाव-संगठक उद्देश्य, प्रभावान्विति, अनुभूति की संरचना, बनावट और बुनावट सभी स्तरों पर भिन्नता है। और तो और गीत तथा सामान्य अर्थ वाली गद्य कविता की अभिव्यक्ति के तरीके, रूपाकार और पाठ-प्रक्रिया भी अलहदा हैं। इस बात को हिंदी के तमाम संवेदनशील आलोचकों ने स्वीकार किया है तथा दोनों विधाओं को एक मानने वालों की भर्त्सना की है। दरअसल एक गीत की संरचना में एक ही विचार, भाव या अनुभूति की चरितार्थता होती है। आकारगत संक्षिप्तता गीत-रचना की अनिवार्य और बुनियादी शर्त होती है। अतएव विधा के रूप में गीत-रचना की मुख्य विशेषता यह है कि यहाँ किसी अनुभूति या भाव के विस्तारपूर्ण विवरण या विश्लेषण की गुंजाइश नहीं होती। न यहाँ उन स्थितियों और पात्रों के नाट्यात्मक चित्रण हो सकता है, जिनसे जुड़कर वह अनुभूति या भाव वास्तविक जीवन में विकसित हुआ है। गीत का आकार इतना छोटा होता है कि यहाँ अनुभव के केवल सारतत्व को ही व्यक्त किया जा सकता है और वह भी ध्वनि, लय, बिंब, प्रतीक और संगीतात्मकता का सहारा लेते हुए ऐसे तरल रूप में कि पाठक या श्रोता सहज रूप में और तत्काल ग्रहण कर सके, वह उनकी स्मृति में सहजता से दर्ज और उनके होंठों पर आसानी से विराजमान हो सके। इसीलिए गीत का ताल्लुक संगीत से बहुत ही घनिष्ट रहा है। आजकल गीत के रूपाकार की रचना में भी संगीत के टेक, अंतरा और बंद का आधार लिया गया है। गीत में शब्द-योजना कुछ इस प्रकार की होती है कि यहाँ जो कुछ कहा जा रहा है वह हमारे मन में देर तक गूँज पैदा करता रहे। जीवन-परिस्थितियों और वस्तुगत स्थितियों के प्रत्यक्ष प्रस्तुतिकरण और भावों के विस्तारपूर्ण विश्लेषण के अभाव के कारण कभी-कभी लोग यह मानने की भूल कर बैठते हैं कि गीत सामाजिक जीवन की तमाम जटिल अनुभूतियों को समग्रता में व्यक्त करने में सक्षम नहीं होता, जो वस्तुगत वास्तविकता नहीं है। अच्छे और प्रभावशाली गीत, हर हाल में, सामाजिक अनुभव का प्रतिनिधित्व करते हैं। रामविलास शर्मा भी मानते हैं कि गीत का संबंध समाज से अत्यंत प्रगाढ़ है। गीत में सामाजिक अनुभव भी वैयक्तिक अनुभव के साँचे में ढलकर व्यक्त होता है जिससे उसके आत्मपरक और व्यक्तिनिष्ठ होने का भ्रम उत्पन्न होता है। गीतकार अंततः सामाजिक अनुभव को विचारों और संवेदना की खराद पर तराश कर फिर समाज को ही लौटा देता है। यही गीत की रचना-प्रक्रिया का सार है।

संकीर्ण और मनोगतवादी ढंग से दृष्टिपात करने पर गीत सर्वथा आत्मपरक और अंतर्मुखी काव्य दृष्टिगत होता है। श्रेष्ठ गीत सामाजिक स्थितियों, जीवन-संघर्षों और मुक्ति-संघर्षों को व्यक्त करने के मार्ग में रुकावट पैदा नहीं करते, बल्कि उससे रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त करते हैं। ‘वाद, विवाद और संवाद’ में नामवर सिंह भी मानते हैं कि समाज को बदलने में गीत क्रांतिकारी भूमिका निभाता है। प्रश्न है कि जिस रचना का ताल्लुक समाज और सामाजिक चेतना से नहीं होगा और जो नितांत आत्मपरक और अंतर्मुखी होगा, वह सामाजिक परिवर्तन का हिस्सेदार कैसे हो सकता है? हकीकत तो यह है कि गीत ही नहीं, साहित्य की अन्य तमाम विधाओं या कला रूपों में यह क्षमता नहीं है कि सब मिलकर भी समस्त मानव जीवन की समग्र जटिल अनुभूतियों को संपूर्णता में अभिव्यक्त कर सके। मानव जीवन इतना विराट, वैविध्यपूर्ण, संश्लिष्ट, विकासशील और गतिशील है कि जब तक कोई अनुभव का साहित्य और कला का अनुभव बनने में कामयाब होता है यानी उनमें व्यक्त हो पाता है, तब तक समाज काफी आगे बढ़ चुका होता है तथा नये-नये अनुभवों का सृजन कर चुका होता है। तात्पर्य है कि साहित्य की सभी विधाएँ तथा समस्त कला-रूप एक साथ मिलकर भी संपूर्ण मानव जीवन को समग्रता में व्यक्त करने का दावा प्रस्तुत नहीं कर सकते।

रूपाकार की दृष्टि से गीत पर विचार करने पर बड़े ही दिलचस्प निष्कर्ष हमारे सामने आते हैं। अपभ्रंश काल से लेकर भक्तिकाल तक गीत-रचना अधिकांशतः पद और भजन शैली में ही होती रही है और तब सामाजिक अनुभव भी भक्ति और शृंगार की चाशनी लपेटकर व्यक्त हो रहे थे। लेकिन अपभ्रंश काल के श्रेष्ठ कवि विद्यापति के कई गीतों में, खासकर मैथिली गीतों में; टेक, अंतरा और बंद वाले रूपाकार का अनुधावन किया गया है। विषय-वस्तु के आधार पर आधुनिक काल के अधिकांश गीतों की रचना के मूलभूत आधार यही तीन अव्यव हैं। इन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। गीत-रचना के आरंभिक भाग या बंद में भाव या अनुभूति का परिचय होता है और अंतिम भाग में रचनात्मक उद्देश्य या निष्कर्ष की अभिव्यक्ति होती है एवं मध्य में अवस्थित बंदों में उद्दीप्त भाव-स्थिति का विवरण होता है, इसलिए बीच के बंदों की संख्या भाव-शृंखला की लंबाई पर निर्भर होती है, इसकी संख्या बढ़-घट सकती है जो रचनाकार की क्षमता पर निर्भर है।

हिंदी साहित्यकोश के अनुसार गीत रचना का आरंभ अनुभूति या भाव के जाग्रत करने वाली प्रेरणा से होता है, जो किसी संबोधन के रूप में, भावप्रेरक परिस्थिति-विशेष के संकेत के रूप में अथवा भावोत्तेजना देनेवाले विचार, स्मरण आदि के कथन रूप में व्यक्त होता है। यह अंश अत्यंत संक्षिप्त होता है और उसमें स्वतः बौद्धिकता या तर्कवृत्ति नहीं होती, यद्यपि वहाँ बोधवृत्ति का आधार अवश्य होता है। गीत के प्रथम अंश में प्रेरक परिस्थिति, विचार, स्मृति, प्राकृतिक दृश्य के संकेत आदि के द्वारा रचनाकार एक कुतूहल सा जगा देता है। गीत के दूसरे अंश में उद्दीप्त भाव विकसित होता है, जबकि बोधवृत्ति और तर्क की सहायता से भाव की तीव्रता को आवश्यकतानुसार अत्यधिक समृद्धि दी जाती है। गीत के अंतिम अंश में या चरम बिंदु पर पहुँच कर गीत का भाव, किसी विचारधारा, दृष्टिकोण अथवा संकल्प के रूप में परिवर्तित होकर मन की सामान्य स्थिति में विलीन हो जाता है। इन्हीं कारणों से गीत को स्वतःस्फूर्त और प्रसंगनिरपेक्ष स्फुट रचना माना जाता है। मौजूदा दौर के गीतों ने, खासकर नवगीत, जनगीत या जनवादी गीतों और समकालीन गीतों ने हिंदी साहित्यकोश की इस अवधारणा को सिर के बल खड़ा कर दिया है, जिससे उनके सामाजिक सरोकार में वृद्धि हुई है। नतीजतन सांप्रतिक गीत पूर्णतः आत्मपरक और अंतर्मुखी काव्य नहीं रह गए हैं। ये वस्तुपरक और यथार्थोन्मुखी अधिक हो गए हैं। गेयता गीत-रचना का विशेष और जरूरी गुण में शुमार होती है। गीत शब्द की प्राथमिक शर्त और पहचान गेयता ही होती है। सिर्फ पठ्य होने से गीत की स्मरणीयता, सामूहिकता और लोकप्रियता तो विखंडित होती ही है, निष्क्रियता और प्रभावहीनता के तत्व भी उत्पन्न हो जाते हैं तथा कर्तव्यच्युति भी आ जाती है। यह अलग बात है कि गीत की गेयता कोई स्थाई तत्व न होकर परिवर्तनशील तत्व होती है, यह बेहद लचीली होती है। गेयता को अनुशासित करने के लिए उसकी लय और छंदों में एक संहति होती है। गीत-रचना की असल वस्तुस्थिति यही है। जो लोग गीत की इस खासियत की अवहेलना करते हैं, वे वास्तविक गीतकार नहीं होते। वे वस्तुतः अपनी प्रयोगधर्मिता की वजह से गीत और कविता की संधिरेखा पर खड़े नजर आते हैं।

गीत तत्वतः सामाजिक होता है और गीत में सामाजिक जीवन, जीवन-स्थितियों और जीवन-संघर्षों की सार्थक अभिव्यक्ति होती है। गीत में भी साहित्य की अन्य विधाओं के मानिंद ही संपूर्ण मानव जीवन, उसके अंतर्विरोध और जीवन-संघर्ष की समग्रता में अभिव्यक्ति होती है। जाहिर है कि गीत मूल स्वभाव में न तो केवल आत्मपरक होता है और न नितांत अंतर्मुखी ही। कुछ गीत आत्मपरक और अंतर्मुखी भी हो सकते हैं। रूमानी और आध्यात्मिक चेतना वाले गीतों में यह प्रवृत्ति अधिक दृष्टिगोचर होती है। लेकिन यही एक मात्र सभी गीतों की रचना-प्रवृत्ति, प्रकृति और नियति नहीं है। कई समझदार आलोचक भी मुगालते के वशीभूत होकर गीत को आज भी केवल आत्मपरक और अंतर्मुखी काव्य मानने की जिद पाले हुए हैं। ध्यान से देखें तो गीत को जितना गुमराह अपनी नासमझी और अज्ञानता को ढँकने के लिए नादान गीतकारों ने किया है, उससे जौ भर भी कम गुनाह आलोचकों ने नहीं किया है। नतीजतन गीत जन-संवाद और जन-संपर्क का सर्वाधिक कारगर और पुरअसर अभिव्यक्ति माध्यम होने के बावजूद गंभीर साहित्य-चिंतन से बहिष्कृत ही रहा है। इसे उचित मान-सम्मान आज तक हासिल नहीं हो सका। जबकि सामान्य जनता अपने सारे सुख-दुख, हर्ष-विषाद, उत्साह उमंग, खुशी और उल्लास, जय-पराजय और संघर्षोन्मुखी चेतना की अभिव्यक्ति गीत के जरिये ही सदियों से करती रही है और आज भी करती है। प्रायः सभी सामूहिक कार्यों, श्रम-व्यापारों, संस्कारों और पर्व-त्योहारों आदि के अवसरों पर तन्मय होकर गीत ही गाने का चलन सामान्य जन-जीवन में इस उपभोक्तावादी और आपाधापी के युग और माहौल में भी मौजूद है। चूँकि गीत का रूपाकार अत्यंत संक्षिप्त और अभिव्यक्ति प्रांजल एवं बनावट और बुनावट अत्यंत ही गज्झिन होती है, अर्थ-निर्माण की प्रक्रिया नितांत सहज और सुगम होती है, इसलिए गीत में समग्रता का बोध कविता के अन्य रूपों की तुलना में अधिक होता है। मतलब साफ है कि सहजता, सुगमता, लोकप्रियता, सामूहिकता, सामाजिकता और संगीतात्मकता का निषेध करके गीत जिंदा नहीं रह सकता। अतएव आजकल जो लोग गीत की गेयता को संदेह की दृष्टि से देखते हैं या उसे गीत-रचना के जरूरी अव्यव नहीं मानते हैं, वे परोक्ष रूप से गीत के जीवन को क्षणभंगुर और अलोकप्रिय बना देने के लिए जिम्मेदार होंगे। ये लोग अनजाने में गीत को भी कविता की तरह ही व्यापक जन-समुदाय से विलग कर कुछ सीमित व्यक्तियों तक सीमित कर देना चाहते हैं, उसे वैचारिक उत्तेजना पैदा करने वाली नितांत बौद्धिक रचना बना देना चाहते हैं।

जगजाहिर है कि गीत की पुकार का मर्म वही समझ सकता है जो उसकी आत्मपरकता में अंतर्निहित मानवीयता की आवाज सुन पाता है, क्योंकि गीत में व्यक्त ‘मैं’ भी वस्तुतः सामाजिक ‘हम’ का ही प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए गीत में व्यक्ति से समाज का और समाज से व्यक्ति का ऐतिहासिक संबंध व्यक्त होता है। इसके संक्षिप्त रूपाकार में असीम व्यंजना होती है जिसे समझे बगैर गीत के साथ न्यायसंगत बर्ताव नहीं हो सकता। थियोडोर अडोनों के अनुसार उदात्त गीत वे होते हैं जिसमें कवि अपनी भाषा में खुद को इस तरह विलीन कर देता है कि उसकी उपस्थिति का आभास तक नहीं होने देता और भाषा का अपना स्वर पूरी संरचना में गूँजने लगता है। सच्चे और अच्छे लोकगीत व जनगीत की यही बुनियादी पहचान होती है। इन दोनों में विभेद के तत्व बहुत कम होते हैं, केवल सामाजिक सरोकार, जीवन-दृष्टि और रचनात्मक उद्देश्य में ही फर्क होता है। यद्यपि प्रक्रिया दोनों की एक समान ही होती है, परंतु वैचारिक अंतर्वस्तु के धरातल पर ही लोकगीत और जनगीत में केवल भिन्नता होती है।

ऊपर कहा जा चुका है कि आदिम वर्गविहीन मानव-समाज में कविता का उदय सामूहिक श्रम-प्रक्रिया के दौरान सामूहिक श्रम-शक्ति को संघटित करने और श्रम-परिहार के लिए समूह गीत के रूप में हुआ है। कालांतर में, अपने स्वाभाविक विकास-क्रम में, मानव-समाज शिष्ट (मार्ग) और सामान्य (लोक) के रूप में विभाजित हो गया। इस विभाजन के फलस्वरूप ही आदिम समूह गीत भी शिष्ट साहित्य के गीत और लोकगीत की दो श्रेणियों में विभाजित हो गया। ध्यातव्य है कि लोक और जन समानार्थक या पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। लोक के अंतर्गत प्रतिक्रियावादी, प्रतिगामी और प्रगतिशील, हर प्रकार के विचार वाले लोग शामिल होते हैं, जबकि जनपक्षधर, प्रगतिशील समाज के सबसे अग्रगामी विचार और संघर्षधर्मी लोग ही जन के अंतर्गत शरीक होते हैं। बर्तोल्त ब्रेख्त मानते हैं, सत्ताधारी वर्ग और उसके हिमायती लोग जन को भी लोक बनाकर ही रखना चाहते हैं। इसी में उनका हित अंतर्निहित होता है। यह विभ्रम जितना अधिक घनीभूत होता है, उनका हित साधन भी उतनी ही सुगमता से संपन्न होता है।

नामवर सिंह की एक वस्तुपरक निष्पत्ति है कि ‘आदिम साहित्य’ सामान्य जन के उस युग का साहित्य है, जब मानव समाज का संघटन अत्यंत घनिष्ट और उच्च कोटि की पारस्परिक सहकारिता पर आधारित था, नगर और गाँव का विभाजन न था; समाज का शिष्ट और सामान्य व्यक्तियों में विभाजन न था अथवा था भी तो यह विभाजन बहुत तीव्र न था। रुचिभेद भी इतने बड़े पैमाने पर न था। यद्यपि आधुनिक युग ने वर्तमान आदिवासी जातियों को बहुत कुछ प्रभावित कर दिया है, फिर भी उनके साहित्य से ‘आदिम साहित्य’ का अनुमान किया जा सकता है। परंतु ‘लोक-साहित्य’ इसके बाद वाले युग का साहित्य है जिसमें शिष्ट और सामान्य का भेद स्पष्ट और क्रमशः स्पष्टतर होता गया। ‘लोक-साहित्य’ शब्द से ही उसके समानांतर ‘शिष्ट-साहित्य’ का आभास मिलता है। ‘लोक-साहित्य’ आदिम साहित्य की अपेक्षा अधिक विकसित समाज की उपज है। फिर भी ‘लोक-साहित्य’ ने ‘आदिम-समाज’ की विरासत सँभाली। (इतिहास और आलोचना दृष्टि, पृष्ठ-126)

आगे नामवर सिंह ने बड़े ही संक्षिप्त, किंतु तार्किक ढंग से ‘लोक-साहित्य’ और ‘जन-साहित्य’ के अंतस्संबंध और विलगाव की समस्या को सूत्रित करके उजागर किया है। उनके अनुसार ‘जन-साहित्य’ औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न समाज-व्यवस्था की भूमिका में प्रवेश करने वाले सामान्य जन का साहित्य है। ‘जन-साहित्य’ ‘लोक-साहित्य’ से इसी अर्थ में भिन्न है कि लोक साहित्य जहाँ जनता के द्वारा जनता के लिए रचित साहित्य है वहाँ जन साहित्य जनता के लिए विशेष व्यक्ति द्वारा रचित साहित्य है।’ एक व्यक्ति द्वारा रचे हुए साहित्य का मतलब यह कदापि नहीं है, उसकी चेतना भी व्यक्तिनिष्ट होती है। जाहिर है कि सब साहित्य जन-साहित्य का दर्जा नहीं प्राप्त कर लेता। जन-साहित्य जनपक्षधर और व्यापक जन-जीवन को समृद्धि देने वाला या हितचिंतक साहित्य होता है। हालाँकि लोकगीत और जनगीत होने की प्रक्रिया समान होने के बाद भी इनकी रचना-दृष्टि और जीवन-दृष्टि में गुणात्मक अंतर है।

‘लोक-साहित्य’ जनता द्वारा रचित होता है, इसका यह अर्थ नहीं है कि सारा जन-समूह एक साथ बैठकर एक-एक शब्द और एक-एक पंक्ति को गढ़ता है। लोक साहित्य भी विशेष व्यक्ति द्वारा ही रचित साहित्य होता है, उसकी रुचि और संवेदना व्यापक जन-समूह की रुचि और संवेदना का सर्वाधिक विश्वसनीय प्रतिनिधि होता है, उसकी रुचि और संवेदना व्यापक जन-समूह की रुचि और संवेदना आपस में इतनी घुली-मिली या एकरूप होती है कि वह लोक-समाज की भावराशि और सामूहिक संवेग की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक प्रमाणिक ढंग से प्रतिनिधित्व करती है।

यहाँ यह तथ्य भी विशेष रूप से गौरतलब है कि कोई रचना जिस समय रची जाती है उस समय न तो वह लोकगीत होती है और न ही जनगीत। अगर किसी रचना में मानव जीवन की सामान्य समस्याओं से साक्षात्कार सामान्य ढंग से ही किया जाता है। कालांतर में, वही रचना अगर मानव समुदाय की संवेदना का अविभाज्य अंग बन जाती है, उनकी स्मृतियों में रच-बस जाती है, उसकी जीवन-दृष्टि भी सामान्य मनुष्यों की जीवन-दृष्टि के अनुरूप होती है, तब वह लोकगीत बनने की कगार पर पहुँच जाती है। उनके सुख-दुख, हर्ष-विषाद, आँसू-मुस्कान और जय-पराजय की सामूहिक भावना का प्रतिनिधित्व करने लगता है, उनके संस्कार और व्यवहार में शामिल हो जाता है तो वह गीत लोकगीत में तब्दील हो जाता है। लोकगीत की रचना प्रायः लोकभाषा, लोक संगीत, लोक धुनों, लोक शब्दावलियों एवं लोक मुहावरे या कहावतों का सहारा लेकर की जाती है, जबकि जनगीत की काव्य-भाषा संघर्षशील जन सामान्य की आम बोल-चाल की सामान्य भाषा का अनुधावन करती है। यह लोकभाषा भी हो सकती है। इससे जनगीत कोई विशेष परहेज नहीं है, बल्कि लोकभाषा के संपर्क और संबंध से जनभाषा में एक नई चमक, ताजगी और अर्थवत्ता का समावेश हो जाता है। लोकगीत के रस से सिक्त होकर कोई गीत जब नई चेतना और संघर्षधर्मी चेतना से लैस हो जाता है तो उसमें नई प्राणवायु का संचार हो जाता है और इस नई ताजगी या विशेषता की वजह से वह गीत अधिक प्रभावशाली और क्रियाशील हो जाता है। ध्यान देने योग्य शर्त यह भी है कि अच्छे लोकगीत या जनगीत कला-चेतना का बहिष्कार नहीं करते, उसमें कला के तत्वों का समाहार होता है। इनके बिंब, प्रतीक और संकेत (अर्थ-व्यंजना) का समानुपातिक समन्वय और सामंजस्य इसके लिए बिल्कुल लाजमी होता है, ऐसा नहीं होने पर लोकगीत हो या जनगीत वह इकहरा, निष्प्राण और प्रभावहीन हो जाता है। वह रचना नहीं सिर्फ विचारों और निष्प्राण नारेबाजी का जखीरा भर होती है। बिल्कुल ही प्रभावहीन और असंवेदनशील। ऐसे गीत चाहे लोक शिल्प में रचे जाएँ या जनपक्षधर चेतना के समर्थक हों; वे होंगे निर्जीव और अकारथ ही। ऐसे गीत व्यापक जन-जीवन की संवेदना में हरगिज नहीं घुल-मिल सकते।

यहाँ विचारणीय तथ्य यह भी है कि जब तक कोई भी जनपक्षधर गीत रचना या कविता जन-संवेदना का आविभाज्य अंग नहीं बन जाता, उनकी स्मृतियों में स्थाई रूप से अंकित नहीं हो जाता तथा अवसर आने पर संघर्षशील आम जनता के होंठों से अनायास ही नहीं फूटने लगता, जब तक उसे जनवादी गीत या कविता तो माना जा सकता है, वह जनगीत या जनकविता के दायरे से कोसों दूर ही रहेगा। इस लिहाज से आज के तथाकथित जनकवि या जनगीतकार जनवादी कवि या गीतकार तो हो सकते हैं, जनकवि या जनगीतकार कहलाने के हकदार हरगिज नहीं हो सकते।

आश्चर्यजनक है कि साहित्याभिव्यक्ति का प्राचीनतम रूप होने के बावजूद गीत को कभी स्वतंत्र काव्य-विधा का दर्जा नहीं दिया गया, प्रत्युत सभी श्रेष्ठ गीतकारों की महत्वपूर्ण उपलब्यिों को भी कविता के विराट् परिसर में समेट लिया गया। सर्वविदित है कि अपभ्रंश के कवि विद्यापति, भक्तिकालीन सूरदास, कबीरदास, मीराबाई तथा छायावादी महादेवी वर्मा की 90 प्रतिशत रचनाएँ शुद्ध गीत ही हैं, जिन्हें नजरों से ओझल करके हिंदी साहित्य का सम्यक और समेकित इतिहास लिखना सर्वथा असंभव था; फिर भी इन्हें गीतकार नहीं, वरन् कवि मानकर अपना काम चला लिया गया। और, इन गीतकारों की ओर से इस दिशा में कभी इस कार्यवाही का प्रतिवाद नहीं किया गया। पुराने जमाने में गीत और कविता का विवाद या तो था नहीं और अगर था भी तो इतना अधिक शत्रुतापूर्ण नहीं था। आलोचना के साजिशपूर्ण रवैये के कारण ही प्राय: सभी गीतकार अपना महत्व आकलित होते हुए देखकर ही आत्म संतुष्ट हो गए। वस्तुत: इनकी इस हरकत से उनके मन-मस्तिष्क में गीत के प्रति अपेक्षित निष्ठा और वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव भी उद्भाषित होता है।

कविता से अलग एक स्वतंत्र, स्वावलंबी और स्वायत काव्य-विधा की, परंपरागत विरासत से जोड़ते हुए, पहली बार संगठित माँग परिस्थितिवश सन् 1964 ई. में ‘कविता’ पत्रिका के ‘नवगीत का प्रथम समवेत संकलन’ के रूप में प्रकाशित नवगीत विशेषांक के जरिये ओम प्रभाकर और भगीरथ भार्गव द्वारा संपादित और प्रकाशित अंक के माध्यम से ही मुमकिन हुआ जिससे नई कविता के पैरोकारों की कुंभकरणी नींद में खलल पड़ गई। फलतः गीत को गंभीर रचना-कर्म न मानने और उस दौर में लिखे जा रहे सभी गीतों (नवगीतों) को पचनौल की गोली खाकर कविता की मंदाग्निग्रस्त उदर में पचा लेने की साजिश का शंखनाद कर दिया गया। यह नेक काम भी प्रयोगवाद और नई कविता के प्रवक्ता कवि अज्ञेय के द्वारा गीत को कविता न मानने की मनुष्यविरोधी जिद की वजह से ही मुमकिन हुआ। दरअसल ‘कविता-64’ में ही अज्ञेय का वह प्रसिद्ध पत्र प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने लिखा था कि ‘नई कविता और नवगीत, इस प्रकार के नामों से तो एक कृत्रिम विभाजन ही आगे बढ़ेगा और नई कविता की विभिन्न प्रवृत्तियों को समझने में बाधा ही अधिक होगी।’ अज्ञेय की इस कुत्सित अभ्युक्ति का सकारात्मक जवाब देते हुए मुक्तिबोध ने स्पष्ट रूप से कहा कि ‘मनुष्य जीवन का कोई अंग ऐसा नहीं, जो साहित्याभिक्ति के लिए अनुपयुक्त हो। जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि एक शैली को दूसरी विशेष शैली के विरुद्ध स्थापित करती है। गीत का नई कविता से विरोध नहीं है और न नई कविता को उसके विरुद्ध अपने को स्थापित करना चाहिए।’ हालाँकि मुक्तिबोध अपने इस सकारात्मक अभिकथन में भी गीत को एक विधा नहीं, वरन् एक शैली मात्र ही मानते दिखाई देते हैं। अज्ञेय का साहित्यिक व्यक्तित्व इतना दबंग था कि बिल्कुल वैज्ञानिक, समयसापेक्ष, तर्कसंगत और वस्तुपरक होते हुए भी मुक्तिबोध की क्षीण आवाज कविता के कानफाड़ू कोलाहल में तूती की आवाज बन खो गई। अज्ञेय के सभी समर्थ चमचों ने सत्तू बाँध कर अज्ञेय का साथ देने में शामिल हो गए और गीत पर अनावश्यक, अवैज्ञानिक और बेबकूफाना आक्रमण करना शुरू कर दिया। इस विरोध प्रक्रिया के दौरान उन तथाकथित कवियों की भूमिका सर्वोपरि थी जो मूलतः नई कविता के कवि थे, लेकिन कभी-कभार शौकिया गीत भी लिख लेते थे। ये लोग अज्ञेय को केवल मानसिक समर्थन ही नहीं दिए, अपितु गीत के मूल्यांकन के मनगढ़ंत मानदंड भी प्रस्तुत करने में होड़ करने लगे। इन छद्म गीतकारों ने मुक्तिबोध की इस चेतावनी को भी नजरअंदाज कर दिया कि ‘काव्य की रचना-प्रक्रिया के अंतर्गत तत्व-बुद्धि, भावना, कल्पना आदि एक होते हुए भी प्रभावसंगठक उद्देश्यों की भिन्नता के साथ ही रचना-प्रक्रिया भी, वस्तुतः बदल जाती है। गेय-काव्य (लिरिकल पोएट्री) की रचना-प्रक्रिया उस कविता की रचना-प्रक्रिया से बिल्कुल भिन्न है, जो मन के किसी प्रतिक्रिया मात्र का रेखांकन करती है।’ यहाँ मुक्तिबोध भी गीत को गीत नहीं वरन् लिरिकल पोएट्री कहते दिखाई देते हैं। यह भी एक प्रकार से अज्ञेय के विचारों का दबी जुबान से समर्थन ही था।

अपनी ठकुरसुहाती के जोश में अज्ञेय के नये रंगरूट सिपाहसालार गीत के खिलाफ अजीबोगरीब फर्मान और मनगढ़ंत प्रतिमान प्रस्तुत करने की होड़ करने लग गए। दूसरे सप्तक में शामिल गीतकार-कवि गिरिजा कुमार माथुर ने लिखा कि ‘गीत की आलोचनात्मक कसौटी कविता मात्र की आलोचनात्मक कसौटी से अलग नहीं होती। अतः वे लोग जो गीत को नई कविता से भिन्न कोई नई वस्तु मानते हैं, वे कविता के विकास को संकुचित दृष्टि से देखते हैं।’ इसको कहते हैं, उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे। यह आलोचनात्मक चमचागिरी का बेहतरीन नमूना है। अज्ञेय के दूसरे सिपाहसलार ठाकुर प्रसाद सिंह ने अपनी गुरु-दक्षिणा यह कहकर चुकाने का प्रयास किया और अपने गीतों के मुतअल्लिक कहा कि ‘आरंभ में थोड़े-से नये शब्दों या बिंबों की पूँजी पर खड़ी हुई इस नई चेतना से बहुत जल्दी ही नई मंजिलों को पकड़ लिया है। शब्द प्रयोगों, बिंब-विधानों यानी वातावरण प्रधान विशेषताओं से नई गीत-रचना तेजी से आगे बढ़ी है।’ अभिप्राय है कि ठाकुर प्रसाद सिंह या उनके दौर के गीतों में यानी उसने आरंभिक दौर के नवगीतों में केवल रूप-पक्ष के विकास पर ध्यान दिया, विषय-पक्ष पर नहीं। यह अलग बात है कि साहित्य में ठाकुरवाद के तहत उन्हें नामवर सिंह, शंभुनाथ सिंह, चन्द्रदेव सिंह आदि ने उन्हें नवगीत के शीर्ष पर बिठा दिया। स्पष्ट है कि रूप-पक्ष पर विषय-पक्ष से अधिक जोर देने से रचनाशीलता के पास जीवनानुभव और उनको प्रतिबिंबित करने वाले शब्दों की पूँजी तो अत्यल्प होगी ही, जो उनमें थी। ठाकुर प्रसाद सिंह अपने वक्तव्य में शायद यह जोड़ना भूल गए कि उनके नये गीतों की संवेदना और जीवनानुभव भी दरअसल अत्यल्प ही थे। तय है कि गीत-रचना की नई मंजिलें पा लेने की उनकी घोषणा भी एक खूबसूरत विभ्रम ही था, वास्तविकता से कोसों दूर; क्योंकि उनके पाँव के नीचे तो जमीन ही नहीं थी।

आगे वे अज्ञेय को खुश करने की खातिर घोषित कर देते हैं कि ‘आवश्यकता इस बात की है कि बहुत-सी अछूती और उद्घाटित दिशाओं की ओर प्रयोग किए जाएँ और गीत के प्रचलित ढाँचे को थोड़ा और लचीला बनाया जाय। इस प्रकार गीत का संबंध एक विशेष प्रकार की सहज मानवीय अनुभूतियों से है जिनका बाह्य ढाँचा अभिव्यक्ति की तात्कालिक आवश्यकताओं के अनुसार निर्मित होता है। इस प्रकार बहुत-सी मुक्तछंद वाली कविताएँ सहज ही गीत के अंतर्गत मानी जा सकती है, जबकि बहुत-सी गीत-जैसी दिखाई देने वाली वस्तुतः न गीत होती है, न कविता।’ ठाकुर प्रसाद सिंह इसी श्रेणी के नवगीतकार रहे हैं, उनका एकमात्र गीत-संग्रह ‘वंशी और मादल’ में इसी श्रेणी की गीति-कविताएँ अधिक हैं, जिसकी भूमिका में ठाकुर प्रसाद सिंह कभी उसे गीत मानते हैं, कभी कविता। ऊहापोह उनके मन में भी है। कोई भी रचना जो काव्य के अंतर्गत शुमार है वह किसी-न-किसी विधा की होगी ही। जो रचना न गीत है, न कविता तो आखिर क्या है? क्या गद्य है? नहीं, उसकी संरचना तो काव्यात्मक है। जाहिर है कि इस प्रकार का बेसिर-पैर का, विभ्रम अज्ञेय को खुश करने के लिए ही फैलाया गया है। जो लोग ‘वंशी और मादल’ को गीत-संग्रह मानते हैं उन्हें यह भी सोचना चाहिए उसमें संग्रहित कुछ रचनाओं को खींच-तानकर गीत या नवगीत माना जा सकता है, अधिकांश रचनाओं को कदापि नहीं। वे छोटी कविताएँ, द्विपदी, त्रिपदी, चतुष्पदी या पंचपदी कविता मानी जा सकती हैं, गीत हरगिज नहीं।

गीत की गलत व्याख्या करके उसे कविता से दोयम दर्जे का काव्य मानने वाले तीसरे सप्तक के कवि केदारनाथ सिंह अग्रणी हैं। केदारनाथ सिंह को चन्द्रदेव सिंह ने ‘पाँच जोड़ बाँसुरी’ के चौथे जोड़ का आरंभ-बिंदु माना है। इनका मंतव्य अन्य सभी मंतव्यों से नायाब और विचित्र है। उनके अनुसार ‘गीत कविता का एक अत्यंत निजी स्वर है, जिसमें कवि सारे बाह्य अवरोधों और उसकी असंख्य तहों को भेद कर सीधे अपने आप से बात करता है।… गीत कविता का सबसे मुश्किल माध्यम है। सब कुछ कह लेने के बाद कवि के मन में जो भाषातीत गूँज बच जाती है, गीत की शुरुआत ठीक वहीं से होती है और उसकी सफलता इसी में है वह ‘भाषातीत गूँज’ को भाषा के संपर्क से कम-से-कम विकृत या दूषित किया जाय।’ (पाँच जोड़ बाँसुरी, पृष्ठ-211) केदार जी के इस वक्तव्य के अंतर्विरोधों और विरोधाभासों पर हमारे गीतकार बंधुओं ने भी कभी गौर करने की जहमत नहीं उठायी। कारण दो थे; या तो केदारनाथ सिंह के दबंग व्यक्तित्व का आतंक था अथवा गीतकार लोग तथाकथित बड़े कवियों के आक्रमणों का समुचित उत्तर देने में असमर्थ थे। अगर समर्थ होते तो केदारनाथ सिंह को कान पकड़ कर समझाते कि गीत कविता का एक अत्यंत निजी स्वर होने की बजाय उसका आरंभिक रूप है और कविता गीत का ही अगला विकसित रूप है। यह तो वही बात हुई कि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति का परिचय देते हुए कहे कि यह उस व्यक्ति का पिता नहीं, वरन् विशेष ढंग का प्यारा पुत्र है।

कविता में ‘सब कुछ’ कह लेने के बाद जो भाषातीत गूँज बची रहती है, गीत की शुरुआत वहीं से होती है; ऐसा कहने के दो तात्पर्य हैं (1) गीत कविता लिखने के बाद बचे हुए जूठन से उत्पन्न होता है, अर्थात कविता तो साहित्य की स्वतंत्र विधा है, लेकिन गीत उसका उच्छिष्ट है, इसलिए गीत को स्वतंत्र काव्य विधा का दर्जा नहीं दिया जा सकता, वह हर हाल में कविता की अंतर्वर्ती विधा है। (2) भाषातीत गूँज तो किसी कथन या संगीत की ही हो सकती है, लेकिन जीवनानुभव का संपूर्ण हिस्सा तो कविता व्यक्त कर रही है। गीत अर्थहीन संगीत की ध्वन्यात्मक अभिव्यक्ति मात्र है जो भाषा के संपर्क से विकृत और दूषित हो जाती है। यह अज्ञेय की टिप्पणी का अंधानुकरण नहीं है तो और क्या है।

गीत में कवि अपने आप से ही बात नहीं करता समाज और संसार से भी बात करता है, बल्कि सामाजिक और लोकप्रिय होना गीत रचना की अनिवार्य शर्त है। उसका बाह्य ढाँचा भले ही आत्मपरक अधिक लगे। गीत में व्यक्त ‘मैं’ सामाजिक ‘हम’ का ही प्रतिनिधित्व करता है। अडोर्नो के अनुसार गीत तत्वतः सामाजिक ही होता है। इसी कारण से नवगीत, जनगीत और समकालीन गीत में समय और समाज की समस्याओं से साक्षात्कार और मुठभेड़ करने की प्रवृत्ति आत्मपरक वैयक्तिकता की तुलना में अधिक है। विषय और अनुभूति के धरातल पर गीत और कविता रचना की आधारभूत सामग्री और सामाजिक सरोकार एक ही होते हैं, गीत और कविता में केवल प्रभावसंगठक उद्देश्य, रचना-प्रक्रिया और अनुभूति की संरचना भर बदल जाती है। जाहिर है कि केदारनाथ सिंह गीत के मुतअल्लिक गीतकार के रूप में ख्यात होने के बावजूद उनकी यह उलटबाँसी वस्तुतः अज्ञेय की ठकुरसुहाती या उनके गीत-विरोधी वक्तव्य के समर्थन में ही की गई जान पड़ती है। क्योंकि सन् 1966 में ही ‘आलबाल’ के जरिये अज्ञेय घोषित कर चुके थे कि ‘गीतकारों के गीतों को कविता-4 की धारा में रखने के लिए मुझे कठिनाई होती है। यूँ तो कोई भी कवि गीत लिख सकता है; लेकिन काव्य की धारा में गीत का स्थान गौण ही है। यह भी हो सकता है कि कोई गीत ही गीत लिखे पर उस दशा में मैं उसे कवियों की पंक्ति में न रखकर संगीतकारों के वर्ग या अधिक-से-अधिक संधि-रेखा पर रखूँगा।’ इस नायाब वक्तव्य के आधार पर यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि अज्ञेय को गीत की पहचान तो नहीं ही थी, उन्हें संगीत और संगीतकारों की भी मुकम्मल पहचान नहीं थी और अगर पहचान थी तो सिर्फ किताबी पहचान थी। केदारनाथ सिंह के मन में अज्ञेय की तरफदारी विद्यमान रही है तभी वे गीत की उत्पत्ति का मूल स्रोत ‘कविता लिखने के बाद कवि के मन में बची भाषातीत गूँज’ को मानने का जोखिम उठाते हैं जो सरासर गलत है।

उस दौर के गीत-विरोधी रवैये के मद्देनजर नवगीतकारों ने सबसे अधिक बलात्कार गीत के रूपाकार यानी लय, छंद, टेक, तुक आदि के विधान और विन्यास के साथ ही किया, फिर भी इन कूढ़मगज कवियों और परजीवी आलोचकों की जिद में दरक नहीं आई। नकलनबीसी के चक्कर में नवगीत को न तो गीत जैसा गेय तथा अनुशासनबद्ध और न कविता जैसा बिल्कुल उन्मुक्त ही बनने दिया। यह खतरनाक प्रवृत्ति नवगीत रचना के क्षेत्र में आज भी विद्यमान और बहसतलब बना हुआ है। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि आज के अधिकांश नवगीतकार इसी दृष्टिकोण के हामी हैं। गीत-रचना के छंद, तुक, टेक, लय-संहति आदि आवश्यक कारकों के निषेध की प्रवृत्ति का आरंभ भी ‘पाँच जोड़ बाँसुरी’ और ‘कविता-64’ के दौर में ही हो गया था। चंद्रदेव सिंह ने ‘पाँच जोड़ बाँसुरी’ की भूमिका में ही स्पष्ट तौर पर घोषित कर दिया था कि ‘अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए विधा का उतना महत्व नहीं है जितना कि भीतर की अर्ज-का। इसलिए आज गीत न तुकों पर निर्भर है, न टेक और न किसी बँधी-बँधाई लीक पर। आज का गीतकार मात्र कथ्य और मनःस्थिति के प्रति सतर्क है। उसे यदि तुक और छंद निरर्थक तथा भावाभिव्यक्ति के मार्ग में बाधक लगते हैं तो वह उनके निर्वाह के लिए अपने भावों की हत्या करने का पक्षपाती नहीं है इसलिए आज केवल तुक और टेक के बंधन ही ढीले नहीं हो गए हैं, प्रत्युत गीत से, परंपरागत गेयता तथा संगीतात्मकता के तत्व आवश्यकतानुसार गायब हो गए हैं।’ असल में, सन् 1950 या कहें कि नई कविता के काल में लगभग सभी गीतकार नई कविता से विशेष रूप से जुड़े थे और गीत के मूल्यांकन के मानदंड भी कविता के ही मानदंड थे। परिणामतः अधिकांश गीतकार इसी प्रकार के विभ्रम के शिकार थे। वे गीत और कविता को अलग-अलग विधा नहीं मानते थे या नहीं मानना चाहते थे। उस काल के गीतों यानी नवगीतों को अपने विशाल उदर में पचा लेने को लालायित थे, जिसके कारण इस प्रकार के विचारों के शिकंजे में गीतकार लोग भी आ गए थे। गीत की रचना-प्रक्रिया, प्रभावसंगठक उद्देश्य, अनुभूति की संरचना, लोकप्रियता, ग्रहणशीलता तथा भाव संप्रेषण की पद्धति कविता की पद्धति से अलहदा होती है, जिसे इन तथाकथित गीतकारों ने अपने विचार-पथ से ओझल कर दिया था। इसीलिए ऐसे अधिकतर गीतकार गुमराह तथा पथभ्रष्ट दिखाई देते हैं।

गीत के रचना-कर्म से मैं कब जुड़ा, क्यों जुड़ा और कैसे जुड़ा ठीक-ठीक बतला नहीं सकता। आज मुझे लगता है कि मैं गीत के रचना-कर्म से जुड़ा नहीं, बल्कि गीत ही कुछ जरूरी काम करवाने के लिए मुझसे जुड़ गया और मेरी रचनात्मक प्रतिबद्धता में शामिल हो गया। दरअसल मेरा जन्म बिहार प्रांत के गया (आजकल जहानाबाद) जिला के अंतर्गत केउर गाँव के एक अति साधारण किसान परिवार में हुआ और मेरा लालन-पालन भी नितांत पिछड़े हुए ग्रामीण परिवेश में हुआ। मेरी आरंभिक शिक्षा-दीक्षा (मिडिल तक की शिक्षा-दीक्षा) गाँव के स्कूल में ही हुई। इसलिए गाँव आज भी मेरी नसों में रक्त की तरह प्रवाहित हो रहा है। मैं चाहूँ भी तो गाँव से, ग्रामीण परिवेश और ग्राम्य चेतना से मेरा आत्मिक लगाव समाप्त नहीं हो सकता। गरीबी के कारण बचपन में मैंने वे सारे काम किए जो एक छात्र के लिए मुनासिब नहीं होता। मैंने भैंस चरायी, हल जोते, अपर्याप्त कपड़े न होने के बावजूद कोलसार में पूस-माघ की हाड़ कँपाती ठंडक भरी रात में भी ईख पेरने वाले कल में घानी लगायी। दिन में स्कूल में पढ़ना और रात में इस प्रकार का कठिन परिश्रम करने के बाद भी मेरी अध्ययनशीलता जारी रही।

आर्थिक अभाव में जीना मेरी नियति थी। आर्थिक अभाव के कारण ही मुझे अत्यंत मेधावी और कुशाग्र बुद्धि का छात्र होने के बावजूद अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर ही मुझे अभियंत्रणा में जाना पड़ा। इसके बावजूद गीत के रचना-कर्म की गति में कोई व्यवधान नहीं आया। मेरे परिवार में कम उपजाऊ जमीन होने तथा प्राकृतिक आपदा या अनावृष्टि के कारण पर्याप्त कृषि उत्पादन नहीं होता था जिसके कारण दो जून की रोटी का जुगाड़ साल भर के लिए नहीं हो पाता। घर के मालिक में कुछ बुरी और असामाजिक आदतें थीं, जिसके कारण साल भर के लिए अन्न-पानी की भी घर में भारी कमी रहती थी। बचपन में कई दिन भूखे रहना पड़ा था। नौकरी मिल जाने के बाद भी वेतन न मिलने के कारण कई-कई रातें भूखे रहकर ही गुजारनी पड़ी हैं। भूखे रहने की शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख का तल्ख अहसास मुझे हमेशा होता रहा है, इसलिए यह अनुभव कोई किताबी अनुभव नहीं, प्रत्युत मेरा संवेदनात्मक ज्ञान है। इन सारी परेशानियों से निरंतर जूझने के बाद भी गीत मेरे हृदय से चिपका रहा, जैसे यह मेरी कोई संक्रामक या जीवन भर साथ रहने वाली कोई लाइलाज बीमारी हो। इस दौरान मैं काल्पनिक और क्षयी रोमांस वाला या कहें उत्तर छायावादी गीत ही लिख रहा था जो मेरी मानसिक और संवेदनात्मक विकास के अनुरूप नहीं था, लेकिन मेरी पढ़ाई-लिखाई की यही सीमा थी। मैं नहीं जानता था कि साहित्य का कोई इससे दीगर रूप भी है जो अत्यंत समृद्ध और सामाजिक दृष्टि से अत्यंत ही प्रासंगिक है।

सन् 1967 में मेरी पदस्थापना मुजफ्फरपुर शहर में हो गई थी। जितनी बचत मैं कर सकता था, उनसे साहित्य की किताबें खरीद लेता था। यही मेरा प्रिय मनोरंजन था। किताबें मैं प्राय: रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी के प्रकाशन ‘बेनीपुरी प्रकाशन’ से ही खरीदा करता था। बेनीपुरी जी के सुपुत्र ने यह जानते हुए कि मैं मुक्त छंद की गद्यात्मक कविताओं को देखकर उसी प्रकार बिदक जाता हूँ, जैसे लाल कपड़ा देखकर साँढ़ बिदक जाता है, केदारनाथ अग्रवाल का सद्यः प्रकाशित कविता-संग्रह ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ की प्रति यह कहकर दी कि इसे ले जाइए, मन दबाकर पढ़िएगा और नापसंद होने की अवस्था में कल वापस कर दीजिएगा। मैं उनके आत्मीय आग्रह को टाल नहीं सका। घर लाकर उनके निर्देशानुसार पुस्तक को मैंने बेमन से ही सही पढ़ना शुरू कर दिया तो उसमें रम गया। इतना रमा कि मेरा कायाकल्प ही हो गया। मैं अब ढूँढ़-ढूँढ़ कर मुक्त छंद की कविताओं तथा कविता पर प्रकाशित आलोचना की पुस्तकें पढ़ने लगा जिससे आधुनिक कविता और आधुनिक संवेदना की बारीकियों से शनैः-शनैः परिचति होने लगा। यह मेरे रचनात्मक जीवन का अत्यंत ही महत्वपूर्ण टर्निंग प्वांट साबित हुआ, जिससे मेरे गीतों में भी गुणात्मक परिवर्तन आने लगा। नतीजतन मैं अनजाने में ही नवगीत की रचनाशीलता से जुड़ गया।

विभाग में मेरा बार-बार स्थानांतरण होता रहता था, जिसकी वजह से तीन वर्षों मैं स्थानांतरित होकर क्रमश: पूर्णिया, भागलपुर तथा मुंगेर में सन् 1971 में चला आया। वहाँ मेरी जिज्ञासावश भरत प्रसाद सागर, महेश्वर, छंदराज आदि से भेंट हुई और एक चाय की दुकान पर रोज शाम को बैठकी और गंभीर साहित्य-चर्चा भी होने लगी। इसी दरमियान मेरी मुलाकात प्राध्यापक-आलोचक पांडेय शशिभूषण ‘शीतांशु’ से करायी गई। शीतांशु जी ने यह जानकर कि मैं नवगीत रचना के प्रति प्रतिबद्ध हूँ, उन्होंने कहा कि क्या मरे हुए घोड़े को पीट-पीटकर दौड़ाने का मिथ्या प्रयास कर रहे हैं, अभी युवा कविता (नई कविता) का दौर है, आप इससे जुड़िए, इसमें स्कोप है और आपमें संभावना भी है। लेकिन शीतांशु जी की चुनौती ने मेरी जिद में घी डालने का काम किया। मैं नवगीत रचना से पूरी निष्ठा जुड़ गया तथा नवगीत के विकास और प्रचार-प्रसार के लिए नवगीत से आद्यंत प्रतिबद्ध पत्रिका ‘अंतराल’ के प्रकाशन और संपादन के जोखिम भरे काम को अपने सिर ले लिया। सन् 1972 के आरंभ में ही मेरा तबादला पटना में हो गया। इसी दौरान मैं एक मुहल्ले में रहने के कारण कवि मित्र जितेन्द्र राठौर के साथ कॉफी हाउस जाने लगा, जहाँ अपने समय के अत्यंत प्रखर जनवादी कवि कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह से मेरी भेंट हुई। कुमारेन्द्र मुझे पहले व्यक्ति मिले जिन्होंने गीत या नवगीत की भर्त्सना नहीं की, बल्कि उसके वैज्ञानिक मूल्यांकन के जरिये मेरी रचनाशीलता में निखार लाने के लिए कुछ सूत्रबद्ध सुझाव दिए। कॉफी हाउस का वातावरण बिल्कुल साहित्यिक होता था। कॉफी हाउस में ही नागार्जुन, अज्ञेय, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, अरुण कमल, ज्ञाणेन्द्रपति, आलोकधन्वा, चन्द्रभूषण तिवारी, रामनिहाल गुंजन, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कुँवरनाराण, श्रीराम तिवारी, मधुकर सिंह, मदन कश्यप, गोपेश्वर सिंह आदि साहित्यकारों से मिलने का सौभाग्य भी मिला। राणाप्रताप से भी मेरी पहली भेंट कॉफी हाउस में ही हुई थी। रविभूषण से मेरी मुलाकात भरत प्रसाद सागर के सौजन्य से सन् 1971 भागलपुर में ही हो गई थी, जो आज तक बरकरार है। कर्मेन्दु शिशिर और आलोकधन्वा से मेरी भेंट मुंगेर में ही हो गई थी। कॉफी हाउस में साहित्य की तमाम विधाओं पर गरमागरम बहस होती थी, जिससे मेरी मानस भूमि का निरंतर विकास हो रहा था, जिसका सकारात्मक प्रभाव उस दौर के मेरे नवगीतों की भाषा, शिल्प, मुहावरे और वैचारिक अंतर्वस्तु के विकास पर पड़ा। अपने समव्यस्कों के गीतों की बनावट, बुनावट और विषय-वस्तु के धरातल पर अपने अन्य समव्यस्कों के बनिस्बत मेरे नवगीतों में परिलक्षित होने वाली भिन्नता इसी की वजह से आई। मार्क्सवाद की ओर मैं कुमारेन्द्र जी के वैज्ञानिक और क्रांतिकारी विचारों की प्रेरणा से मुखातिब हुआ। मित्रों की सलाह से मैंने अपने चुने हुए 47 नवगीतों का पहला संग्रह ‘आदमकद खबरें’ सन् 1973 ई. में प्रकाशित करवा कर वितरित कराया। इस पुस्तक को पाठकों ने हाथों-हाथ लिया और उसकी पर्याप्त चर्चा भी हुई। लेकिन केवल चर्चा ही नहीं हुई, मेरे ऊपर तरह-तरह के लांछन भी लगे। लांछनों से मेरा चोली-दामन का संबंध रहा है, इसलिए मुझे साहित्य में जो थोड़ी-सी जगह प्राप्त हुई है, उसे पाने में काफी संघर्ष करना पड़ा है और इस संघर्ष के ज्वाला में ही तपकर मैं अपना छोटा-सा मुकाम हासिल कर सका हूँ।

समकालीन गीत अपने समय और समाज के आभासी यथार्थ को दिखाने का जोखिम भी उठाता है, बल्कि उसके सारतत्व तक ले जाकर मानवीय संवेदना का विस्तार करता है। यह आवाज पारदर्शी और सुगम होती है। इसके अर्थ-निर्माण की प्रक्रिया अत्यंत जटिल नहीं होती अपितु सहज होती है। यह आवाज केवल आभिजात्य और शिष्ट व्यक्तियों तथा शहरों और महानगरों तक सीमित नहीं होती। ये आवाजें वर्ग, जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र एवं किसी खास राजनीतिक पार्टी विशेष का झंडा ढोने वाली और खोखली नारेबाजी करने के स्थान पर समाज को यथास्थितिवाद के बंद घेरे से निकल कर अधिक मानवीय समाज बनाने के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देती हैं। यह किसी पोखर या झील का बंद पानी नहीं होती, समुद्र की तरह गहरी और निस्सीम तथा झरने के पानी की तरह गतिशील होती है। लोकचेतना के साथ-साथ वैज्ञानिक विकास के साथ समन्वय और सामंजस्य बिठाकर चलने में अपनी भलाई समझती है। तात्पर्य है कि मौजूदा दौर की ऊपरी आवाजों को सुनकर उसी में खो नहीं जाती हैं, अपितु उसके वास्तविक जड़ तक पहुँचकर जनता की असली और परिवर्तकामी अवाज बन जाती है।


Image: A 19th century strolling singer musician playing Tingadee instrument, Madras
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नचिकेता द्वारा भी